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चतुर्थ अध्याय प्रथम पाद
प्रथम अधि करण
'आत्मा वारे दृष्टव्यः श्रोतव्यः 'आदि में जो श्रवणादि की विधि का उल्लेख है वह एक बार करने का ही नियम है या बार-बार करने का इस संशय पर श्रवणादि की बार-बार आवृत्ति करने से ही तत्त्वोपलब्धि होती है ऐमा मिद्धांत निश्चित करते हैं।
द्वितीय अधिकरण .
ज्ञानी ! भगवान् की आत्मारूप से उपासना करते हैं अतः वे प्रारब्ध की समाप्ति हो जाने पर देह छोड़कर उसी में प्रविष्ट हो जाते हैं अब विचारते हैं कि-'न स पुनरावर्त्तते 'श्रुति में ज्ञानियों को सर्वथा अनावृत्ति कही गयी है, अथवा सावधिकी अनावृत्ति, उक्त श्रुति में जो अमरशब्द का प्रयोग है उससे तो केवल मरण निवृत्ति का अर्थ ही प्रस्फुटित होता हैं । इस संशय पर पूर्वपक्ष सावधिको अनावृत्ति की बात करता है सिद्धान्ततः सर्वथा अनावृत्ति को स्वीकारते हैं।
तृतीय अधिकरण
छान्दोग्य 'सत्य यज्ञ पौलुषि 'इत्यादि वाक्य में आदित्य वायु आदि की आत्मारूप से उपासना कही गई है, तो यह प्रतीक उपासना है या नहीं ? इस पर पूर्वपक्ष है कि-आदित्य आदि को पृथक् पृथक उपासना का उल्लेख है जो कि ब्रह्मत्वभाव से नहीं प्रतीत होता अतः प्रतीकोपासना ही है । इसका निराकरण कर सिद्धान्त बतलाते हैं कि 'सर्व खल्विदं ब्रह्म, 'श्रुति के अनुसार सब कुछ ब्रह्म निश्चित होता है सूर्यादि भी ब्रह्म के अंग हैं अतः यह प्रतीकोपासना नहीं है। इसी प्रसंग में बतलाते हैं कि-भावना की उत्कट दशा में निरन्तर स्मृति से भी हृदय में प्रकट होकर भगवान विराजमान हो जाते हैं उसे ही स्थिरता कहते हैं। यह स्वरूप प्राकट्य भक्त की इच्छा से ही होता है लीला का अनाविष्करण आविष्करण भगवदिच्छा से होता है । भक्त की इच्छा के तारतम्य को रखकर भगवान हृदय में अचल या चलरूप से विराजते हैं।