________________
( ५८ ) द्वितीय पाद प्रथम अधिकरण
भक्त के सूक्ष्म शरीर के क्षपण (त्याग) का तात्पर्य क्या उसके स्वरूप का नाश है अथवा पारसमणि के स्पर्श से लौह सुवर्ण हो जाता है उसी प्रकार भावत्कृपा से उसमें अलौकिकता आ जाती हैं। अलौकिकता के पूर्वपक्ष का निराकरण कर सिद्धान्त बतलाते हैं कि-भक्त के प्राचीन देह प्राण आदि साक्षात् पुरुषोत्तम संबंध के अयोग्य होते हैं अत: वे भगवान में ही लीन हो जाते हैं, उसके बाद पुरुषोत्तमात्मक उनकी लीला के उपयोगी देह इन्द्रियादि को वह प्राप्त करता है तभी वह पुरुषोत्तम स्वरूप को प्राप्त करता है। उसके प्राण आदि का लय एक साथ नहीं हो जाता, पहिले उसकी वाणी और मन भगवदानन्द से सम्पन्न होते हैं, बाद में समस्त इन्द्रियों से विशिष्ट मन प्राण से सम्पन्न होता है तब वह समस्त इन्द्रियाँ मन के साथ भगवदानन्द से सम्पन्न होती हैं फिर समस्त इन्द्रियों और मन से विशिष्ट प्राण भगवान में लीन होता हैं।
द्वितीय अधिकरण
मर्यादामार्गीय भक्तों का भी उक्त प्रकार से लय होता हैं या नहीं? इस पर निर्णय करते हैं कि मर्यादामार्गीयों को वागादि का लय भूतों में होता है, भगवान में नहीं होता । वागादि लय होने के बाद तो मर्यादामार्गीय भक्त का प्रारब्ध नष्ट हो ही जाता हैं अतः वह शुद्ध जीव हो जाता है तब भी वह पुष्टि में प्रवृष्टि होता है या नहीं ? इस संशय पर निर्णय करते हैं कि-मर्यादामार्ग से ही वह मुक्त हो जाता है पुष्टि में प्रवेश नहीं करता ।
तृतीय अधिकरण साधन क्रम से मोक्ष की इच्छा ही मर्यादा मार्ग की मर्यादा है, विहित साधन के बिना यदि वह मोक्ष की इच्छा करता है तो वह संसार दशा में ही भ्रमण करता है क्योंकि विहित साधन के बिना भजनांनन्द का अभाव रहता है।
चतुर्थ अधिकरण - लीला नित्य है अतः उसमें पहुँच गए भक्तों को नित्य दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है कभी-कभी किसी जीव को भगवान् लीलीपयोगी साधनों के प्रभाव में भी भगवान अपनी कृपा से अपनी लीला में सम्मिलित कर लेते