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के सम्बन्ध में द्विविधा हो जाती है। इसका समाधान करते हैं कि विद्य ुल्लोक में जो आतिवाहिक दिव्य पुरुष मिलता है वही ऊपर वरुणलोक में पहुँचाता है इस प्रकार प्रत्येक लोक में भगवत्सेवक दिव्य आतिवाहिक पुरुष विद्यमान हैं जो कि उपासकों को पहुँचाने के लिए नियुक्त रहते हैं ये भक्तों को वैकुण्ठ ले जाते हैं तथा ज्ञानी को अक्षर बह्म को प्राप्त कराते हैं ।
तृतीय अधिकरण
" स एतान् ब्रह्म गमयति" इत्यादि वाक्य में जो ब्रह्म को प्राप्त कराने की बात कही गई है बह अविकृत परब्रह्म के सम्बन्ध की है अथवा कार्य रूप ब्रह्मलोक से सम्बद्ध है ? इस पर कार्य ब्रह्म सम्बन्धी पक्ष का निराकरण कर परब्रह्म लोक पक्ष को सिद्धान्ततः निश्चित करते हैं ।
चतुर्थ अधिकरण
अचिरादिलो की प्राति उपासना के फलस्वरूप ही होती है, अचिरादिलोक के दिव्य पुरुष उन लोकों में पहुँचने वाले सभी उपासकों को ब्रह्मलोब की प्राप्ति कराते हैं या किसी-किसी को हीं ? इस पर पूर्वपक्ष का निराकरण कर सिद्धान्त स्थिर करते हैं कि किसी को ही पहुँचाते हैं। जो उपास्य रूपों में ब्रम्हत्व भाव मान कर उपासना करते हैं वे प्रतीकोपासक हैं, उन्हें ब्रह्म प्राप्ति नहीं होती अपितु जो शुद्ध ब्रह्मभाव से आराधना करते हैं उन्हें ही ब्रह्म प्राप्ति होती है, ऐसी भगवान बादरायण की मान्यता है। भक्त तो उन दिव्य पुरुषों के सहाय्य के बिना स्वयं ही ब्रह्मलोक की प्राप्ति कर लेते हैं ।
ज्ञान मार्गीय और भक्ति मार्गीय दोनों को पर प्राप्ति एक ही प्रकार से होती है या उनमें किसी को विशेष प्रकार से भी होती है ? इस सामान्य पक्ष का निराकरण कर विशेष पक्ष को सिद्धान्त रूप से प्रस्तुत करते हैं । तैत्तरीय में"ब्रह्म विदाप्नोतिपरम् इत्यादि में भगवत्स्वरूप के अनुभव करने वाले भक्तों की विशेष प्राप्ति की चर्चा की गई है । "ब्रह्म विदाप्नोति" केवल इस पद में अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति बतलाई गई है जो कि ज्ञान मार्गीयों के लिए है । उक्त वाक्य में आगे जो भी वर्णन किया गया वह भक्ति मार्गीय से सम्बद्ध है । मर्यादा और पुष्टि भेद से प्राप्ति दो प्रकार की है, प्रथम प्रकार की प्राप्ति मर्यादा मार्गीय है। पुरुषोत्तम की प्राप्ति में वरण के अतिरिक्त अन्य साधन अपेक्षित नहीं है जैसा कि " नायमात्मा प्रवचनेन" इत्यादि वाख्य में निर्णय किया गया है । अक्षर ब्रह्मज्ञान में वे अपेक्षित हैं। ज्ञान मार्गियों को अक्षर ज्ञान से अक्षर ब्रह्म की