________________ (25) जब श्री तीर्थंकर महाराज का जन्म होता है, तब उसी समय ' सौधर्म / नामा इन्द्र का आसन कम्पित होता है। उस समय उपयोग देकर अवधिज्ञान द्वारा इन्द्र जानता है कितीर्थकर महाराज का जन्म हुआ है / तत्काल ही वह सिंहासन से उतर कर जिस दिशा में श्री तीर्थकर देव का जन्म हुवा होता है उस ही दिशा में सात आठ कदम चलता है। फिर नमस्कार करके श्री भगवान की स्तुति करता है। श्री प्रमु का जन्मोत्सव करने के लिए जैसे सौधर्मेन्द्र सपरिवार आता है वैसे ही अनुक्रम से दूसरे इन्द्र भी प्रमु के जन्मोत्सव का लाभ लेनेके लिये आते हैं-जन्मोत्सव में आ कर फायदा उठाते हैं। वह सौधर्मेन्द्र प्रभु को मेरु के शिखर पर ले जाता है। वहाँ पांडुक बन में पांडुकशिला नामा शिला पर सिंहासन रचा हुवा है / सौधर्मेन्द्र प्रभु को गोद में लेकर उस में बैठता है। उसके बाद शाश्वत और लौकिक तीर्थों के जल से और पुष्पादि के सुगंध मिश्रित जल से प्रभु का अभिषेक होता है। तत्पश्चात् अनेक प्रकार के भक्ति-भावों सहित प्रमु उनकी माता के पास पहुँचा दिये जाते हैं। वहाँ से चौसठों इन्द्र नंदीश्वर द्वीप में-जो जंबू-द्वीप से आठवाँ द्वीप है-जाकर, शाश्वत जिन मन्दिरों के अन्दर अठाई महोत्सव करते हैं। उस के पूर्ण हो जाने पर अपने आप को धन्य मानते हुए अपने 2 स्थानों को चले जाते हैं।