Book Title: Jinvallabhsuri Granthavali
Author(s): Vinaysagar, 
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितवालमारि-ग्रन्यावलि HOES साहित्यवाचस्पनि म, विजयसागर Jain Education international www turarv.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणि पुष्प - ४ प्राकृत भारती पुष्प - 1 जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि [१२वीं शती के महाकवि श्री जिनवल्लभसूरि प्रणीत ४५ कृतियाँ, चित्रकाव्य, विस्तृत भूमिका सहित] आशीर्वचन : आगमज्ञ मुनिराज श्री जम्बूविजयजी म. सम्पादक: साहित्यवाचस्पति म० विनयसागर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक एवं प्राप्ति स्रोत : (१) देवेन्द्र राज मेहता संस्थापक प्राकृत भारती अकादमी १३ - ए, मेन मालवीय नगर जयपुर - ३०२०१७ दूरभाष : ०१४१-२५२४८२७ (३) श्री जैन आत्मानन्द सभा खारगेट, भावनगर (गुजरात) ३६४००१ प्रथम संस्करण, २००४ मूल्य : २६०/ म० विनयसागर लेजर टाईप सैटिंग श्री ग्राफिक्स, जयपुर मुद्रक : पॉपुलर प्रिन्टर्स (२) ट्रस्टी श्री सिद्धि-भुवन- मनोहर जैन ट्रस्ट ए-३, चन्दनबाला अपार्टमेन्ट, नया विकास गृह रोड, अशोक नगर, पालड़ी, अहमदाबाद (गुजरात) ३८०००७ (४) मंजुल जैन मैनेजिंग ट्रस्टी एम.एस.पी. एस. जी. चेरिटेबल ट्रस्ट प्राकृत भारती अकादमी १३ - ए, मेन मालवीय नगर जयपुर - ३०२०१७ दूरभाष : ०१४१ - २५२४८२८, मोबाईल : ३२८९९०३ फतेह टीबा मार्ग, मोती डूंगरी रोड, जयपुर - 302 004 फोन नं. 2606591, 2606883 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण आगमप्रज्ञ मुनिराज श्री जम्बूविजयजी म. को सादर सप्रेम Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि के पट्टधर आचार्य जिनवल्लभसूरि अपने समय के उद्भट विद्वान् व रचनाकार हुए हैं । प्राकृत और संस्कृत भाषाओं पर उनका समान अधिकार था । आपके द्वारा रचित विशाल साहित्य का जो अंश उपलब्ध है उसका बहुत कम भाग ही प्रकाशित हो पाया है । साहित्य वाचस्पति म० विनयसागरजी ने बारहवीं शताब्दि के इस मूर्धन्य विद्वान् पर गहन शोध कार्य किया है जिसका एक अंश वल्लभ-भारती नाम से पूर्व में प्रकाशित हो चुका है। शेष कार्य संयोगवश अप्रकाशित ही रह गया था। हमें प्रसन्नता है कि आगम-मर्मज्ञ मुनिराज श्री जम्बूविजयजी महाराज की सद्प्रेरणा व उत्साहवर्धन के फलस्वरूप आज हम जैन वाङ्मय के इस बिखरे अंश को जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावली नाम से संयुक्त प्रकाशन के रूप में सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है यह शोधार्थियों के लिए नए आयाम प्रस्तुत करेगा । ट्रस्टी, श्री सिद्धि भुवन मनोहर जैन ट्रस्ट पालड़ी, अहमदाबाद (गुजरात) ट्रस्टी, श्री जैन आत्मानंद सभा भावनगर (गुजरात ) देवेन्द्र राज मेहता संस्थापक प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर मंजुल जैन मैनेजिंग ट्रस्टी एम०एस०पी०एस०जी० चेरिटेबल ट्रस्ट, जयपुर Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (विषय-सूची) पृष्ठांक १-५० i-x १-१३ १४-२१ क्रमांक कृति-नाम • आशीर्वचन 0 प्रस्तावना 0 ग्रन्थावलिगत चित्रकाव्य १. सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरणम् २. आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणम् ३. सर्वजीवशरीरावगाहनास्तवः ४. पिण्डविशुद्धिप्रकरणम् ५. श्रावकव्रतकुलकम् ६. पौषधविधिप्रकरणम् ७. प्रतिक्रमण-समाचारी ८. स्वप्नसप्ततिः द्वादशकुलकानि १०. धर्मशिक्षाप्रकरणम् ११. सङ्घपट्टकः १२. शृङ्गारशतकाव्यम् १३. प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् १४. चित्रकूटीय-वीरचैत्य-प्रशस्तिः (अष्टसप्ततिः) १५. चित्रकूटीय-पार्श्वचैत्य-प्रशस्तिः १६. आदिनाथचरितम् १७. शान्तिनाथचरितम् १८. नेमिनाथचरितम् १९. पार्श्वनाथचरितम् २३-३१ ३२-३४ ३५-४५ ४६-४९ ५०-५५ ५६-७८ ७९-८६ ८७-९३ ९४-११२ ११३-१३८ १३९-१४९ १५० १५१-१५३ १५४-१५६ १५७-१५८ १५९-१६० Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ २०९ २०. महावीरचरितम् . १६१-१६४ २१. वीर-चरित्र (जय भववण०) १६५-१६६ २२. चतुर्विंशति-जिन-स्तुतयः (मरुदेविनाभितणयं०) १६७-१७५ २३. चतुर्विंशति-जिन-स्तोत्राणि (भीमभव०) १७६-१८९ २४. नंदीश्वर-चैत्य-स्तव १९०-१९२ २५. सर्वजिन-पञ्चकल्याणक-स्तोत्रम् (सम्म नमिऊण) १९३-१९५ २६. सर्वजिन-पञ्च-कल्याणक-स्तोत्रम् (पणयसुर०) २७. महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका (लोयालोय०) १९७-२०० २८. प्रथम-जिन-स्तवनम् (सयलभुवणिक्क०) २०१-२०५ २९. लघु-अजित-शान्ति-स्तवनम् २०६-२०८ ३०. स्तम्भन-पार्श्वजिन-स्तोत्रम् (सिरिभवण०) ३१. क्षुद्रोपद्रवहरपार्श्वजिन-स्तोत्रम् (नमिरसुरासुर०) २१०-२११ ३२. महावीर-विज्ञप्तिका (सुरनरवर०) २१२-२१३ ३३. महावीरस्वामिस्तोत्रम् (भावारिवारण-स्तोत्र) २१४-२१९ ३४. सर्वजिनेश्वरस्तोत्रम् (प्रीतिप्रसन्न०) २२०-२२२ ३५. पञ्चकल्याणकस्तोत्रम् (प्रीतिद्वात्रिंश०) २२३-२२५ ३६. कल्याणकस्तोत्रम् (पुरन्दरपुर०) २२६ ३७. पार्श्वनाथ-स्तोत्रम् (नमस्यद्गीर्वाण०) २२७-२३२ ३८. पार्श्वनाथस्तोत्रम् (पायात्पार्श्व०) २३३-२३४ ३९. पार्श्वनाथस्तोत्रम् (देवाधीश०) २३५-२३६ ४०. स्तम्भन-पार्श्वनाथ-स्तोत्रम् (समुद्यन्तो०) २३७-२४१ ४१. स्तम्भन-पार्श्वनाथ-स्तोत्रम् (विनयविनमद्०) २४२-२४४ ४२. स्तम्भन-पार्श्वनाथ-स्तोत्रम् चित्रकाव्यात्मकम् (शक्तिशूलेषु०) २४५ ४३. स्तम्भन-पार्श्वनाथ-स्तोत्रम् चक्राष्टकम् (चक्रे यस्य नतिः) २४६-२४७ ४४. सरस्वती-स्तोत्रम् (सरभसलसद्०) २४८-२५२ ४५. नवकार-स्तोत्रम् (किं किं कप्पतरु०) २५३-२५६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७-२६२ २६३-२९७ २९८-३०३ - परिशिष्ट १. जिनवल्लभसूरिग्रन्थावलिगत-ग्रन्थानां छन्दोनुक्रमणी २. जिनवल्लभसूरिग्रन्थावलिगत-ग्रन्थानां पद्यानुक्रमणी ३. महावीरस्वामी स्तोत्र (भावारिवारण) अन्त्यपादपूर्तिरूप महावीर-स्तोत्र ४. युगप्रधान जिनदत्तसूरि प्रणीत ग्रन्थों में जिनवल्लभसूरि-गुणवर्णन स्व. नेमिचन्द्र भण्डारी रचित जिनवल्लभसूरि-गुरुगुणवर्णन ६. ५१ ग्रन्थकारों के ग्रन्थों में जिनवल्लभसूरि स्तुत्यात्मक-पद्य ३०४-३१२ ३१३-३१५ ३१६-३२६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शान्तिनाथाय नमः । श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः | श्री ऋषभदेवस्वामिने नमः । श्रीगौतमगणधराय नमः । श्रीसद्गुरुभ्यो नमः | किञ्चिद् वक्तव्यम् श्री सम्मेतशिखर जी में चतुर्मास करने के बाद विविध तीर्थों की यात्रा करते-करते विक्रम सं. २०५७ में जब हम राजस्थान में जयपुर आये तब प्राकृत भारती अकादमी में भी जाने का हुआ । उस समय वहाँ के निदेशक डॉ. विनयसागरजी ने हमको वल्लभभारती का प्रथम खण्ड दिया । नाकोड़ा तीर्थ में जाकर पढ़कर उसके दूसरे खण्ड को देखने की प्रबल जिज्ञासा हुई, दूसरे खण्ड को भेजने के लिये हमने विनयसागरजी को लिखा। उन्होंने उत्तर में लिखा कि 'दूसरा खण्ड अभी मुद्रित हुआ ही नहीं, पाण्डुलिपि तो तैयार है । ' मैंने लिखा कि 'जिनवल्लभगणि जैसे प्राचीन महाविद्वान् की कृतियाँ शीघ्र ही प्रकाशित होनी चाहिये । खर्च की चिन्ता बिल्कुल मत करना । प्रकाशन के लिये शीघ्र आगे बढ़ो । ' प्रभु-कृपा से यह ग्रन्थ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि के रूप में प्रकाशित हो रहा है, यह मेरे लिये अत्यन्त आनन्द की बात है । जिनवल्लभ गणि अति महान् विद्वान् थे । उनके ग्रन्थों को समझना सरल बात नहीं। इन पर जो विवरणात्मक साहित्य हमारे पूर्वतन विद्वान जैन मुनियों ने लिखा है, वह भी प्रकाशित होना ही चाहिये । मैं आशा रखता हूँ कि डॉ. विनयसागरजी इस विषय में भी आवश्यक प्रयत्न शीघ्र ही करें। श्रीनेमिनाथाय नमः | श्रीमहावीरस्वामिने नमः । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह मेरी मंगल कामना है और पाठकगण इस साहित्य का अध्ययन करके ज्ञानराशि प्राप्त करके प्रकाशक का प्रयत्न सफल करें। प्राचीन शास्त्रोद्धार के ऐसे महान् प्रयत्न के लिये डॉ. विनयसागरजी को हमारा हार्दिक धन्यवाद दिनांक : ९-७-२००४ कुंभण (वाया - महुवाबंदर) (जिला- भावनगर) (सौराष्ट्र) गुजरात पिन ३६४२९० - पूज्यपाद आचार्य देव श्री विजयसिद्धिसूरीश्वर पट्टालंकार पूज्यपाद आचार्य देव श्री मेघसूरीश्वर शिष्य पूज्यपाद गुरुदेव मुनिराज श्री भुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजयः Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रस्तावना बारहवीं शताब्दी के ज्योतिर्धर और धुरंधर आचार्यों में नवांगीटीकाकार अभयदेवसूरि, संवेगरंगशालाकार जिनचन्द्रसूरि, सुरसुन्दरीचरितकार धनेश्वरसूरि, जिनवल्लभसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, चंद्रकुलीय धनेश्वरसूरि, मलधारी अभयदेवसूरि, मलधारी हेमचन्द्रसूरि, वादी देवसूरि, कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि और आप्त-टीकाकार विश्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न आचार्य श्री मलयगिरिसूरि आदि हुए है। इनमें भी कर्मप्रकृति आदि विविध विषयों व विधाओं में साहित्यसृजन की दृष्टि से और इनके द्वारा सर्जित ग्रंथों की संख्या की दृष्टि से तथा उन पर १२वीं शताब्दी से लेकर १८वीं शताब्दी तक ६० दिग्गज विद्वानों द्वारा टीकाएँ लिखने से जिनवल्लभसूरि को शीर्षपंक्ति में रखा जा सकता है। श्री जिनवल्लभूसरि सुविहित मार्ग के संस्थापक श्री वर्धमानसूरिजी के पट्टधर श्री जिनेश्वरसूरि की पट्टधर परम्परा में संवेगरंगशालाकार श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर नवांगी टीकाकार स्तम्भन पार्श्वनाथ तीर्थ के उद्भावक श्री अभयदेवसूरि के पट्टधर हुए हैं। श्री जिनवल्लभसूरि ने अपनी आत्मकथा के रूप में आलेखित अष्टसप्तति/चित्रकूटीय वीरचैत्य प्रशस्ति में अपना परिचय देते हुए लिखा है जिसका सारांश निम्न है - निर्मल 'चन्द्रकुल' में श्री वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि हुये जो सिद्धान्तसम्मत साध्वाचार का उग्रता से पालन करने वाले तथा प्रगाढ और प्रतिभा सम्पन्न आगमप्रज्ञ थे। उन्होंने राज्य सभा में सिद्धान्त-विरुद्ध आचरण वाले आचार्यों की प्ररूपणा और मान्यताओं को शास्त्र-विरुद्ध ठहराकर गुर्जर प्रदेश (गुजरात) में संविग्न साधुओं (सुविहितों) के विहार मार्ग को सर्वदा के लिये प्रशस्त किया था। प्रस्तावना Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे प्रकृष्ट गीतार्थ जिनेश्वरसूरि के शिष्य श्रुतज्ञान रूपी ऐश्वर्य से अंधकार रूपी स्मर को नाश करने में महेश्वर के समान श्री अभयदेवसूरि हुये। जिन्होंने स्वगुरूपदेश और स्वयं की विशद प्रज्ञा से श्रमण भगवान महावीर के वंशज गणधरों द्वारा ग्रथित स्थानाङ्ग सूत्र से विपाक सूत्र पर्यन्त नवाङ्गों - जिनका गम्भीरार्थ उस समय तक अनुद्घाटित था - पर श्री संघ के तोष के लिए टीकाओं की रचना की। आचार्य अभयदेव का यश सौरभ तो विश्वव्यापी था ही, और उनके प्रमुख शिष्यों - प्रसन्नचन्द्रसूरि, वर्द्धमानसूरि, हरिभद्रसूरि, एवं देवभद्रसूरि आदि की वैदुष्य कीर्ति से आज भी दिग्दिगन्त स्तम्भित है। ऐसे सुविहित शिरोमणि और श्रेष्ठगीतार्थ श्री अभयदेवसूरि से लोकों में अर्च्य कूर्चपुरगच्छीय श्री जिनेश्वरसूरि का शिष्य, गणि पदधारक जिनवल्लभ (मैं) ने उपसम्पदा और सिद्धान्त-ज्ञान प्राप्त किया। यहाँ ग्रंथकार स्वयं के लिये कहता है कि - विद्या को योग्य स्थान न मिलने से विश्व में भ्रमण करती हुई पीडित हो गई थी, मुझे योग्य पात्र समझ कर सूक्ष्म शरीर द्वारा मेरे में समाविष्ट हो गई और भूरिकाल से प्रीति की तरह वृद्धि को प्राप्त होती गई। कदाचित् मैं विहार (भ्रमण) करता हुआ चित्तौड़ आया। वहाँ के समुदाय ने मुझे सद्गुरु के रूप में स्वीकार किया। उस समय अम्बक, केहिल और वर्द्धमानदेव आदि प्रमुख व्यापारियों का समुदाय चित्तौड़ में रहता था और शुद्ध देव एवं सद्गुरु की उपासना करता रहता था। चित्तौड़ में उस समय पंक्ति बद्ध जैन-मन्दिर थे। मेरे उपदेश से चित्तौड़ के निवासियों ने शास्त्र-सम्मत विधिपक्ष, विधि-चैत्य और सुविहित साधुओं का स्वरूप समझ कर, चैत्यवासियों की मान्यता और प्ररूपणा का त्याग कर सुविहित पक्ष के अनुयायी बने। उस समय वहाँ का समुदाय अपने को ऐसा मानने लगा, मानो इस क्रूर भस्मग्रह के काल में भी हमें नवीन अर्हच्छासन प्राप्त हुआ है और इसी श्रद्धा से वे कुपथ से विमुख होकर धर्म-कर्म करने लगे। प्रस्तावना Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० जिनवल्लभ ने स्वप्रतिबोधित विधिपथानुयायी श्रेष्ठियों के कतिपय नाम इस प्रकार दिये हैं धर्कटवंशीय सोमिलक, वर्द्धमान का पुत्र वीरक, पल्लिकापुरी (पाली) में प्रख्यात प्रद्युम्रवंशीय माणिक्य का पुत्र सुमति, क्षेमसरीय (संभवत: खींवसर निवासी) भिषग्वर सर्वदेव और उसके तीनों पुत्र रासल, धन्धक एवं वीरक, खण्डेलवंशीय मानदेव और पद्मप्रभ का पुत्र प्रह्लक, पल्लिका में विश्रुत शालिभद्र का पुत्र साधारण और पल्लिका में चन्द्र समान ऋषभ का पुत्र सड्ढक आदि । इन श्रेष्ठियों ने चित्तौड़ में धर्माराधन हेतु विधि - चैत्य का अभाव महसूस कर नवीन चैत्य - निर्माण का संकल्प किया । चैत्यवासियों के गढ़ में विधि-चैत्यों का निर्माण वेषधारियों के लिये कदापि सह्य नहीं था । उन्होंने निर्माण कार्य का ध्वंस करने के लिये भरपूर प्रयत्न किये, किन्तु उनके सारे प्रयत्न असफल रहे और अन्त में साधारण आदि उपरोक्त श्रेष्ठियों के प्रयत्नों से निर्माण कार्य पूरा हुआ । इस विशाल महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा (वि०सं० १९६३) में बड़े महोत्सव से सम्पन्न हुई । कल्याणक आदि पर्व दिवसों में अब धार्मिक समुदाय बड़े भक्तिभाव और आडम्बर से उत्सव मनाता है तथा अर्चन-पूजन करता हुआ कल्याणकारी मार्ग की ओर अग्रसर हो रहा है । इस चैत्य की अर्चा निमित्त प्रत्येक सूर्य संक्रान्ति पर दो पारुत्थ चित्तौड़ के धर्मदाय विभाग से देने का महाराजा श्री नरवर्मा ने आदेश दिया है । जिनवल्लभसूरि के इस अन्तरङ्ग प्रमाणभूत संक्षिप्त आत्मकथा के अतिरिक्त उनके योग्य शिष्य युगप्रधान दादोपनामधारक श्री जिनदत्तसूरि ने गणधर सार्द्धशतक में ६९ पद्यों में अपने गुरु की जो स्तुति की है उसकी टीका करते हुए उन्हीं के प्रशिष्य श्रीसुमति गणि ने आचार्य जिनवल्लभसूरि का विस्तार से जीवन-वृत्त दे दिया है । इसी का आधार ले कर आचार्य प्रस्तावना Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का जीवन-चरित परवर्ती कई लेखकों ने लिखा है । श्रीसुमतिगणि के गुरुभ्राता श्री जिनपालोपाध्याय ने 'खरतरगच्छालङ्कार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' में जिनवल्लभसूरि का जो जीवन-चरित लिखा है, वह लगभग अक्षरशः सुमतिगण द्वारा दिए हुए चरित से मिलता है । अन्तर है तो केवल इतना ही कि सुमतिगणि की भाषा अलङ्कारिक वर्णनों से परिपूर्ण है तो, उपाध्यायजी की भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण है । इसलिये इसी वृत्ति को आधार मानकर मैं उनका संक्षेप में जीवन चरित दे रहा हूँ । परिचय जिनवल्लभ का बाल्यावस्था का परिचय प्राप्त नहीं है। इतना ही ज्ञात होता है कि ये आसिका ( हांसी) के निवासी थे और कूर्चपुरीय चैत्यवासी जिनेश्वराचार्य के शिष्य थे। जिनेश्वराचार्य के पास शिक्षा प्राप्त करते थे । हस्तलिखित स्फुट पत्रों से सर्पाकर्षिणी और सर्पमोचिनी विद्या का प्रत्यक्ष अनुभव किया । जिनेश्वराचार्य ने इनको मेधासम्पन्न जानकर अपना शिष्य बनाया और बड़े मनोयोग से तर्क, अलंकार, व्याकरण, कोश आदि अनेक शास्त्रों का अध्ययन भी करवाया । आचार्य की अनुपस्थिति में एक सिद्धान्त पुस्तक उनके देखने में आई और चैत्यवास - परम्परा को सिद्धान्त-विरुद्ध देखकर वे विरक्त हो गये । जिनेश्वराचार्य उस समय के प्रौढ़ विद्वान् थे । जिनपालोपाध्याय के कथनानुसार उन्होंने जिनवल्लभ को पाणिनीय आदि आठों व्याकरण, मेघदूतादि काव्य, रुद्रट-उद्भट-दण्डी - वामन और भामह आदि के अलङ्कार ग्रंथ, ८४ नाटक, जयदेव आदि के छन्द: शास्त्र, भरतनाट्य और कामसूत्र, अनेकान्तजयपताकादि जैन न्यायग्रंथ तथा तर्ककंदली, किरणावली, न्यायसूत्र तथा कमलशीलादि जैनेतर दार्शनिक ग्रंथ पढाये थे । जिनेश्वराचार्य ने शिक्षोपरान्त यह सोचा कि जिनवल्लभ को मैंने समस्त शास्त्रों का पारगामी बना दिया किन्तु जैन दर्शन के सैद्धान्तिक ग्रंथों का अध्ययन नहीं करवा पाया । यह विद्या सुविहित परम्परा में जिनेश्वरसूरि प्रस्तावना Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के शिष्य और जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर अभयदेवसूरि के पास ही है अतः उनके पास भेज कर जिनवल्लभ को आगमिक ज्ञान का भी पारंगत बना दिया जाए। यह सोच कर उन्होंने जिनवल्लभ को गणि पद प्रदान कर जिनशेखर के साथ पाटण भेजा। अभयदेवसूरि के हृदय में भी 'चैत्यवासी शिष्य को आगमवाचना दे या नहीं?' प्रश्न उठा, किन्तु जिनवल्लभ के हृदय में सिद्धान्तवाचना के लिए उत्कट अभिलाषा और योग्य पात्रता देखकर उन्होंने आगमवाचना देना प्रारम्भ किया। थोड़े समय में ही जिनवल्लभ ने आचार्य अभयदेव के पास सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन पूर्ण कर लिया। जिनवल्लभगणि की प्रखर बुद्धि, ज्ञानपिपासा को देख कर उन्हें एक प्रसिद्ध ज्योतिर्विद के पास भेजा गया और उसके पास भी उन्होंने ज्योतिषशास्त्र का गहन अध्ययन कर लिया। अध्ययन के पश्चात् वे पुनः अपने पूर्व-गुरु के पास जाने लगे, उस समय आचार्य अभयदेव ने कहा - 'वत्स! सिद्धान्त के अनुसार जो साधुओं का आचार व्रत है वह सब तुम समझ चुके, अतः उसके अनुसार आचरण करने का प्रयत्न करना।' अभयदेवसूरि के ये वचन जिनवल्लभ के अन्तरात्मा की पुकार थी। उन्होंने अभयदेव आचार्य के चरणों में गिर कर कहा - 'गुरुदेव! आपकी जो आज्ञा है, वैसा ही निश्चित रूप से करूँगा।' वहाँ से प्रयाण कर मरुकोट में ही उन्होंने देवगृह की स्थापना की और सुविहित परम्परा का पालन प्रारम्भ कर दिया। आशिका से चार कोस पूर्व ही अपने पूर्व-गुरु जिनेश्वराचार्य को वहाँ आने का अनुरोध किया चैत्यवासी गुरु आचार्य जिनेश्वर वहाँ आए। शिष्य के आचार-सम्पन्न विचार सुनकर उन्होंने कहा - 'वत्स! मैं स्वयं चैत्यवास के क्रिया-कलाप से असन्तुष्ट था और चाहता था कि तुम्हे यहाँ का अधिपति बना कर मैं स्वयं अभयदेवसूरि के पास सुविहित आचार को स्वीकार कर लूँ किन्तु मैं अभी तक पूर्ण रूप से निर्मोही नहीं बना कि इस सम्पदा का छोड़कर अभयदेवसूरि का शिष्यत्व स्वीकार कर लूं। मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि श्री अभयदेवसूरि के सम्पर्क से तुम नि:संग होकर शुद्ध साध्वाचार का पालन करना चाहते हो। इस युग में सुविहित आचार-सम्पन्न और आगमविज्ञ दूसरा कोई महापुरुष नहीं है। अतः तुम्हें अनुमति प्रदान करता हूँ कि तुम अपने निर्णयानुसार अभयदेवसूरि प्रस्तावना Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पास उपसम्पदा प्राप्त कर श्रेयो मार्ग की ओर प्रस्थान करो।' और गुरु की अनुज्ञा प्राप्त कर, उन्हीं कदमों से जिनवल्लभगणि वापस अभयदेवसूरि के चरणकमलों में पाटण पहुँच गये। अपने अन्तरंग शिष्य को वापस आया देखकर अभयदेवसूरि हृदय में अत्यन्त प्रमुदित हुए और जिनवल्लभ को उपसम्पदा प्रदान कर अपना शिष्य घोषित किया तथा सर्वत्र विचरण करने की अनुमति प्रदान की । यही कारण है कि जिनवल्लभगणि ने स्वरचित 'प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक काव्य (पद्य १५९) में अपने दीक्षागुरु एवं विद्यागुरु कुर्चपुरगच्छीय जिनेश्वरसूरि को 'मद्गुरवः जिनेश्वरसूरयः' और अष्टसप्तति (पद्य ५२) में स्वयं को (जिनेश्वरसूरिशिष्यः) जिनेश्वरसूरि का शिष्य ही बतलाया है। नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के पास आगमिक विद्या / श्रुत सम्पदा और उप-सम्पदा ग्रहण कर अभयदेवसूरि को सद्गुरु के रूप में स्वीकार किया है। (प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक पद्य १५८) यही बात अष्टसप्तति पद्य ५२ में भी कवि ने स्वीकार की है । इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए बृहद्गच्छीय श्री धनेश्वराचार्य ने (वि०सं० ११७२ में) सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार प्रकरण की टीका करते हुए १५२ वें पद्य की व्याख्या में स्पष्ट लिखा है- "जिणवल्लहगणि' त्ति जिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थसङ्ग्राहिस्थानाङ्गाद्यङ्गोपाङ्गपञ्चाशकादिशास्त्रवृत्तिविधानावाप्तावदातकीर्तिसुधाधवलित धरामण्डलानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्येण 'लिखितं' कर्मप्रकृत्यादिगम्भीर - शास्त्रेभ्यः समुद्धृत्य दृब्धं जिनवल्लभगणिलिखितम्।” अर्थात् जिनवल्लभ के उपसम्पदादायक दीक्षागुरु अभयदेवसूरि ही हैं । इसी काल में जिनवल्लभगणि ने जिनेश्वरसूरि के शिष्य और पट्टधर जिनचन्द्रसूरि रचित संवेगरंगशाला का (वि०सं० ११२५ में ) संशोधन किया। जिनवल्लभगणि की बाल्यावस्था, चैत्यवासी दीक्षा, चैत्यवासी गुरु जिनेश्वराचार्य से समस्त विद्याओं का अध्ययन, अभयदेवसूरि के पास समस्त आगम-शास्त्रों का अध्ययन, उनके पास उपसम्पदा ग्रहण कर संवेगरंगशाला का संशोधन वि०सं० ११२५ में किया। इससे स्पष्ट है कि वि०सं० ११२५ प्रस्तावना Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक जिनवल्लभगणि प्रौढ़ावस्था में होंगे। इन सब अध्ययन को देखते हुए उस समय इनकी अवस्था कम से कम भी ३५ वर्ष की मानी जाए तो इनका जन्मकाल अनुमानतः वि०सं० १०९० के लगभग स्वीकार कर सकते है। जिनवल्लभ गणि क्रांतिकारी विचारक होने के कारण चैत्यवासपरम्परा की कटु आलोचना करते थे। कुछ दिन गुर्जर देश में रहने के पश्चात् जिनवल्लभगणि चित्रकूट (चित्तौड़) आए। चित्तौड़ भी चैत्यवासियों का प्रबल गढ़ था। इन्हें ठहरने का स्थान नहीं मिला। अन्ततः उन्होंने चण्डिका मठ (चामुण्डा के मन्दिर) में रात्रि निवास किया। चण्डिका देवी भी उनके ज्ञान ध्यान, अनुष्ठान और चारित्रिक शुद्धता को देखकर उनकी सिद्धिदात्री बन गई। उनके वैदुष्य और शुद्धाचार की धवल कीर्ति क्रमशः फैलती गई और जैनेतर समाज के अतिरिक्त जैन समाज के श्रावकगण भी चैत्यवासपरम्परा का त्याग कर उनके अनुयायी बनने लगे। जिनवल्लभ रचित अष्टसप्तति (वीर-चैत्य-प्रशस्ति) के अनुसार उनके उपासकों में साधारण, सडक, सुमति, पल्हक, वीरक, मानदेव, धंधक, सोमिलक, वीरदेव आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। चित्रकूट चैत्यवासियों का गढ़ होने के कारण वहाँ विधिचैत्य भी नहीं थे। उनके उपदेश से पार्श्वनाथ और महावीर के विधिचैत्यों का निर्माण हुआ। इन दोनों मंदिरों की प्रतिष्ठा भी जिनवल्लभ गणि ने करवाई। इन दोनों मंदिरों के ध्वंसावशेष भी आज प्राप्त नहीं है किन्तु वीर चैत्य प्रशस्ति (हस्तलिखित ग्रंथ) और पार्श्वचैत्य प्रशस्ति का पाषाण खण्ड आज भी प्राप्त है जिनमें इनका उल्लेख है। कहा जाता है कि इनके प्रभाव को क्षीण करने के लिए किन्हीं मुनिचन्द्राचार्य ने अपने दो शिष्यों को अध्ययन हेतु इनके पास भेजा। जिनवल्लभगणि ने उनको अध्ययन कराना भी प्रारम्भ किया किन्तु उनकी विघटनकारी प्रवृत्तियों को देखकर शास्त्राध्ययन के लिए अयोग्य मान कर विद्यादान देने में मुँह फेर लिया। प्रस्तावना Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुकोट्ट में प्रवचन देते हुए धर्मदासगणि कृत उपदेशमाला के तीसरे पद्य की व्याख्या करते हुए अनेक दृष्टान्त, उदाहरण, सिद्धान्त-प्ररूपण आदि करते-करते छः महीने बीत गये। इससे ऐसा प्रतिभाषित होता है कि ये प्रवचन शक्ति में भी अनुपम प्रतिभा के धारक थे। समस्यापूर्ति में न केवल उनकी प्रतिभा, छन्दयोजना तथा प्रबन्धपटुता का परिचय मिलता है अपितु उनकी प्रत्युत्पन्नमति एवं उक्तिसौष्ठव का भी ज्ञान हमें होता है। किसी विद्वान् के 'कुरङ्गः किं भृङ्गो मरकतमणिः किं किमशनिः' की पूर्ति तत्काल ही उन्होंने इस प्रकार की थी - चिरं चित्तोद्याने चरसि च मुखाब्जं पिबसि च, क्षणादेणाक्षीणां विरहविषमोहं हरसि च। नृप! त्वं मानाद्रिं दलयसि च किं कौतुककरं, कुरङ्गः किं भृङ्गो मरकतमणिः किं किमशनिः॥ धारा नगरी के नरेश नरवर्मा की राज्यसभा में भी किसी विद्वान् ने समस्या रखी थी - 'कण्ठे कुठारः कमठे ठकारः' राज्यसभा के उद्भट विद्वानों द्वारा समस्या-पूर्ति करने पर भी न तो प्रस्तुतकर्ता विद्वान् ही संतुष्ट हो पाया और ना धारा नरेश। जिनवल्लभ की कीर्ति सुनकर धारा नरेश ने इसकी पूर्ति करने के लिए जिनवल्लभगणि के पास अपने अनुचरों को भेजा। जिनवल्लभगणि ने तत्काल ही इसकी इस प्रकार पूर्ति कर दी थी रे रे नृपाः श्रीनरवर्मभूप-प्रसादनाय क्रियतां नताङ्गैः । कण्ठे कुठारः कमठे ठकारश्चक्रे यदश्वोग्रखुराग्रघातैः ॥ इस समस्या-पूर्ति से प्रसन्न होकर धारा नरेश भी जिनवल्लभगणि के परम भक्त बन गये थे। नरवर्म नृपति ने चित्तौड़ के इन दोनों मंदिरों के लिए कुछ भेंट भी प्रदान की थी। इनके कई चमत्कार भी प्रसिद्ध हैं। साधारण श्रावक के परिग्रह परिमाण व्रत धारण के समय गणिजी का भविष्य ज्ञान, स्वर्णलोभी गणदेव प्रस्तावना Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को निर्मल चित्तधारी श्रावक बनाकर स्वनिर्मित द्वादशकुलक रचना देकर वाग्जड़ (बागड़ ) प्रदेश में उसके द्वारा धर्म प्रचार और चित्तौड़ में ज्योतिर्विद् के साथ ज्योतिष का चमत्कार आदि प्रसिद्ध हैं । नागपुर के श्रावक धनदेव द्वारा निर्मित नेमिनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा भी की। धनदेव के पुत्र पद्मानंद द्वारा रचित वैराग्यशतक प्राप्त है। चित्तौड़, नरवर, नागौर, मरुकोट्ट आदि स्थानों के मन्दिरों की प्रतिष्ठा भी करवाई और उन मन्दिरों में विधिचैत्यों की मान्यता / मर्यादा सम्बन्धित शिलापट्ट भी लगवाए । आचार्यपद और स्वर्गवास आचार्य अभयदेवसूरि अपने अन्तरंग प्रिय शिष्य जिनवल्लभगणि को अपना पट्टधर घोषित करना चाहते थे किन्तु तत्कालीन परिस्थितियों के वशीभूत होकर उन्होंने अपने शिष्य वर्धमानसूरि को घोषित किया और प्रसन्नचन्द्राचार्य को एकांत में कहा कि 'मैं अपनी अन्तरात्मा की पुकार के अनुसार जिनवल्लभ को पट्टधर घोषित न कर सका, अत: तुम इस कार्य को सम्पन्न करना।' अभयदेवसूरि का स्वर्गवास हो गया और कुछ ही समय में प्रसन्नचन्द्राचार्य भी देवलोक को प्रस्थान कर गये । प्रसन्नचन्द्राचार्य ने देवभद्राचार्य को आचार्य अभयदेवसूरि की इच्छा बतलाई और कहा 'मैं भी इस कार्य को सम्पन्न न कर सका, तुम आचार्य अभयदेव की इच्छा को अवश्य पूर्ण करना ।' समय बीतता गया। कई दशाब्दियाँ बीत गईं। इधर जिनवल्लभगणि की यशोगाथा और प्रभाव को देखकर देवभद्राचार्य ने जिनवल्लभगणि को नागौर से चित्तौड़ बुलाया और वहीं विधि-विधान पूर्वक वि०सं० ११६७ आषाढ़ सुदि ६ के दिन जिनवल्लभगणि को आचार्य अभयदेवसूरि के पट्ट पर स्थापित कर जिनवल्लभसूरि नाम प्रदान किया । संयोगवशात् सं० ११६७ कार्तिक अमावस्या दीपावली की मध्यरात्रि में वे इस नश्वर संसार को छोड़कर चतुर्थ देवलोक चले गये। इनके पट्टधर अम्बिकादत्त युगप्रधान पदधारक, एक लाख तीस हजार नूतन जैन बनाकर ओसवंश की वृद्धि करने वाले और अनेक ग्रंथों प्रस्तावना Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के निर्माता प्रथम दादा जिनदत्तसूरि हुए। इनकी यह परम्परा आज भी प्रसिद्ध परम्परा के रूप में विद्यमान है। विधि पक्ष - चैत्यवास का समूलोच्छेदन की परम्परा प्रारम्भ करने वाले आचार्य जिनेश्वरसूरि को अणहिलपुर में महाराजा दुर्लभराज ने 'तमे खरा छो' खरतर विरुद दिया। आचार्य की यह परम्परा सुविहित परम्परा कहलाई। इसी का उल्लेख जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि और देवभद्राचार्य ने किया। जिनेश्वराचार्य ने मुख्यतः निषेध पक्ष को ही प्रधानता दी किन्तु जिनवल्लभगणि निषेध के साथ विधि को भी प्रधानता देते हुए प्रबल वेग के साथ चैत्यवास के विरोध में मैदान में कूद पड़े थे। विधि पक्ष पर अधिक जोर देने के कारण उनके समय में सुविहित पक्ष भी विधि पक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ और क्रमशः सुविहित पक्ष/विधि पक्ष और भविष्य में खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आरोप १७वीं शताब्दी में कुछ कदाग्रही विद्वानों ने जिनवल्लभसूरि को लेकर कतिपय प्रश्न खड़े किये और उन पर आरोप भी लगाए। उनमें उपसम्पदा, भगवान महावीर के षट्कल्याणक, संघबहिष्कृत, उत्सूत्रप्ररूपक और पिण्डविशुद्धिकार कौन है? इत्यादि। इन समस्त आरोपों का अन्तरंग और बहिरंग प्रमाणों के आधार पर मैंने (महोपाध्याय विनयसागर) ने वल्लभभारती प्रथम खण्ड अध्याय ३ पृष्ठ ६२ से ८४ तक खण्डन किया है, वह द्रष्टव्य है। साहित्य-सर्जना जिनवल्लभसूरि का अलंकारशास्त्र, छन्दशास्त्र, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष, नाट्यशास्त्र, कामतन्त्र और सैद्धान्तिक विषयों पर एकाधिपत्य था। प्राकृत और संस्कृत भाषा पर भी उनका पूर्णाधिकार था। इन्होंने अपने जीवनकाल में विविध विषयों पर सैकड़ों ग्रंथों की रचना की थी जिसका उल्लेख सुमतिगणि गणधरसार्द्धशतक की वृत्ति में इस प्रकार करते हैं: प्रस्तावना Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना समय 'परमद्यापिभगवतामवदातचरितनिधीनां श्रीमरुकोट्टसप्तवर्षप्रमितकृतनिवास-परिशीलितसमस्तागमानांसमग्रगच्छादृत सूक्ष्मार्थसिद्धान्तविचारसार-षडशीति-सार्द्धशतकाख्यकर्मग्रन्थ-पिण्डविशुद्धि-पौषधविधिप्रतिक्रमणसामाचारी-सङ्घपट्टक-धर्मशिक्षा-द्वादशकुलकरूपप्रकरणप्रश्रोत्तरशतक-शृङ्गारशतकनानाप्रकारविचित्रचित्र-काव्य-शतसंख्यस्तुतिस्तोत्रादिरूपकीर्तिपताका सकलं महीमण्डलं मण्डयन्ती विद्वज्जनमनांसि प्रमोदयति।' वर्तमान में उनके द्वारा निर्मित कोई महाकाव्य तो प्राप्त नहीं है, किन्तु जो साहित्य प्राप्त है उससे स्पष्ट है कि जिनवल्लभगणि सिद्धान्तवेत्ता, विधिवेत्ता, आचारवेत्ता, स्वप्रशास्त्रवेत्ता, उपदेष्टा, काव्यनिर्माता, स्तोत्रनिर्माता, अवश्य थे। उनके द्वारा निर्मित साहित्य और मूर्धन्य टीकाकारों द्वारा निर्मित टीका साहित्य की सूची संलग्न है:क्र० ग्रंथनाम टीका नाम टीकाकार १. सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार प्रकरण भाष्य * अज्ञात कर्तृक टिप्पण * रामदेवगणि १२वीं श० चूर्णि * मुनिचन्द्रसूरि सं० ११७० वृत्ति . धनेश्वराचार्य सं० ११७१ वृत्ति * महेश्वराचार्य १२वीं शता० हरिभद्रसूरि १२वीं शता० वृत्ति * चक्रेश्वराचार्य १२वीं शता० प्राकृत वृत्ति * अज्ञात कर्तृक अज्ञात कर्तृक २. आगमिकवस्तुविचारसार प्रकरण अज्ञात कर्तृक भाष्य * अज्ञात कर्तृक टिप्पण * रामदेवगणि १२वीं शता० वृत्ति। हरिभद्रसूरि सं० ११७२ वृत्ति। मलयगिरि १२वीं शता० वृत्ति यशोभद्रसूरि १२वीं शता० विवरण* मेरुवाचक १६वीं शता० टीका अज्ञात कर्तृक वृत्ति * टिप्पणक * प्रस्तावना Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र० ग्रंथनाम रचना समय टीका नाम टीकाकार अवचूरि* अज्ञात कर्तृक अवचूरि* अज्ञात उद्धार* अज्ञात कर्तृक ३. सर्वजीवशरीरावगाहना स्तव* ४. पिण्डविशुद्धि प्रकरण सं० ११७८ सं० ११७६ सं० १२९५ सं० १६२९ वृत्ति। श्री चन्द्रसूरि लघु वृत्ति यशोदेवसूरि दीपिका. उदयसिंहसूरि टीका* अजितदेवसूरि दीपिका* अज्ञात कर्तृक अवचूरि* अज्ञात कर्तृक अवचूरि* अज्ञात कर्तृक पंजिका* अज्ञात कर्तृक अवचूरि* श्रीचन्द्र टीका* अज्ञात कर्तृक टीका* कनककुशल बालावबोध* संवेगदेवगणि सं० १५१३ ५. श्रावकव्रत कुलक* ६. पौषधविधि प्रकरण ७. प्रतिक्रमण सामाचारी ८. स्वप्रसप्ततिका ९. द्वादशकुलक १०. धर्मशिक्षा प्रकरण ११. सङ्घपट्टक वृत्ति* यु० जिनचन्द्रसूरि सं० १६१७ स्तबक * विमलकीर्ति १७वीं शता० टीका* सर्वदेवसूरि १३वीं शता० टीका। जिनपालोपाध्याय सं० १२९३ टीका* जिनपालोपाध्याय सं० १२९३ बृहद् वृत्ति जिनपतिसूरि १३वीं शता० लघु वृत्ति। हर्षराजोपाध्याय १६वींशता वृत्ति। लक्ष्मीसेन सं० १५१३ वृत्ति* विवेकरत्नसूरि अवचूरि। साधुकीर्ति उपाध्याय सं० १६१९ पंजिका* देवराज बालावबोध* लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय १८वीं शता० १२. शृङ्गारशतक* १३. प्रश्रोत्तरैकषष्टिशत* टीका* अवचूरि* अवचूरि * पुण्यसागरोपाध्याय सं० १६४० सोमसुंदरसूरिशिष्य १६वीं शता० कमलमंदिरगणि १७वीं शता० प्रस्तावना Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र० ग्रंथनाम टीका नाम . टीकाकार रचना समय टीका * अवचूरि* मुक्तिचन्द्रगणि १९वीं शता० अवचूरि* अज्ञात कर्तृक टीका* अज्ञात कर्तृक १४. अष्टसप्तति अपरनाम चित्रकूटीय-वीर-चैत्य-प्रशस्ति* १५. चित्रकूटीय -पार्श्व-चैत्य-प्रशस्ति* १६. आदिनाथ चरित । टीका* साधुसोमोपाध्याय सं० १५१९ १७. शान्तिनाथ चरिता अवचूरि * कनकसोमोपाध्याय १७वीं शता० १८. नेमिनाथ चरित* |चरित पंचक बालवबोध* कमलकीर्ति १७वीं शता० १९. पार्श्वनाथ चरित २०. महावीर चरित । समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं शता० अवचूरि* कनककलश गणि सं० १६०९ बालावबोध* विमलरत्न सं० १८०२ बालावबोध* समयसुन्दरोपाध्याय १७वीं शता० बालावबोध नयमेरु सं० १६७८ स्तबक* सुमति १७वीं शता० २१. वीर चरित्र (जय भववण)* २२. चतुर्विंशति जिन स्तुति (मरुदेवि-नाभितणयं०)* २३. चतुर्विंशति जिन स्तोत्राणि (भीमभव०), २४. नंदीश्वर चैत्य स्तव। टीका* साधुसोमोपाध्याय १५वीं शता० (वंदिय नंदिय०) २५. सर्वजिन-पञ्च कल्याणक स्तोत्र (सम्म नमिऊण०), २६. सर्वजिन-पञ्च कल्याणकस्तोत्र (पणय सुर०)* २७. महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका (लोयालोय०)* २८. प्रथम जिन स्तव (सयल भुवणिक्क०)* २९. लघु अजित शान्ति स्तव टीका, धर्मतिलकोपाध्याय सं० १३२२ (उल्लासिक्कम०)। टीका समयसुन्दरोपाध्याय सं० १६९५ गुणविनयोपाध्याय १७वीं शता० बालावबोध* उपाध्याय साधुकीर्ति सं० १६१२ बालावबोध* कमलकीर्ति बालावबोध* देवचन्द्रोपाध्याय १८वीं शता० ३०. स्तम्भन पार्श्वजिन स्तोत्र (सिरि भवण०)* टीका* प्रस्तावना Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका नाम क्र० ग्रंथनाम ३१. क्षुद्रोपद्रवहरपार्श्वजिन स्तोत्र ( नमिर सुरासुर० ) * ३२. महावीर - विज्ञप्तिका (सुरनरवर० ) * ३३. महावीरस्वामी स्तोत्र (भावारिवारण०) टीका ३४. सर्व जिनेश्वर स्तोत्र ( प्रीतिप्रसन्न० ) * ३५. पञ्चकल्याणक स्तोत्र ( प्रीतिद्वात्रिंश० ) * ३६. कल्याणक स्तोत्र ( पुरन्दर पुर० ) * ३७. पार्श्वनाथ स्तोत्र ( नमस्यद्गीर्वाण ० ) * ३८. पाश्वनाथस्तोत्र ( पायात्पार्श्व ० ) * ३९. पार्श्वनाथ स्तोत्र ( देवाधीश० ) * ४०. स्तम्भन - पार्श्वनाथ स्तोत्र ( समुद्यन्तो ० ) * ४१. स्तम्भन - पार्श्वनाथ स्तोत्र (विनयविनमद्० ) * ■ * टीका टीका* टीका* टीका* ** * चिह्नान्तर्गत मूल ग्रंथ प्रकाशित हैं। अवचूरि* बालावबोध* पादपूर्तिस्तोत्र प्रस्तावना टीकाकार ४२. स्तम्भन - पार्श्वनाथ स्तोत्र चित्रकाव्यात्मक (शक्तिशूलेषु० ) * ४३. स्तम्भन - पार्श्वनाथ स्तोत्र चक्राष्टक (चक्रे यस्य नति:) * ४४. सरस्वती स्तोत्र ( सरभसलसद्०) ४५. नवकार स्तोत्र ( किं किं कप्पतरु० ) I जयसागरोपाध्याय मेरुसुन्दरोपाध्याय क्षेमसुन्दरोपाध्याय चारित्रवर्धन मतिसागर अज्ञात कर्तृक मेरुसुन्दरोपाध्याय पद्मराजगणि चर्चरी टीका (अपभ्रंश काव्यत्रयी पृष्ठ १९) में जिनपालोपाध्याय ने आगमोद्धार तथा प्रचुर प्रशस्ति का उल्लेख किया गया है जो अभी तक अप्राप्त है। रचना समय चिह्नान्तर्गत ग्रंथ विविध संस्थाओं से प्रकाशित हैं । प्रकाशन संस्थाओं के नाम के लिए वल्लभभारती प्रथम खण्ड देखें । चिह्नान्तर्गत ग्रंथ अद्यावधि अप्रकाशित हैं । १५वीं शता० १५वीं शता० १५वीं शता० १५वीं शता० १५वीं शता सं० १६५९ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि रचित उक्त साहित्य सूची से यह स्पष्ट है कि उनकी वर्तमान समय में ४५ रचनाएं प्राप्त है। इनमें से क्रमांक १, २, ४ कर्मसिद्धान्त, नं०३ आचारशास्त्र, ५ से ७ विधि शास्त्र, ८ से ९ औपदेशिक, १० खण्डनमण्डन, ११ स्वप्रशास्त्र, १२ से.१५ काव्य, १६ से २१ लघु चरित्र, २२ से ३३ प्राकृत भाषा में निबद्ध स्तोत्र साहित्य, ३३ सम-संस्कृत प्राकृत भाषा में रचित स्तोत्र, ३४ से ४४ तक संस्कृत भाषा में रचित स्तोत्र और ४५ अपभ्रंश में रचित स्तोत्र। भारतीय साहित्य में यह असाधारण घटना है कि किसी कवि/ लेखक की रचना पर उनके स्वर्गवास के एक वर्ष पश्चात् से ही टीकाएँ रची गई हों। वि० सं० ११७० से १८०० तक बृहद्गच्छीय, चन्द्रकुलीय, चन्द्रगच्छीय, राजगच्छीय, तपागच्छीय, खरतरगच्छीय, आप्त एवं धुरंधर आचार्यों/विद्वानों ने १४ ग्रंथों पर ७३ टीकाओं की रचना की। अज्ञात कर्तृक १४ संख्या कम करने पर भी मुनिचन्द्रसूरि, धनेश्वरसूरि, महेश्वराचार्य, चक्रेश्वराचार्य, मलयगिरि, यशोदेवसूरि, यशोभद्रसूरि, उदयसिंहसूरि, अजितदेवसूरि, जिनपतिसूरि, जिनपालोपाध्याय, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि, संवेगदेवगणि आदि साक्षर विद्वानों ने अपनी-अपनी टीकाओं में नवांगी टीकाकारक अभयदेवसूरि के शिष्य 'जिन' अर्थात जिनेश्वरों के 'वल्लभ' अर्थात् अत्यन्त प्रिय जिनवल्लभसूरि को सिद्धांतविद् एवं आप्त मानते हुए टीकाओं के माध्यम से अपनी भावांजली प्रस्तुत की है। जिनवल्लभसूरि का भाषा ज्ञान और शब्द कोश अक्षय था। वे प्राकृत और संस्कृत भाषा के उच्चकोटी के विद्वान् थे और इन भाषाओं पर उनका पूर्ण प्रभुत्व था। ग्रन्थों का सारांश एवं वैशिष्ट्य जिनवल्लभ गणि द्वारा प्रणीत ग्रंथों का परिचय मैंने वल्लभ-भारती प्रथम खण्ड के पृष्ठ ८७ से १२४ तक परिचय दिये हैं अतः पुनरावृत्ति न हो इसी कारण इन ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय ही प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रस्तावना Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. सूक्षमार्थविचारसारोद्धार-प्रकरण - इस ग्रंथ में कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि कर्म-सिद्धान्त के विविध ग्रंथों का आलोडन कर नवनीत की तरह संक्षेप में कर्म-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है, इसीलिये कवि ने इसका नाम सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार-प्रकरण रखा है। इसका अपरनाम सार्द्धशतक प्रकरण है जो इसकी १५२ पद्य-संख्या का सूचक है। इस लघुकायिक ग्रंथ में कर्म-प्रकृति के सिद्धान्त, मूल-उत्तरभेद, प्रकृति भेद, बन्ध, अल्पबहुत्व, स्थिति, योग, रस, उदय और गुणस्थान आदि का वैशिष्ट्य पूर्ण प्रतिपादन होने से सारोद्धार नाम सार्थक ही है जो कवि के सैद्धान्तिक ज्ञान की अगाधता और उक्ति-लाघव की ओर संकेत करता है। १५२ आर्याओं में विवेचनीय अत्यधिक वस्तुओं का अति संक्षेप होने के कारण इसका प्रचार बहुत ही हुआ प्रतीत होता है। यही कारण है कि आज भी भंडारों में इसकी सैकड़ों की संख्या में प्रतियाँ प्राप्त हैं । तत्समय के धुरन्धर विद्वान् श्री धनेश्वरसूरि द्वारा सम्वत् ११७१ में रचित टीका के साथ यह ग्रंथ जैन धर्म प्रसारक सभा भावनगर से प्रकाशित हो चुका है। २. आगमिकवस्तुविचारसार-प्रकरण - इस ग्रंथ में कवि ने पूर्वर्षि प्रणीत आगमिक जीव, मार्गणा, गुणस्थान, उपयोग और लेश्या आदि विषयों का विवेचन होने से इसका यथानुरूप आगमिकवस्तुविचारसार नामकरण किया है। इसका एक अपरनाम भी है, वह है 'षडशीति'। इस नामकरण का रहस्य यह है कि उपर्युक्त समग्र वस्तुओं का विवेचन केवल ८६ आर्याओं में ही हुआ है। इसीलिये इस बृहन्नाम का लघु संस्करण हुआ है, जो विशेष प्रसिद्ध है। इसमें आदि से अन्त तक आर्यानामक वृत्त का ही अनुकरण हुआ है। इस लघु-कायिक ग्रंथ की उपयोगिता इतनी अधिक सिद्ध हुई कि समग्र गच्छवालों ने इसे आदृत किया। केवल आदृत ही नहीं किन्तु पठनपाठन कर महत्ता सिद्ध की। यही कारण है कि आज भी इसकी सैकड़ों की संख्या में लिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं जो इसके प्रचार को प्रकट करती हैं। इसी षडशीति के अनुकरण पर तपागच्छीय श्री देवेन्द्रसूरि ने षडशीति नामक प्रस्तावना Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ कर्मग्रंथ की रचना की है। यह ग्रंथ श्री धनेश्वरसूरि और हरिभद्रसूरि सहित टीकाओं के साथ 'सटीकाश्चत्वारः कर्मग्रंथाः' के नाम से आत्मानंद जैन सभा, भावनगर से प्रकाशित है। ३. सर्वजीवशरीरावगाहना स्तव - भगवतीसूत्र (विवाह प्रज्ञप्ति) के २५वें शतक के तृतीय उद्देशक का आधार लेकर प्राकृत भाषा में ८ आर्याओं में इसकी रचना की गई है। इसका वर्ण्य विषय है - सूक्ष्म, बादर, अपर्याप्त, पर्याप्त, ज्येष्ठ, इतर के देह भेद, तथा पाँचों ही निगोद, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय देह की अवगाहना तथा इनका क्रमशः अल्प-बहुत्व का शास्त्रीय दृष्टि से विवेचन । गणिजी ने इस सैद्धान्तिक एवं मार्मिक विषय को भी सरलता से प्रतिपादन करने में सफलता प्राप्त की है। ४. पिण्डविशुद्धि-प्रकरण - आत्म-साधना की दृष्टि से पिण्ड/भोजन की शुद्धि होना अत्यावश्यक है, अन्यथा जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन' की उक्ति के अनुसार मानसिक शुद्धि नहीं हो सकती। इसीलिये श्रमण-संस्कृति एवं श्रमण-परम्परा में संयमी मुनियों के लिये शुद्ध अन्न का ग्रहण परमावश्यक समझा गया है। पूर्व में श्रुतधर श्रीशयम्भवसूरि ने दशवैकालिक सूत्र में और आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने पिण्डनियुक्ति में इस विषय का बहुत ही विस्तृत और सुन्दर प्रतिपादन किया है। परन्तु वह विस्तृत होने के कारण कंठस्थ करने में अल्पबुद्धिवालों की असमर्थता देखकर आचार्य जिनवल्लभ ने पिण्डविशुद्धि नाम से इस प्रकरण की रचना की। उक्त प्रकरण में प्ररूपित ४७ दोष निम्नलिखित हैं- गवेषणा के १६, एषणा १६, ग्रहणैषणा के १० और ग्रासैषणा के पाँच, इस प्रकार कुल ४७ होते हैं। उक्त भोजन-शुद्धि के ४७ दोषों का अनेकों भांगों सहित विवेचन १०३ श्लोक के छोटे से प्रकरण में, वह भी आर्या जैसे लघु मात्रिक छन्द में ग्रथित करना गणिजी का उक्तिलाघव और छन्दयोजना का चातुर्य प्रकट करता है। यह ग्रंथ श्रीचन्द्रसूरि कृत टीका सहित विजयदानसूरि ग्रंथमाला, सूरत और यशोदेवसूरि कृत लघुवृत्ति और उदयसिंहसूरि रचित दीपिका सहित जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, बम्बई से प्रकाशित है। प्रस्तावना रचना का। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकव्रत- कुलक - प्राकृत भाषा में २८ आर्याओं में रचित इस कुलक को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि युगप्रवरागम श्री अभयदेवसूरि के पास उपसम्पदा ग्रहण करने के पश्चात् किसी भक्त श्रावक ने आपके पास सम्यक्त्व सहित बारह व्रत ग्रहण किये थे । प्रस्तुत कुलक में यह तो स्पष्ट नहीं है कि किस संवत् में और किस श्रावक ने आपके पास व्रत ग्रहण किये थे? किन्तु यह तो स्पष्ट है कि लेने वाला श्रावक बाहड़मेरु (मारवाड़) के आस-पास का निवासी था । इसका नाम अन्य प्रति में 'परिग्रहपरिमाण कुलक' भी लिखा मिलता है, किन्तु इसमें केवल एक परिग्रह का ही परिमाण नहीं है अपितु समग्रव्रतों का है । अतः उपर्युक्त नाम उपयुक्त ही प्रतीत होता है। इसमें कुलक 'के स्थान पर लेखक टिप्पणिका का नाम रखता तो अधिक उपयुक्त होता, क्योंकि इसमें त्याज्य और मर्यादित वस्तुओं का ही टिप्पन के रूप में लेखन किया है न कि वर्णन के रूप में । गाथा १२ में 'बाहड़मेरु माणं' शब्द से उस समय में प्रचलित वस्तु परिमाण - तौल सूचक का प्रयोग किया है । यह प्रयोग ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। संभव है उस समय राजस्थान प्रदेश में बाहड़मेरी मान का प्रचार होगा । यह कुलक अभी तक अप्रकाशित है। ६. पौषधविधि- प्रकरण विधि-पक्ष के अनुयायी श्रमण-वर्ग के लिये नूतन आचार-ग्रंथ की कोई आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि आचारग्रंथ के आगम मौजूद थे अतः उपासकों को लक्ष्य में रखकर पौषधविधि प्रकरण एवं प्रतिक्रमण - समाचारी नामक दोनों ग्रंथों की रचना की गई है। इसीलिये कवि को मंगलाचरण में यह वस्तु स्पष्ट करनी पड़ी है । कवि कहता है कि दसविध यतिधर्म का प्रकाशन करने वाले जिनेश्वर - देवों ने पौषधविधान की उपासकों के लिये प्ररूपणा की है। जो उपासक संसार से विरत होकर आत्मिक-सुख का अनुभव करना चाहता है तथा जो व्रत, प्रतिमा, सन्ध्याविधि, पूजा इत्यादि श्रावकीय धर्मकृत्यों द्वारा कल्याण पथ पर अग्रसर होना चाहता है उसे चतुर्दशी, अष्टमी, पर्युषणादि पर्व - दिवसों में साधु के पास अथवा प्रस्तावना 18 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौषधशाला या एकान्त गृहप्रदेश में पौषध अवश्य करना चाहिये। आप्त आचार्य श्री हरिभद्रसूरि आदि आचार्यों द्वारा यह परम्परा मान्य है किन्तु परवर्ती कुछ श्रमणों ने पाठों को मनोकल्पित प्रस्तुत कर परम्परा को दूषित किया है। तदनन्तर पौषध की समग्र विधि का आद्योपान्त वर्णन किया गया है जो आज भी खरतरगच्छ समाज में प्रसिद्ध एवं प्रचलित है। इसलिये इसका वर्णन न कर इसमें विशिष्ट विवेचनीय विषयों का उल्लेख कर रहा हूँ। १. श्रावकों को साधुगण के साथ ही प्रतिक्रमण करना चाहिए। २. पौषधव्रतधारी गीतार्थ- श्रमण के अभाव में उपदेश दे सकता है किन्तु सभा के सम्मुख प्रावचनिक पद्धति से नहीं। ३. चैत्य में मध्याह्न-काल का देववन्दन करने के पश्चात् यदि उपासक 'आहार पोसही' हो तो जो प्रत्याख्यान एकासन, निवी, अथवा आयम्बिल का किया हो, वह पूर्ण करे। लेखक ने पूर्व में लिखा है - "पादोन पौरुषी व्यतीत होने पर पडिलेहन करूं का आदेश लेकर, भण्डोपकरण अर्थात् थाली, कटोरा आदि पात्रों की प्रमार्जना करे।" उपधान-तप आदि बड़ी तपस्याओं में ही भोजन पात्र रखे जाते हैं, सामान्य एक दिवस के पौषध में नहीं। "जो पुण आहारपोसही देसओ" शब्द से स्पष्ट है। पौषधव्रती राग और द्वेष की परिणति से रहित होकर शास्त्रीय नियमानुसार अपने घर पर अथवा पूर्व निश्चित स्थान पर जाकर भोजन करे। भोजन के लिये एकादश प्रतिमाधारक व्यक्तियों को छोड़कर श्रमण की तरह भ्रमण न करे। यह प्राकृत भाषा में गद्य और पद्य दोनों में संकलित है। इसमें प्रचुर परिमाण में आगमिक उदाहरण भी दिये गये है। यह पौषधविधि का मूल पाठ 'सिरिपयरणसंदोह' में प्रकाशित है। प्रस्तावना Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. प्रतिक्रमण-समाचारी - गणिजी का विधि-स्थापन के रूप में यह दूसरा लघुकायिक ग्रंथ है। इसमें साधु और श्रावकों को सर्वदा गुरु के साथ प्रतिक्रमण करने का सुविहित आचार्यों द्वारा स्वीकृत परम्परा के अनुसार विधान किया है। प्रतिक्रमण पाँच प्रकार के होते हैं - १. रात्रि, २. दैवसिक, ३. पाक्षिक, ४. चातुर्मासिक और ५. सांवत्सरिक। पद्य ३ से २४ तक कवि दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि का वर्णन करता है और पद्य २५-३३ में रात्रि प्रतिक्रमण का। पद्य ३५-३९ तक में अवशिष्ट तीनों प्रतिक्रमणों की विशिष्ट विधि का उल्लेख करता हुआ पद्य ४० में अपना नाम देकर उपसंहार करता है। कवि ने दैवसिक प्रतिक्रमण का विधान 'देवसिय प्रायश्चित्त कायोत्सर्ग' तक ही दिया है तथा रात्रि-प्रतिक्रमण का अन्तिम देववन्दन तक। स्पष्ट है कि वार्तमानिकी विशेष क्रियायें गुरु-परम्परा मात्र की ही बोधक हैं। यह लघु ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित रहा है। ८. स्वप्न-सप्तति - इसका प्राकृत नाम सुमिण-सत्तरी है। आचार्य जिनवल्लभ ने सार्द्धशतक, षडशीति, अष्टसप्ततिका, प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकादि ग्रंथों के समान ही ७१ गाथा के इस ग्रंथ का नाम भी स्वप्नसप्तति या स्वप्नैकसप्तति रखा है। जिनवल्लभ के प्रायः समस्त ग्रंथों में, प्रारम्भ में मंगलाचरणात्मक तीर्थंकरों को नमस्कार और ग्रंथान्त में स्वयं का नाम प्राप्त होता है, किन्तु स्वप्नसप्तति में इन दोनों का अभाव है। भगवान् महावीर ने कहा है कि दुषमकाल के अन्तिम समय में, श्री दुप्पसहसूरि तक छेदोपस्थान चारित्र रहेगा, अतः इस दुषमकाल में उक्त चारित्र का अभाव मानना व्यामोह मात्र है। तीर्थंकरों की विद्यमानता में भी आज्ञाबाह्य एवं जिनवचन-विराधकों को उक्त चारित्र कदापि नहीं होता है। अतः भव्यों को चारित्र के प्रति यथाशक्य प्रयत्न करना चाहिये और व्यामोहित गतानुगतिकमार्ग का त्याग कर, जिनाज्ञा एवं आगमसम्मत चारित्र धर्म का विचार, प्रमाणीकरण तथा उस पर स्थिरता करनी चाहिए। प्रस्तावना Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिथिलाचारियों का आगमविरुद्ध आचरण और व्यवहार बहुजनसम्मत होने पर भी तिरस्करणीय है । यह प्रवृत्ति निन्द्य होने पर भी कतिपय आगम के जानकार आचार्यों ने इसका विरोध या निषेध क्यों नहीं किया है ? इसका समाधान पूर्वाचार्यों द्वारा शास्त्रों में दर्शित इस प्रसंग (कथानक ) से किया है । दुषम सुषम नामक चौथे आरे के अन्त में किसी राजा (पुण्यपाल ) ने आठ स्वप्न देखे और समवसरण में जाकर श्रमण भगवान् महावीर से इन स्वप्नों का फल पूछा। आठ स्वप्न निम्नांकित है: १. जीर्ण-शीर्ण शाला में स्थित हाथी, २. चपलता करता हुआ बन्दर, ३. कण्टकों से व्याप्त क्षीरवृक्ष, ४. कौआ, ५. सिंह मृत होने पर भी भयदायक, ६ . अशुचिभूमि में उत्पन्न कमल, ७. ऊषर क्षेत्र में बीजवपन, और ८. म्लान स्वर्णकलश । भगवान् महावीर ने इन स्वप्नों का फल अनिष्टकारक बतलाते हुये कहा कि - काल के प्रभाव से भविष्य में देवमन्दिरों में शिथिलाचारी निवास करेंगे। वे विकथा करेंगे, आयतन विधि का त्याग कर अविधिमार्ग का अवलम्बन ग्रहण करेंगे, भग्न परिणाम वाले होंगे, और आगमज्ञ विरल साधुओं का समादर नहीं होगा । इन स्वप्न फलों के आधार पर ही कवि की मान्यता है कि इस हुण्डावसर्पिणी काल में दशम आश्चर्य रूप असंयत पूजा और भस्म राशि ग्रह के प्रभाव से शास्त्रोक्त क्रिया एवं आचार का पालन करने वाले सुसाधुजन अत्यल्प होंगे और वेषधारी पार्श्वस्थ - कुशील आदिकों की बहुलता रहेगी। ये लोग जिनशासन और प्रवचन के लिये असमाधिकारी होंगे और स्वयं के लिये वे कलहकारी एवं डमरकारी होंगे। ये पार्श्वस्थ शास्त्रों की आड में मन्दिरों में निवास की उपयोगिता बताते हुए सिद्धान्त विपरीत आचरण करेंगे और समाज को भी उसी गड्ढे में धकेलेंगे, इससे इनके भवभ्रमण की वृद्धि होगी। इस प्रकार चैत्यवासी शिथिलाचारियों की मान्यता और प्ररूपणा को शास्त्रविरुद्ध होने से त्याज्य, निन्द्य, गर्हणीय कहकर, प्रस्तावना Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मखौल उड़ाते हुये सुविहित धर्म की ओर भव्यों को आकृष्ट करने का प्रयत्न किया है। यह मूल ग्रंथ सुमिण-सतरी के नाम से सिरिपयरणसंदोह में प्रकाशित है। ९. द्वादशकुलकानि - कवि ने अपना जीवन केवल वैधानिकचर्चाओं और प्रौढ-साहित्यिक रचनाओं में ही नहीं बिताया है। वह धर्मप्रचार का लक्ष्य भी रखता है। इसीलिये उसने द्वादशकुलकों और धर्मशिक्षा प्रभृति औपदेशिक ग्रंथों का प्रणयन किया है। सर्वत्र स्थलों में स्वयं का विचरण असंभव है, स्वीकार कर अन्य प्रदेशों में उपदेशों के साथ-साथ वैधानिक सुविहित-पथ का भी प्रचार हो इस दृष्टि को लक्ष्य में रख कर, गणदेव नामक उपासक को साहित्यक-प्रचारक बना कर, प्रस्तुत ग्रंथनिर्माण कर, बागड देश में प्रचारार्थ भेजा। श्रावक गणदेव ने भी स्थानस्थान पर जाकर द्वादशकुलकों का खूब प्रचार किया और सामान्य जनता को धर्म के प्रति आकृष्ट किया। इसका फल इनके पट्टधर आचार्यों जिनदत्तसूरि आदि को विशिष्ट रूप से प्राप्त हुआ। इस ग्रंथ में कुल १२ कुलक हैं और ये सभी कुलक परस्पर सम्बद्ध होते हुए भी मौलिक काव्य की तरह स्वतंत्र भी हैं। इसीलिये कवि ने इस ग्रंथ का नाम भी द्वादशकुलकानि रखा है। प्रस्तुत ग्रंथ औपदेशिक होने पर भी कवि ने अपनी स्वाभाविक प्रतिभा से, लाक्षणिक दृष्टि से लिख कर इसे प्रासाद एवं माधुर्य गुणमय काव्य का रूप प्रदान कर दिया है। इसका पठन करने पर पाठकों को उपदेश के साथ-साथ काव्य-गरिमा का आस्वादन भी होता है। यह ग्रंथ जिनपालोपाध्याय कृत टीका सहित श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत से प्रकाशित है। १०. धर्म-शिक्षा-प्रकरण - कवि ने इस काव्य की सृष्टि भव्यजीवोपकारार्थ ही की है। यह श्लोक संख्या की अपेक्षा तो अत्यंत ही लघु काव्य है किन्तु प्रसाद और ओज संयुक्त होने से इसकी कोमल-कान्त प्रस्तावना Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदावली, चित्रकाव्य-गरिमा, अलंकारों का सम्मिश्रण तथा विविधतामयी छंद योजना इसको एक विशेष महत्त्व प्रदान करते हैं। प्रस्तुत काव्य में जीवन में आचरणीय १८ विषयों का प्रतिपादन बहुत ही मार्मिक शैली से किया गया है। प्रस्तुत अठारह विषयों में देव गुरु और धर्म तीनों की प्रमुखता बतलाते हुए इनकी आराधना-पद्धति, तज्जनित फल और सांसारिक पदार्थों की नश्वरता से उत्पन्न दुःख तथा उनके निवारण के हेतुओं का विवेचन बहुत ही सरल शब्दों में किया गया है। १८ विषय निम्नलिखित हैं: भक्ति श्चैत्येषु शक्तिस्तपसि गुणिजने सक्तिरर्थे विरक्तिः, प्रीतिस्तत्त्वे प्रतीतिः शुभगुरुषु भवाद् भीतिरुद्धात्मनीतिः। क्षान्तिः दान्तिः स्वशान्तिः स्वहतिरबलावान्तिरभ्रान्तिराप्ते, ज्ञीप्सा दित्सा विधित्सा श्रुत-धन-विनयेष्वस्तु धीः पुस्तके च ॥ उक्त प्रत्येक विषय का दो-दो पद्यों में प्रतिपादन किया गया है। प्रथम और अन्तिम पद्य चक्रबन्धकाव्यरूप में है जिसमें कवि ने अपना नाम 'जिनवल्लभगणिवचनमिदम्' और 'गणिजिनवल्लभवचनमदः' सूचित किया है। इस परिपाटी की रचना श्वेताम्बर जैन साहित्य में सम्भवतः सर्वप्रथम आचार्य जिनवल्लभ ने ही की है। इसके अनुकरण पर तो परवर्ती कवियों ने अनेक रचनायें की हैं जिनमें सोमप्रभाचार्य प्रणीत सिन्दूरप्रकर आदि मुख्य हैं। इस धर्म शिक्षा प्रकरण का मूल प्रकाशित है। श्री जिनपालोपाध्याय कृत टीका सहित ग्रंथ का मैं सम्पादन कर रहा हूँ, जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा। ११. सङ्घपट्टक - इस काव्य की रचना में गणिजी के जीवन का चरमोत्कर्ष निहित है। उपसम्पदा के पश्चात् आपने चैत्यवास का सक्रिय विरोध कर उसके आमूलोछेच्दन करने का प्रयत्न किया और इस प्रयत्न में इनको पूर्ण सफलता भी प्राप्त हुई। गणिजी ने इस लघु काव्य में तत्कालीन चैत्यवासी आचार्यों की शिथिलता, उनकी उन्मार्ग-प्ररूपणा और सुविहितपथप्रकाशक गुणिजनों के प्रति द्वेष इत्यादि विषयों का सुन्दर चित्र प्रस्तावना Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपस्थित करते हुए विधिपक्ष के व्यावहारिक आचार का विवेचन किया है। संघ (विधिपक्ष) का पट्टक (विधानशास्त्र) होने से कवि ने इसका नाम भी संघपट्टक किया है। इस काव्य में ४० पद्य हैं। इस लघु काव्यात्मक वैधानिक एवं चार्चिक ग्रंथ में भी गणिजी ने निदर्शना, अप्रस्तुत-प्रशंसा, अर्थान्तरन्यास, तुल्ययोगिता, रूपक, उपमा, अनुप्रासादि अलंकारों तथा स्रग्धरा आदि ८ प्रकार के छन्दों के प्रयोग द्वारा अपनी बहुमुखी प्रतिभा का सुन्दर परिचय दिया है। समग्र काव्य ओज गुण से परिपूर्ण होने के कारण पाठक के हृदय को पुलकित करता है। यह ग्रंथ श्री जिनपतिसूरि कृत बृहद टीका सहित श्री जेठालाल दलसुख, अहमदाबाद द्वारा एवं साधुकीर्तिगणि, श्री लक्ष्मीसेन और हर्षराजोपाध्याय रचित तीन टीकाओं के साथ श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत से प्रकाशित है। १२. शृङ्गारशतकाव्यम् - कवि की साहित्यिक कृतियों में श्रृंगार शतक का विशेष स्थान है। कवि की यह रचना आचार्य अभयदेव के पास उपसम्पदा ग्रहण करने के पूर्व की है। 'तत्काव्यदीक्षागुरुं' वाक्योल्लेख से स्पष्ट है कि कूर्चपुरीय आचार्य जिनेश्वर की ओर इनका संकेत है। उ० जिनपाल और सुमति गणि ने भी स्वीकार किया है कि व्याकरण, साहित्य, अलंकार, छंद, न्याय, दर्शन, आदि का अध्ययन और दीक्षा आचार्य जिनेश्वर से ही कवि ने प्राप्त की थी और जैनागमों का अभ्यास तथा उपसम्पदा आचार्य अभयदेव से ग्रहण की थी। कवि ने भरत का नाट्यशास्त्र और कामतन्त्र का अध्ययन कर इस शतक की रचना की है। इस शतक में कुल १२१ पद्य हैं। वियोगिनी, अनुष्टप्, वसन्ततिलका, मालिनी, मन्दाक्रान्ता, हरिणी, शिखरिणी, पृथ्वी, शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा आदि छन्दों का प्रयोग कवि ने स्वतंत्रता से किया है। इस शतक की विशेषता और काव्यत्व के सम्बन्ध में मैंने वल्लभ भारती प्रथम खण्ड पृ० १२८ से १३३ तक चर्चा की है, वह द्रष्टव्य है। यह ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है। इसकी वि०सं० १५०७ की लिखित एक मात्र प्रति ५० वर्ष पहले श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञान भण्डार, प्रस्तावना Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्दौर में उपलब्ध थी, किन्तु भण्डार के व्यवस्थापकों की असावधानी के कारण आज अनुपलब्ध है। १३. प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् - विविध छन्दों में गर्भित १६१ श्लोकों की यह रचना होने से 'प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतम्' के नाम से प्रसिद्ध है। यह एक श्लोकबद्ध प्रश्नावली है। इसकी रचना जैसा कि प्रारम्भ में ही कहा गया है बुधजनों के बोध के लिये ही की गई है। इस प्रश्नावली में जो प्रश्र एकत्र किये गये हैं उससे स्पष्ट है कि उस समय की पण्डित-मण्डली कैसे उच्चकोटि के बौद्धिक मनोविनोदों की अपेक्षा रखती थी, क्योंकि इसमें जहाँ व्याकरण, निरुक्त, पुराण, दर्शन, तथा व्यवहार आदि विविध विषयों को लेकर प्रत्युत्पत्ति तथा प्रतिभा की परीक्षा करने वाली पहेलियाँ हैं, वहाँ सुरुचि, सदाचार तथा सद्धर्म की भी कहीं उपेक्षा नहीं की गई है। कवि के प्रकाण्डपाण्डित्य एवं ज्ञान-गांभीर्य को प्रकट करने वाली विषयों की विविधता के साथ-साथ प्रश्नों में शैलीभेद से होने वाले प्रकारों को भी इसमें भलीभांति दिखाया गया है। प्रश्नों में विषम-भेद और शैलीभेद के अतिरिक्त भाषाभेद भी मनोरंजनकारी है। अधिकांश पद्य शुद्ध संस्कृत में होते हुये भी कहीं-कहीं शुद्ध प्राकृत या मिश्रभाषा का प्रयोग भी हुआ है। कुल १६१ पद्यों के छोटे से काव्य में भी २० छन्दों का प्रयोग, काव्यगत अन्य विविधताओं को देखते हुए कवि के वैविध्यप्रेम का सूचक है। परन्तु इतनी विभिन्नता तथा विविधता होते हुए भी, इस काव्य में भी वे गुण न्यूनाधिक रूप से देखे जा सकते हैं जो कवि के अन्य काव्यों में पाये जाते हैं। इस काव्य की सबसे बडी विशेषता है इसका चित्रकाव्यत्व। जैसा कि परिशिष्ट से ज्ञात होगा। इसमें कुल मिलाकर २८ चित्रों की योजना है, परन्तु यहाँ भी कवि-वैविध्य-प्रेम उसे ८ प्रकार के चित्रों का समावेश करने को बाधित करता है। सामान्यसरलता और सुबोधता होते हुए भी इस काव्य में कहीं-कहीं चित्रकाव्य सुलभ क्लिष्टता भी आ गई है। प्रस्तावना Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी शैली की दूसरी प्रमुख विशेषता है चमत्कार प्रेम। यों तो विविधता में भी चमत्कार है और वस्तुत: उनका वैविध्यप्रेम चमत्कार-प्रेम का पोषक होकर ही आया हुआ प्रतीत होता है, परन्तु उनके चमत्कार प्रेम का सबसे बड़ा प्रमाण हमें उनके चित्रकाव्यों में मिलता है। काव्यगत विशेष परिचय के लिए वल्लभ भारती प्रथम खण्ड देखें। यह ग्रंथ अज्ञात कर्तृक अवचूरि के साथ श्रीस्तोत्ररत्नाकरद्वितीयभागः सटीकः में प्रकाशित है। १४. अष्टसप्तति/चित्रकूटीय वीरचैत्यप्रशस्ति - इस कृति में कुल ७८ पद्य होने से यह अष्टसप्तति के नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य जिनपतिसूरि ने संघपट्टक पद्य ३३ की टीका में चित्रकूट में नवनिर्मापित महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा से सम्बद्ध प्रशस्ति होने से इसका नाम चित्रकूटवीरचैत्यप्रशस्ति माना है। चित्तौड़ के वीरचैत्य की शिलालेख प्रशस्ति होने से चित्रकूटीयवीरचैत्यप्रशस्ति नाम दिया गया है। जिनपालोपाध्याय ने भी चर्चरी पद्य ४ की टीका में 'प्रशस्तिप्रभृतिकम्' उल्लेख किया है। . यह प्रशस्ति शिलापट्ट पर उत्कीर्ण कर वि०सं० ११६३ में चित्तौड़ में नवनिर्मापित महावीर विधिचैत्य में लगाई गई थी। दैव दुर्विपाक से चितौड़ में न तो आज महावीर चैत्य के ध्वंसावशेष ही प्राप्त हैं और न शिलापट्ट के अवशेष ही। शिलापट्ट नष्ट होने से पूर्व ही किसी अज्ञात नामा इतिहास और साहित्यप्रिय विद्वान् ने इसकी प्रतिलिपि की थी, वही एक मात्र प्रति के रूप में, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद में उपलब्ध है। ___ यह प्रशस्ति वस्तुतः जिनवल्लभ की संक्षिप्त आत्म-कथा है। जिसका सारांश कवि के परिचय में दिया जा चुका है। इस प्रशस्ति का वैशिष्ट्य यह है कि परमार वंशीय महाराजा भोज, मालव्यभूम्युद्धारक उदयादित्य और चित्रकूटाधिपति नरवर्म का यशोगान एवं मेदपाट देश की राजधानी चित्रकूट की शोभाश्री का सालंकारिक सुन्दरतम वर्णन प्राप्त है। मेदपाट पर परमार वंशीय नरवर्म का आधिपत्य का उल्लेख ऐतिहासिक उल्लेख है। स्वयं कूर्चपूरगच्छीय जिनेश्वसूरि के शिष्य थे और चन्द्रकुलीय नवांगी टीकाकार प्रस्तावना Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयदेवसूरि के पास इन्होंने उपसम्पदा ग्रहण की थी । चित्रकूटीय इनके भक्तगण श्रेष्ठियों का भी नामों के साथ उल्लेख प्राप्त होता है । अनेक जैन मन्दिरों से मण्डित चित्रकूट में नवीन विधि चैत्य के निर्माण का उद्देश्य, निर्माण कार्य में विघ्न, तथा कार्य की समाप्ति, महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा और उपासकों की धार्मिक प्रवृत्ति का उल्लेख करते हुए नृपति नरवर्म द्वारा प्रति रवि - संक्रान्ति पर पारुत्थ-द्वय देने का संकेत किया है । कवि का स्वर्गवास वि०सं० ११६७ चित्तौड़ में हुआ था । स्वर्गारोहण के ४ वर्ष पूर्व ही अर्थात् वि०सं० ११६३ में उन्होंने इस प्रशस्ति की रचना की । रचना में प्रौढ़ता, प्रांजलता, लाक्षणिकता, चित्रकाव्यात्मकता आदि काव्य के समस्त गुण पदपद पर प्राप्त होते है। इसकी काव्य- गरिमा को देखते हुए इसको लघु काव्य भी कह सकते है । १५. चित्रकूटीय पार्श्वचैत्य - प्रशस्ति जिनवल्लभ गणि के उपदेश से चित्रकूट में महावीर चैत्य और पार्श्वनाथ चैत्य अर्थात् दो विधि - चैत्यों का निर्माण हुआ था और उन दोनों की प्रतिष्ठा जिनवल्लभ गणि ने करवाई थी । कालप्रभाव से मुगल आक्रमणों के कारण दोनों ही मंदिर नष्ट किए गये। आज ध्वंसावशेष भी प्राप्त नहीं है । पार्श्वचैत्य की प्रशस्ति भी धूली - धूसरीत की गई। सौभाग्य से प्रशस्ति का एक शिलाखण्ड गभीरा नदी (चित्तौड़ के पास) में प्राप्त हुआ, जो आज वहाँ के संग्रहालय में सुरक्षित है । — प्रस्तर पर टंकित अष्टदल कमल गर्भित चित्रकाव्य के रूप में आठ श्लोक प्राप्त हैं। इससे इतना ही स्पष्ट होता है कि जिनवल्लभ गणि ने पार्श्वचैत्य की प्रतिष्ठा की थी । १६. - २१. चरित्र - षट्क इस चरित्र षट्क में १. आदिनाथ, २. शान्तिनाथ, ३. नेमिनाथ, ४. पार्श्वनाथ और ५ - ६. महावीर देव - इन छः चरित्रों का संक्षिप्त समावेश है। इसमें पद्यों की संख्या क्रमशः इस प्रकार २५, ३३, १५, १५, ४४ और १५ । ये छहों चरित्र प्राकृत भाषा में हैं और सभी चरित्रों में कवि ने आर्या छन्द का ही प्रयोग किया है । केवल ५वें महावीर - चरित्र में प्रथम पद्य मालिनी वृत्त और अन्तिम पद्य शार्दूलविक्रीडित - प्रस्तावना Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I वृत्त में है । चरित्रों में घटना बाहुल्य होने के कारण अलंकारों का समावेश नहीं के समान ही है किन्तु विशेषणों में कहीं-कहीं रूपक और उपमा अलंकार अवश्य ही प्राप्त हो जाते है । पाँचों चरित्र घटना प्रधान हैं। पाँचों जिनेश्वरों के ६३ घटनाओं का भवसंख्या, च्यवन स्थान, च्यवन स्थिति, च्यवन तिथि, च्यवन नक्षत्र आदि का संक्षेप में वर्णन है । घटनाओं के अतिरिक्त जो विशेष बातों का उल्लेख कवि ने किया है । वे हैं (१) आदिनाथ चरित में साधु की चिकित्सा से चक्रवर्ती नाम कर्म का उपार्जन और इक्ष्वाकु वंश की उत्पत्ति के कारण का उल्लेख किया है । (२) शांतिनाथ चरित में गुप्त गर्भ का और चक्रवर्ती की ऋद्धि का उल्लेख प्राप्त होता है । (३) नेमिनाथ चरित में राजमति के त्याग का उल्लेख है। (४) (५) (६) प्रस्तावना पार्श्वनाथ चरित में सिर पर सर्पराज की फणाओं का और कमठ नामक तापस को प्रतिबोध देने का उल्लेख है । महावीर चरित मरीचि के भव में भगवान् आदिनाथ के मुख से 'मैं भविष्य में वासुदेव, चक्रवर्ती और अंतिम तीर्थंकर महावीर होऊँगा, सुनकर जातिमद करना, ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानंदा की कुक्षि में उत्पन्न होना, ८२ दिवस पश्चात् हरिनैगमेषि नामक देव द्वारा गर्भ परिवर्तन होना, इन्द्रादि देवताओं द्वारा महावीर नाम रखना, दीक्षा ग्रहण के पश्चात् शूलपाणी यक्ष के उपसर्ग, उग्रतपस्यचर्या और केवलज्ञान पश्चात् प्रथम देशना का निष्फल होना आदि का भी विशेष उल्लेख है । ' वीर चरित इसमें सामान्यतया भ० महावीर की स्तुति की गई है और पद्य ८ से ११ तक कर्म की विचित्र गति का सुन्दर चित्रण 28 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हुए लिखा है - देवेन्द्र स्तुत त्रिजगत्प्रभु तथा त्रिभुवन के अनन्यमल्ल होने पर भी आपको मरीचि के भव में उपार्जित पाप का लवलेश रहने के कारण गोपाल से अनेक प्रकार की कदर्थना सहन करनी पड़ी। आह ! कर्मगति विचित्र है कि स्त्री, गाय, ब्राह्मण तथा बालक की हत्या और महापाप करने वाले दृढप्रहारी आदि पुरुष तो उसी भव में सिद्ध हो गये किन्तु आपको १२ वर्ष ६ मास १ पक्ष तक कष्ट सहन करने के पश्चात् ही कैवल्य पद प्राप्त हुआ। उक्त पाँचों चरित्र मूल रूप में सिरिपयरणसंदोह में प्रकाशित हैं और छठा वीरचरित्र अप्रकाशित है। २२. चतुर्विंशति-जिन-स्तुतयः - स्तुति 'थुई' की परम्परानुसार प्रथम पद्य में नाम विशेष तीर्थंकर की, द्वितीय पद्य में सामान्य जिनेश्वरों के गुणों की, तृतीय पद्य में जिनागम-जिनवाणी की और चतुर्थ पद्य में श्रुतदेवता या तीर्थंकर के शासन देवता की स्तवना की जाती है। इस मान्यता के अनुसार स्तुति-साहित्य के सर्वप्रथम सर्जकों में संस्कृत भाषा में रचना करने वाले आ० बप्पभट्टि, महाकवि धनपाल के अनुज श्री शोभनमुनि और प्राकृत भाषा में गुम्फन करने वाले आचार्य जिनवल्लभ हैं। परवर्ती स्तुतिकार कवियों के प्रेरक ये आचार्य ही हैं। ___ ९६वें गाथा की 'चतुर्विंशति-जिन-स्तुतयः' नामक लघु कृति में ४-४ गाथाओं में प्रत्येक तीर्थंकर की स्तुति की गई है। इन २४ स्तुतियों में उक्त परम्परा का पालन तो किया ही गया है। साथ ही प्रत्येक स्तुति के प्रथम पद्य में तीर्थंकर-नाम के साथ, छह अन्य वर्ण्य-विषयों का भी समावेश किया गया है, जो इन स्तुतियों का वैशिष्ट्य है। ये ६ वर्ण्य-विषय निम्न है - १. तीर्थंकर की माता का नाम, २. पिता का नाम, ३. लक्षण ४. शरीर का देहमान, ५. जिस देवलोक से च्युत होकर माता के गर्भ में आये उस देवलोक का नाम और ६. जिस नक्षत्र में देवलोक से च्युत होकर माता के गर्भ में आये उस नक्षत्र का नाम। प्रस्तावना Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसकी एक मात्र प्रति पहले विजय धर्मलक्ष्मी ज्ञान मन्दिर, आगरा में प्राप्त थी। २३. चतुर्विंशति-जिन-स्तोत्राणि - इसमें कवि ने प्रत्येक तीर्थंकर की जीवन के १५ प्रसंगों का उल्लेख बड़ी सफलतापूर्वक किया है। पद्यों की कुल संख्या १४५ है, जिसमें अन्तिम पद्य कविनाम गर्भित उपसंहार का है। इसकी भाषा प्राकृत और छन्द आर्या है। वस्तुतः चरित्र षट्कान्तर्गत ६३ प्रसंगों और इस स्तोत्र के अन्तर्गत १५ विषयों का आश्रय लेकर परवर्ती कवियों ने 'सप्ततिशतस्थानक प्रकरण' आदि ग्रंथों की रचना की है। श्वेताम्बर जैन-साहित्य में इस प्रकार की तथा पंचकल्याणक गर्भित स्तोत्रादि कृतियों के प्रादुर्भाव का श्रेय सर्वप्रथम आचार्य जिनवल्लभ को ही है। इस स्तोत्र में वर्णित १५ विषय को निम्नलिखित पद्धति से दर्शाया गया है। २४ तीर्थंकरों के - च्यवन स्थान, तिथि, जन्मभूमि, जन्मतिथि, शरीरवर्ण, राशि, दीक्षातप, दीक्षापरिवार छद्मस्थकाल, ज्ञाननगरी, ज्ञानतिथि, दीक्षा पर्याय, आयुष्य, निर्वाणतिथि, निर्वाणस्थान। यह स्तोत्र सिरिपयरणसंदोह में प्रकाशित है। २४. नन्दीश्वरचैत्यस्तव - नन्दीश्वर नामक अष्टमद्वीप में स्थित शाश्वत ५२ जिनालयों और उनमें प्रत्येक चैत्यालयों में स्थित १२४ जिन-प्रतिमाओं का कवि ने भक्ति पुरस्सर वन्दन करते हुए अपनी लघुयोजना शैली द्वारा पच्चीस आर्याओं में आकर्षक वर्णन किया है। कवि के वर्णनानुसार प्रत्येक दिशा में ४ अंजनगिरि, १६ दधिमुखगिरि, ३२ रतिकर पर्वतों के नाम, पुष्करिणीयों के नाम, वन-खण्डों के नाम भी दिये है। प्रत्येक पर्वत पर एक जिनचैत्य है, ४-४ दरवाजें है, चैत्यों में प्रमाणोपेत १२० प्रतिमाएँ है। मणिमय वेदिका पर ऋषभाननादि ४ शाश्वत तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ है। प्रत्येक चैत्य तोरण, ध्वजा, अष्टमंगल तथा पूजादि की समग्र सामग्रियों से आकलित है। १६ राजधानियों के नाम भी दिये हैं। कवि ने उपसंहार करते हुए मतान्तरों का प्रस्तावना Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी उल्लेख किया है - सूत्रों के अनुसार २०, वृत्तियों की दृष्टि से ५२, राजधानियों के विचार से १६ तथा मतान्तर से ३२ जिनेश्वरों को नमस्कार करता है जो नन्दीश्वर द्वीप के चैत्यों में विराजमान बतलाये गये हैं। यह कृति भी प्राकृत भाषा में है। २५. सर्वजिनपञ्चकल्याणक-स्तोत्र - इस स्तोत्र में कवि ने २४ तीर्थंकरों के सामान्यतया पाँचों कल्याणकों अर्थात् १२० कल्याणकों के समय का वर्णन मास-तिथि आदि पूर्वक २६ आर्याओं में किया है। यथा - कार्तिक, कृष्णा ५ को संभवनाथ केवलज्ञान, कार्तिक कृष्णा १२ को पद्मप्रभ जन्म और नेमिनाथ का च्यवन, कार्तिक कृष्णा १३ को पद्मप्रभ की दीक्षा, कार्तिक कृष्णा १५ को महावीर का निर्वाण। यह कृति सिरिपयरणसंदोह में प्रकाशित है। २६. सर्वजिनपञ्चकल्याणक-स्तोत्र - मदनावतार नामक मात्रिक छन्द में ग्रथित सामान्य रूप से (अर्थात् जिसमें किसी तीर्थंकर विशेष का नाम न लिया गया हो उसे सामान्य कहते हैं) समग्र तीर्थंकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण इन पाँच कल्याणकों का गुणगौरव और अतिशयों का वर्णन इसमें किया गया है। नामानुरूप मदनावतार की गेयता इसमें परिपूर्णरूप से लक्षित होती है। यह कृति अप्रकाशित है। २७. महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका - जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें सर्वज्ञ-जिनेश्वरों की सेवा में कवि ने अत्यन्त ही भक्ति से ओतप्रोत एक विज्ञप्ति की है। कवि सांसारिक भव-बन्धनों से, जन्म, जरा, मरण, दुःख, शोक आदि से त्रस्त होकर सर्वज्ञ-जिनेश्वरों के अपरिमित एवं अनन्त गुणों का संस्मरण करता हुआ तथा उनके सन्मुख अपने अवगुणों की स्पष्ट रूप से निन्दा, गर्दा और प्रायश्चित्त करता हुआ दृष्टिगत होता है। उसकी प्रार्थना है कि भगवान् उसे सम्यक्त्व (बोधि) प्रदान करते हुए शिवनगरी का मार्ग शीघ्र बतायें। इसकी भाषा प्राकृत और इस विज्ञप्ति में ३७ आर्याओं के अतिरिक्त अन्तिम छन्द वसन्ततिलका है। प्रस्तावना Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. प्रथमजिनस्तवनम् - ३३ पद्यात्मक इस स्तोत्र में यथासामान्य प्रथम तीर्थपति श्रीआदिनाथ के गुणों की स्तवना और स्वयं की लघुता प्रदर्शित की गई है। ___ स्तवना की अपेक्षा भी तद्देशीय प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के छन्दों की विविधता के कारण इसका महत्त्व विशेष है। यह कृति अपभ्रंश प्रधान है किन्तु प्राकृत भाषा का प्रभाव भी इस पर लक्षित होता है। इसमें दोहा, पद्धटिका, पादाकुलक, वस्तुवदन, मदनावतार, द्विपदी, मात्रा पचपदी, एकावली, क्रीडनक, हक्का, षट्पदी आदि छन्दों का कवि ने स्वतंत्रता से प्रयोग किया है। तत्कालीन प्राकृत-अपभ्रंश स्तोत्र साहित्य में छन्द वैविध्य की दृष्टि से यह रचना संभवत: अजितशान्ति स्तोत्र के बाद सर्वप्रथम ही हो! परवर्ती काल में इन प्राकृत/अपभ्रंश छन्दों का अपभ्रंश एवं प्राचीन हिन्दी में प्रचुरता से उपयोग हुआ है। यह रचना भी अप्रकाशित है। २९. लघु अजित-शान्तिस्तवनम् - इस स्तोत्र का प्रसिद्ध और अपरनाम 'उल्लासि' है। इसमें द्वितीय जिनेश्वर अजितनाथ और सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ की स्तुति की गई है। श्वेताम्बर जैन-स्तोत्र-साहित्य में प्रसिद्धतम 'अजितशान्तिस्तव' के अनुकरण पर कवि ने इसकी रचना की है। कोमलकान्तपदावली का जो लालित्य और संगीत अजितशान्ति स्तव में है, उससे कुछ अधिक ही इसमें प्राप्त होता है। जिन पदों में दोनों तीर्थंकरों की स्तुति एक साथ की गई हैं, उसमें कवि की शब्द-योजना तथा भाषासौष्ठव देखते ही बनता है। इस स्तोत्र का आज भी खरतरगच्छ समाज में त्रयोदशी एवं विहार के दिवसों में पठन-पाठन प्रचलित है और दैनिक संस्मरणीय सप्तस्मरण स्तोत्रों में इसका द्वितीय स्थान है। इसकी लोकप्रियता और प्रभावोत्पादकता का इससे अधिक और क्या प्रमाण हो सकता है? यह स्तोत्र श्री धर्मतिलकगणि कृत टीका सहित 'सटीकाः वैराग्यशतकादिपंचग्रंथा' में प्रकाशित है। ३०-३२.स्तम्भनपार्श्वनाथ स्तोत्र, क्षुद्रोपद्रवहर-पार्श्वनाथ स्तोत्र एवं महावीर-विज्ञप्तिका - क्षुद्रोपवहर पार्श्वनाथ स्तोत्र २२ आर्याओं में प्रस्तावना Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रथित है। इस स्तोत्र में भगवद्गुण कीर्तन के साथ भगवन्नाम-माहात्म्य से समस्त प्रकार के आधि-व्याधि उपद्रवों के नाश होने का प्रभावोत्पादक वर्णन किया गया है। स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तोत्र (आर्या छन्द ११) में स्तम्भनपुर के प्रसिद्ध तीर्थंपति पार्श्वनाथ की एवं महावीर विज्ञप्तिका (आर्या छन्द १२) में श्रमण भगवान् महावीर की सुन्दर और सुललित पदों में स्तवना की गई है। भाषा प्राकृत और छंद आर्या ही है। ३३. महावीरस्वामीस्तोत्र (भावारिवारणस्तोत्र)- समसंस्कृत प्राकृत भाषा में साहित्य-सर्जन करना अत्यन्त ही दुष्कर कार्य है, क्योंकि दोनों भाषाओं पर जिसका समान अधिकार हो और प्रतिभा हो वही इस शैली का अनुसरण कर सकता है। भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से ऐसे साहित्य की विशेष महत्ता है। इस प्रकार की कृति हमें सर्वप्रथम याकिनी महत्तरासूनु आचार्य हरिभद्रसूरि की 'संसारदावा' स्तुति मिलती है। प्रस्तुत महावीर स्तोत्र अपरनाम भावारिवारण भी इसी कोटि की सुन्दरतम रचना है। भक्तामर, कल्याणमन्दिर, सिन्दूरप्रकर की तरह ही 'भावारिवारण' इसका आदि पद होने से यह महावीर स्तोत्र भी इसी नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार के नाम पड़ने से यह स्पष्ट ही है कि यह स्तोत्र जनता में बहुत लोकप्रिय होने से अत्यधिक पढ़ा जाता था। अपनी आलंकारिक योजना, प्रसादगुणवैभव, माधुर्य प्रचुरता, छन्द की गेयता, तथा भावानुकूल शब्दयोजना आदि के कारण इसमें आकर्षण और प्रभाव अधिक है। इस स्तोत्र को साहित्यिक स्तोत्र-साहित्य में भक्तामर और कल्याणमंदिर की कोटि में सरलता से रखा जा सकता है। स्तोत्र का लक्ष्य भगवान् की गुणगरिमा का गान करके संगीत लहरियों द्वारा आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण करना है। इस स्तोत्र की रचना ३० वसन्ततिलका छन्दों में की गई है। यह स्तोत्र जयसागरोपाध्याय प्रणीत टीका सहित हीरालाल हंसराज, जामनगर द्वारा प्रकाशित है। इस स्तोत्र के चतुर्थ चरणरूप पादपूर्तिस्तोत्र की प्रस्तावना Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना पद्मराजगणि ने की है। उनकी स्वोपज्ञवृत्ति के साथ मेरे द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हो चुकी है। ३४. सर्वजिनेश्वरस्तोत्रम् - सम्पूर्ण जिनेश्वरों की वसन्ततिलका वृत्त द्वारा ३३ पद्यों में स्तुति की गई है। ३५. पञ्च-कल्याणक-स्तोत्रम् - इसमें स्रग्धरावृत्त में समग्र जिनेश्वरों के पाँचों कल्याणकों के अतिशयों का वर्णन है। प्रत्येक दो-दो श्लोकों में एक-एक कल्याणक का वर्णन है और अन्तिम दो पद्यों में इन सब का महत्त्व। इसकी रचना अलंकार पूर्ण और ओजमयी शैली में हुई है। इसमें समासों की जटिलता अधिक होते हुए भी सरलता होना ही इसकी विशिष्टता है। इसकी भाषा संस्कृत है। ३६. कल्याणकस्तोत्रम् - इसमें श्लोक २ से ६ तक एक-एक श्लोक में एक-एक कल्याणक का वर्णन है और प्रथम तथा अन्तिम पद्य में इनकी महत्ता वर्णित है। इसमें केवल अनुष्टुप् छन्द का ही कवि ने प्रयोग किया है। ३७-४३. अष्ट स्तोत्र - सर्वजिनेश्वर स्तोत्र और पार्श्वनाथ स्तोत्र सं० ३६ से ४३ में से प्रत्येक स्तोत्र संस्कृत भाषा में है। इन सब में न केवल कवि की शब्दचयन शक्ति, उक्ति-वैचित्र्य, चित्र-काव्यात्मकता और अलंकार-प्रयोग का तो हमें ज्ञान होता ही है अपितु इसके साथ-साथ ओज के साथ प्रसाद गुण, समास जटिलता के साथ सरलता और व्याकरण के साथ दर्शन का भी सुन्दर समन्वय दृष्टिगोचर होता है। दृष्टान्त, अतिशयोक्ति आदि अलंकार तो इन स्तोत्रों में इधर-उधर बिखरी हुई मणिराजी के समान बिखरे हुए दिखाई पड़ते हैं। इन आठों की पृथक्-पृथक् विशिष्टता निम्नलिखित है:३७. पार्श्वजिनस्तोत्रम् - तेवीसवें तीर्थंकर आश्वेनीय पार्श्वनाथ की स्तवना की गई है। कुल श्लोक ३३ हैं। शिखरिणी, मालिनी, वसन्ततिलका और हरिणी छन्दों के चार अष्टकों में रचना की गई। अन्तिम पद्य शार्दूलविक्रीडित में उपसंहार का है। प्रस्तावना Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस आद्यस्तोत्र में उपसंहार के पद्य में कवि की उस प्रतिभा के बीज का हमें भली भांति दर्शन हो जाता है जो आगे जाकर अंकुरित-पल्लवित और पुष्पित होती हुई नाना रूप ग्रहण करके कवि की यशश्री को बढ़ाती है। प्रथम रचना में होने वाले गुणापकर्ष के प्रति कवि स्वयं सजग है। जैसा कि उसने स्वयं लिखा है: 'अज्ञानाद् भणितिस्थितेः प्रथमकाभ्यासात् कवित्वस्य यत्' । अष्टप्रातिहार्यों के वर्णन के साथ उनकी धवल यशोकीर्ति का गुणगान करते हुए कवि ने कामना की है कि मुझे न राज्य चाहिए, न अर्थ चाहिए न भोग-सुख चाहिए, न इन्द्रपद चाहिए और न मोक्ष चाहिए। मुझे तो दिन-रात, स्वप्न और जागृत, स्थिर और चलते हुए, वन में और सभा में रहते हुए स्वयं के हृदय में आपकी अद्वैत भक्ति चाहिए। (पद्य ३१) इस स्तोत्र में कवि रूपक, अतिशयोक्ति, अनुप्रास, श्लेष आदि अलंकारों के माध्यम से स्वान्तर्भक्ति का निर्झर बहाया है। ३८. पार्श्वनाथस्तोत्रम् - यह अष्टक स्तोत्र है। इसमें श्रद्धा पूर्वक भगवान पार्श्वनाथ के गुणों का गान करते हुए स्रग्धरा स्तोत्र में रचना की गई है। अन्तिम नौंवा पद्य वसंततिलका छन्द में है। इसमें रूपक्र, अर्थान्तरन्यास, यमक आदि अलंकारों का सुन्दर समावेश है। ३९. पार्श्वनाथस्तोत्रम् - इस स्तोत्र में १० पद्य हैं। १ से ९ पद्य शार्दूलविक्रीडित छन्द में हैं और १०वां स्रग्धरा छन्द में है। इसमें अनुप्रास, यमक, रूपक, श्लेष अलंकारों का प्रयोग करते हुए कवि ने अपनी लघुता प्रदर्शित की है और भगवान के साथ अद्वैत होने की कामना की है। ४०. स्तम्भन-पार्श्वनाथस्तोत्रम् - इस स्तोत्र में स्तम्भनपुराधीश पार्श्वनाथ भगवान की स्तवना २४ पद्यों में की गई है। २३ पद्य शिखरिणी छन्द में है और २४वां पद्य शार्दूलविक्रीडित छन्द में। भगवान की स्तवना से समस्त व्याधियाँ दूर हो जाती है और समस्त प्रकार का आरोग्य एवं प्रस्तावना Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समृद्धि प्राप्त होती हैं। स्वयं को बुद्धिहीन, दीन, व्यसनलीन, कृपण, संसारावर्त में पतित होने के कारण टूटा हुआ बताकर मैं केवल अन्त:करण से आपकी शरण चाहता हूँ (पद्य ७) इस प्रकार की भावना व्यक्त की है। साथ ही स्वयं को शयालु, तन्द्रालु, कुगतिगामी, श्रद्धाहीन, कहकर दयालु भगवान से आशा की गई है कि आपके दर्शन से मेरा हृदय सम्यक् दर्शनयुक्त हो जाए (पद्य १६) और मेरी वाणी आपके सद्गुणों की स्तवना करती रहे, मेरा सिर आपके पादयुगल में नमित रहे, मेरा हृदय आपका प्रतिक्षण स्मरण करता रहे और मेरे नेत्र आपके मुख चन्द्रमा का पान करते रहे (पद्य १७), मुझे चिन्तामणि रत्न की अपेक्षा नहीं है। मुझे अपेक्षा है केवल निरन्तर आपकी भक्ति की (पद्य १८), हृदय की श्रद्धा को अभिव्यक्त करते हुए कवि कहता है - प्रभु! तुम मेरी माता हो, भ्राता हो, पिता हो, प्रिय सुहृत् हो, स्वामी हो, वैद्य हो, गुरु हो, शुभगति हो, मेरे नेत्र हो, मेरे रक्षक हो और मेरे प्राण हो। प्रभो! तुम मेरे लिए क्या नहीं हो? हे स्वामी ! विषय-व्याधि-समूह से जीर्ण शरीर की रक्षा करो (पद्य २१)। ४१. स्तम्भन-पार्श्वनाथस्तोत्रम् - यह पार्श्वनाथ स्तोत्र १७ पद्यों में गुम्फित है। १ से १६ पद्य मालिनी छन्द में है और १७वां पद्य हरिणी छन्द में। यह स्तोत्र भी स्तम्भनपुराधीश पार्श्वनाथ को ही लक्ष्य में रख कर लिखा गया है। यह सारा स्तोत्र ही अनुप्रास अलंकार में सर्जित है। मालिनी के प्रत्येक चरण के आठवें और पन्द्रहवें अक्षर में उसी अक्षर की पुनरावृत्ति की गई है जो इसके लालित्य को वर्धित कर रही है और कवि के अलंकार शास्त्र के प्रौढ़ ज्ञान को प्रकट करती है। उदाहरण के लिए एक पद्य प्रस्तुत हैमधुमधुरविरावं क्लेशकान्तारदावं, भवजलनिधिनावं सम्यगादिष्टभावम् । गुरुलसदनुभावं चण्डताकाण्डलावं, मदकरिहरिशावं पार्श्वमीडेऽस्तहावम् ।। (पद्य ५) प्रस्तावना Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. स्तम्भन-पार्श्वनाथस्तोत्रम् - श्री अभयदेवसूरि स्थापित एवं प्रतिष्ठित स्तम्भन पार्श्वनाथ का यह स्तोत्र १० पद्यों में निर्मित किया गया है। १ से ९ पद्य चित्र काव्यों में निर्मित हैं। प्रथम पद्य में ही प्रतिज्ञा की है कि स्तम्भनपुर में स्थित भगवान पार्श्वनाथ की शक्ति, शूल, बाण, मूसल, हल, वज्र, तलवार, धनुष और चक्र चित्रों में गुम्फित चित्र काव्य द्वारा स्तुति कर रहा हूँ। इस स्तोत्र में कवि की अपूर्व चित्रालंकार योजना का वैशद्य प्रकट होता है। चित्र काव्यों में रचना करना अत्यन्त कठिन कार्य है। इस स्तोत्र को और प्रश्नोतरैकषष्टिशतक काव्य के चित्रों का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि लेखक इसमें भी सिद्धहस्त कवि था। ४३. स्तम्भन-पार्श्वनाथस्तोत्रम् - यह अष्टक स्तोत्र है। शार्दूलविक्रीडित छन्द में रचना की गई है। आठवां पद्य चक्र काव्य में निर्मित है। इस पद्य के प्रथम, द्वितीय, तृतीय चरण का सातवां अक्षर तेरहवां अक्षर और प्रथम, द्वितीय चरण का तीसरा अक्षर ग्रहण करने पर जिनवल्लभगणिना कवि का नाम गुम्फित है। स्थान-स्थान पर मूल प्रति में इसके अक्षर भी खण्डित है। यह आठों स्तोत्र अद्ययावधि अप्रकाशित है और श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर में प्राप्त हैं। ४४. सरस्वती-स्तोत्रम् - जैन-साहित्य में जिनेश्वर देव की वाणी ही श्रुतदेवता या सरस्वती कहलाती है। वह अन्य देवियों की तरह कोई स्वतन्त्र शक्ति नहीं है। यही कारण है कि स्वतन्त्र रूप से 'सरस्वती' पर स्तोत्रसाहित्य नहीं मिलता। प्राचीन जैन ग्रंथकारों ने ग्रंथारंभ में प्रायः सरस्वती का स्मरण अवश्य किया है किन्तु जिनवाणी के रूप में ही। आचार्य जिनवल्लभ ने इसी सरस्वती को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार कर इस स्तोत्र की रचना की है। इन्हीं के चरण-चिह्नों पर चल कर परवर्ती कवियों ने इसको सरस्वती देवी के रूप में स्वीकार किया है। इसी के पश्चात् सरस्वती देवी की मूर्तियों का निर्माण भी प्रारंभ हुआ। युगप्रवरागम जिनपतिसूरि प्रस्तावना Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने सं० १३१७ में भीमपल्ली स्थान पर ५१ अंगुल परिमाण की मूर्ति की प्रतिष्ठा की ही थी। कुछ विद्वानों के मतानुसार सरस्वती की प्राचीनतम प्रतिमायें जैनों द्वारा ही स्थापित हुई हैं। हरिणीवृत्त में ग्रथित यह भारती स्तोत्र २५ श्लोकों में है। रचना की शैली सदा की भांति ही सालंकारिक, सुललितपदा तथा विदग्धमनोहरा है। सरस्वती का स्वतंत्र स्वरूप स्थापित करते हुए भी कवि ने उसका जिनवाणीरूप दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया है। इसीलिये वह भारती से 'परमविरतं' की याचना करता है। ४५. नवकार स्तोत्र - नवकार मंत्र समस्त जैन सम्प्रदायों में सर्वश्रेष्ठ मंत्र माना जाता है। इसे १४ पूर्वो का सार स्वीकार करते हुए जैन सम्प्रदाय इसकी महत्ता के सम्मुख चिन्तामणिरत्न, कल्पवृक्ष, चित्रावेली, रत्नराशि तथा कामकुम्भ को भी तुच्छ गिनता है। शत्रुञ्जय तीर्थ के समान ही इस मंत्र को प्रमुखता प्रदान की गई है। इस नवकार मंत्र में अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं को पंच परमेष्ठि रूप में स्वीकार किया गया है। उसके आराधक को 'सर्वपाप-विनिर्मुक्त' होने का फल प्राप्त होता माना जाता है। इस स्तोत्र में भी प्रथम और दूसरे पद्य में इसकी महत्ता का निर्देश है। तीसरे से आठवें तक पंच परमेष्ठि का स्वरूप और ध्यान तथा आराधना की विधि है तथा ९ से १३ तक इसके आराधन से फल प्राप्त करने वाले कतिपय आराधकों के नाम तथा इससे होने वाले अनेक प्रकार के फलों और सिद्धियों का वर्णन है । अन्तिम पद्य में अपने नाम के साथ इस मंत्र के आराधन की शिक्षा देते हुए उपसंहार किया गया है। इस स्तोत्र की भाषा अपभ्रंश है और इसका छन्द वस्तुवदन और दूहा मिश्रित 'द्विभंगी' है। यह नवकार स्तोत्र अनेक पुस्तकों में प्रकाशित है। प्रस्तावना Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति-परिचय वल्लभ-भारती द्वितीय खंड के सटिप्पण संपादन में आचार्य जिनवल्लभसूरि के समग्र ग्रंथों का संशोधन, पाठभेद और टिप्पण आदि निम्नलिखित हस्त-लिखित एवं मुद्रित ग्रंथों के आधार पर किया गया है:१. सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार मूलादर्श संज्ञक । स्व-संग्रह, पत्र संख्या २६, शुद्धतम, लेखन प्रशस्ति - सं० १४५३ वर्षे । फा । शु । १३ गुरु, पाटण मध्ये। मुद्रित संज्ञक । आचार्य धनेश्वरसूरि रचित टीका सह, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर से प्रकाशित। आगमिकवस्तुविचारसार मूलादर्श संज्ञक । स्व-संग्रह, पत्र संख्या २६, शुद्धतम, लेखन प्रशस्ति - सं० १४५३ वर्षे । फा । शु । १३ गुरु, पाटण मध्ये। संज्ञक । जैन आत्मानन्द समा, भावनगर से सटीकाश्चत्वारः कर्मग्रंथाः नाम से मुद्रित । संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर की है। १५वीं सदी की लिखित है। पत्र संख्या ३५०-३४७ तक। बी० - संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर की है। १६वीं शती की लिखित है। पत्र संख्या १६८-१७३ तक है। इस प्रति में प्रक्षेपित गाथाओं का बाहुल्य है। सर्वजीवशरीरावगाहनास्तव श्री अगरचंदजी नाहटा, बीकानेर लिखित प्रेसकॉपी के आधार से। पिंडविद्धिप्रकरण संज्ञक । आगमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज, अहमदाबाद के संग्रह की १६वीं शती की लिखित शुद्धप्रति । प्रस्तावना Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बी० संज्ञक । श्री बुद्धिमुनिजी गणि सम्पादित पिंडविशुद्धिप्रकरण टीकात्रयोपेतम् नाम के जिनदत्तसूरि ज्ञान-भंडार, बम्बई से मुद्रित। संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर, स्वाध्याय पुस्तिका, लेखन अनुमानतः १५वीं शती, पत्र संख्या ४५४-४५८ श्रावकव्रतकुलकम् १५वीं शती की २२९ पत्रात्मक लिखित प्रति के आधार से श्री भंवरलालजी नाहटा लिखित प्रेस कॉपी से। पौषधविधिप्रकरण संज्ञक । 'सिरिपयरणसंदोह' ऋषभदेव केसरीमल जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम से मुद्रित। प्रतिक्रमण-समाचारी संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर, प्रति सं० ८२१२, पत्र संख्या २ है। प्रति १६वीं शती लिखित शुद्ध है। संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, प्रति सं० २७०४ पत्र सं० १ है। १७वीं शती लिखित है। संज्ञक । सिरिपयरणसंदोह में मुद्रित। स्वप्रसप्तति सिरिपयरणसंदोह में मुद्रित और स्व-संग्रह १६वीं शताब्दी की लिखित प्रति से द्वादशकुलकानि संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर, प्रति सं० २४२५, पत्र सं० ८ हैं। प्रति १५वीं शती की लिखित शुद्र है। संज्ञक । जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार, सूरत से प्रकाशित। बी० सी० मु० प्रस्तावना Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. धर्मशिक्षाप्रकरण मु० अ० अ० संज्ञक । श्री बुद्धिमुनिजी गणि सम्पादित 'वैराग्यशतकादिपंचग्रंथाः' में प्रकाशित। संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर की दो पत्रात्मक सटिप्पण प्रति है जिसकी लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है - ।। संवत् समुद्रपावकगचरणगणाधिपदशनवर्षे श्रीजेसलमेरौ । श्रीमजिनचन्द्रसूरिराजशिष्य समयराजमुनिना लेखि पं० रत्ननिधानमुनिना पठनेयं ।। संघपट्टक संज्ञक । जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार, सूरत द्वारा साधुकीर्ति, हर्षराज, लक्ष्मीसेन रचित टीकाओं सह प्रकाशित। संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर की है। अनुमानतः लेखन १६वीं शती का है। प्रति सं० २४२८, पत्र सं० १ है। शृंगारशतकाव्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञान भंडार इंदौर, बंडल सं० १२, प्रति सं० ९८, पत्र सं० २२, प्रति शुद्ध है। बीच बीच में कई पंक्तियाँ छूट गईं हैं। लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है" ।। संवत् १५०७ वर्षे लिखितं मुनि ज्ञानकीर्तिः" इस प्रति में टिप्पणी दी है। वे यहाँ भी टिप्पण के रूप में दिये है। इस प्रति में कई स्थान पर पाठ छूटे हुए हैं। प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्य संज्ञक । जैन स्तोत्र रत्नाकर द्वितीय भाग में प्रकाशित। संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, ले० १७वीं शती, कमलकीर्ति लिखित, पत्र सं० ९, शुद्ध। १३. मु० प्रस्तावना Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० संज्ञक । स्व-संग्रह, पो० ३९, प्रति ११, पत्र सं० १२, शुद्धतम, लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है - "संवद्वह्निगगनमुनींदुवर्षे विशाखाशितामावास्यायां तिथौ सकलगणिगणशिर:कोटीरहीरायमानगणेन्द्रगणि श्री ५ श्री रूपचन्द्रगणिकोकनद गायमाणमुक्तिचन्द्रमुनिना श्रीमेदिनीपुरे शुभं भूयाल्लेखकस्य।" अष्टसप्तति/चित्रकूटीयवीरचैत्यप्रशस्ति यह प्रशस्ति चित्तौड़ के वीर-चैत्य में शिलापट्ट पर उत्कीर्ण की गई थी किन्तु आज यह प्राप्त नहीं है। इसकी एकमात्र प्रतिलिपि हस्तलिखित प्रति के रूप में लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद, पू० मुनि श्री पुण्यविजयजी के संग्रह में ग्रन्थाङ्क ७९३ पर प्राप्त है। लेखन बहुत अशुद्ध है। इसका संशोधन पूज्य प्रवर श्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराज ने किया है अतः मैं उनका आभारी हूँ। चित्रकूटीयपार्श्वचैत्यप्रशस्ति - इस प्रशस्ति का एक शिला खण्ड पुरातत्त्व एवं संग्राहलय, चित्तौड़ में सुरक्षित है, उसी के आधार से यहाँ पाठ दिया गया है। १६-२०. चरित्रपंचक मु० संज्ञक । 'सिरिपयरणसंदोह' में मुद्रित । अ० संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, स्वाध्याय पुस्तिका, लेखन १५वीं शती, शुद्धतम, पत्र सं० १२२-१२९। संज्ञक । अभयसिंह ज्ञान भंडार बीकानेर, स्वाध्याय पुस्तिका, पो० १६, प्रति २१८, पत्र सं० २३०, ले० १५वीं शती। ह० संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर, स्वाध्याय पुस्तिका, ले० १६वीं शती, शुद्ध, पत्र सं० २१७-२२३ । १५. ब० प्रस्तावना Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० संज्ञक । स्व-संग्रह, पत्र ८, त्रिपाठ, शुद्धप्रति, लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है - "लिखित श्री वीसलनयरे । सं० १६४५ वर्षे ।" २१. वीरचरितम् अभययसिंह ज्ञान भंडार बीकानेर, पोथी १६, प्रति २१८, पत्र सं० २३०, लेखन १५वीं शती, सुंदर और शुद्ध, प्रतिक्रमणादि स्तोत्र संग्रह। २२. चतुर्विंशतिजिनस्तुतयः - श्री विजयधर्म लक्ष्मी ज्ञानमन्दिर, आगरा की हस्तलिखित प्रति के आधार से श्री भंवरलालजी नाहटा द्वारा लिखित प्रतिलिपि। २३. चतुर्विंशतिजिनस्तोत्राणि जे० संज्ञक । श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार, जैसलमेर की प्रति के आधार से मुनिपुंगव श्री रमणीकविजयजी महाराज लिखित प्रेस कॉपी। का० संज्ञक । प्रवर्तक श्री कांतिविजयजी संग्रह, बड़ौदा, प्रति सं० २०८३, पत्र सं० १४, लेखन २० वीं सदी। छा० संज्ञक । प्रवर्तक कांतिविजयजी संग्रह, छाणी, प्रति सं० ६१, पत्र सं० ६, ले० २०वीं शती। प्र० संज्ञक । ‘सिरिपयरणसंदोह' प्रकाशित। २४. सर्वजिनपंचकल्याणकस्तोत्र संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, स्वाध्याय पुस्तिका, पत्र सं० १३१-१३३, लेखन १५वीं शती, शुद्धतम। संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर, स्वाध्याय पुस्तिका, पत्र सं० २२३-२२४, लेखन १६वीं शती। प्रस्तावना Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. का० संज्ञक । प्रवर्तक श्री कांतिविजयजी संग्रह, बड़ौदा, प्रति सं० ६३७, पत्र सं० ६, लेखन अनुमानतः १७वीं शती। संज्ञक । 'सिरिपयरणसंदोह' में मुद्रित । २९. लघुअजितशांतिस्तव प्र० गणि श्री बुद्धिमुनिजी सम्पादित "सटीक वैराग्यशतकादिपंचग्रंथाः" में मुद्रित। ३०. स्तम्भन-पार्श्वनाथस्तोत्र विजयधर्म-लक्ष्मी ज्ञान मंदिर, आगरा, "स्वाध्याय पुस्तिका" लेखन १५वीं शती के आधार से विदुषी साध्वी श्री कल्याण श्री जी लिखित प्रेसकॉपी। पार्श्वनाथस्तोत्र - आचार्य श्री विनयचन्द्रज्ञान भण्डार शोध संस्थान, जयपुर संग्रह, लेखन वि०सं० १७०३, पुण्यकलश गणि लिखित गुटके के आधार से। ३२. महावीरविज्ञप्तिका केशरियानाथ ज्ञान भंडार, जोधपुर, डाबड़ा सं० ५, प्रति सं० ८९, पत्र १४, १६वीं शती लिखित प्रति के आधार से। ३३. महावीरस्तोत्र (भावारिवारण) संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, "स्वाध्याय पुस्तिका" लेखन १५वीं शती, पत्र सं० ७२-७४ ।। संज्ञक । दानसागर ज्ञान भंडार, बीकानेर, प्रति सं० १२३, पत्र ९, ले० १७वीं शती। क० संज्ञक । सोहनविजयजी ज्ञान भंडार, पत्र ४, ले०सं० १७३४ (श्री रमणीकविजयजी महाराज के सौजन्य से) प्रस्तावना Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. च० संज्ञक । आगमप्रभाकर मुनि श्रीपुण्यविजयजी संग्रह, पत्र ३, ले० १६वीं शती। संज्ञक । काव्यमाला का सप्तम गुच्छक, प्रकाशित। स्तभन-पार्श्वनाथस्तोत्र (विनयविनमद्) जैसलमेर ज्ञान भंडारस्थ प्रति के आधार से लिखित मुनि श्री रमणीकविजयी महाराज की प्रेसकॉपी से। स्व-संग्रह, पत्र १, लेखन १८वीं शती। ४२-४३.स्तम्भनपार्श्वनाथस्तोत्र - श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर की ताडपत्रीय प्रति के आधार से। ४४. भारती स्तोत्र गणिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी लिखित प्रेसकॉपी से। ४५. नवकार स्तोत्र अ० ब० स० संज्ञक । अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर, तीनों ही १७वीं सदी की लिखित हैं। मु० संज्ञक । प्रकाशित । २६. सर्वजिनपंचकत्याणक स्तोत्र (पणय सुर०), २८. बहुविधजातियुक्तं प्रथम जिनस्तव (सयलभुवणिक्क ०), ३२. महावीरविज्ञप्तिका (सुरनरवर०), २४. नंदीसरचेइयसंथवणं, ३५. पंचकल्याणकस्तोत्र (प्रीतद्वात्रिंशत्०), ३७. पार्श्वजिनस्तोत्र (नमस्यद्गीर्वाण०), ३८. पार्श्वनाथस्तोत्र (पायात् पार्श्व०), ३९. पार्श्वनाथस्तोत्र (देवाधीश०) इन स्तोत्रों का सम्पादन निम्न प्रतियों के आधार से किया गया है :१. स्वाध्याय पुस्तिका, बृहत्ज्ञानभंडार (बड़ा उपासरा), बीकानेर, सं० १४३० कार्तिक शुक्ला १ तेजकीर्ति लिखित गुटका साइज, शुद्ध, प्रस्तावना Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. इस प्रति से निम्नांकित स्तोत्र संपादित किए गए हैं - २५, २६, २७, ३६, ३४, ३७, ३८, ३९ । स्वाध्याय पुस्तिका, अभयसिंह ज्ञान भंडार, बीकानेर, पोथी १६, प्रति २१८, पत्र सं० २३०, लेखन १५वीं शती, सुंदर और शुद्ध । २५ व ३६ संख्यात्मक स्तोत्र सम्पादित । स्वाध्याय पुस्तिका, अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, ले० १५वीं शती, शुद्ध। प्रकाशन का इतिहास जिनवल्लभसूरि के साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन होने के कारण ही मैंने इस पुस्तक का नाम 'वल्लभ-भारती' रखा है। यह पुस्तक दो खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में आचार्यश्री का जीवन-चरित्र, आक्षेप परिहार, आचार्य द्वारा रचित साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन और जिनवल्लभीय साहित्य की परम्परा का आलेखन है। द्वितीय खण्ड में जिनवल्लभसूरि रचित, वर्तमान समय में प्राप्त समग्र साहित्य का पाठभेद एवं टिप्पण के साथ मूल पाठ का सम्पादन है। इस वल्लभ-भारती का कार्य मैंने सन् १९५२ में आरम्भ किया था। सन् १९६० में श्रद्धेय डॉ० फतहसिंहजी एम०ए०, डी लिट् के निर्देशन में दोनों खण्डों का कार्य पूर्ण होने पर हिन्दी विश्वविद्यालय (हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रयाग की उच्चतम परीक्षा 'साहित्य महोपाध्याय' के लिये मैंने इस ग्रंथ को शोध-प्रबन्ध के रूप में भेज दिया था। शोध-प्रबन्ध के रूप में यह पुस्तक स्वीकृत हुई और सन् १९६१ में सम्मेलन द्वारा मुझे 'साहित्य महोपाध्याय' उपाधि प्राप्त हुई। सन् १९६२ में द्वितीय खण्ड के प्रकाशन का कार्य भी मैंने प्रारम्भ करवाया था। मूल ग्रंथों के कुछ पृष्ठ भी मुद्रित हो चुके थे, फिर भी संयोगवश व्यवधान आ जाने के कारण आगे मुद्रण कार्य न हो सका और वह आज तक प्रकाशित न हो सका। प्रस्तावना Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयोग से सन् १९७५ वि०सं० २०३२ में खरतरगच्छीय श्री जिनरंगसूरिजी का उपाश्रय, व्यवस्थापक श्रीमाल सभा, जयपुर के सहयोग से वल्लभ-भारती प्रथम खण्ड का प्रकाशन हुआ । अतएव श्रीमाल सभा का मैं आभारी हूँ । वि०सं० २००३ का वर्ष मेरे लिए अत्यन्त सौभाग्यशाली रहा कि जब श्रद्धेय प्रवर आगमज्ञ पूज्य मुनिराज श्री जम्बूविजयजी महाराज ने वल्लभ-भारती प्रथम खण्ड का अवलोकन करने के पश्चात् इसके द्वितीय खण्ड के प्रकाशन की ओर इंगित किया । इंगित ही नहीं पूज्यश्री ने आदेशात्मक निर्णय भी दिया कि इस ग्रंथ का प्रकाशन शीघ्र करो । प्रकाशन में आर्थिक सहयोग के रूप में उनका निर्देश था कि श्री सिद्धि मनोहर भुवन ट्रस्ट भी इसमें सहयोग देगा और प्रकाशकों में श्री आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर का नाम भी सम्मिलित करना होगा तथा प्राकृत भारती से भी सहयोग के लिए प्रयत्न करो। इस आदेश के फलस्वरूप मैंने प्रयत्न किया और मुझे प्रसन्नता है कि प्राकृत भारती अकादमी एवं एम०एस०पी०एस०जी० चेरिटेबल ट्रस्ट ने भी संयुक्त प्रकाशन के लिए स्वीकृति प्रदान की । यह जिनवल्लभसूरि ग्रन्थावलि (वल्लभभारती द्वितीय खण्ड) चारों संस्थाओं के संयुक्त प्रकाशन के रूप में प्रकाशित हो रहा है । सन् १९६१ का कार्य ४ दशाब्दी बाद भी प्रकाशित हो, तो मेरे लिए हर्ष का विषय है ही । परिशिष्ट पूज्य मुनिराज श्री जम्बूविजयजी महाराज का परामर्श था कि वल्लभ भारती प्रथम खण्ड आपका शोध प्रबन्ध था, जो कि सन् १९७५ में प्रकाशित हुआ था। अब इस पुस्तक में आचार्य जिनवल्लभूसूरि की समस्त कृतियाँ प्रकाशित हो रही हैं, अतः इस पुस्तक का नाम भी जिनवल्लभसूरिग्रंथावलि रखना उपयुक्त होगा । पूज्य श्री के इस परामर्श को मैंने स्वीकार किया और इस पुस्तक का नाम जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि रखा । साथ ही मुनिराज श्री का यह भी कथन था कि इस पुस्तक से सम्बन्धित परिशिष्ट 47 प्रस्तावना Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी दिये जाएँ तो अधिक शोभाजनक होगा। मैंने पूज्यश्री के इस सुझाव को भी अंगीकार किया और पुस्तक के प्रारम्भ में ग्रंथगत चित्र काव्यों के १० पृष्ठों में ४३ चित्र भी दिये हैं तथा अन्त में अनेक परिशिष्ट दिये हैं, जो निम्न हैं: परिशिष्ट १ - इसमें आचार्य जिनवल्लभसूरि रचित समस्त ग्रंथों में प्रयुक्त छन्दों की अनुक्रमणिका दी गई है। परिशिष्ट २ - इसमें समस्त कृतियों के प्रारम्भ के पद्यों की अकारानुक्रमणिका दी गई है, जो कि शोध-विद्वानों के लिए विशेष उपयोगी होगी। परिशिष्ट ३ - आचार्य जिनवल्लभसूरि रचित महावीरस्वामीस्तोत्र जो कि भावारिवारण स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध है, उसके अन्तिम चरण की पादपूर्ति स्वरूप महोपाध्याय श्री पुण्यसागरजी के शिष्य वाचनाचार्य श्री पद्मराजगणि ने महावीरस्तोत्र के नाम से रचना की है, वह स्तोत्र दिया गया है। परिशिष्ट ४ - युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि रचित गणधरसार्द्धशतक, सुगुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र, चर्चरी और श्रुतस्तव कृतियों में आचार्य जिनवल्लभसूरि का श्रद्धापूर्वक जो गुणवर्णन किया है, वे पद्य दिये गये हैं। परिशिष्ट ५ - षष्टिशतक ग्रन्थ के प्रणेता और द्वितीय श्री जिनेश्वरसूरि के पिता श्री नेमिचन्द भण्डारी ने श्री जिनवल्लभसूरि के गुण-गौरव को प्रकट करने वाले जो पद्य लिखे हैं, वे दिये गये हैं। परिशिष्ट ६ - आचार्य श्री मुनिचन्द्रसूरि, श्री धनेश्वरसूरि, श्री यशोभद्रसूरि, आचार्य श्री मलयगिरि, आचार्य श्री जिनपतिसूरि, जिनपालोपाध्याय, श्री अभयदेवसूरि, संघतिलकसूरि आदि जैन समाज के धुरंधर ५१ आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में श्री जिनवल्लभसूरि की गुण-गाथा को प्रकट करने वाले जो स्तुत्यात्मक पद्य लिखे हैं, वे प्रस्तुत किये गये हैं। प्रस्तावना Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार मूल ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियाँ संकलन करने, समीक्षात्मक अध्ययन लिखने, विचार-विमर्श करने आदि में आगम प्रभाकर मुनिपुंगव स्व० श्री पुण्यविजयजी महाराज, स्व० आशुकवि उपाध्याय श्री लब्धिमुनिजी म०, स्व० अनुयोगाचार्य श्री बुद्धिमुनिजी म०, स्व० श्री रमणीकविजयजी महाराज, स्व० श्री अगरचंदजी नाहटा, स्व० श्री भंवरलालजी नाहटा, श्रद्धेय डॉ० फतहसिंहजी, डॉ० बद्रीप्रसाद पंचोली आदि विद्वानों का मुझे समयसमय पर सहयोग तथा परामर्श प्राप्त होता रहा । अतः इन सब का मैं उपकृत हूँ। साथ ही जिन लेखकों की कृतियों का मैंने इस ग्रंथ में उपयोग किया हैं उन लेखकों का भी मैं कृतज्ञ हूँ । पूज्य प्रवर आगमवेत्ता श्री जम्बूविजयजी महाराज का उपकार मैं किन शब्दों में व्यक्त करूँ, उन्हीं की सतत प्रेरणा और सहयोग से यह ग्रन्थावलि प्रकाशित हो रही है। सतत सहयोग और प्रेरणा ही नहीं अपितु इस पुस्तक का पूर्णरूपेण संशोधन करके मुझे कृतार्थ किया है। अतः मैं उनके प्रति श्रद्धावनत हूँ । श्री डी०आर० मेहता, संस्थापक, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, टस्ट्री, श्री सिद्धि भुवन मनोहर जैन ट्रस्ट, अहमदाबाद, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर और मँजुल जैन, मैनेजिंग ट्रस्टी, श्री एम०एस०पी०एस० जी० चेरिटेबल ट्रस्ट, जयपुर के प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ कि इन चारों ट्रस्टों के संयुक्त प्रकाशन से यह ग्रंथ पाठकों के कर-कमलों में प्रस्तुत किया जा रहा है। अन्त में, मेरे परमपूज्य गुरुदेव खरतरगच्छालङ्कार गीतार्थ - प्रवर आचार्य श्रेष्ठ स्व० श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज के वरद आशीर्वाद का ही प्रताप है कि मेरे जैसा पाषाण तुल्य व्यक्ति जिनवल्लभसूरि जैसे युगप्रवरागम आचार्य पर प्रस्तुत पुस्तक लिख सका। काश! आज वे विद्यमान होते और मेरी इस कृति 'वल्लभ-भारती' को देखते तो न जाने उन्हें कितना हर्ष होता ! 49 प्रस्तावना Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे लेखन, संशोधन, सम्पादन आदि कार्यों में आयुष्मान मंजुल जैन और उसकी धर्मपत्नी अखण्ड सौभाग्यवती नीलम जैन, पुत्र विशाल जैन, पौत्री तितिक्षा जैन और पौत्र वर्धमान जैन का निरन्तर अविच्छिन्न रूप से सहयोग रहा है अतः इन सब के प्रति मेरी अन्तरंग हार्दिक शुभाशीष । - म० विनयसागर जयपुर दिनांक श्रावणी पूर्णिमा, सं० २०६१ प्रस्तावना Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि भा 在印机打开百FE ₹ 44护当中 ( 收起) 144. 虫虫四口到出 狂n生七a妒AN | 西安到河内 ge_ 可 “ THETER 布|w38. 49 中日对当独到纠动 (mm )| 2长A母He A母HHAP-上 7寸nm西一 你可升EEE % 444444 h长地加上母ed2 AN (gular So) 员可年六叶女艺术网 F149499 ((3) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थावलिगत चित्रकाव्य ___धिना व्यं (चित्रकूटीय वीरचैत्य प्रशस्ति पद्य ७६) - IFSTREET . साद (RAY दा X2004-4444 स्व 18314 Kask बोनी णा या नबिना सातवा सवा पौर काना HEALERTA [(5) (चित्रकूटीय पार्श्वचैत्य-प्रशस्ति) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि वी ज्ञा वि न द ति ស្រីស្អាប់ ॥ (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य ६) मी | 5 या न ना वा 의외로 (प्रश्नोत्तरेकषष्टि० पद्य १०) (8) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य १२) ना (अ (9)] (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य १४) ( 10 ) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य २०) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iv ग्रा विधा तः ये ( 11 ) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य २६ ) प्र (d ) क्षी ता ना 시 ला ह सा hc ( 13 ) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य ३६ ) ty ₹ य सां सं स्त रं 4. सु स्त नी ( 15 ) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य ४७ ) ग्रन्थावलिगत चित्रकाव्य वि स्ती 시 ( 12 ) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य ३२ ) हा क्षु चु सा म न तः सा ह ले व ह दे म्भो (14) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य ४३ ) क /स / रे ता जा र्ष त्या स्ते ह य क्षी वा चा स्मा 16) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य ५८-५९ ) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि याम |ता |ग वि दि | (प्रश्नोत्तरैकषष्टिः पद्य ६१) ( 17 )] सा रा मा र म य ते न म नो नं: ( 18 ) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य ६३) मा लि नी (प्रश्नोत्तरैकषष्टिः पद्य ६९) ( 19 ) भा मा र.त सा न ते म न सि ( 20 ) (प्रश्नोत्तरेकषष्टिः पद्य ७१) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vi ग्रन्थावलिगत चित्रकाव्य . शाट की - य/नेम) (21) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य ७४) (22) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य ७७-८७) her to मायान मदन दा क का म्य या (23) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य ११८) (24) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य १३२) येर ता| जिनमते क तागत्व मरक A ( 25 ) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य १३३) मा ( 26 ) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य १३८) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि. vii - सामघा रि मात्वया कालिदा स क विना - - - (27) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य १३९) [(28) (प्रश्नोत्तरैकषष्टिः पद्य १४३) - ताम सहसा ताम EHI र | bf सह सा ( 29 ) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य १४५) (30) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य १४५) मेल. का वसे वछ । न (31) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य १४७) (( 32 ) (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य १५२) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vill नयनः पार्श्व भव य धाल्लघु शाश्व न द्रा लू नय સેવા न वा ५ 의 क्र म रं भीर न म . ކ म भक्त्या जि साहस ( चित्र संख्या ३४ से ४१ ) चित्र काव्यात्मक पार्श्वजिनस्तोत्र पद्य २ से ९ ( 37 ) भी व स्ते भ (34) ल्लो क ग्रन्थावलिगत चित्रकाव्य ( 36 ) तं श्चिनिन वध (40 व स्त त्या त३ स्मृ TO A EFICENT त्क्ष त न्ति य न वच पा २ ल्प ज भा लि स नृ नि द्रो सम्तः पा द पा य त्य ज वा न 1 य ना क ल्प मस्का र स्त वा क्षोभ य न भे न्द्र जरा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि (41) गतव गती वा मा सा मल नाश न द व च मामा अनमा वैनशका ली, ल्या पो षु सदासर्वा स मुत्ये मान्य शास .. मन्त जि (ज ल२ सी मोदमा स्थद, द्या मास्तव स३ वत मे ति यः - । यः करो त्यन्त । त्यन्त ०० तेः क्षोभं ससा ध्व पाव भवा रा तेः नसेवारिसंसाभकाक्षीसितमम कृ [(38) (35) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थावलिगत चित्रकाव्य (प्रश्नोत्तरैकषष्टि० पद्य १५४) त । प त वे त वा भ त्या ( 33 ) 12234 13444444/ | 40AM 22:5 1414 ( 42 ) bltkars 1208 REFER (चित्र ४२-४३) चक्राष्टक पार्श्वनाथस्तोत्र पद्य १ और ८ । 4434 Poib 24NAaiN स्ला PHa10 go [( 43 ) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरणम् (सार्द्धशतकम्) सयलंतरारिवीरं, वंदिय वरनाणलोयणं . वीरं। वोच्छं जहासुयमहं, कम्माइवियारसारलवं॥ १॥ कीरइ जिएण हेऊहिं, पयइठिइरसपएसओ जं तं। मूलुत्तरऽट्ठ-अडवन्न-सयप्पभेयं भवे कम्मं ॥ २॥ दंसण-नाणावरणंतराय-मोहाउ-गोय-वेयणियं। नामं च नवपणपणट्ठवीसचउदुदुबियालविहं ॥ ३॥ नयणेयरोहि के वलदंसणआवरणं भवइ चउहा। निद्दापयलाहिं छहा निदाइदुरुत्तथीणद्धी ॥ ४॥ नाणावरणं मइसुयओहिमणोनाणके वलावरणं । विग्धं दाणे लाभे, भोगुवभोगेसु विरिए “य॥ ५ ॥ सोलसकसायनवनोकसायदंसणतिगं ति मोहणीयं । नरयतिरिनरसुराऊ, नीउच्चं सायमस्सायं॥ ६॥ गइ-जाइ-तणु-उवंगा-बंधण-संघायणाणि संघयणा । संठाण-वण्ण-गंध-रस-फास-अणुपुब्वि-विहगगई॥ ७॥ पिंडपयडित्ति चउदस, परघा-उज्जोय-आयवुस्सासं। अगुरुलहु-तित्थ-निमिणोवघायमिय अट्ठ पत्तेया॥ ८॥ तसबायरपज्जत्तं, पत्तेयं थिरं सुभं च सुभगं च। सुसराइज्जजसं तसदसगं थावरदसं तु इमं ॥ ९॥ थावरसुहुमअपज्जं, साहारणमथिरमसुभदुभगाणि। दूसरणाएज्जाजसमिय नामे सेयरा वीसं॥ १०॥ १. 'सुस्सर आइज्जजसं' इति मूलादर्छ । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N तसचउ थिरछकं अथिरछक्कं सुहुमतिग थावरचउक्कं । सुभगतिगाइविभासा, पयडीण तदाइसंखाहिं ॥ ११ ॥ गइयाईण य कमसो, चउपणपणतिपणपंचछच्छक्कं । पणदुगपण अट्ठचउदुगमिय उत्तरभेय पणसठ्ठी ॥ १२ ॥ निरयतिरिनरसुरगई, इगि- बिय - ति - चउर - पणिंदिजाईओ । ओरालिय- वेडव्विय - आहारग-तेय - कम्मइया ॥ १३॥ पढमतितणूणुवंगा, बंधणसंघायणा य तणुनाम। सुत्ते सत्तिविसेसो, संघयणमिहऽट्ठिनिचउ त्ति ॥ १४ ॥ छद्धा संघयणं वज्जरसहनाराय - वज्जनारायं । नारायमद्धनाराय-कीलिया तहय छेवट्टं ॥ १५ ॥ समचउरंसं निग्गोहसाइखुज्जाणि वामणं हुंडं । संठाणा वन्ना किण्हनीललोहियहलिसिया ॥ १६ ॥ सुरभिदुरभी रसा पुण, तित्त - कडु - कसाय - अंबिला महुरो' । फासा गुरु लहु - मिउ-खर - सी - उण्ह - सिणिद्ध - रुक्खा ॥ १७ ॥ चउह गइ व्वऽणुपुव्वी, दुविहा य सुहासुहा य विहगगई। गइअणुपुव्वीउ दुगं तिगं तु तं चिय नियाउजुयं ॥ १८॥ इय तेणवई संते, बंधणपन्नरसगेण तिसयं वा । वण्णाइभेय-बंधण-संघाय विणा उ सत्तट्ठी ॥ १९ ॥ सा बंधुदए बंधणसंघाया नियतणुग्गहणगहिया । वण्णाइविगप्पा वि हु न य बंधे सम्ममीसाई ॥ २०॥ वेउव्वाहारोरालियाण सगतेयकम्मजुत्ताणं । नव बंधणाणि इयरदुसहियाणं तिन्नि तेसिं च ॥ २१॥ नीलकसिणं दुगंधं, तित्तं कडुअं गुरुं खरं रुक्खं । सीयं च असुभनवगं, एक्कारसगं सुभं सेसं ॥ २२ ॥ १. 'महुरा' इति मूलादर्शे । सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरणम् Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि धुवबंधोदयसत्ता, सव्वेयरघाइ-सुभ-अपरियत्ता । छद्धावि सपडिवक्खा, चउहविवागा य पयडीओ॥ २३ ॥ धुवबंधा भयकुच्छाकसायमिच्छंतराय आवरणा। वनचउ तेय कम्मा, गुरुलहुनिमिणोवघाया य॥ २४ ॥ बंधंति न इगिविगला, वेउव्वियछक्कदेवनिरयाउं । तिरिया तित्थाहारं, गईतसा नरतिगुच्चं च॥ २५ ॥ नरयसुरसुहुमविगलत्तिगाणि आहारदुगविओव्विदुगं। बंधहि न सुरा सायावथावरेगिंदि नेरइया ॥ २६॥ तिरिनिरयतिगुज्जोयाण सचउपल्लं तिसट्ठमयरसयं । इगि विगलजाइ आयव थावरचउगेसु पणसीयं ॥ २७॥ बत्तीसं सासाऽणंतबंधसेसपणुवीसपयडीणं । नरभवसहियं परमो, पणिंदिसु अबंधकालो सिं॥ २८॥ थीणतिगं दुभगतिगं, अपढमसंघयणखगइसंठाणा । अण नीय नपुंसित्थी, मिच्छंति अ सेसपणुवीसा ॥ २९ ॥ बत्तीसं विजयाइसु, गेविजाईसु तेसु तेसटुं। तमपुढविजुएसु गयस्स तेसु पणसीयमुदहिसयं ॥ ३० ॥ समयादसंखकालं, जा परमो नीयतिरियदुगबंधो। सुरदुगविउव्वियदुगे, तिपल्लमाउसु मुहुत्तंतो॥ ३१॥ तसचउ पणिंदिपरघाउस्सासेसु पणसीयमुदहिसयं । बत्तीसं सुभगतिगुच्चपुरिससुभखगइचउरंसे ॥ ३२॥ उरले असंख पोग्गलपरियट्टा साय पुव्वकोडूणा। तित्तीसयरा नरदुगतित्थुसभउरालुवंगेसु ॥ ३३ ॥ समयादंतमुहुत्तं, सेसाणं तह जहन्नबंधो वि। तित्थाउसु अंतमुहू, धुवबंधीणं तु भंगतिगं॥ ३४ ॥ १. 'थावरचउसुंतु' इति मू०। २. 'अपढमसंठाणखगइसंघयणं' इति मू०। ३. 'पणसीयमयरसयं' इति मू०। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरणम् निम्मेणथिराथिरतेयकम्मवन्नाइ अगुरुसुहमसुहं । नाणंतरायदसगं, दंसणचउ मिच्छ धुवउदया॥ ३५ ।। उदउ धुवोदयाणं, अणाइणंतो अणाइसंतो य। अधुवाण साइसंतो, मिच्छस्स उ भंगतिगमेयं ॥ ३६॥ वेउव्विकारससम्म-मीस-तित्थुच्च-मणु-दुगाउ-चऊ। आहारसत्त अधुवा, धुवसंता सेस तीससयं ॥ ३७॥ तिसु मिच्छत्तं नियमा, अट्ठसु गुणट्ठाणएसु भयणिज्जं। सासायणम्मि नियमा, संतं सम्मं दससु भजं ॥ ३८॥ सासणमीसे मीसं संतं नियमेण नवसु भइयव्वं । नियमा मिच्छासाणे, पढमकसाया नवसु भज्जा ॥ ३९ ॥ सव्वगुणेसाहारं, सासणमिस्सरहिएसु वा तित्थं । नोभयसंते मिच्छो, अंतमुहूत्तं भवे तित्थे॥ ४० ॥ के वलियनाणदसंणआवरणे बारसाइमकसाया। मिच्छत्तनिद्दपणगं, इय वीसं सव्वघाईओ॥ ४१ ॥ सम्मत्तनाणदंसणचरित्तघाइत्तणाउ घाईउ । तस्सेसदेसघाइत्तणाउ पुण देसघाईउ॥ ४२ ।। संजलणनोकसाया, चउनाणतिदंसणावरणविग्घा। पणुवीस देसघाई, सेस अघाई सरूवेण ॥ ४३ ॥ नर तिरिसुराउमुच्चं, सायं पर घायमायवुज्जोयं । तित्थुस्सासनिमेणं, पणिंदिवइरुसह चउरंसं ॥ ४४ ॥ तसदस चउवन्नाई, सुरमणुदुग पंचतणु उवंगतिगं। अगुरुलहु पढमखगई, बायालीसं ति सुहपयडी॥ ४५ ॥ थावरदस चउजाई, अपढमसंठाणखगइसंघयणा। तिरिनरयदुगुवघायं, वनचऊ नामचउतीसा ॥ ४६॥ १. 'सासण मिस्से मिस्सं' इति मु०। २. 'परघायआवयवुज्जोयं' इति मूलादर्शे। ३. 'निमाणं' इति वृत्तिकारमते। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि नरयाउ नीयमस्साय', घाइपणयालसहिय बासीइ। असुहपयडीउ दोसु वि, वन्नाइचउक्कगहणेणं॥ ४७ ॥ नाणंतराय-दसण-चउक्क-परघाय-तित्थउस्सासं२ । नामधुवबंधिनवमिच्छभयदुगंछा अपरियत्ता ॥ ४८॥ संठाणा संघयणा-सरीरुवंगाणि आयवुज्जोया। नामधुवोदय-साहार-णियरउवघाय-परघाया ।। ४९ ।। उदइयभावा पुग्गलविवागिणो आउ भवविवागीणि। खेत्तविवागणुपुव्वी, जीवविवागीउ सेसाउ॥ ५० ॥ भावा छच्चोवसमियखइया खउवसमउदयपरिणामा। दुनवट्ठारिगवीसातिगभेया सन्निवाओ य॥ ५१॥ सम्मचरणाणि पढमे, बीए वरनाणदंसणचरित्ता। तह दाणलाभभोगोवभोगविरियाणि सम्मं च॥ ५२॥ चउनाणऽन्नाणतिगं, दंसणतिगपंचदाणलद्धीठ। सम्मत्तं चारित्तं, च संजमासंजमो तइए॥ ५३॥ चउगइ चउक्कसाया, लिंगतिगं लेसछक्कमण्णाणं । मिच्छत्तमसिद्धत्तं, असंजमो चउत्थभावम्मि॥ ५४ ।। पंचमगम्मि य भावे, जीवा भव्वत्तभव्वयाईणि। पंचण्ह वि भावाणं, भेया एमेव तेवन्ना ॥ ५५ ॥ उदइयखओवसमियपरिणामेहिं चउरो गइचउक्के । खइयजुएहिं चउरो, तदभावे उवसमजुएहिं ॥ ५६ ॥ एक्के को उवसमसेढिसिद्धके वलिसु एवमविरुद्धा। पन्नरस सन्निवाइयभेया वीसं असंभविणो ।। ५७ ।। दुगजोगो सिद्धाणं, केवलिसंसारियाण तिगजोगो। चउजोगजुगं चउसु वि, गईसु मणुयाण पणजोगो॥ ५८ ॥ १. 'नीय अस्साय' इति मूलादर्शे। २. 'मुस्सासं' इति मु० । ३. 'खइय' इति मूलादर्शे। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरणम् मोहस्सेवोवसमो, खाओवसमो चउण्ह घाईणं । उदयक्खयपरिणामा, अट्ठण्ह वि होंति कम्माणं ॥ ५९॥ सम्माइचउसु तिगचउभावा चउपणुवसामगुवसंते। चउ खीणापुव्वे तिन्नि सेसगुणठाणगेगजिए॥ ६० ॥ धम्माधम्मनभा तिन्नि, दव्वदेसप्पएसओ तिविहा। गइठाणऽवगाहगुणा, अरूविणो कालसमओ य॥ ६१ ॥ सो वत्तणाइलिंगो, रूविअजीवा उ हुँतिमे चउरो। खंधादेसपएसा, केवलअणवो य ते य पुणो।। ६२ ।। वन्नाइगुणा बंधाइकारणं इय अजीवचउ दसगं । सव्वे वि ह परिणामे, भावे खंधा उदइए वि॥ ६३ ॥ मोहे कोडाकोडी, उ सत्तरी वीस नामगोयाणं । तीसयराण चउण्हं, तित्तीसयराइं आउस्स ॥ ६४॥ मोत्तुमकसाय हस्सा, ठिइवेयणियस्स बारसमुहुत्ता। अट्ठट्ठ नामगोयाण, सेसयाणं मुहुत्तंतो ॥ ६५॥ तीसं कोडाकोडी, असायआवरणअंतरायाणं । मिच्छे सत्तरि मित्थीमणुदुगसायाण पन्नरस ॥ ६६॥ संघयणे संठाणे, पढमे दस उवरिमेसु दुगवुड्ढी । चालीस कसाएसुं, अट्ठारस विगलसुहुमतिगे॥ ६७॥ दस दस सुक्किलमहुराण सुरभिनिद्धण्हमिउलहूणं च। अढाइज्जपवुड्डा, ते हालिदंबिलाईणं॥ ६८॥ हासरइपुरिसउच्चे, सुभखगइथिराइछक्कदेवदुगे। दस सेसाणं वीसा, एवइयाबाहवाससया॥ ६९ ॥ अंतो कोडाकोडी, तित्थाहाराण जेट्टठिइबंधो। अंतमुहुत्तमबाहा, इयरो संखेज्जगुणहीणो ॥ ७० ॥ तेत्तीसुदही सुरनारयाउ नरतिरियआउ पल्लतिगं। निरुवकमाण छमासा, अबाह सेसाण भवतंसो॥ ७१ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि तह पुव्वकोडी परउ, इगिविगलिंदी न बंधए आउं। आउचउ परमबंधो, पल्लाऽसंखंसममणेसु॥ ७२ ॥ दंसणचउ विग्घावरण लोहसंजलण हस्सठिइबंधो। अंतमुहत्तं ते अट्ठ, जसुच्चे बारस य साए॥ ७३ ॥ दो मासा अद्धद्धं, संजलणतिगे पुमट्ठ वरिसाणि। सेसाणुकोसाउ, मिच्छत्तठिईइ जं लद्धं ॥ ७४॥ एसेगिंदियजिट्ठो, पलियासंखंसहीणलहुबंधो। पणुवीसं पन्नासा, सयं सहस्सं च गुणकारो॥ ७५ ॥ कमसो विगलअसन्नीण पल्लसंखंसऊणओ डहरो। सुरनरयाउ समा दससहस्स सेसाउ खुड्डभवं ॥ ७६ ॥ सहसगुणेगिंदिठिई, विउव्विछक्के जओ असन्निसु तं। केसिंचि सुराउसमं, तित्थं आहारगंतमुहू ॥ ७७॥ भिन्नमुहुत्तमबाहा, सव्वासिं सव्वहिं डहरबंधे । आउसु जेटे वि जओ, संखेप्पद्धा भवइ तेसुं॥ ७८ ॥ खुड्ड भवा साहीया, सत्तरस हवंति एगपाणुम्मि। पाणू एगमुहुत्ते, तिसत्तरा सत्ततीससया ॥ ७९ ॥ पणसट्ठिसहसपणसयछत्तीसा इगमुहुत्त खुड्डु भवा। दो य सया छप्पन्ना, आवलियाणेगखुड्डभवे ॥ ८० ॥ अयरंतकोडाकोडिउ' अहिगो सासाणाइसु न बंधो। हीणो ण अपुव्वंतेसु णेव य अभव्वसन्निमि॥ ८१॥ अमणुक्कोसाउ विरयउक्कोसो देसविरयहस्सियरो। सम्म चउ सन्नि चउरो, ठिइबंधाऽणुकमसंखगुणा ।। ८२ ।। सव्वाण वि पयडीणं, उक्कोसं सन्निणो कुणंति ठिई। एगिदिया जहन्नं, असन्निखवगा य काणंपि॥ ८३ ।। १. 'अयरंतो कोडाकोडीउ' इति मूलादर्शे। २. 'ठिई' इति मु० । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरणम् सव्वाणुक्कोसठिई, असुभा सा जमइसंकिलेसेणं । इयरा उ विसोहीए, सुरनरतिरियाउए मोत्तुं ॥ ८४ ॥ सुहुमनिगोयाइखणे, जोगो थोवो तओ असंखगुणो। बायर-बियतियचउमणसन्निअपज्जतगजहन्नो ॥ ८५ ॥ पढमदुगुक्कोसो सिं, पज्जत्तजहन्नगेयरो य कमा। असमत्ततसुक्कोसो, पज्जत्तं जहन्न जेठो य॥ ८६ ॥ एवं चिय ठिइठाणा, अपजपजक्कमेण संखगुणा। नवरमसमत्तबिंदियइक्कपए ते असंखगुणा। ८७ ॥ सव्वे वि अपजत्ता, होंति पइक्खणमसंखगुणविरिया। संखगुणूणा सुहुमेसु बायरेसु य असंखगुणा॥ ८८॥ ठिइबंधे ठिइबंधे, अज्झवसाया असंखलोगसमा। कमसो विसेसअहिया, सत्तसु आउसु असंखगुणा ॥ ८९ ।। असुहाण संकिलेसेण होई तिव्वो सुहाण सोहीए। अणुभागो मंदो पुण, विवज्जए सव्वपयडीणं ॥ ९० ॥ सतरस पयडी संजलणविग्घपुंदेसघाइआवरणा। चउठाणरसपरिणया, दुतिचउठाणा उ सेसा उ॥ ९१ ।। पव्वय-भूमी-वालुय-जलरेहासरिससंपराएहिं । चउठाणाइ असुहाण वच्चयाओ सुहाणं तु ॥ ९२ ॥ घोसाडइनिंबुवमो, असुहाण सुहाण खीरखंडुवमो। एगट्ठाणो उ रसो, अणंतगुणिया कमेणियरे ॥ ९३ ॥ निंबुच्छरसाईणं', दुतिचउभागा पुढो कढिजंता। किलर इक्कभागसेसा, दुतिचउठाणा रसा कमसो॥ ९४॥ इगदुगअणुगाइ जा अभव्वणंतगुणसिद्धणंतभागाणू। खंधा उरलुच्चियवग्गणाउ तह अगहणंतरिया॥ ९५ ॥ १. 'एणं' इति मूलादर्शे। २. 'किलू' इति मूला० । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि कमसो विउव्विआहारतेयभासाणपाणमणकम्मे। इय वग्गणाऽवगाहो, ऊणूणंगुलअसंखंसो॥ ९६ ॥ एगुत्तरा अभव्वाणंतगुणा अंतरेसु अग्गहणा। सव्वहिं जोगजहन्ना, नियणंतंसाऽहिया जिट्ठा ॥ ९७ ॥ जोगणुरूवं गेण्हिय, सुच्चिय दलियं जिओ परिणमेइ। भासाणापाणुमणोचियं च अवलंबए दव्वं ॥ ९८॥ अप्पयरपयडिबंधी, उक्कडजोगी य सन्नि पजत्तो। कुणइ पएसुक्कोसं, जहन्नयं तस्स वच्चासे ॥ ९९ ।। गहियदलियस्स भागो, बहुठिइकम्मेसु होई कमवुड्डो। वेयणिए सव्वोवरि, तस्स फुडत्तं न जेणऽप्पे ॥ १००॥ पयडीण सव्वघाईण, होइ नियजाइदलअणंतंसो। बझंतीण विभज्जइ, सेसं सेसाणमणुसमयं ॥ १०१॥ सम्मत्त-देस-संपुन्न-विरइ-उप्पत्ति-अणविसंजोए। दंसणखवए मोहस्स, समगउवसंतखवगे य॥ १०२ ॥ खीणाइतिसु य संखगुणूणूणंतो' मुहुत्त-कालाउ। गुणसेढी इक्कारस, कमादसंखगुणदलियाउ ॥ १०३ ।। गुणसेढी दलरयणाणुसमयमुदयादसंखगुणणाए। एयगुणा पुण कमसो, असंखगुणनिजरा जीवा ॥ १०४ ॥ पलियासंखंतमुहू, सासणइयरगुण अंतरं हस्सं । मिच्छस्स बे छसट्ठी, इयरगुणे पोग्गलऽद्धंतो॥ १०५ ॥ दव्वे खित्ते काले, भावे चउह दुह बायरो सुहुमो। होइ अणंतुस्सप्पिणिपरिणामो पोग्गलपरट्टो॥ १०६॥ चउतणुमणवइपाणत्तणेण२ परिणमिय मुयइ सव्वअणू। एगजीओ भवभमिरो, जत्तियकालेण सो थूलो ॥ १०७॥ १. 'गुणणं अंतो' इति मूलादर्श । २. 'पाणुत्तेणेण' इति मू०। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरणम् सत्तण्हऽण्णयरेण उ, इय फुसणे सुहुमदव्वपरियट्टो। अण्णे चउत्तणुसु कमेणिमेण तं बेंति दुविहं पि॥ १०८॥ लोगपएसोसप्पिणिसमया अणुभागबंधठाणा य। पुट्ठा मरणेण जया, कमुक्कमा बायरो त्ति तया॥ १०९ ॥ पुट्ठाणंतरमरणेण पुण जया ते तया भवे सुहुमे। पोग्गलपरियट्टो खेत्त-कालभावेहिं इय नेओ॥ ११०॥ जोगट्ठाणासेढी, असंखभागे तओ असंखगुणा। पयडीभेया तत्तो, ठिइभेयाणुक्कमेण तओ॥ १११ ॥ ठिइबंधज्झवसाया, तत्तो अणुभागबंधठाणाणि । तोऽणंतगुणा कम्मप्पएस तत्तो य रसछेया ॥ ११२ ॥ खित्तं सुहुमं कालाउ जेण अंगुलपएससेढीए। समयपएसवहारे, असंखओसप्पिणी हुंति ॥ ११३ ।। चउंदसरजू लोगो, बुद्धिकओ होइ सत्तरज्जुघणो। तद्दीहेगपएसा, सेढी पयरो य तव्वग्गो ॥ ११४॥ पयडीउ असंखेज्जा, जं ओहिदुगे वि तारतम्मेणं । अस्संखलोगखपएसपमाणा हुँति किल भेया॥ ११५ ॥ आ जिट्ठठिई हस्सठिईउ समउत्तरा ठिईठाणा। सव्वपयडीसु एवं, सव्वजियाणं पि ठिईभेया॥ ११६ ॥ ठिइठाणे ठिइठाणे, कसायउदया असंखलोगसमा। अणुभागबंधठाणा, इय इक्केक्के कसाउदए॥ ११७ ॥ थोवाणुभागठाणा, जहण्णठिइ पढमबंधहे उम्मि। बीयाइ विसेसहिया, जा चरमाए चरमहेऊ॥ ११८॥ इय असुभाण सुभाण उ, विवरीयं जिट्ठठिइचरमहेऊ। आरब्भ निज आउसु, ठिइं ठिई पइ असंखगुणा ॥ ११९ ।। १. 'ठीभेया' इति मू०। २. 'ठीबंध' इति मू० । ३. 'जेठठिईएचरमहेउं' इति मू०। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ११ समयभवसुहुमअगणी, असंखलोगा तओ असंखगुणा। तेऊ तक्कायठिई, कमसो अणुभागठाणा य॥ १२० ॥ अंतिम-चउफास-दुगंध-पंचवन्न-रसकम्मइगखंधे। अभवियअणंतगुणिए, गेण्हइ तत्तियअणू समए ॥ १२१ ॥ गहणसमए अ जीवो, नियपरिणामेण जणयइ रसाणू। सव्वजियाणंतगुणे, कम्मपएसेसु सव्वेसु ॥ १२२ ।। संखिज्जेगमसंखं, परित्तजुत्तानियपयजुयं तिविहं । एवमणंतं पि तिहा, जहण्णमज्झुक्कसा सव्वे ॥ १२३ ॥ संखेजगं जहण्णं, दोच्चिय मज्झिममओ परं बहुहा। जा उक्कोसं तं पुण, चउपल्लपरूवणाइ इमं ॥ १२४ ॥ जंबूद्दीवपमाणा, चउरो जोयणसहस्समोगाढा। रयणपहरयणकंडं, भिंदिय पुट्ठा वइरकंडं ॥ १२५ ॥ पल्लाऽणवट्ठि यसलागपडिसलागामहासलागक्खा। सव्वे सवेइयंता, उवरि ससिहा य भरियव्वा ॥ १२६ ॥ तो कप्पणाइ केणइ, सुरेण पढमो धरित्तु वामकरे। एक्केकं दीवुदहिसु, सरिसवं खविय णिट्ठविओ॥ १२७॥ दीवे जत्थुदहिम्मि य, तदंतमेव पढमं व तं भरिउं। पुरओ खिव एक्केकं, दीवुदहिसु निट्ठिए तम्मि॥ १२८॥ खिवसु सलागापल्ले, सरिसवमेगं पुणो तदंतं तं । पुव्वं व भरसु खिवसु य, पुरओ पुण तम्मि निट्ठविए । १२९ ॥ बीयं सलागपल्ले खिव सरिसवमेवमेव पुण तइयं । इय पुणरुत्तणवट्ठिय-भरणविरेयणसलागाहिं ॥ १३० ॥ पुण्णो सलायपल्लो, पुव्वकमागयऽणवट्ठिओ य तओ। सोच्चिय सलागपल्लो, उक्खिप्पइ खिप्पइ य पुरओ॥ १३१ ।। पुव्वकमनिट्ठिए तहिमेगं खिव सरिसवं तइयपल्ले। पुव्वं व निट्ठियंते, अणवट्ठियपल्लमेव खिव ॥ १३२ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ १३४ ॥ चउत्थं । रासिं । पुण तम्मि निट्ठिए खिव, सलागपल्लम्मि सरिसवं एक्कं । अन्नन्नऽणवट्टियाउ, सलागपल्लं पुणो भरसु ॥ तेण पुण पडिसलागापल्ले भरियम्मि दोसु य उद्धरिय पुव्वविहिणा, सरिसवमेगं खिव चउत्थे ॥ इय पढमेहिं बीयं, तेहिं तइयं तु तेहि य भरणुद्धरणविकिरणं, ता कज्जं जा फुडा चउरो ॥ १३५ ॥ पढमतिपल्लुद्धरिया, दीवुदही पल्लचउसरिसवा य । सव्वो वि एस रासी, रूवूणो परमसंखेज्जं ॥ १३६ ॥ इय तिविहं संखेज्जं, असंखयमओ उ जेट्ठसंखेज्जं । रूवजुयं संजायइ, जहन्नयपरित्तयासंखं ॥ १३७ ॥ तं विवरिय एक्केक्के, ठाणे ठावेसु तत्तियं अणुण भासे ताण, होइ चउत्थं असंखिज्जं ॥ १३८ ॥ तं पुण जहण्णजुत्तं, आवलियाए वि एत्तिआ समया । एयकमा बितिचउपंचमे य अण्णुण्णअब्भासे ॥ १३९॥ सत्तमऽसंखं पढमचउसत्तमाऽणतया य होंति कमा । रूवजुया ते मज्झा, रूवूणा पच्छिमक्कोसा ॥ १४० ॥ इत्तियमित्तं सुत्ते, अन्नमयमओ उ वुच्छयमसंखं । वग्गियमिक्कसि जायइ, जहन्नयमसंखयासंखं ॥ १४१ ॥ रूवजुयं तं मज्झं, सव्वहि रूवूणमाइमुक्कोसं । तं वग्गिउं तिवारं, दस पक्खेवे खिवसु एए॥ १४२॥ लोगागासपएसा, धम्माधम्मेगजीवदेसा य । दव्वट्ठिया णिगोया, पत्तेया चेव बोधव्वा ॥ १४३ ॥ ठिइबंधज्झवसाया, अणुभागा जोगछेयपलिभागा । दोण्ह य समाण समया, असंखपक्खेवया दस वि ॥ १४४ ॥ २. 'एतियमुत्तं ' इति मू० । १. ' भरह' इति मू० । सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरणम् १३३ ॥ तमेव । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि पुण वग्गिए तिखुत्तो, तम्मि भवे लहु परित्तयाऽणंतं । तो तत्तियवाराओ, तत्तियमित्ते ठवसु रासी॥ १४५ ।। ताणऽण्णोण्णब्भासे, जुताऽणंतं जहण्णयं भवइ । एवइय अभव्वजिया, रासिम्मि अ वग्गिए तम्मि ।। १४६ ।। जायमणंताणंतं, जहण्णयं तं च वग्गसु तिवारं । तह वि परं तं न भवे, तो खिवसु इमे छ पक्खेवे॥१४७ ।। सिद्धा निगोदजीवा, वणस्सई-काल-पोग्गला चेव। सव्वमलोगागासं, छप्पेएऽणंतपक्खेवा ॥ १४८ ॥ पुण तिक्खुत्तो वग्गिअ, केवलवरनाणदंसणे खेत्ते। भवइ अणंताणंतं, जेटुं ववहरइ पुण मज्झं ॥ १४९ ॥ अनुन्नब्भाससमं, वग्गियसंवग्गियं तओ के इ। सत्तमऽसंखअणंते, तिवग्गठाणे तमाहु तिहा॥ १५० ॥ नेयअइगहणयाए, निविडजडत्तेण नियमईए तहा। जमिहुस्सुत्तं वुत्तं, मिच्छा मे दुक्कडं तस्स ॥ १५१ ॥ जिणवल्लहगणिलिहियं, सुहुमत्थवियारलवमिणं सुयणा। निसुणंतु मुणंतु सयं, परे वि बोहिंतु सोहिंतु ।। १५२ ।। इति सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरणम् Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणम् (षडशीति-नामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः) निच्छिन्नमोहपासं, पसरियविमलोरुकेवलपयासं। पणयजणपूरियासं, पयओ पणमित्तु जिणपासं ॥ १॥ वोच्छामि जीवमग्गणगुणठाणुवओगजोगलेसाई। किंचि सुगुरूवएसा, सन्नाणसुझाणहेउ त्ति ॥ २॥ इह सुहुमबायरेगिंदिबितिचउअसन्निसन्निपंचिंदी। अपजत्ता पजत्ता, कमेण चउदस जियट्ठाणा ॥ ३ ॥ सव्वभणियव्वमूलेसु तेसु गुणठाणगाइ ता भणिमो। पढमगुणा दो बायरबितिचउरअसन्नि अपजत्ते॥ ४॥ सन्नि-अपज्जत्ते मिच्छदिट्ठि-सासाण-अविरया तिन्नि । सव्वे सन्नि पजत्ते, मिच्छं सेसेसु सत्तसु वि॥ ५॥ जोगा छसु अप्पजत्तएसु कम्मइगउरलमिस्सा दो। वेउव्वियमीसजुया, सन्नि अपज्जत्तए तिन्नि॥ ६॥ बिंति अपज्जत्ताण वि, तणुपज्जत्ताण केइ ओरालं। बायरपज्जत्ते तिन्नि, उरल वेउव्वियदुगं च ॥ ७॥ उरलं सुहुमे चउसु य, भासजुयं पनरसावि सन्निम्मि। उवओगा दससु तओ, अचक्खुदंसणमनाणदुगं ॥ ८॥ चक्खुजुया चउरिदियअसन्नि पजत्तएसु ते चउरो। मणनाणचक्खुकेवलदुगरहिया सन्नि अपज्जत्ते ॥ ९॥ सव्वे सन्निसु एत्तो, लेसाओ छावि दुविह सन्निम्मि। चउरो पढमा बायर, अपज्जत्ते तिन्नि सेसेसु॥ १० ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि. १५ सत्तट्ठ -अट्ठ - सत्तट्ठ -अट्ठ -बंधु दयुदीर णासंता। तेरससु जीवठाणेसु, सन्निपज्जत्तए ओघो ॥ ११ ॥ एत्तो गइइंदिय-काय-जोय-वेए कसायणाणेसु । संजम-दसण-लेसा-भव-सम्मे सन्नि-आहारे॥ १२ ॥ सुरनरतिरिनरयगई इगबितिचउरिंदिया य पंचिंदी। पुढवी-आऊ-तेऊ-वाउ-वणस्सइ-तसा काया॥ १३ ॥ मणवइकायाजोगा, इत्थी पुरिसो नपुंसगो वेया। कोहो माणो माया, लोभो चउरो कसायत्ति ॥ १४॥ मइसुयओहीमणकेवलाणि मइसुयअनाणविभंगा। सामइयछेयपरिहार-सुहुम-अहखाय-देसजय-अजया॥ १५ ॥ अच्चक्खुचक्खुओही, केवलदसणमओ य छल्लेसा। किण्हा नीला काऊ, तेऊ पम्हा य सुक्का य॥ १६॥ भव्व-अभव्वा खउवसम-खइय-उवसमिय-मीस-सासाणा । मिच्छो य सन्नसन्नी, आहारऽणहार इय भेया॥ १७ ।। सुरनिरए सन्निदुर्ग, नरेसु तइओ असन्निअपजत्तो। तिरियगईए चउदस, एगिंदिसु आइमा चउरो॥ १८॥ बितिचउरिंदिसु दो दो, अंतिम चउरो पणिंदिसु भवंति। थावरपणगे पढमा, चउरो चरमा दस तसेसु॥ १९ ॥ विगलतिअसन्निसन्नी, पज्जत्ता पंच होंति वइजोगे। मणजोगे सन्निको, पुमित्थिवेए चरम चउरो॥ २० ॥ काओगिनपुंसकसायमइसुयअनाणअविरयअचक्खू। आइतिलेसा भव्वियरमिच्छ आहारगे सव्वे ॥ २१॥ मइसुयओहिदुगविभंगपम्हसुक्कासु तिसु य सम्मेसु। सन्निम्मि य दो ठाणा, सन्निअपज्जत्तपज्जत्ता ॥ २२ ॥ १. 'अक्खाय' इति मु०। २. 'सासाणा' मू० 'अ' प्रतौ तथा श्री हरिभद्रसूरि - श्रीयशोभद्रसूरीभ्यां एतत्पाठानुसारेणैव व्याख्यातम्। ३. 'सन्नि सन्नी' इति मू०। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणम् मणपज्जव-केवल-दुगसंजय-देसजय-मीसदिट्ठीसु। सन्नीपज्जो चक्खुम्मि तिन्नि छव पजियर चरमा ॥ २३ ॥ सत्त उ सासाणे बायराइ छ अपज्ज सन्निपज्जो य। तेउल्लेसे बायरअपजत्तो दुविह सन्नी य॥ २४॥ अस्सन्नि आइ बारस, अणहारे अट्ठ सत्तअपजत्ता। सन्नी पज्जत्तो तह, इय गइयाइसु जियट्ठाणा ॥ २५ ॥ मिच्छे सासणमीसे अविर यदेसे पमत्तअपमत्ते। नियट्टि-अनियट्टि-सुहुमुवसमखीणसजोगिअजोगिगुणा ॥ २६॥ चत्तारि देवनरएसु पंच तिरिएसु चउदस नरेसु। इगिविगलेसुं दो दो, पंचिंदीसुं चउद्दस वि॥ २७ ॥ भूदगतरूसु दो दो, इगमगणिवाउसु चउदस तसेसु। जोए तेरस वेए, तिकसाए नव दस य लोभे ॥ २८॥ मइसुयओहिदुगे नव, अजयाइ जयाइ सत्त मणनाणे। केवलदुगम्मि दो तिन्नि दो व पढमा अनाणतिगे॥ २९॥ सामाइयछे एसुं, चउरो परिहार दो पमत्ताई। देससुहुमे सगं पढमचरमचउ अजयअहखाए॥ ३०॥ बारस अचक्खुचक्खुसु, पढमा लेसासु तिसु छ दुसु सत्त। सुक्काए तेरस गुणा, सव्वे भव्वे अभव्वेगं॥ ३१ ॥ वेयगखइगउवसमे, चउरो एक्कारसट्ठ तुरियाई । सेसतिगे सट्ठाणं, सन्निसु चउदस असन्निसु दो॥ ३२ ॥ आहारगेसु पढमा, तेरसऽणाहारगेसु पंच इमे। पढमंतिमदुगअविरय, गइयाइसु इय गुणट्ठाणा ॥ ३३॥ सच्चं मोसं मीसं, असच्चमोसं मणं तइ वई य। उरलविउव्वाहारा, मीसा कम्म इगमिय जोगा॥ ३४॥ १. 'तुरियाई' इति मू० अ० बी०। २. 'अंविरेया' इति मू० अ० बी० । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि आहारउरलदुगरहिया । एक्कारस सुरनारयगईसु सुरनारयगईसु जोगा तिरियगईए, तेरस आहारगदुगूणा ॥ ३५ ॥ नरगइपणिंदितसतणुनर- अपुम- कसायमइसुओहिदुगे । अचक्खु छल्लेसा भव्व सम्मदुग सन्निसु य सव्वे ॥ ३६ ॥ एगिदिए पंच उ, कम्मइगविउव्विउरलजुयलाणि । कम्मुरलदुगं अंतिमभासा विगलेसु चउरो त्ति ॥ ३७ ॥ कम्मुरलदुगं थावरकाए वाए विउव्विजुयलजुयं । पढमंतिममणवइदुगकम्मुरलदु केवलदुगम्मि ॥ ३८ ॥ थीवेय अन्नाणोवसमअजयसासणअभव्व मिच्छेसु । तेरस मण-वइ-मणनाण- छेय- सामइय-चक्खुसु य ॥ ३९ ॥ परिहारसुहुमे नव उरलवइमणा ते सकम्मुरलमिस्सा । अहखाए सविउव्वा, मीसे देसे सविउविदुगा' ॥ ४० ॥ कम्मुरलविउव्वियदुगाणि चरमभासा य छ उ असन्निम्मि । जोगा अकम्मगाहारगेसु कम्मणमणाहारे ॥ ४१ ॥ नाणं पंचविहं तह, अन्नाणतिगं ति अट्ठ सागारा । चउदंसणमणगारा, बारस जियलक्खणुवओगा ॥ ४२ ॥ मणुयगईए बारस, मणकेवलदुरहिया नवन्नासु । थावरइगबितिइंदिसु, अचक्खुदंसणमनाणदुगं ॥ ४३ ॥ चक्खुजुयं चउरिंदिसु तं चिय बारसपणिंदितसकाए । जोए वे सुक्काएँ, भव्वसन्नीसु आहारे ॥ ४४ ॥ केवलदुगहीणा दस, कसायपणलेसचक्खुचक्खूसु । केवलदुगे नियदुगं, खड्गे नव नो अनाणतिगं ॥ ४५ ॥ पढमचउनाणसं जमवे यगउवसमियओहि दंसे सु । नाणचउदंसणतिगं, केवलदुजुयं अहक्खाए ॥ ४६ ॥ २. 'च' इति मू० । १. 'सविउव्विदुगा' मू० अ० बी० । १७ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणम् नाणतिगदंसणतिगं, देसे मीसे अनाणमीसं तं । केवलदुगमणपज्जववज्जा अस्संजयम्मि नव॥ ४७ ॥ अन्नाणतिगअभव्वे, सासणमिच्छे य पंच उवओगा। दो दंसण तियनाणा, ते अविभंगा असन्निम्मि॥ ४८ ॥ मणनाणचक्खुरहिया, दस उ अणाहारगेसु उवओगा। इय गइयाइसु नयमयनाणत्तमिणं तु जोगेसु॥ ४९ ॥ तणुवइमणेसु कमसो, दुचउतिपंचा दुअट्ठचउचउरो। तेरसदुबारतेरस, गुणजीवुवओगजोग त्ति ॥ ५० ॥ लेसा उ तिन्नि पढमा, नारगविगलग्गिवाउकाएसु। एगिंदिभूतरूदगअसन्निसुं पढमिया चउरो॥ ५१ ॥ केवलजुयलअहक्खायसुहुमरागेसु सुक्कलेसेव । लेसासु छसु सठाणं, गइयाइसु छावि सेसेसुं॥ ५२ ॥ गइयाइसु अप्पबहुं, भणामि सामन्नओ सठाणे वि। नरनिरयदेवतिरिया, थोवा दुअसंखऽणंतगुणा ॥ ५३॥ पणचउतिदुएगिंदी, थोवा तिन्नि अहिया अणंतगुणा । तसतेउपुढविजलवाउहरियकाया पुण कमेणं ॥ ५४॥ थोवा असंखगुणिया, तिन्नि विसेसाहिया अणंतगुणा। मणवयणकायजोगी, थोवाऽसंखगुणि अणंतगुणा ।। ५५ ॥ पुरिसेहिं तो इत्थी, संखेजगुणा नपुंसणंतगुणा। माणी कोही मायी लोभी कमसो विसेसहिया ॥ ५६ ॥ मणपज्जविणो थोवा, ओहीनाणी तओ असंखगुणा। मइसुयनाणी तत्तो, विसेसअहिया समा दो वि॥ ५७॥ विब्भंगिणो असंखा, केवलनाणी तओ अणंतगुणा। तत्तोऽणंतगुणा दो, मइसुयअन्नाणिणो तुल्ला ॥ ५८॥ सुहुमपरिहार-अहखाय-छेयसामइय-देसजइअजया। थोवा संखेज्जगुणा, चउरो अस्संखऽणंतगुणा ॥ ५९ ।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १९ इय ओहिचक्खुकेवलअचक्खुदंसी कमेण विनेया। थोवा अस्संखगुणा, अणंतगुणिया अणंतगुणा ॥ ६०॥ सुक्का पम्हा तेऊ काऊ नीला य किण्हलेसा य। थोवा दो संखगुणाऽणंतगुणा दो विसेसहिया॥ ६१ ।। थोवा जहन्नजुत्ताऽणंतयतुल्ल त्ति इह अभव्वजिया। तेहिंतोऽणंतगुणा भव्वा निव्वाणगमणरिहा ॥ ६२ ॥ सासणउवसमियमिस्सवेयगक्खइयमिच्छदिट्ठीओ। थोवा दो संखगुणा, असंखगुणिया अणंता दो॥ ६३ ॥ सन्नी थोवा तत्तो, अणंतगुणिया असन्निणो होति। थोवाणाहारजिया, तदसंखगुणा सआहारा ।। ६४॥ मिच्छे सव्वे छ अपज सन्निपजत्तगो य सासाणे। सम्मे दुविहो सन्नी, सेसेसुं सन्निपज्जत्तो॥ ६५ ॥ इय जियठाणा गुणठाणगेसु जोगाइ वोच्छमेत्ताहे। जोगाहारदुगूणा, मिच्छे सासण अविरए य॥ ६६ ॥ उरलविउव्विइमणा, दस मीसे ते विउव्विमीसजुया। देसजए एक्कारस, साहारदुगा पमत्ते ते ॥ ६७॥ एक्कारस अपमत्ते, मणवइआहारउरलवेउव्वा। अप्पुव्वाइसु पंचसु, नव ओरालो मणवई य॥ ६८॥ चरमाइममणवइदुगकम्मुरलदुगंति जोगिणो सत्त। गयजोगो य अजोगी, वोच्छमओ वारसुवओगे॥ ६९ ॥ अच्चखुचक्खुदंसणमन्नाणतिगं च मिच्छसासाणे । अविरयसम्मे देसे, तिनाणदंसणतिगं ति छ उ॥ ७० ॥ मीसे ते चिय मीसा, सत्तपमत्ताइसुं समणनाणा। के वलियनाणदंसणउवओगा जोगजोगीसु॥ ७१ ॥ सासणभावे नाणं, विउव्विगाहारगे उरलमिस्सं । नेगिंदिसु सासाणो त्ति नेहाऽहिगयं सुयमयंपि ॥ ७२ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणम् लेसा तिन्नि पमत्तं, तेऊपम्हा उ अप्पमत्तंता। सुक्का जाव सजोगी, निरुद्धलेसो अजोगि त्ति ॥ ७३ ॥ बंधस्स मिच्छअविरइकसायजोग त्ति हेयवो चउरो। पंच दुवालस पणवीस पनरस कमेण भेया सिं॥ ७४ ।। आभिग्गहियं अणभिग्गहं च तह अभिनिवेसियं चेव। संसइयमणाभोगं, मिच्छत्तं पंचहा एवं ॥ ७५ ॥ बारसविहा अविरई, मणइंदियअनियमो छकायवहो। सोलस नव य कसाया, पणुवीसं पन्नरस जोगा॥ ७६ ॥ पणपन्नपन्नतियछहिय, चत्तउणचत्त छ चउ दुगवीसा। सोलसदसनवनवसत्तहेउणो न उ अजोगिम्मि॥ ७७॥ तो नाणदंसणावरणवेयणीयाणि मोहणिज्जं च। आउयनाम गोयंतरायमिइ अट्ठ कम्माणि ॥ ७८ ॥ सत्तट्ठ छे गबंधा, संतु दया अट्ठ सत्तचत्तारि । सत्तट्ठ-छ-पंचदुगं, उदीरणाठाणसंखेयं ॥ ७९ ॥ अपमत्तंता सत्तट्ठ मीसअपुव्वबायरा सत्त। बंधंति छ सुहुमो एगमुवरिमा बंधणोऽजोगी। ८० ॥ जा सुहुमो ता अट्ठ वि, उदए संते य होंति पयडीओ। सत्तट्ट वसंते खीणे सत्त चत्तारि सेसेसु ॥ ८१ ।। सत्तट्ठ पमत्तंता, कम्मे उइरेंति अट्ठ मीसो उ। वेयणियाउ विणा छ उ, अपमत्तअपुव्वअनियट्टी ॥ ८२॥ सुहुमो छ पंच उइरेइ पंच उवसंतु पंच दो खीणो। जोगी उ नाम गोए, अजोगि अणुदीरगो भयवं॥ ८३॥ उवसंतजिणा थोवा, संखेजगुणा उ खीणमोहजिणा। सुहुमनियट्टिनियट्टी, तिन्नि वि तुल्ला विसेसहिया॥ ८४॥ १. 'चत्तगुणचत्त' इति मू० अ०। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि जोगिअपमत्तइयरे, संखगुणा देससासणा मिस्सा। अविरयअजोगिमिच्छा, असंख चउरो दुवेऽणंता ।। ८५ ।। जिणवल्लहोवणीयं जिणवयणामयसमुद्दबिंदुसमं । हियकंखिणो बुहजणा, निसुणंतु गुणंतु जाणंतु ॥ ८६ ।। इति षडशीत्यपरपर्यायागमिकवस्तुविचारसारप्रकरणम्। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. सर्वजीवशरीरावगाहनास्तवः इय सुहुमबायरअपज्ज-पज्ज-हस्सियरदेहभेएणं । पंच वि निगोय पवणग्गिजलभुवो अ दुआ कमसो॥१॥ चउह परित्ता बायर-अपज्जपज्जा जहन्नियरतणुणो। सुहु मनिगोय-अपज्जत्तजहन्नोगाहणा थोवा॥ २॥ समत्तपवणजलणंबु भूयं सुहमाण बायराणं च। कमसो असंखगुणिया जहणूणमोगाहणा(च)उण्हं ॥ ३ ॥ तह संखमुणा बायरऽणंतपरित्तु असमत्तहस्सतणू। तुल्ला वि दोण्ह बिइओ सुहुमनिगोयावगाहणया॥ ४॥ पज्जतजहन्नाअपज्जतग-उकोसपज्ज जिट्ठा य। जहसंखमसंखगुणा विसेसअहिया विसेसहिया॥ ५ ॥ इय सुहुमवाउतेऊजलपुढवीसु तह बायरेसु कमा। बायरनिगोयपत्तेयगेसु नियजातिगाण दस॥ ६॥ जइ वि अपत्तेयवणेमिंदितणू माममंगुलमसंखं । असइमसंखगुणतं, तह वि विचित्ततओ तस्स ॥ ७॥ जिणवल्लहगणिणेगिंदिदेहअप्पाबहुत्तमुद्धरियं । भगवइपणवीससयस्स तइयउद्देसगाउ इमं ॥ ८॥ इति सर्वजीवशरीरावगाहनास्तवः Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. पिण्डविशुद्धिप्रकरणम् जिणंदे | देविंदविंदवंदियपयारविंदेऽभिवंदिय वोच्छामि सुविहियहियं, पिण्डविसोहिं समासेण ॥ १ ॥ जीवा सुहेसिणो तं, सिवम्मि तं संजमेण सो देहे । सो पिण्डेण सदोसो, सो पडिकुट्ठो इमे ते य॥ २॥ आहाकम्मुद्देसिय, पूईकम्मे य मीसजाए य। ठवणा पाहुडियाए, पाओयरकीयपामिच्चे ॥ ३ ॥ परिअट्टिए अभिहडुब्भिन्ने मालोहडे अ अच्छिज्जे । अणिसिट्ठऽज्झोयरए, सोलस पिण्डुग्गमे दोसा ॥ ४ ॥ आहाऍ वियप्पेणं, जईण कम्ममसणाइकरणं जं । छक्कायारम्भेणं, तं आहाकम्ममाहंसु ॥ ५॥ अहवा जं तग्गाहिं, कुणइ अहे संजमाउ नरए वा । हणइ व चरणायं से, अहकम्म तमायहम्मं वा ॥ ६ ॥ अट्ठवि कम्माई अहे, बंधइ पकरेइ चिणइ उवचिणइ | कम्मियभोई साहू, जं भणियं भगवईऍ फुडं ॥ ७ ॥ तं पुण जं जस्स जहा, जारिसमसणे य तस्स जे दोसा । दाणे य जहा पुच्छा, छलणा सुद्धी य तह वोच्छं ॥ ८ ॥ असणाइचउब्भेयं, आहाकम्ममिह बेंति आहारं । पढमं चिय जइजोग्गं, कीरंतं निट्ठियं च तहिं ॥ ९ ॥ तस्स कड तस्स निट्ठिय, चउभंगो तत्थ दुरिमा कप्पा | फासुकयं रद्धं वा, निट्ठियमियरं कडं सव्वं ॥ १० ॥ साहुनिमित्तं ववियाइ ता कडा जाव तंदुला दुछडा । तिछडा उ निट्ठिया पाणगाइ जहसंभवं नेज्जा ॥ ११॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ १२ ॥ होइ । " साहम्मियस्स पवयणलिंगेहि कए कयं हवइ कम्मं । पत्तेयबुद्ध-निण्हय-तित्थयरट्ठाइ पुण कप्पे ॥ पडिसेवण - पडिसुणणा, संवासऽणुमोयणेहिं तं इह तेणरायसुय- पल्लि रायदुद्वेहिं दिट्ठता ॥ १३ ॥ सयमन्त्रेण च' दिन्नं, कम्मियमसणाइ खाइ पडिसेवा । दक्खिन्नादुवओगे, भणिओ लाभुत्ति पडिसुणणा ॥ १४ ॥ संवासो सहवासो, कम्मियभोइहिं तप्पसंसाओ । अणुमोयणत्ति तो ते तं च चए तिविहतिविहेणं ॥ १५ ॥ वंतुच्चारसुरागोमंससममिमंति तेण तज्जुत्तं । पत्तं पि कयतिकप्पं, कप्पइ पुव्वं करिसघट्टं ॥ १६ ॥ कम्मग्गणेऽइक्कमवइक्कमा तह ऽइयारऽणायारा । आणाभंगऽणवत्था, मिच्छत्तविराहणा य भवे ॥ १७॥ आहाकम्मामंतण-पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ । पयभेयाइ वइक्कम, गहिए तइएयरो गिलिए॥ १८ ॥ भुंजइ आहाकम्मं, सम्मं न य जो पडिक्कमइ लुद्धो । सव्वजिणाणाविमुहस्स तस्स आराहणा नत्थि ॥ १९॥ जइणो चरणविघाइत्ति दाणमेयस्स नत्थि ओहेणं । बीयपए जइ कत्थवि, पत्तविसेसे व हुज्ज जओ ॥ २० ॥ संथरणम्मि असुद्धं, दुण्हवि गिण्हंतदिंतयाणऽहियं । आउरदिट्टंतेणं, तं चेव हियं असंथरणे ॥ २१ ॥ भणियं च पंचमंगे, सुपत्तसुद्धऽन्नदाणचउभंगे। पढमो सुद्धो बीए भयणा सेसा अणिट्ठफला ॥ २२॥ देसाणुचियं बहुदव्वमप्पकुलमायरो य तो पुच्छे । कस्स कए केण कयं ?, लक्खिज्जइ बज्झलिंगेहिं ॥ २३ ॥ २. 'चउभंगो' इति पु० बी० । १. 'व' सी० बी० । पिण्डविशुद्धिप्रकरणम् Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि थोवं ति न पुढे न कहियं व गूढेहिं नायरो व कओ। इय छलिओ वि न लग्गइ, सुओवउत्तो असढभावो ॥ २४॥ आहाकम्मपरिणओ, बज्झइ लिंगि व्व सुद्धभोई वि। सुद्धं गवेसमाणो, सुज्झई खवगुव्व कम्मे वि॥ २५ ॥ नणु मुणिणा जं न कयं, न कारियं नाणुमोइयं तं से। गिहिणा कडमाइयओ, तिगरणसुद्धस्स को दोसो? ॥ २६ ॥ सच्चं तह वि मुणंतो, गिण्हंतो वड्डए पसंगं से। निद्धंधसो य गिद्धो, न मुयई सजियं पिं सो पच्छा ।। २७॥ उद्देसियमोहविभागओ य ओहे सए जमारं भे। भिक्खाउ कइवि कप्पइ, जो एही तस्स दाणट्ठा ॥ २८॥ बारसविहं विभागे, चउहुद्दिटुं कडं च कम्मं च। उद्देस-समुद्दे सा-देस-समाएस-भे एणं ॥ २९ ॥ जावंतियमुद्देसं, पासंडीणं भवे समुद्देसं । समणाणं आएसं, निग्गंथाणं समाएसं ॥ ३० ॥ संखडिभुत्तुव्वरियं, चउण्हमुद्दिसइ जं तमुद्दिष्टुं । वंजणमीसाइ कडं, तमग्गितयवियाइ पुण कम्मं ॥ ३१॥ उग्गमकोडिकणेण वि, असुइलवेणं व जुत्तमसणाई। सुद्धं पि होइ पूई, तं सुहुमं बायरं ति दुहा ॥ ३२॥ सुहुमं कम्मियगंधऽग्गिधूमबप्फेहि तं पुण न दुटुं। दुविहं बायरमुवगरणभत्तपाणे तहिं पढमं ॥ ३३ ॥ कम्मियचुल्लियभायणडोवठियं पूइ कप्पइ पुढो तं। बीयं कम्मियवग्घारहिंगुलोणाइ जत्थ छुहे ॥ ३४ ॥ कम्मियवेसण धूमियमहव कयं कम्मखरडिए भाणे। आहारपूइ तं कम्मलित्तहत्थाइ छिक्कं च॥ ३५ ॥ पढमे दिणम्मि कम्म, तिन्निउ पूइकयकम्मपायघरं । पूइ तिलेवं पिढरं, कप्पइ पायं कयतिकप्पं ॥ ३६ ।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डविशुद्धिप्रकरणम् जं पढमं जावंतिय, पासंडिजईण अप्पणो य कए। आरभइ तं तिमीसं ति मीसजायं भवे तिविहं ॥ ३७॥ सट्ठाण परट्ठाणे, परंपराणंतरं चिरित्तरियं । दुविह तिविहा वि ठवणाऽसणाइ जंठवइ साहुकए॥ ३८॥ चुल्लुक्खाइ सठाणं, खीराइ परं परं घयाइयरं । दव्वठिई' जाव चिरं, अचिरं तिघरंतरं कप्पं ॥ ३९॥ बायरसुहुमुस्सक्कणमोसक्कणमिय दुहेह पाहुडिया। परओ करणुस्सक्कणमोसक्कणमारओ करणं ॥ ४०॥ पाओयरणं दुविहं पायडकरणं पयासकरणं च। सतिमिरघरे पयडणं, समणट्ठा जमसणाईणं ॥ ४१ ॥ पायडकरणं बहियाकरणं देयस्स अहव चुल्लीए। बीयं मणिदीवगवक्ख-कुड्डुछिड्डाइकरणेणं ॥ ४२ ॥ किणणं कीयंरे मुल्लेण चउह तं सपरदव्वभावेहिं । चुन्नाइ-कहाइ-धणाइ-भत्त-मंखाइरूवेहिं ॥ ४३ ॥ समणट्ठा उच्छिंदिय, जं देयं देइ तमिह पामिच्चं । तं दुटुं जइभइणी, उद्धारियतिल्लनाएणं ॥ ४४ ॥ पल्लट्टि यरे जं दव्वं, तदन्नदव्वेहिं देइ साहूणं । तं परियट्टियमित्थं, वणिदुगभइणीहिं दिटुंतो॥ ४५ ॥ गिहिणा सपरग्गामाइआणियं अभिहडं जईणट्ठा। तं बहु दोसं नेयं, पायडछन्नाइबहुभेयं ॥ ४६ ।। आइन्नं तुक्कोसं, हत्थसयंतो घरेउ तिन्नि तहिं । एगत्थ भिक्खगाही, बीओ दुसु कुणइ उवओगं ॥ ४७॥ जउछगणाइविलित्तं, उभिदिय देइ जं तमुब्भिन्नं । समणट्ठमपरिभोगं, कवाडमुग्घाडियं वा वि॥ ४८॥ १. 'दव्वट्ठिय' इति पु०। २. 'किय' इति पु०। ३. 'पल्लट्ठिय' इति पु० सी० । ४. 'सपरग्गामाओ आणीय' इति पु० । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २स जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि उड्डमहोभयतिरिएसु मालभूमिहरकुम्भीधरणिठियं । करदुग्गिझं दलयइ', जं तं मालोहडं चउहा ।। ४९ ।। अच्छिंदिय अन्नेसिं, बलावि जं दिति सामिपहुतेणा। तं अच्छिज्जं तिविहं, न कप्पएऽणणुमयं तेहिं ॥ ५० ॥ अणिसिट्ठमदिन्नमणणुमयं च बहुतुल्लमेगु जं दिञ्जा। तं च तिहा साहारणचुल्लगजड्डानिसिटुं ति॥ ५१ ॥ जावंतियजइपासंडियत्थमोयरइ तंदुले पच्छा। सऽट्ठा मूलारंभे, जमेस अज्झोयरो तिविहो॥ ५२॥ इय कम्मं उद्देसियतियमीसज्झो यरंतिमदुगं च। आहारपूइबायरपाहुडिअविसोहिकोडि त्ति ॥ ५३॥ तीएँ जुयं पत्तं पि हु, करीसनिच्छोडियं कयतिकप्पं । कप्पइ जं तदवयवो, सहस्सघाई विसलवुव्व ॥ ५४॥ सेसा विसोहिकोडी, तदवयवं जं जहिं जयारे पडियं। असढो पासइ तं चिय, तओ तया उद्धरे सम्मं ॥ ५५ ।। तं चेव असंथरणे, संथरणे सव्वमवि विगिंचंति । दुल्लहदवे उ असढा, तत्तियमित्तं चिय चयंति ॥ ५६ ॥ भणिया उग्गमदोसा, संपइ उप्पायणाइ ते वुच्छं । जेऽणजकज्जसज्जो, करिज पिण्डट्ठमवि ते य॥ ५७ ॥ धाई-दूइनिमित्ते, आजीववणीमगे तिगिच्छा य। कोहे माणे माया, लोभे य हवंति दस एए॥ ५८॥ पुव्विं पच्छासंथव विज्जामंते य चुण्णजोगे य। उप्पायणाइ दोसा, सोलसमे मूलकम्मे य॥ ५९॥ बालस्स खीर मजण-मंडणकीलावणंक धाइत्तं । करिय कराविय वा जं, लहइ जई धाइपिण्डो सो॥६० ॥ १. 'दलई' इति पु०। २. 'जहा' इति पु० सी०। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ पिण्डविशुद्धिप्रकरणम् कहिय मिहो संदेसं, पयडं छन्नं व सपरग्गामेसु। जं लहइ लिंगजीवी, स दूइपिण्डो अणत्थफलो॥ ६१ ॥ जो पिण्डाइनिमित्तं, कहइ निमित्तं तिकालविसयं पि। लाभालाभ-सुहासुह-जीवियमरणाइ सो पावो॥ ६२ ॥ जच्चाइधणाण पुरो, तग्गुणमप्पं पि कहिय जं लहइ। सो जाई-कुल-गण-कम्म-सिप्प-आजीवणापिण्डो॥६३ ॥ माइभवा विप्पाइ व, जाई उग्गाइ पिउभवं व कुलं । मल्लाइगणो किसिमाइ, कम्मं चित्ताइ सिपं तु ॥ ६४ ॥ पिण्डट्ठा समणातिहिमाहणकिविणसुणगाइभत्ताणं । अप्पाणं तब्भत्तं, दंसइ जो सो वणीमो त्ति ।। ६५ ।। भेसज्ज-वेजसूयण-मुवसामण-वमणमाइकिरियं वा। आहारकारणेण वि, दुविह तिगिच्छं' कुणइ मूढो ॥६६॥ विजातवप्पभावं, निवाइपूयं बलं व से नाउं । दट्ठण व कोहफलं, दिति भया कोहपिण्डो सो॥ ६७ ॥ लद्धिपसंसुत्तुइओ, परेण उच्छाहिओ अवमओ वा। गिहिणोऽभिमाणकारी, जं मग्गइ माणपिण्डो सो॥ ६८ ॥ मायाएँ विविहरूवं, रूवं आहारकारणे कुणइ। गिहिस्समिमं निद्धाइ तो बहु अडइ लोभेणं ॥ ६९ ॥ कोहे घेवर-खवगो, माणे सेवईयखुड्डुओ नायं । मायाएऽऽसाढभूई, लोभे केसरयसाहु त्ति ॥ ७० ॥ थुणणे संबंधे संथवो दुहा सो य पुव्व पच्छा वा। दायारं दाणाओ, पुव्वं पच्छा व जं' थुणइ ।। ७१ ॥ जणणिजणगाइ पुव्विं, पच्छा सासुससुराइ जं च जई। आयपरवयं नाउं, संबंधं कुणइ तदणुगुणं ॥ ७२ ।। १. 'चिगिच्छं' इति पु० सी० । २. 'सं' इति पु०। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि साहणजुत्ता थीदेवया व विज्जा विवज्जए मंतो। अंतद्धाणाइफला, चुन्ना नयणंजणाईया॥ ७३ ॥ सोहग्गदोहग्गकरा पायपलेवाइणो य इह जोगा। पिण्डट्ठमिमे दुट्ठा, जईण सुयवासियमईणं ॥ ७४ ।। मंगलमूलीण्हवणाइ गब्भवीवाह करणघायाई। भववणमूलं कम्मति मूलकम्मं महापावं ॥ ७५ ।। इय वुत्ता सुत्ताओ, बत्तीस गवेसणेसणादोसा। गहणेसणदोसे दस, लेसेण भणामि ते य इमे ॥ ७६॥ संकियमक्खियनिक्खित्तपिहियसाहरियदायगुम्मीसे। अपरिणयलित्तछड्डिय, एसणदोसा दस हवंति ॥ ७७॥ संकियगहणे भोगे, चउभंगो तत्थ दुचरिमा सुद्धा। जं संकइ तं पावइ, दोसं सेसेसु कम्माई ॥ ७८॥ सच्चित्ताचित्तमक्खियं दुहा तत्थ भूदगवणेहिं । तिविहं पढमं बीयं, गरहियइयरेहिं दुविहं तु ॥ ७९ ॥ संसत्तअचित्तेहिं२, लोगागमगरहिएहि य जईणं । सुक्कोऽल्लसचित्तेहि य, करमत्तं मक्खियमकप्पं ॥ ८० ॥ पुढविदगअगणिपवणे, परित्तऽणंते वणे तसेसुं च। निक्खित्तमचित्तं पि हु, अणंतरपरंपरमगिज्झं ॥ ८१॥ सचित्ताचित्तपिहिए, चउभंगो तत्थ दुट्ठमाइतिगं । गुरुलहुचहुभंगिल्ले, चरिमे वि दुचरिमगा सुद्धा ॥ ८२ ॥ खवियन्नत्थमजुग्गं, मत्ताओ तेण देइ साहरियं । तत्थ सचित्ताचित्ते, चउभंगो कप्पइ उ चरिमे ॥ ८३॥ तत्थ वि य थोवबहुपय-चउभंगो पढमतइयगाइण्णा। जइ तं थोवाहारं, मत्तगमुक्खिविय वियरिज्जा ॥ ८४॥ १. 'य' इति पु० बी० सी०। २. 'अचितेहि य' पु० बी० । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० पिण्डविशुद्धिप्रकरणम् थेरपहुपण्डवेविरजरियंधऽव्वत्तमत्तउम्मत्ते। करचरणछिन्नपगलियनियलण्डुय पाउयारूढो ।। ८५ ।। खंडइ पीसइ भुंजइ, कत्तइ लोढेइ विक्किणइ पिंजे' । दलइ विरोलइ जेमइ, जा गुव्विणि बालवच्छा य॥ ८६ ।। तह छक्काए गिण्हइ, घट्टइ आरभइ खिवइ दट्ट जइ। साहारण-चोरियगं, देइ परकं परटुं वा॥ ८७॥ ठवइ बलिं उव्वत्तइ, पिढराइ तिहा सपच्चवाया जा। दिंतेसु एवमाइसु, ओहेण मुणी न गिण्हंति ॥ ८८॥ जुग्गमजुग्गं च दुवे वि मीसिउं देइ जं तमुम्मीसं। इह पुण सचित्तमीसं, न कप्पमियरम्मि उ विभासा॥ ८९ ॥ अपरिणयं दव्वं चिय, भावो वा दुण्ह दाणि एगस्स। जइणो वेगस्स मणे, सुद्धं नऽन्नस्स परिणमियं ॥ ९० ॥ दहिमाइलेवजुत्तं, लित्तं तमगिज्झमोहओ इहइं। संसट्ठमत्तकरसावसेसदव्वेहिं अडभंगा॥ ९१ ॥ एत्थ विसमेसु घिप्पइ, छड्डियमसणाइ होंत परिसाडिं। तत्थ पडते काया, पडिए महुबिंदुदाहरणं ॥ ९२ ॥ इय सोलस सोलस दस, उग्गमउप्पायणेसणा दोसा। गिहिसाहूभयपभवा, पंचउ गासेसणाइ इमे ॥ ९३ ॥ संजोयणा पमाणे, इंगाले धूमऽकारणे पढमा । वसहि बहिरंतरे वा, रसहेउं दव्वसंजोगा॥ ९४॥ धिइबलसंजमजोगा, जेण ण हायंति संपइ पए वा। तं आहारपमाणं, जइस्स सेसं किलेसफलं ॥ ९५ ॥ जेणऽइबहु अइबहुसो, अइप्पमाणेण भोयणं भुत्तं । हादिज्ज व वामिज्ज व, मारिज व तं अजीरंतं ॥ ९६ ।। १. 'पिंजइ' इति पु० बी० । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि अंगारसधूमोवम-चरणिंधणकरणभावओ जमिह । रत्तो दुट्ठो भुंजइ, तं अंगारं च धूमं च॥ ९७ ॥ छु हवियणावे यावच्चसंजमसुज्झाणपाणर क्खट्ठा । इरियं च विसोहेउं, भुंजइ न उ रूवरसहेउं ॥ ९८ ॥ अहव न जिमेज रोगे, मोहुदये सयणमाइउवसग्गे। पाणिदयातवहे उं, अंते तणुमोयणत्थं च॥ ९९ ॥ इय तिविहेसणदोसा, लेसेण जहागमं मएऽभिहिया । एसु गुरुलहुविसेसं, सेसं च मुणिज्ज सुत्ताओ॥ १०० ॥ सोहिंतो य इमे तह, जइज्ज सव्वत्थ पणगहाणीए। उस्सग्गऽववायविऊ, जह चरणगुणा न हायति ॥ १०१॥ जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। सा होइ निज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥ १०२॥ इच्चेयं जिणवल्लहेण गणिणा जं पिंडनिज्जुत्तिओ, किंची पिण्डविहाणजाणणकए भव्वाण सव्वाण वि। वुत्तं सुत्तनिउत्तमुद्धमइणा भत्तीइ सत्तीइ तं, सव्वं भव्वममच्छरा सुयहरा बोहिंतु सोहिंतु य॥ १०३॥ इति पिण्डविशुद्धिप्रकरणम् ___ * * * १. 'भणिया' इति पु० बी० । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. श्रावकव्रतकुलकम् वीरं नमिउं सम्मत्तमूलमंगीकरेमि गिहिधम्मं । देवो जिणो पमाणं, तव्वयणं मह गुरू गीया॥ १ ॥ धम्मत्थमन्नतित्थे, न करे तवण्हाणदाणपिंडाई। चिइवंदणं च इक्कं, सक्कत्थएण वि सया काई॥ २॥ पाणिवह-मुसावाए-अदत्त-मेहुण-परिग्गहे चेव। दिसि-भोग-दंड-समइय-देसे-तह पोसहविभागे॥ ३॥ थूलाइ पाणिघायं, अलियं कन्नाइगोयरं सव्वं । अदत्त दुविह-तिविहेण, खत्तखणणाइणो नियमो॥ ४॥ परदारं वजेमी, सयणाइ-सदार तह य कारवणं। दुब्भासहासकलहाइ, मुक्कलं बंभवयविसयं ॥ ५ ॥ धणधन्नखित्तवत्थू रुप्पसुवन्ने य चउप्पए दुपए। कुविए परिग्गहे नवविहे य इच्छापमाणमिणं ॥ ६॥ पंचाससहस्सदम्मा, धणंमि मह चउव्विहम्मि मुक्कलया। धन्ने मूढग दुसयं, तिल्लघयाणं घडा सठ्ठी॥ ७॥ इक्कं खित्तं घर चारि, हट्ट चउरो य करह चालीसा। गो-वसह तह य तीसा, चउरो सगडा य अस्सा य॥८॥ वाहिणी दासा दासी, दो सिरि पट्टणाउ नयराउ। जोयणसड्ढसयं चउदिसासु-पंचास जलमग्गे ॥ ९॥ जोयण दो उठें तह, धणुह सयं होइ अहे य मग्गंमि। निसि असणखाइमे न हु जिमेसया मुत्तु घरणाई ॥ १० ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ३३ महु-मक्खण-सिंघाडय-गोरसजुयविदलजाणियमणंतं । अन्नायफल-वयंगणयं, चुंबरिमवि न भुंजामि॥ ११ ॥ बाहडमेरुं माणं, चुप्पडपल दुन्नि असणण्हाणहाणेसु। खाइमपलाण असीई, घडग दुगं होइ मह पाणे ॥ १२ ॥ पन्नास पत्तपुप्फल, दसगं पल पंच साइमे सयले। विगइ चउ दव्व चत्तालीसा सच्चित्तसत्ताइं॥ १३॥ अंगोहलिया दुन्निय, पइदिवसं घडदुगेण य जलस्स। दोण्हाणा भोगत्थ, मासे जलघड-चउक्केण ॥ १४ ॥ दस ओगाहिम पंच य, पाणादिव सय तेमणा वीसं। भोगाणं विंससयं, परिभोगाणं च सट्ठिसयं ॥ १५ ॥ अत्थाणयस्समिय मे, वेसो दम्माण असियसय संतो। चालीसं गहियाणा, आभरणे तह सुक्नस्स॥ १६॥ अट्ठमि चउदसि-गारसि, पणजिणकल्लाणदिवसमझंमि। विगइतिग बिगासणयं, इगासणं वरिस चउमासे ॥ १७॥ अरिमरणपुरवहाई, मुहुत्त पुरओवए अ बज्झाणं । तह सव्व जूय-दोला-जलकीला-जीवजुज्झाई॥ १८॥ कंदप्पदप्पनिट्ठीवणाइ सुयणं चउव्विहाहारं । सजिण-जिणमंडवं तो, विकहं कसहं च जयणाए । १९ ।। सत्थग्गि-मुसल-हल-जंतगाइ दक्खिन्नकारणे देमि। पावुवएसं च तहा, करिसण-गोणाइ दमणाई॥ २० ॥ सामाइय-पडिकमणे, सट्ठी कहं सया वि भासंतो। जलथलपहेसु दिवसे, वीसं दस जोयणा जामि ॥ २१॥ काले नियगेहागय-सुविहियसाहूण दाउ भुंजिस्सं। जिणचेइए य पूइय, सइ सवित्तो दव्वपूयाए । २२ ।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्रावकव्रतकुलकम् पणजिणकल्लाणदिणे, पूर्व सविसेसयं करिस्सामि। कप्पइ कोडीसत्तउ रंगवणे सेस मह नियमो॥ २३ ॥ सज्झायसहस्सगं अहं गुणेमी पमायवयभंगे। तिहि जोगे तवमेगं, असमणेणंतरतिहीसु ॥ २४ ॥ सव्वासवदाराई, दाहिणभरहद्धमज्झखंडबहिं । तिविह-तिविहेण नियमे, विक्खय सव्वाहिगरणया॥ २५ ॥ जह संभवमोसहअवस तणुअसामत्थ-वित्तछे याई । सव्वसमाहिमहत्तर सहसाणाभोगमवि नियमा ॥ २६ ॥ दंसणमूलमणुव्वयखंधं, उत्तर गुणोरुसाहालं । गिहिधम्मदुमं सिंचे, सद्धासलिलेण सिवफलयं ॥ २७ ॥ जुगपवरागमसिरिअभयदेवमुणिवइपमाणसुद्धेण। जिणवल्लहगणिणा गिहिवयाइ लिहियाइ मुद्धेण ॥ २८॥ इति श्रावकव्रतकुलकम् * * * Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. पौषधविधिप्रकरणम् जस्सुद्धट्ठियमुल्लसिरविमलपयनहपहाओं पयडिंति । जइधम्मं च दसविहं, दसविहजियसिवपहं च पुढो ॥ १ ॥ तं पणमिय पसमियभवदवं जिणं सयलजियकयाणंदं । वुच्छमतुच्छमइहियं जहासुयं पोसहविहाणं ॥ २ ॥ जइधम्मासयरूवं, वयपडिमाइपडिवत्तिविहिसज्झं । पूयाइकरणलालसमिह सावगधम्ममाहु जिणा ॥ ३ ॥ तो भवसुहविरयमणो, अणन्नसामन्नचरणरागेण । जहसुहकंखी किर कुणइ सव्वओ पोसहं सड्ढो ॥ ४ ॥ तं च चउद्दसि अट्ठमि पज्जोसवणाइपव्वदिवसेसु । साहुसगासे पोसहसालाऍ घरे व इय कुज्जा ॥ ५॥ पढमं घरे चेव नमुक्कारविबोहाइ काउमुज्झित्तु चित्तवासंगं गोसग्गे साहुसमीवमुवगम्म अंगपडिलेहणं करिय उच्चाराइभूमिं पेहित्ता थोभावंदणेणं वंदिय इच्छाकारेण संदिसह पोसहमुहपोत्तिं पडिलेहेमि त्ति भणिय बीयखमासमणपुव्वं पुत्तिं पडिलेहिय खमासमणेण पोसहं संदिसाविय, बीयखमासमणेण पोसहं ठामि त्ति भणित्ता खमासमणं दाउं उद्धट्ठिओ ईसिमवणयकाओ गुरुवयणमणुभणंतो णमुक्कारमुच्चरिय भणइ करेमि भंते! पोसहं आहारपोसहं सव्वओ देसओ वा सरीरसक्कारपोसहं सव्वओ बंभचेरपोसहं सव्वओ अव्वावारपोसहं सव्वओ चउव्विहे पोसहे सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जाव दिवस अहोरत्तिं वा पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं मणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि । - Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ इमं पुण पायं पाठसिद्धं । नवरं आहारदेहभूसा बंभ - अवावार दु दु निसेहविही । इह पोसहुत्ति पवाणुट्ठाणं धम्मपुट्ठिकरं ॥ १॥ तत्थ पुण अहोरत्तं दिवसं राई च तदुभयं च मयं । जो सावज्जं जोगं, पच्चक्खड़ दुविहतिविहेणं ॥ २ ॥ पुणो पोसहेव्व सामाइयमुहपोत्तिं पेहित्ता खमासमणेण सामाइयं संदिसाविय बीयखमासमणपुव्वं सामाइए ठामि त्ति वुत्तुं खमासमणदाणपुव्वमद्धावणयगत्तो पंचमंगलं कड्डित्ता भणइ त्ति 2 करेमि भंते! सामाइयं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि, जावनियमं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । एयस्स अत्थो - 'करेमि' अब्भुवगच्छामि, अब्भुवगमगहणेण य तुलादंडनायओ नाणजयणाओऽवि घिप्पंति । एवमेव विरइसंभवाओ । जओ तहा पौषधविधिप्रकरणम् "नाणब्भुवगमजयणाहिं वज्जविरईइ अट्ठमे भंगे। देसजई एगवयाइ चरमअणुमइ अविरओ जा ॥ १॥" 'भंते! त्ति कालोचियगुरुगुणकलियगुरुआमंतणं । इमं च निस्सेसनिस्सेयसाणुगुणगणमूलकारणं गुरुपारतंतप्पदरिसणपरं । जओ भगवंतो गणहरा सयलदुवालसंगमूलं सामाइयं सुत्त ओरयंता तदाइए चेव भंते! त्ति भणता जाणाविंति । जहा - सव्वसावज्जकज्जवज्जणरूवं सामाइयंपि गुरुअणुन्नापुव्वं पारद्धं परमपयपउणपयवीभूयं भवइ, नन्नह त्ति । एवं सव्वसुहाणुट्ठाणेसु वत्तव्वं । तहाहि गुरुणाऽणुन्नायाणं, किच्चं किच्वंपि जमिह समणाणं । बहुवेलाइकमाओ, सवत्थापुच्छणा भणिया ॥ १ ॥ गुरुपारतंत नाणं, सद्दहणं एयसंगयं चेव । इत्तो उ चरित्तीणं, मासतुसाईण निद्दिनं ॥ २ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि अलं पसंगेण, 'सामाइयं' समभावलाभरूवं। तत्थ य 'सावजं जोगं' सपावं वावारं अणुमइवजं 'पच्चक्खामि' निवारेमि, 'जाव नियम पज्जुवासामि' जत्तियं कालं सामाइयवयमासेवेमि। वयकालो य जहन्नेण वि किल मुहुत्तो। जओ काऊण तक्खणं चिय, पारेइ करेइ वा जहिच्छाए। अणवट्ठिय सामइयं, अणायराओ न तं सुद्धं ॥१॥ पच्चखाणं तु सामन्त्रेण नवहा 'तिविहं तिविहेण' इच्चाइ। तत्थ ठवणागाहा तिदुगेगाण तिगतियं, तिदुगेगे तिग तिगे अहे ठवसु। भेया तिन्नेगतिग, पढमिक्को नव नवन्नेसु॥ १॥ स्थापना | ३/३/३/२/२/२/११/१] ३/२/१३२|१३|२|१| तो चउत्थप्पयारसंगहत्थमाह-'दुविहं तिविहेणं' सोऽवि तिहा, तो पढमभेयनियमं करेइ-'मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि' 'तस्स' सावज्जजोगस्स 'भंते !' त्ति वुत्तं पुव्वं । पुणभणणं तु अईआयरक्खावणत्थं सुगुरुपडिवत्तिं विणा न किंचि कुसलमिति जाणावणत्थं च। तओ य गुरुमूले च्चिय निच्चं, पडिक्कमणं फुडमिह विणिद्दिटुं। गुरुविरहे य तदणुमयविहिणा ठवणावि गुरुसरिसी॥१॥ तहा गुरुसक्खिओ य धम्मो, संपुनविही कयाइ उ विसेसो। तित्थयराणाकरणं, सुगुरुसगासे गुणा हुंति॥ २॥ अणेण जमाहु केई। जहा-न साहूहिं समं सड्ढाणं पडिक्कमणं जुत्तं ति तमुग्गकुग्गहग्गहवियारु त्ति मंतव्वं । जओ-न सुत्ते सावयपडिक्क Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 पौषधविधिप्रकरणम् मणविही पुढो पढिज्जइ, किंतु समणोवासगत्तेण गीयत्था साहुअणुसारेण जमाणवेंति तं चिय पमाणं । "समइपवित्ती सव्वा, आणाबज्झत्ति भवफला चेव।" न य परुप्परवाघाओवि जुत्तिसरत्ताइ विहिपराण सम्भवइ, आणाओ य न दोसु त्ति, कयं वित्थरेण। 'पडिक्कमामि' नियत्तामि 'निंदामि' आयसमक्खं 'गरहामि' गुरुमाइपच्चक्खं मणसा मिच्छादुक्कडकरणं भावेण इह पडिक्कमणं। सचरित्तपच्छयावो, निंदा गरहा परसमक्खं॥ १॥ 'अप्पाणं' सावजजोगकारिणं वोसिरामि। अहवा पाइयलक्खणाओ अप्पणा नियगाभिप्पाएणं, न बलाभिओगाइणा। अणेण सहजपरिणामकयं धम्माणुट्ठाणं कम्मनिज्जराकारणं ति सूएइ। 'वोसिरामि' सावजो जोगो संबज्झइ, विविहं संरंभसमारंभारंभरूवं संवेगपच्चलयाए मुंचामि त्ति सामाइयसुत्तसंखेवत्थो। एवं 'पोसहं व सामाइयं च पडिवज्जिय खमासमणदुगेण चेव वासारत्ते कट्टासणं उडुबद्धे पाउंछणं वा पमज्जिय खमासमणदुगेण चेव संदिसाविय सज्झायमुवउत्तो सुहनिसन्नो कुणइ अप्पसद्देणं। जहा तत्तायगोलकप्पासंजयजणजग्गणं न जायइ। भावओ एगो अबीए, दव्वओ एगे वा अणेगे वा। उचियकाले विहिणा पडिक्कमिय खमासमणदुगेण पडिलेहणं संदिसाविय मुहणंतयं सकायं पडिलेहिय खमासमणदुगेण अंगपडिलेहणं संदिसावेइ, काउं च तं मुहपत्तिपेहण-खमासमणदुगेण पुव्वमुवहिं संदिसाविय वत्थकंबलाइं पडिलेहेइ, पोसहसालं पमज्जिय खमासमणदुगेण सज्झायं संदिसाविय पढइ गुणइ पोत्थयं वा वाएइ गुरुमुहाओ वा जहावधारियमट्ठपयमणुपेहेइ। तप्परतंतो तमेव अन्नेसिं किंचि साहेइ वा, न पुण सभापबंधेण धम्मं कहेइ। जम्हा अहिगारिणा खु धम्मो, कायव्वो अणहिगारिणो दोसो। आणाभंगाउ च्चिय, धम्मो आणाइ पडिबद्धो॥ १॥ इत्थ य Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि . भवसयसहस्समहणो, विबोहओ भवियपुंडरीयाणं। धम्मो जिणपण्णत्तो, पकप्पजइणा कहेयव्वो॥ १॥ पकप्पो-निसीहज्झयणं, जेण सावजणवजाणं, वयणाणं जो न जाणइ विसेसं। वुत्तुं पि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं काउं? ॥१॥ अन्नं च किं इत्तो कट्ठयरं, समं अणहिगयसमयसब्भावो। अण्णं कुदेसणाए, कट्ठयरागम्मि पाडेइ॥ २॥ एवंविहा य बहुअसुहकम्मसंचोइया, दुरहीयकुनयलवमयविमोहिया जिणमयं अयाणंता। जिणवयणमनहा भासिऊण अहरं गई जंति॥१॥ जं पुण पढइ सुणेइ, जणस्स धम्मं कहेइ इच्चाइ। तं पच्छाकडविसयं, तेणवि जइ तं पुराऽहीयं ॥ २॥, पयडं चेयं, अलं पसंगेण। गीयत्थसाहुसंभवे य सबहुमाणं तप्पज्जुवासणपरो अवस्सं सिद्धतसारसवणं विहिणा करेइ। भणियं च तित्थे सुत्तत्थाणं, गहणं विहिणा उ एत्थ तित्थमिणं। उभयन्नू चेव गुरू, विही उ विणयाइओ चित्तो॥१॥ तहा सुत्ता अत्थे जत्तो, अहिगयरो नवरि होइ कायव्वो। एत्तो उभयविसुद्धि त्ति सूयगं केवलं सुत्तं ॥ २॥ एवमेव य सावयपयत्थसत्थगत्तंपि। तहाहि संपत्तदंसणाई, पइदियहं जइजणा सुणेई य। सामायारिं परमं, जो खलु तं सावगं बिति॥ १॥ तओ पउणपोरिसीए खमासमणेणं संदिसाविय खमासमणपुव्वमेव पडिलेहणं करेमि त्ति भणिय मुहणंतगं पडिलेहित्ता संभवि भंडोवगरणं पडिलेहेइ। मज्झे सव्वत्थ सज्झाओ जाव कालवेला। तओ जइ चेइयहरे देववंदणं न कयं तो तं करेइ। चिइवंदणं हि जइ-गिहीहिं अहोरत्ते Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० पौषधविधिप्रकरणम् सत्तहा तिहा वा कायव्वं। तत्थ सत्तहा-सुत्तुट्ठिओ (१), पच्चूसावस्सए (२), चेइहरे (३), भोत्तु कामे (४), भुच्चा पच्चक्खंतो (५), पओसावस्सए (६), सुविउकामो (७) तं करेइ त्ति। तिहा पुण तिसंझं फुडमेव। जो पुण आहारपोसही देसओ सो पुण्णे पच्चक्खाणे तीरिए य खमासमणदुगेण मुहपोत्तिं पडिलेहिय खमासमणेण वंदिय भणइ-इच्छाकारेण संदिसह पारावह पोरिसीं पुरिम४ चउव्विहाहार एकासणं निव्वीयं आयंबिलं वा कयं, जा कावि वेला तीए पारावेमि। तओ सक्कत्थएण चेइए, वंदिय सज्झायं सोलसं वीसं वा सिलोगे काउं जहासंभवमतिहि- संविभागं वा दाउं मुहं हत्थपाए पडिलेहिय णमुक्कारपुव्वमरत्तदुट्ठो भुंजइ। भणियं च रागद्दोसविरहिया, वणलेवाइउवमाइ भुंजंति। कढित्तु नमुक्कारं, विहीए गुरुणा अणुन्नाया॥ १॥ असुरसुरं अचबचबं अट्ठयमविलंबियं अपरिसाडिं। मणवयणकायगुत्तो, भुंजे अह पक्खिवणसोही॥२॥ सो य आहारमाहारेइ। तत्थेव पुव्वसंदिट्ठसयणाइसमाणीयं नियघरे वा पंचसमिओ तिगुत्तो गंतुं मणवइकाएहिं अकयमकारियं फासुयं भत्तपाणं भुंजइ, न पुण भिक्खं हिंडइ। जेणेक्कारसिपडिमाठियं मुत्तुमन्नस्स धम्मत्थिणो गिहत्थस्स सुत्ते भिक्खाऽडणं नाणुन्नायं। तहाहि भिक्खासद्दो चेवं, अनिययलाभविसओ त्ति एमाइ। सव्वं चिय उववन्नं, किरियावंतम्मि उ जइम्मि॥१॥ तदवरो य दव्वलिंगधरो गिही वा, पीणतणूवि हु दीणो, मूढो भिक्खाएँ भरइ जा उदरं। सो धम्मलाघवकरो, पुरिसत्तं केवलं हणइ॥ १॥ न य जयणा एसत्ति वत्तव्वं। जओ जह जोइसिओ कालं, सम्मं वाहिविगमं च वेज्जोत्ति। जाणइ सत्थाउ तहा, गीओ जयणाए विसयं तु॥१॥ अओ न कुग्गहगहोवगूढमूढजणकप्पणामेत्तेण जयणा जायइ त्ति। एवं विहिणा भोत्तुमिरियावहियं पडिक्कमिय सक्कत्थवं भणिउं दुवालसावत्तवंदणं Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि दाउं पच्चक्खइ। जह पुण सरीरचिंताए अट्ठो तो नियमा दुगाई आवस्सियं काउं अजुयलिया अतुरंता, विगहारहिया वयंति पढमं तु । निसिइत्तु डगलगहणं, आवडणं वच्चमासज्ज ॥ १ ॥ इच्चाइविहिणा अवरदक्खिणाइ दिसाए अणावायमसंलोयाइ उचियथंडले दिसिपवणगामसूरियाइविहिणा पासवणुच्चारं वोसरिय पुव्वकमेण वियारभूमीओ सट्ठाणमागम्म निसीहियं काउं खमासमणपुव्वं इरियावहियं पक्किम्मिय गुरुं पइ भणति - इच्छाकारेण संदिसह गमणागमणं आलोयहं । आवस्सियं करिय अवरदक्खिणादिसिहि जाइ, दिसालोयं करिय संडासगं थंडिल्लं च पमज्जिय उच्चारपासवणं वोसिरिय निसीही करिय पोसहसालं पविट्ठा, आवंतेहिं जंतेहिं जं खंडियं जं विराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं । तहेव सज्झायं करेइ, जाव समोगाढा चरमपोरिसी । तओ थोभावंदणं दाउं इच्छाकारेण संदिसह पडिलेहणं करेमि, पुणो वंदिय पोसहंसालं पज्जेमित्ति भणिय मुहणंतगं सकायं पडिलेहेइ । तओ खमासमणदुगेण अंगपडिलेहणं संदिसाविय भत्तट्ठी कडिपट्टयं पडिले । भत्तट्ठीयरा दोवि पोसहसालपमज्जणं गुरुगिलाणाइ - उवहिपडिलेहणं काउं खमासमणपुव्वं पोत्तिं पेहिय खमासमणदुगेण उवहिपडिलेहणं संदिसाविय वत्थकंबलाइ जाव पाउंछणयं पडिलेहंति । अभत्तट्ठी पच्छा कडिपट्टं पेहेइ । परमत्थओ पुण भत्तट्ठेयरपोसहियाणं भिक्खाडणपडिसेहणाओ कप्पतिप्पाभावाओ य न जहा साहूण तहा विसेसो भायणसंभवो य । तओ सव्वे पुव्वं व पुत्तिं पेहित्ता सज्झायं संदिसाविय बइसणं च, पुवण्हेव पढम - गुणण - सिद्धंतसुणणाई कुणंति, जाव कालवेला । तओ सो चउव्वीसं थंडिले उच्चारपासवणाणं दुपि हु अहियासी आसन्न मज्झे दूरे तिण्हंतो, तह तिण्णि अणहियासेइ, इय छक्कंतो, छच्च वसहि बहिं पडिलेहेइ । तओ सूरत्थमणसमए ज‍ १. 'सपणुव्व' इति मु० । ४१ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ पौषधविधिप्रकरणम् चउद्दसी तो पक्खियं चाउम्मासियं वा, अह न तो देवसियं संवच्छरियं वा, विहिणा पडिक्कमिय विस्सामणाइ साहुकिच्चं किच्चा सज्झायं संदिसाविय तप्परायणो ता अच्छइ जाव पुन्ना पढमपोरिसी। तओ कायगादुवओगं काउं खमासमणदुगपुव्वं मुहपोत्तिं पडिलेहिय खमासमणं दाउं भणइ-इच्छाकारेण संदिसह राईसंथारयं संदिसावेमि, पुणो खमासमणं दाऊण राईसंथारयं ठामि त्ति वुत्तुं सक्कत्थवं कहित्ता संथारगभूमिं गंता मुहणंतगंतेण ससीसोवरियं कायं भूमिं संथारयं च पमज्जित्ता णमुक्कारं सामाइयं च तिक्खुत्तो कड्डित्ता अणुजाणह निसीही नमो खमासमणाणं ति भणिय संथारए ठाइ, बाहुवहाणेण वामपासेण अप्पमत्तो निद्दापमुक्खं कुणइ । जइ उव्वत्तइ तो पमज्जइ। साहुव्व कुक्कुडिदिटुंतेणं हत्थपायाइसंकोयपसारणं कुणइ। सुत्तविउद्धो य सरीरचिंतं काउं इरियावहियं पडिक्कमित्ता जहन्नेण वि गाहातिगसज्झायमणुपेहेइ। असंथरं संथारयं पमज्जिय निवजइ, चित्ते चिंतेई। जहा जम्मजरामरणजलो, अणाइमं वसणसावयाइन्नो। जीवाण दुक्खहेऊ, कटुं रुद्दो भवसमुद्दो ॥ १॥ कालम्मि अणाईए, जीवाण विचित्तकम्मवसगाणं। तं नत्थि संविहाणं, संभवइ न जमिह भमिराणं॥२॥ चुलसीइजोणिलक्खेसुऽणेगकुलकोडिलक्खगहणेसु। भमिरेण इहावयसंपयाउऽणंताओ पत्ताओ॥ ३॥ पिइमाइपइत्ताई, संबंधा वावहारियजिएहिं। सव्वे सव्वेहिं सया अणंतखुत्तो इहं पत्ता॥ ४॥ तहाहि रागोरगगरलभरो, तरलइ चित्तं तवेइ दोसग्गी। कुणइ अणुचियपवित्तिं महामईणंपि हा!! मोहो॥१॥ पुरिसेण भुत्तपुव्वं, नारिं दट्टण अच्चुयंतसुरा। तक्ख णसेवी जायइ, ह हा!! तहिं चेव नरबीए॥२॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ४३ इय मच्छाइसु सहसारगंत देवा जमेसि तेयतणू। अंगुलअसंखभागं, भणिया मरणंतसमुघाए ॥ ३॥ किं बहुणा, पायमिह जीवा अन्नाणंधा, मिच्छत्तमोहिया कुग्गहग्गहिया। मग्गं न नियति न सद्दहति चिटुंति नियउचियं ॥१॥ ता कइया तं सुदिणं, सा सुतिही तं भवे सुनक्खत्तं । जत्थ सुगुरुपरतंतो, चरणभरधुरं धरिस्समहं ॥ २॥ एमाइ परमपसमरसपरिगओऽहिगयपहरिसुक्करिसो। संवेगरसायणकरमणवरयं झायइ परंपि॥ ३॥ तओ राईए चरमजामे उट्ठेऊण इरियावहियं पडिक्कमिय सक्कत्थएण चेइए वंद्विय पुव्वं व पोत्तिं पेहिय नमुक्कारपुव्वं सामाइयसुत्तं कढिय संदिसाविय सज्झायं कुणइ जाव पडिक्कमणवेला। तओ पुव्वविहिणा पडिक्कमिय पडिलेहणाइयं करेइ। इय भावओ कुणंतेण सुत्तओ अत्थओ करणओ य। पोसहवयमाणाए, फासियमाराहियं च भवे॥ १॥ तो सययतयब्भासाओ भावओ य रागओ य सो अचिरा। सव्वचरणंपि पाविय, खविय भवमुवेइ परमपयं॥२॥ जया पुण पोसहं पारिउकामो तया खमासमणदुगेण मुहपोत्तिं पडिलेहिऊण खमासमणदुगेण सामाइयं व पोसहं पारेइ, पुणो मुहपोत्तिपेहणपुव्वं पुव्वं व सामाइयं पारित्ता-"भयवं दसण्णभद्दो" इच्चाइ गाहाओ भणई, उवगरणं च मुंचइ त्ति। इह पुण अहिगूणखमासमणे, न विरोहो पुत्तिपेहणाईसु। सामायारिबहुत्ता, उ विणयणयदरिसणाओ य॥१॥ . इत्तो पोसहे पारिए भोयणविही वुच्चइ सावगेण पोसहं पारितेण नियमा साहूण दाउं पारेयव्वं, अन्नया पुण अनियमो, दाउं वा पारेइ पारिए वा देइ, तम्हा पोसहिएण पुव्वं Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ पौषधविधिप्रकरणम् - साहूण दाउं पच्छा पारेयव्वं । कहं? जाहे देसकालो ताहे अप्पणो सरीरस्स विभूसं काउं पडिस्सयं गंतुं साहू निमंतेइ-भिक्खं गिण्हह त्ति। तत्थ साहूणं का पडिवत्ती?, ताहे एगो पडलं अन्नो मुहणंतयं अन्नो भायणाणि पडिलेहेइ, मा अंतराइयठवणादोसा भविस्संति। सो जइ पढमाए पोरिसीए निमंतेई, अत्थि य णमुक्कारसहियइत्तगो तो घेप्पइ, अह नत्थि तो न घेप्पई, तं वहियव्वं होहि त्ति। जइ घणं लगिज्जा ताहे घेप्पइ, संचिक्खाविज्जइ य, जो वा उग्घाडपोरिसीए पारेइ पारणइत्तो अन्नो वा तस्स दिज्जइ, पच्छा तेण सावगेण समं संघाडगो वच्चइ, एगो न वट्टइ पेसिउं। जम्हा एगाणियस्स दोसा, इत्थी साणे तहेव पडिणीए। भिक्खऽविसोही महव्वय तम्हा सबिइजए गमणं॥१॥ साहू पुरओ सावगो पिट्ठओ। एवं घरं नेऊण आसणेण निमंतेइ, जइ निविट्ठा लट्ठयं, अह न निविसंति तहवि विणओ पउत्तो होइ त्ति। ताहे भत्तं पाणं सयं चेव देइ, अहवा भाणं धरेइ भज्जा से देइ, अहवा ठि ओ अच्छइ जाव दिन्न । साहू वि सावसे सं दव्वं गिण्हं ति पच्छाकम्मपरिहरणट्ठा, सो दाऊण वंदिउं विसज्जेइ, विसज्जित्ता अणुगच्छइ, पच्छा सयं भुंजइ, जं च किर साहूण न दिन्नं तं सावगेण न भोत्तव्वं । भणियं हि साहूण कप्पणिजं, जं नवि दिन्नं कहिंवि किंचि तहिं। धीरा जहुत्तकारी, सुसावगा तं न भुंजंति॥ १॥ जइ पुण सुविहिया तत्थ नत्थि तो देसकाले दिसालोओ कायव्वो, विसुद्धभावेण, चिंतेयव्वं-जइ साहुणो हुँतो तोऽहं नित्थारिओ हुँतो त्ति विभासा। एवं च Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि . ४५ संविग्गा सोवएसा गमनयनिउणा खित्तकालाणुरूवा णुट्ठाणा सुद्धचित्ता परसमयविऊ मच्छरुच्छेयदच्छा। सम्म सुत्तुत्तजुत्तीजुयवयणहयातुच्छमिच्छत्तवाया, साहू मे एज गेहे जइ कहवि तओऽहं कयत्थो भविजा ॥ १ ॥ इय मणपरिणामुप्पन्नपुनोहमेयं, वरचरणरमाए साणुरागाइ दिटुं। सुरसिरिवरमालालंकियं सिद्धिलच्छी, करिहिइ नियकंठे गाढमुक्कंठियव्व॥ २॥ इय सुत्ताणुसारमवधारिय वारियकुमइकुग्गहं, सामायारिनिवहमवलोइय जोइय सुविहियप्पहं। गणिजिणवल्लहेण पोसहविहिमिह लिहियं हियट्ठिया, सय-हियए कुणंतु निसुणंतु गुणंतु मुणंतु विहिरया॥ ३॥ द्विपदीछन्दः। इति पौषधविधिप्रकरणम् * * * Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. प्रतिक्रमण-समाचारी सम्मं नमिउं देविंदविंदवंदियपयं महावीरं । पडिकमणसमायारी, भणामि जह संभरामि अहं॥ १॥ पंचविहायारविसुद्धिहे उमिह साहू सावगो वावि । पडिकमणं सह गुरुणा, गुरुविरहे कुणइ इक्कोवि॥ २॥ वंदित्तु चेइयाई, दाउं चउराइए खमासमणे। भूनिहियसिरो सयलाइयार-मिच्छुक्कडं देइ ॥ ३॥ सामइय पुव्वमिच्छामि ठाइउं काउसग्गमिच्चाई। सुत्तं भणिय पलंबियभुयकुप्परधरिय परिहणओ॥ ४॥ संजइ-कक्ट्ठि -घण-लग्ग-लंबुत्तर-खलिणि-सवरि-बहु-पेहा । वारुणि-भमुहं-गुलि-सीस-मूय-हय-काय-नियलुद्धी ॥५॥ थंभाइदोसरहियं, तो कुणइ दुहूसिओ तणुस्सग्गं । नाभिअहो जाणुद्धं, चउरंगुलठविय कडिपट्टो॥ ६॥ तत्थ य धरेइ हियए, 'जहक्कम दिणकए अईयारे। पारेत्तु नमुक्कारेण पढइ चउवीसथयदंडं ॥ ७ ॥ संडासगे पमज्जिय उवविसिय अलग्गविययबाहुजुओ। मुहणंतगं च कायं, च पेहए पंचवीस इहा॥ ८॥ उट्ठिय ठिओ सविणयं, विहिणा गुरुणो करेइ किइकम्म। बत्तीसदोसर हियं, पणुवीसावस्सगविसुद्धं ॥ ९॥ थद्ध-पविद्ध-मणाढिय परिपिंडिय-मंकुसं झसुव्वत्तं । कच्छवरिंगिय टोलगइ ढढ्रं चेइयाबद्धं ॥ १०॥ मणरुट्ठ-दुट्ठ-तज्जिय, सढ-हीलिय-तेणियं पडणियं च । दिट्ठ-मदिटुं सिंगं, करमोअण-मूण-मूयं च॥ ११॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि मय- मित्ती गारव - कारणेहि पलिउंचियं भयं तं च। आलिट्ठ - मणालिट्टं, चूलिय चुडुलित्ति बतीसा ॥ १२ ॥ दुपवेसमहाजायं, दुओणयं पयडबारसावत्तं । इग निक्खमंति गुत्तं, चउसिर नमणं ति पणुवीसा ॥ १३ ॥ अह सम्ममवणयंगो करजुय विहि धरिय पोत्तिरयहरणो । परिचिंतिए इयारे, जहकम्मं गुरुपुरो वियडे ॥ १४॥ अह उवविसित्तु सुत्तं, सामाइयमाइयं पढिय पयओ । अब्भुट्ठिओमि इच्चाइ, पढइ दुह उट्ठिओ विहिणा ॥ १५ ॥ दाऊण वंदणं तो, पपागाइसु जइसु खामए तिन्नि । किइकम्मं करियट्ठिओ, सड्ढो गाहातिगं पढइ ॥ १६॥ इह' सामाइय उस्सग्ग- सुत्तमुच्चरिय काउसग्गठिओ। चिंतइ उज्जोयदुगं चरित्तअइयारसुद्धिकए ॥ १७ ॥ विहिणा पारिय सम्मत्तसुद्धिहेउं च पढिय उज्जीयं । तह सव्वलोय अरहंतचेइयाराहणुस्सग्गं ॥ १८ ॥ काउं उज्जोयगरं, चिंतिय पारेइ सुद्धसम्मत्तो । पुक्खरवरदीवड्ढे, कड्डइ सुयसोहणनिमित्तं ॥ १९ ॥ पुण पणुवीसुस्सासं, उस्सग्गं कुणइ पारए विहिणा । तो सयलकुसलकिरिया - फलाण सिद्धाण पढइ थयं ॥ २० ॥ अह सुयसमिद्धिहेउं, सुयदेवीए करेइ उस्सग्गं । चिंतेइ नमोक्कारं, सुणइ वदेइ व तीइ थुयं ॥ २१ ॥ एवं खेत्तसुरीए, उस्सग्गं कुणइ सुणइ देवथुई । पढिउं च पंचमंगलं, उवविसइ पमज्ज संडासं ॥ २२ ॥ पुव्वविहिणेव पेहिय पुत्तिं दाऊण वंदणं गुरुणो । इच्छामो अणुसद्धिं ति, भणिय जाणूहिंतो ठाइ ॥ २३ ॥ १. 'अह' इति बी० । , ४७ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण-समाचारी गुरुथुइ-गहणे थुइ तिन्नि वद्धमाणक्खरस्सरा पढइ। सक्कत्थय थवं पढिय, कुणइ पच्छित्त उस्सग्गं ॥ २४॥ एवं ता देवसियं, राइयमवि एत्थमेव' नवरि तहिं । पढमं दाउं मिच्छा-दुक्कडं पढइ सक्कत्थयं ॥ २५ ॥ उट्ठिय करेइ विहिणा, उस्सग्गं चिंतिए य उज्जोयं । बीयं दंसणसुद्धीए, चिंतए तत्थवि तमेव ॥ २६ ॥ तइए निसाइयारं, जहक्कम चिंतिऊण पारे। सिद्धत्थयं पढित्ता पमजसंडासमुवविसइ ॥ २७ ॥ पुव्वं व पुत्तिपेहण-वंदणमालोयसुत्तपढणं च। वंदण-खामण-वंदण-गाहातिगपढणमुस्सग्गो ॥ २८॥ तत्थ य चिंतइ संजम-जोगाण न जेण होइ मे हाणी। तं पडिवजामि तवं, छम्मासं ता न काउमलं ॥ २९ ॥ एगाइ इगुणतीसूणयंपि न सहो न पंचमासमवि। एवं चउ ति दुमासं, न समत्थो एगमासंपि॥ ३०॥ जा तंपि तेरसूणं, चउसइमाइ तो दुहाणीए। जाव चउत्थं तो आयंबिलाइ जा पोरिसि नमो वा ॥ ३१॥ जं सक्कइ तं हियए, धरित्तु पारित्तु पेहए पुत्तिं । दाउं वंदणमसढो, तं चिय पच्चक्खए विहिणा॥ ३२॥ इच्छामो अणुसटुिं ति भणिय उवविसिय पढइ तिन्नि थुइ । मिउसद्देणं सक्कत्थयाइतो चेइए वंदे॥ ३३॥ अह पक्खियं चउद्दसिदिणंमि पुव्वं व तत्थ देवसियं। सुत्तंतं पडिक्कमिउं तो सम्ममिमं कमं कुणई ।। ३४ ।। २. 'मिच्छा मे' इति अ० बी०। १. 'एवमेव' इति अ० बी०। ३. 'सक्कथयं' इति अ० बी० । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि तहा लोए । मुहपोत्ती वंदणयं संबुद्धा- खामणं वंदण पत्तेय खामणाणि वंदणयमह सुत्तं च ॥ ३५ ॥ सुत्तं अब्भुट्ठाणं उस्सग्गो पोत्ति वंदणं तह य । पति य खामयं तह चउरो थोभवंदणयं ॥ ३६ ॥ पुव्वविहिणेव सव्वं, देवसियं वंदणाइ तो कुणइ । सिज्जसुरी उस्सग्गे, भेओ संतित्थय पढणे य ॥ ३७ ॥ एवं चिय चउमासे, वरिसे य जहक्कमं विही णेओ । पक्ख-चउमास-वरिसेसु नवरि नामम्मि नाणत्तं ॥ ३८ ॥ तह उस्सग्गुज्जोया बारसवीसा समंगलगचत्ता । संबुद्धा खामणं ति-पण सत्त - साहूण जहसंखं ॥ ३९ ॥ इय जिणवल्लहगणिणा, लिहियं जं सुमरियं अमइणावि । उस्सुत्तमणानं जं मिच्छा मि दुक्कडं तस्स ॥ ४० ॥ इति प्रतिक्रमणसमाचारी ४९ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. स्वप्नसप्ततिः एवं विसिट्ठकालाभावम्मि वि मग्गगामिणो जइ उ। पाविंति इच्छियपुरं, तह सिद्धिं संपयं जीवा ॥ १॥ मउईएवि किरियाए, कालेणारोगयं जह उविंति । तह चेव उ निव्वाणं, जीवा सिद्धंतकिरियाए॥ २॥ दुप्पसहंतं चरणं, भणियं जं भगवया इहं खित्ते। आणाजुत्ताणमिणं, न होइ अहुणत्ति वामोहो ॥ ३॥ आणाबज्झाणं पुण, जिणसमयम्मिवि न जाउ एयं ति। तम्हा इमीएँ एत्थं, जत्तेण पयट्टियव्वं ति॥ ४॥ णेगतेणं चिय लोग-नायसारेण इत्थ होयव्वं । बहुमुंडाइवयणओ, आणा इत्तो इह पमाणं ॥ ५॥ आचरणावि हु आणाऽविरुद्धगा चेव होइ नायं तु। इहरा तित्थयरासायणत्ति तल्लक्खणं चेवं ॥ ६॥ असढेण समाइन्न, जं कत्थइ के णाई असावजं । न निवारियमन्नेहि वि, बहुमणुमयमेयमायरियं ॥ ७॥ किंच उदाहरणाई, बहुजणमहिगिच्च पुव्वसूरीहिं । एत्थं निदंसियाई, एयाइं इमम्मि कालम्मि॥ ८॥ केणइ रन्ना दिट्ठा, सुमिणा किल अट्ठ दुसमसुसमंते । भीई चरमोसरणे, तेसि फलं भगवया सिटुं॥ ९॥ गय वानर तरु धंखे, सीह तह पउम बीय कलसे य। पाएण दुस्समाए, सुमिणाणि?प्फला धम्मे ॥ १० ॥ चलपासाएसु गया, चिटुंति पडंतएसुवि न निति । णिंति वि तह केवि जहा, तप्पडणाओ विणिस्संति ।। ११ ।। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि विरलतरा केई जह, तप्पडणे वि नो विणस्संति। एसो सुमिणो दिट्ठो, फलमित्थं सावया नेया॥ १२॥ बहुवानरमज्जगया, ते वसहा असुइणा विलिंपंति। अप्पाणं अन्नेवि य, तहाविहे लोगहसणं च ।। १३ ।। विरलाणमलेपणया, तदन्नखिंसा न एयमसुइ त्ति। सुमिणोयं एयस्स उ, विवागमो नवरमायरिया ॥ १४॥ खीरतरुसुहच्छाया, तेसिमहो सीह पोयगा बहुगा। चिटुंति संतरूवा, लोगपसंसा तहाहिगमो॥ १५ ॥ तेसिं घडाओ पायं, सुणगा तरु बुब्बुलत्ति पडिहासो। एसो सुमिणो दिट्ठो, फलमित्थं धम्म गच्छंति ॥ १६॥ धंखा बावीइ तडे, विरला ते उण तिसाएँ अभिभूया। पुरओ मायासरदसणेण तह संपयट्टं ति ॥ १७ ॥ केणइ कहणनिसेहोऽसद्दहणा.. पायसोगमविणासो। सुमिणोयं एयस्स उ, विवागमो धम्ममूढरया ॥ १८ ॥ सीहो वणमझमी, अणेगसावयगणाउले विसमे । पंचत्तगओ चिट्ठइ, न च तं कोई विणासेई ॥ १९॥ तत्तो कीडगभक्खण-पायं उप्पायदिट्ठमन्ने वि। सुमिणु त्ति इमस्सऽत्थो, पवयणनिद्धंससाईया ॥ २० ॥ पउमागरा अपउमा, गद्दभगजुया य चत्तनियरूवा। उक्कुरुडियाएँ पउमा, तेवि य विरला तहारूवा ॥ २१ ॥ तेऽवि य जण परिभूया, सकजनिप्फायगा न पाएणं। सुविणसरूवं वीणण-मिमस्स धम्मम्मि पच्चंता ॥ २२॥ बीएसु करिसगो कोइ दुव्वियड्डो त्ति जत्ततो किणइ। बीएत्ति अबीएच्चिय, पयरइ य तहा अखित्तेसु ॥ २३ ॥ अवणेइ य तं मझे, विरलं बीयं समागयं पायं । सुमिणु त्ति इमस्सत्थो विन्नेओ दाणपत्ताइं॥ २४ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ कलसा य दुहा एगे, पासाओवरिमुहा अलंकिरिया । अन्ने उण भूमीए, वोडा ओगालिसयकलिया ॥ २५ ॥ काले टलणपायं, समभंगुप्पायदिट्ठ मप्पाणं । सुमिणसरूवं राया, अबंभ साहू य एसत्थो ॥ २६ ॥ बहुजणपवित्तिमित्तं, इच्छंतेहिं इहलोइओ चेव । धम्मो न उज्झियव्वो, जेण तहिं बहुजणपवित्ती ॥ २७ ॥ ता आणाणुगयं जं, तं चेव बुहेण सेवियव्वं तु । किमिह बहुणा जणेणं?, हंदि न सेअत्थिणो बहुया ॥ २८ ॥ रयणत्थिणुत्ति थोवा, तद्दायारोऽवि जह उ लोयम्मि । इय सुयधम्मरयणत्थिदायगा दढयरं नेया ॥ २९ ॥ बहुगुणविहवेण जओ, एए लब्भंति ता कहमिमेसु । एयदरिद्दाणं तह, सुविणेऽवि पयट्टई चिंता ? ॥ ३० ॥ न यं दुक्करंपि अहिगारिणो इहं अहिगयं अणुट्ठाणं । भवदुक्खभया नाणी, सुक्खत्थी किंच न करेइ ? ॥ ३१ ॥ भवदुक्खं जमणंतं, मुक्खसुहं चेव भाविए तत्ते । गरुयंपि अप्पमायं, सेवइ न हु अन्नहा नियमा ॥ ३२ ॥ साहुपओसी खुड्डो, चेइयदव्वोवओगि संकासो । सीयलविहारि देवो, एमाई इत्थुदाहरणा ॥ ३३ ॥ निट्ठीवणादकरणं, असक्कहा अणुचियासणाई य आययणम्मि अभोगो, इत्थं देवा उदाहरणा ॥ ३४ ॥ देवहरयम्मि देवा, विसयविसविमोहियावि न कयावि । अच्छरसाहिंपि समं, हासाखिड्डाइवि करिति ॥ ३५ ॥ तवसुत्तविणयपूया, न संकिलिट्ठस्स हुंति ताणाय । खवगागमि विणयरया, कुंतलदेवी उदाहरणं ॥ ३६ ॥ मूढा अणाइमोहा, तहा तहां एत्थ संपयट्टंता । तं चेव य मन्नंता, अवमन्त्रंता न याणंति ॥ ३७ ॥ स्वप्नसप्ततिः Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ५३ सुत्तेण चोइओ जो, अन्नं उद्दिसिय तं न पडिवजे। सो तंतवायवज्झो, न होइ धम्मम्मि अहिगारी ॥ ३८॥ सुयवज्झाचरणरया, पमाणयंता तहाविहं लोगं । भुवनगुरुणो वराया, पमाणयं नावगच्छन्ति ॥ ३९ ।। तह कहवि संपयट्टो, कालवसा जणवओ अमग्गम्मि। जह रायपहपयट्टाण आणए हंदि वयणिज्जं ॥ ४० ॥ अवियाणियपरमत्था, निक्कारणरुट्ठदुट्ठजणवयणं । तत्तंति मुणिय मूढा, लुणंति जीहाइ ही डब्भं ॥ ४१ ॥ दसमच्छे रयवसओ, मिच्छत्तच्छाइए बहुजणम्मि। उल्लसिरभासरासिग्गहविहुरे जिणवरमयम्मि॥ ४२॥ गुरुदेवुग्गहभूमीए जत्तओ चेव होइ परिभोगो। इट्ठफलसाहगो सइ, अणिट्ठफलसाहगो इहरा ॥ ४३॥ दुव्विगंधमलस्सा वि तणुरप्पेसऽण्हाणिया। उभओ वाउवहो चेव, तेण टुंति न चेइए॥ ४४ ॥ जइवि न आहाकम्मं, भत्तिकयं तहवि वज्जयंतेहिं । भत्ती खलु होइ कया, इहरा आसायणा परमा॥ ४५ ॥ आसायण मिच्छत्तं, आसायणवज्जणा उ सम्मत्तं । आसायणानिमित्तं, कुव्वइ दीहं च संसारं ॥ ४६॥ इच्चाइ सुत्तमवमन्निऊण अवगन्निऊण परलोयं । कूराभिग्गहियमहामिच्छादिट्ठीहि पावेहिं ॥ ४७ ॥ अहमाहमेहिं नामायरियउवज्झायसाहु लिंगीहिं । जिणघरमढआवासो, पकप्पिओ सायसीलेहिं॥ ४८ ।। तो सुत्तविमुहगड्डरिपवाहमित्ताणुसारिचरिएहिं । हिंगुसिवोदाहरणेण इय परं खाइमुवणीओ॥ ४९ ।। अन्नाणियमच्छरदूसिएहि परजीविएहि पावेहिं । गिहिसंजयवेसविडंबगेहिं मुद्धोवजीवीहिं॥ ५० ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्नसप्ततिः जा जस्स ठिई जा जस्स, संतइ पुव्वपुरिसकयमेरा। सो तं अइक्कमंतो, अणंतसंसारिओ होइ॥ ५१॥ एमाइपदं सोउं, मुद्धजणं पाडिऊण अप्पवसे। उवजीविज्जइ जेहिं, एगभवं बहुगुणं काउं ॥ ५२ ॥ तेसि न जुत्तं चरणं, न य सम्मत्तं न देसचारित्तं । समणगुणमुक्कजोगी, संसारपवड्डगा भणिया ॥ ५३॥ दोसेण जस्स अयसो, आयासो पवयणे य अग्गहणं । विप्परिणामो अप्पच्चओ य कुच्छा य उप्पजे ॥ ५४॥ पवयणमणपेहं तस्स तस्स निद्धंधसस्स लुद्धस्स । बहुमोहस्स भगवया, संसारोऽणंतओ भणिओ॥ ५५॥ परिवारपूयहे उं, ओसन्नाईण वाऽणुवत्तीए। चरणकरणं निगूहइ, तं दुल्लहबोहिउं जाण ॥ ५६ ॥ ओसन्नोऽवि विहारे, कम्मं सिढिलेइ सुलभबोही य। चरणकरणं विसुद्धं, उवबूहिं तो परूविंतो ॥ ५७॥ सुहसीलतेण गहिए, भवपल्लिं तेण जगडियमणाहे। जे कुणइ कुंढियत्तं, सो वन्नं कुणई संघस्स॥ ५८ ॥ सीयलविहारओ खलु, अरहंतासायणा निओगेणं । तत्तो भवो अणंतो, किलेसबहुलो जओ भणियं ॥ ५९ ॥ जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया। मूलगुणप्पडिसेवी, अणायणं तं वियाणेहि ॥ ६०॥ खणमवि न खमं काउं, अणाययणसेवणं सुविहियाणं । जग्गंधं होइ वणं, तग्गंधो मारुओ वाइ॥ ६१॥ ऊणगसयभागेणं, बिंबाइं परिणमंति तब्भावं । लवणागराइसु जहा, वजेह कुसीलसंसग्गिं॥ ६२ ॥ दूसमहुंडवसप्पिणि, भसमग्गहपीडियं इमं तित्थं । तेण कसाया जाया, कूरा इह संजयाणं पि॥ ६३ ।। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ओहट्टइ सम्मत्तं, मिच्छत्तबलेण पिल्लियं संतं । परिवटुंति कसाया, अवसप्पिणिकालदोसेणं ॥ ६४॥ एक्के तवगारविया, अन्ने सिढिला सधम्मकिरियासु। मच्छरवसेण दुन्निवि, होहिंति अपुट्ठधम्माणो॥ ६५ ॥ फिट्टइ गुरुकुलवासो, मंदा य मई य होइ धम्मम्मि। एयं तं संपत्तं, जं भणियं लोगनाहे णं ॥ ६६॥ उवगरणवत्थपत्ताइयाण वसहीण सड्ढगाणं च। जुज्झिस्संति कएणं, जह नरवइणो कुडुंबीणं ॥ ६७॥ कलहकरा डमरकरा, असमाहिकरा अनिव्वुइकरा य। होहिं ति एत्थ समणा, दससु वि खित्तेसु सयराहं ॥ ६८॥ ववहारमंततंताइयम्मि निच्चुज्जुयाण य मुणीणं । विगलिंति आगमत्था, अणत्थलुद्धाण तद्दियहं ॥ ६९॥ होहिंति साहुणो वि य, सपक्खपरपक्खनिद्दया धणियं। एयं तं संपत्तं, बहुमुंडे अप्पसमणे य॥ ७० ॥ जं सक्कइ तं कीरइ, जं च न सक्कइ तहेव सद्दहणं। केवलिजिणेहिं भणियं, सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ॥ ७१॥ इति स्वप्नसप्ततिः Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. द्वादशकुलकानि १. प्रथमकुलकम् कुलप्पसूयाण गुणालयाणं, तुम्हाण धम्मे सममुज्जयाणं । नत्थेव किंची उवदेसणिज्जं, तहावि कप्पुत्ति भणामि किंचि ॥१॥ दुल्लंभमाइम्मि नरत्तमुत्तं, तत्तो वि खित्तं जिणधम्मजुत्तं । तहिं पि जाईकुलरूवमाउ-मारुग्गबुद्धी सवणुग्गहो य॥ २ ॥ एयं च तुब्भेहिं सुचिण्णपुण्ण-पन्भारलब्भं लहिऊण सव्वं । पवज्जिऊणं च सिविक्कहेउं, देवं जिणिंदं जियरागदोसं॥ ३॥ निरासवे पावकलंकमुक्के, तिगुत्तिगुत्ते अममे अमोहे। सुसाहुणो धम्मगुरू सरित्ता, नाउं च सम्मं जिणधम्मतत्तं ॥ ४॥ पमत्तलोयाण विरूवरूवं, दट्ठ ण चिटुं कु पह ट्ठियाणं । मणागमित्तं पि न वेमणस्सं, पमत्तया वावि कहिंचि किच्चा ॥५॥ न यावि तब्भासियभूरिभेय-पावोवएसे बहुसो वि सोच्चा। पारद्धसद्धम्मविहीसु संका, अणायरो वावि अणुट्ठियव्वो॥ ६॥ तेणेव जो बीहइ नो परेसिं, धम्माणभिण्णाण कुतित्थियाणं। पियानिवाईण य सो सुयम्मि, धम्माहिगारी भणिओ न अन्नो ॥७॥ सभावओ चेव हियाणुबंधि, पओयणं भूरिभवंतविग्घं । ता विग्घभावेऽवि न तत्थ धीरा, चलंति थेवं पि सुराचलु व्व॥ ८॥ संसारकज्जेसु सयंपि जीवा, निच्चं पसत्ता अपमाइणो य। धम्मत्थकज्जे पुण भीरुचित्ता, सया पमत्ता न समुज्जमंति॥ ९॥ ता लोयसन्नाविपरंमुहे हिं, समुज्झियासेसकदग्गहे हिं । इमे गुणा लोगदुगे वि रम्मा, सयम्मि देहम्मि निवेसियव्वा ॥ १० ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि अपुव्वपुव्वागमनाणवंछा, गुरूसु सुस्सूसणलं पडत्तं । परोवयारप्पवणासयत्तं विमूढसंसग्गिविवज्जणं च ॥ ११॥ पगिट्ठधम्मप्पडिबद्धलोय सुबंधुबुद्धी विमलासयत्तं । सयावि अतुक्करिसस्स चागो, अजुत्तनेवत्थअणिच्छणं च ॥ १२ ॥ अहासभासित्तमदीणवित्ती, अणुत्तणत्तं सुयसीलया य। गुणाहिएसुं परमो पमोओ, संसारकिच्चेसु परा विरती ॥ १३ ॥ सव्वेसु कज्जेसु अणूसुगत्तं, अखुद्दभावो य अणिद्दयत्तं । सज्झायसज्झाणतवोवहाणं, आवस्सयाईसु समुज्जमित्तं ॥ १४ ॥ लोगस्स धम्मस्स य जं विरुद्धं, तवज्जणंमी परमोऽणुबंधो । पइक्खणं दुक्कडनिंदणम्मि, रागो सुभट्ठाणयसंसणे य ॥ १५ ॥ कामप्पिवासाइ समुत्थदोस दुरं तयालो यणलालसत्तं । पमायवायाहयजीवलोय - जायंतदुक्खोह विभावणं च ॥ संतोससारत्तमलज्जिरत्तं विसिट्ठचिट्ठासु विणीयया पियंवयतं नयसुंदरत्तं, आगामिकालस्स पलोयणं च ॥ कयं मए किं करणिज्जजायं किं नो कयं किं व कयं न सम्मं । किं वा पमत्तो न सरामि इण्हिं, इच्चाइ किच्चाण विभावणं च ॥ १८॥ गंभीरधीराण गुणायराणं, सकुमाराइमहामणीणं । आणंदमाईण य सावयाणं, सयाणुसारेण पयट्टणं च ॥ १९॥ किं भूरिभेएण पर्यपिएणं, जं दूसणं नो सकुलक्कमस्स। न यावि जं लोगदुगे विरुद्धं तं सव्वजत्तेण निसेवणिज्जं ॥ २० ॥ इय विमलगुणाणं अज्जणम्मी रयाणं, १६ ॥ य. । १७ ॥ , , परमपयनिमित्तं बद्धलक्खाण तुम्हं । करसररुहमज्झे ठाइही सग्गमुक्खु ब्भववरसुहलच्छी सग्गुणायट्ठिय व्व ॥ २१ ॥ इति प्रथमकुलकम् ५७ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशकुलकानि २. द्वितीयं कुलकम् पबलपवणप्पणुल्लिय-कयलीदललग्गसलिललवलोलं । अवलोइऊण जीविय-जुव्वण-धण-सयणसंजोगं ॥ १॥ संजोगमूलमिह पुण, पुणरुत्ताणंततिक्खदुक्खोहं । लक्खिय सत्ताण सदो-वउत्तचित्तेहि तुब्भेहिं ॥ २॥ चिंतेयव्वं भवनिग्गुणत्तणं दुल्लहत्तणं तह य। माणुस्सखित्तपमुहाण कुसलनिप्फत्तिहेऊणं ॥ ३॥ भावेयव्वं भव्वं, ' निव्वाणसुहिक्ककारणमवंझं । सिद्धंततत्तमुज्झित्तु कुग्गहं निउणबुद्धीए ॥ ४॥ जम्हा थेवो वि हु होइ कुग्गहो सयलकुसलपच्चूहो। तालउडविसलवो इव, महंतसम्मोहहे ऊ य॥ ५॥ जइवि हु बहुविहमयभेयसवणओ समयअनिउणत्तणओ। उस्सग्गऽववायविवेगविरहओ अतहबुद्धित्ता ॥ ६॥ समयत्थपईवोवमसुहगुरुसंसग्गिलाभविगमाओ। सिद्धंतविरुद्ध-पमत्त-सत्त-ठिइ-दंसणाओ य॥ ७ ॥ निउणाण वि उप्पज्जंति कुग्गहा किमुय मुद्धबुद्धीणं। तह वि हु विहुणिय धीरेहिं ते लहुं चिंतियव्वमिणं ॥८॥ अहह !! असुहाण कम्माण, विलसियं जप्पभावओ अम्हे। संमोह तिमिर भीमे, काले इहइं समुप्पन्ना ॥ ९ ॥ नो पिच्छामो सव्वन्नुणो सयं न मणपज्जवजिणाई। न य चुद्दसदसपुव्विप्पमुहे विस्सुयसुयहरे वि॥ १०॥ एवं पि अम्ह सरणं, ताणं चक्खू गई पईवो य। भयवं सिद्धंतु च्चिय, अविरुद्धो इट्ठदिढेहिं ॥ ११ ॥ तदणुगउ च्चिय मग्गो, अणुसरियव्वो वियारियव्वो य। तप्परतंतत्तेण य, जइयव्वं सव्वकज्जेसु॥ १२॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि . जे भावा तत्तो वि हु, तद्देसगगीयसाहुवसओ वा। सम्मं कहवि न नाया, बहुसो चिंतिजमाणा वि॥ १३ ॥ ते किं समइवियप्पण-परपुरिसवसेण निच्छयमुविंति। न हि सूराणुज्जोइयनहमुजोविंति' खज्जोया ॥ १४॥ इय सच्छंदपरूवणकरस्स कुग्गहपरस्स य जणस्स। संसग्गिं दावग्गिं, व वजयंतेहि कुसलेहिं ॥ १५ ॥ कालबलोचियकिरियारईसु असढेसु अप्पमाईसु। सुगुरूसु पज्जुवासणपरे हिं तक्कहियकारीहिं ॥ १६ ॥ जिणपूजण-वंदण-ण्हवणपमुहकिच्चेसु निच्च जइयव्वं । जम्हा सुत्ते वुत्तं, दंसणमिह पढम मुक्खंगं ॥ १७ ॥ एयंजुत्तेहिं चिय, तत्तो वरचरणकारणेसु सया। सम्मं पयट्टियव्वं, सामाइयमाइकिरियासु ॥ १८ ॥ एत्तेहिं तो वि जओ, निव्वुइगमणुम्मणाण भव्वाणं । अक्खेवकरणदक्खं, विजइ अन्नं न गुणठाणं ॥ १९ ॥ एवं चिय सहलत्तं, उवेइ माणुस्समाइसामग्गी। एयविरहे पुण सयलं, विहलमिमं कासकुसुमं व॥ २० ॥ इय पवरमईणं कित्तियं किच्चजायं, सयमवि विउसाणं साहिमो तुम्हमित्थं । तह कह वि हु धम्मे वट्टियव्वं जएहिं,२ जह भववणमूलुम्मूलणं होइ झत्ति ॥ २१ ॥ इति द्वितीयकुलकम् १. 'मुज्जोयंति' इति अ०। २. 'बुहेहिं' इति अ०। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० द्वादशकुलकानि ३. तृतीयं कुलकम् इत्थक्खंडियदुक्खलक्खसलिले कुग्गाहमालाउले, लोहागाहतलम्मि जम्ममरणावत्ते कुतित्थुक्कडे। इट्ठानिट्ठविओगजोगलहरीहीरंतजंतुच्चये, कोहुड्डामर वाडवग्गिविसमे संसार नीरागरे ॥ १॥ तुब्भेहिं मोहवेलावलवलनवसावुड्डणुव्वुड्डणाइ, ___ काऊणं चुल्लगाईदसजिणवयणोद्दिट्ठदिटुंतसिद्धं । लद्धं सद्धम्मकम्मक्खममुडुवनिभं दुल्लहं माणुसत्तं, - संपत्तं खित्तजाइप्पमुहमवि तहेक्कारसंगं समग्गं ॥ २॥ ता सिद्धंतपसिद्धिओ समइओ पच्चक्खलक्खेण वा, . भो! लक्खेह वियक्खणा पइखणं दुक्खाण खाणिं भवं। जम्हा संतमसंतमित्थ सयलं माइंदजालोवमं, सत्तू मित्तमहो सुही वि असुही सव्वं खणेणाउलं ॥ ३ ॥ गुंजावायसमुद्भुयज्झयवडाडोवुब्भडं जोव्वणं, संसारीण तणग्गलग्गसलिलुत्तालं तहा जीवियं । लच्छीओ सुवणोवमा उ पवणुव्विल्लप्पईवप्पहा लोलं भोगसुहं तरंगचवलं लावन्नवण्णाइयं ॥ ४॥ कामालंकियकामिणीयणविलासुल्लासिनेत्तुप्पलु त्तालं निज्जियदुज्जयारिविसरं रज्जं पि संसारिणं । संजोगा वि विओगसोगबहुला सोक्खा वि दुक्खावहा, हा!! सव्वे जलबुब्बुय व्व विसयासंगा सया भंगुरा ॥ ५ ॥ विज्जुजोयचलं बलं जलचलच्चंदाउलं राउलं, __ सम्माणं करिकन्नतालतरलं लीलाविलासाइ वि। संज्झारायसमा य तायजणणीजायाइसंगे रई, पच्चक्खं खणदिट्ठनट्ठमखिलं जं वत्थुमित्तं भवे॥ ६॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ८५ ता संसारमसारमेवमखिलं नाऊण तं छिंदिउं, मोक्खं तव्विवरीयमक्खयसुहं लद्धं च सोक्खत्थिणो। भो! तुब्भेऽभिलसेह तस्स य परो हेऊ जिणिंदोदिओ, धम्मो तस्स उ साहणे किल विही सिद्धंतसिद्धो इमो॥ ७ ॥ संविग्गे कुग्गहुग्गग्गहरहियतणू सुद्धसिद्धंतधारी, साहू सेवेह तत्तो जिणमयमणहं भत्तिजुत्ता सुणेह। चित्ते चिंतेह तत्तं तदवगमवसा सव्वकज्जे कुबोहं, हंतुं मोहं च निच्चं जयह नियमणे काउमाणं जिणाणं ॥ ८ ॥ सम्मइंसणमूलयं गुणवओमिल्लंतसाहासुहं , तुंगाणुव्वयखंधबंधकलियं सिक्खापसाहाउलं । चित्तक्खित्तरुहं अभिग्गहदलं सद्धम्मकप्पडुमं, सद्धासुद्धजलेण सिंचइ लहुं जिं' होइ मुक्खो फलं ॥ ९॥ निच्चं विच्चम्मिरे सामाइयनवपढणज्झाणसज्झायमाई, तिक्कालं चेइयाणं दसतियकलियं वंदणं चायरेह । दाणं सक्कारसद्धाकमविहिसहियं देह चारित्तजुत्ते, पत्ते पत्ते ससत्तिं सइ कुणह तवं भावणाभावणं च॥ १०॥ मा आयन्नह मा य मन्नह गिरं कुतित्थियाणं तहा, सुत्तुत्तिाकु बोह कुग्गहगहग्घत्थाणमन्नाण वि। नाणीणं चरणुज्जुयाण य सया किच्चं करेहायरा, . नीसेसं जणरंजणत्थमुचियं लिंगावसेसाण वि॥ ११ ॥ कारुण्णं दुक्खिएसुं गुणिसु पहरिसं सव्वसत्तेसु मित्तिं, दोसासत्तेसुविक्खं कुणह तह अकल्लाणमित्ताण चायं । . सव्वत्थामं जिणिंदप्पवयणपडणीयाण माणप्पणासं, पूयं पुज्जेसु साहम्मियसयणजणे वच्छलत्तं विहेह ॥ १२ ॥ १. 'जं' इति अ०। २. 'किच्चम्मि' इति अ०। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૨ द्वादशकुलकानि सच्छं मच्छरमोहलोहरहियं निक्कामकोहं मउ ममुकं निक्कवडं करेह हिययं हीलेह मा केइ वि। दक्खिन्नं च कयन्नुयं च विणयं गंभीरिमं धीरिमं, जं चन्नं कुलधम्मसम्मयमहो! सेवेह तं सव्वहा॥ १३ ॥ दूरे जाव जरा परावइ न जा मच्चू सरीरं चरे जा, सत्थं जा पडिहाइ इंदियबलं जाव थि सामग्गिया। ता तुन्भे भववासनासणकए जं लोयलोउत्तरा __णुत्तिण्णं पकरेह तं बहुगुणं सग्गापवग्गावहं ॥ १४ ॥ हुंडोसप्पिणिदूसमाइवसओ जीवाणऽजोगत्तओ, कम्माणं च गुरुत्तणेण बहुसो लोए कसायाउले। मुत्तूणं अणुसोयपट्ठियजणं भूरि पि मुक्खत्थिणा, होयव्वं पडिसोयमग्गमइणा एसोवएसो मम ॥ १५ ॥ जिणवल्लहवयणरसायणं इमं जे कुणंति तेसि धुवं। धुयजरमरणकिलेसं, सिद्धत्तमणुत्तरं होइ॥ १६ ॥ इति तृतीयकुलकम् १. 'कोइ' इति अ०। - २. 'पि' इति अ०। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ४. चतुर्थं कुलकम् जाइजरामरणजले, उदग्गकुग्गाहवग्गदुग्गम्मि। दुव्वारवसणसंचय-महल्लहल्लंतकल्लोले ॥ १॥ रागद्दोसभुजंगे, रोगुग्गमनक्कचक्कलल्लक्के। बहुविहकुतित्थदुत्थे, रुंदे रुद्दे भवसमुद्दे ॥ २॥ नर-नरय-तिरिसुराइसु, अरहट्टघडिव्व तिव्वकम्मबला। इहमाजवंजवीभावओ चिरं भूरि भमिऊण ॥ ३॥ कहकहवि तुडिवसा चुल्लगाइदिटुंतदुल्लहं तुमए। मणुयत्तं पत्तं सुत्त-सवणसद्धाविरियजुत्तं ॥ ४॥ ता दुल्लहमिमं चिंतामणिं व चउरंगियं लहेऊणं। मा सुद्धधम्मकरणे, पमायमायरसु अप्परिउं॥ ५॥ जम्हा समत्थसत्थत्थजाणगा सव्वपुव्वपारगया। पत्तअमत्तट्ठाणा, समग्गसामग्गिकलिया वि॥ ६॥ हिंडंतऽणंतकालं, तदणंतरमेव नरयरयपडिया। पावप्पमायवसओ, गहिरभवावत्तगत्तम्मि॥ ७॥ तम्हा पमायमइरामयं पमुत्तूण कुणसु तं निच्चं । धम्मं सम्मं सम्मत्तमाइ तस्साहणत्थं च ॥ ८॥ संविग्गे गीयत्थे, जहसत्तिं कयविहारपरिहारे। सययं पयओ सेविज संजए निज्जियकसाए ॥ ९॥ निसुणिज्ज सुद्धसिद्धंतमंतिए तेसि सम्ममुवउत्तो। . तत्तं नाउं कुग्गहरहिओ वट्टिज तव्विहिणा॥ १० ॥ वत्थपडिग्गहमाई, सद्धासक्कारसारमाणाए। सुद्धं सिद्धतधराणं दाणमवि दिज सत्तीए ॥ ११॥ सीलं सीलिज्ज तवं, तविज भाविज भावणाओ य। दुक्करकरे सुयधरे, धरिज चित्ते सया साहू ॥ १२ ॥ कालाइदोसओ कहवि जइवि दीसंति तारिसा न जई। सव्वत्थ तहवि नत्थि त्ति नेव कुज्जा अणासासं॥ १३ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ द्वादशकुलकानि कुग्गहकलंकरहिया, जहसत्ति जहागमं च जयमाणा। जेण विसुद्धचरित्त त्ति वुत्तमरहंतसमयम्मि॥ १४ ॥ सम्मत्तनाणचरणाणुवाइमाणाणुगं च जं जत्थ । जाणिज्ज गुणं तं तत्थ पूयए परमभत्तीए ॥ १५ ॥ काऊण रागचागं, मणे मुणिज्जा गुणागुणविभागं। भाविज कडुविवागं, च कामरागं सयाकालं॥ १६ ॥ दक्खिन्नमपेसुन्नं, भवनिग्गुण्णं च दुहियकारुन्न । मन्निजन्नपि मणम्मि निम्मले निच्चमिच्चाइ॥ १७॥ हणिऊण कोहजोहं, माणगिरिं दलिय मलिय मायलयं । दहिउं लोहपरोहं, मोहपिसायं विणासिज्जा ॥ १८॥ माणिज्ज माणणिज्जे, हीलिज न केइ लोयमणुयत्ते। वसणे धणि व्व पत्ते, गंभीरधीरं मणं कुज्जा ॥ १९॥ पन्नवणिजं' गुणिजणमुचियं चोइज्ज दिज उवएसं। सयमवि सारण-वारण-चोयणमन्नेसिमिच्छिज्जा ॥ २० ॥ सच्चमघट्टियमम्म, सम्मं सइ धम्मकज्जसज्जं च। हियमियमहुरमगव्वं, सव्वं भासेज्ज मइपुव्वं ॥ २१॥ जं लोएँ अपडिकुटुं, विसिट्ठसिटुं जिणागमुद्दिढ़। तं सव्वं चिय उचियं, ससत्तिसरिसं करिज जओ॥ २२॥ चलइ बलं खलइ मणं, जलइ कसायानलो वओ गलइ। निच्चं मच्चू परिकलइ दलइ जीयं टलइ कालो॥ २३॥ तम्हा खणमवि न खमं, विलंबिउं जं च कुसलसामग्गी। सहसत्ति दिट्ठनट्ठा, हरिचंदउरि व्व सव्वावि ॥ २४ ॥ इय नाउमाउयं थेवमेव सज्झं बहुं च धम्मधणं। गुरुलाभमप्पछेयं, सेयं ति करिज जं जोग्गं॥ २५ ॥ इति चतुर्थकुलकम् १. 'पन्नविज्' इति मू०। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ५. पञ्चमं कुलकम् इह भवकारागारे, गुरुमोहकवाडरुद्धसुहदारे । कालमणंताणंतं, वसंति जीवा तमंधारे ॥ १॥ अह कहवि कम्मपरिणामओ तहाकालपरिणईए य। संववहारियभावं, केइ वि पावंति तत्थ वि य॥ २॥ होउं भूजलतेउवाउसु पुढो अस्संखउसप्पिणी, ताऽणंता उ तरूसु सागरसए वीसं तसत्ते हिए। गाढारूढपरूढमोहमहिमायत्ता दुहत्ता इमे, जंतू जंति इहासमंजसमहो संसारचक्के चिरं॥ ३॥ सयलंकुसलहेउं माणुसत्तं लहेडं, जणणमरणलक्खे फासमाणा अलक्खे। पुण वि गुणियकम्मा होइउं पावकम्मा तुलभरमनिवारं लिंति तोऽणंतवारं ॥ ४॥ अह गिरिसरिओवलमाइनायओ अहपव्वत्तकरणेण । चउगइगया वि बहुतमकालेण विसुद्धतर भावा ॥ ५॥ एगूणवीसमेगूण-तीसमेगूणसत्तरि कमसो। वीसगतीसगमोहाणं सलिलनिहिकोडिकोडी उ॥ ६॥ खविय ठिइसंतमेगा, देसूणा धरइ जाव ता गंठिं । पाविय केइ वलंति वि अन्ने उ अपुव्वकरणेण ॥ ७॥ घणकम्मपरिणइमयं, भिंदिय चिररूढगूढदढगंठिं। मिच्छत्तंतरकरणं, काउं अनियट्टिकरणेण ॥ ८॥ तो भवसागर तरणे, तरीसमं असमसोक्खमोक्खकरं । . पावंतुवसमसम्मं, जीवा अंतोमुहुत्तद्धा ॥ ९॥ पुण केइ कम्मपरिणइवसेण अइसुंदरं पि सम्मत्तं । संपत्तं पि अजोग्गा, चिंतामणिमिव विमुंचंति ॥ १० ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशकुलकानि मिच्छत्तुक्कोसठिइं, पि बंधिउं अह पुणो परिभमंति। जीवा बहुकालमहो, दुरंतसंसारकंतारे ॥ ११ ॥ तो माणुसत्तममलम्मि कुले सुखित्ते, सव्वंगचंगमरुजं चिरजीवियं च। भूयोऽरहट्टघडिमालतुलाइ लद्धं, बुद्धिं सुधम्मसवणम्मि कुणंतयावि॥ १२ ॥ गुरुरोगजालसलिले, बहुसंभवमरणलोलकल्लोले। दारुणरागोरगभयकरे जराबद्धडिंडीरे ॥ १३ ॥ इच्छायत्तनिरंतर-चिंतारयबलविलोलजंतुगणे। उद्दामकामवाडवरुद्ध गंभीर मोहतले ॥ १४ ॥ असमभयहासकेली-कलहाहंकारचलतिमिसमूहे। चिररूढमूढमाया-जलनीलीविसरसंछन्ने ॥ १५ ॥ इह हिंडंते जीवा, अपारसंसारसागरे घोरे । सुगुरुचरणारविंदं, विदंति न तारणतरंडं ॥ १६॥ वारं वारं कुणयमयसम्मोह संदोह वेला गाढालीढा मरणलहरीसंकुले भूरिकालं । मायागोला इव कु गुरुसंबंधसंदेह दोला . रूढा मूढा भवजलभरे बद्धवेगं सरंति ॥ १७॥ सुगुरुमवि लहिय कह कहवि तुडिवसा सुणिय मुणिय तव्वयणं। मिच्छत्तासत्तोदग्गकुग्गहा तं न मन्त्रांति ॥ १८ ॥ अह सद्दहंति वि तयावरणखओवसमजोगओ कहवि। चरणावरणाओ न संजमुज्जमं तहवि कुव्वंति ॥ १९ ॥ अह पुनपुंजजोगेण चरणभारं पव्वजिउं केई। पुण वि पमायसहाया, परिवडिय भवे भमंति जओ॥ २० ॥ आहारगा वि मणनाणिणो वि सव्वोवसंतमोहा वि। हुँ ति पमायपरवसा, तयणंतरमेव चउगइया ॥ २१ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि असंखवारमिह सम्मदेसविरईओ । , चेगजिओवि विरइमणंतुव्वलणं च अट्ठहा चउह मोहसमं ॥ २२ ॥ नाणाभवेसु पावइ, तं पावपमायविलसियं सयलं । इहरा एगभवेण वि, लहिउं सव्वाइं जाव सिवं ॥ २३ ॥ तदेवं संसारातुलजलहिमज्झे निवडिया, जिया वुड्डव्वुड्डासरिसमरणुप्पत्तिनडिया । निरुवमं, दुरंतं अच्वंतं दुहमपरिमेयं भमंता विंदंते खरपवणखित्तो हठ इव ॥ २४॥ ता संसारं असारं अणुवरयमहादुक्खजालं विसालं, कम्माणं संचियाणं तह विविहपरीणाममच्वंतवामं । नाउं थोवं च आउं तडितरलमलं मित्तवित्तादि नच्चा, रम्मे धम्मे जिणाणं मणमणवरयं भावसारं धरेह ॥ २५ ॥ पंचविहं अट्ठविहं व छिंदिउं तहं पमायमुज्जमह । तह वि य कहंवि खलिए, भावेह इमं सनिव्वेयं ॥ २६ ॥ अवि जिणवयणं मणे मुणंतो, विहियमई किल तप्पहेण गंतुं । अहह!! कहमहं महंतमोहो- वहयविबोहविलोयणं खलामि ॥ २७ ॥ इह चिंतिऊण दमिऊण मणं नियमेह इंदियकसायगणं । तह दाणसीलतवभावरया कुणहोचियं गुरुमएण सया ॥ २८ ॥ जिणमयं सम्मं नाउं भवन्नवतारणं, अनि उणजणुप्पिक्खासुद्धप्पवित्तिनिवारणं । सुगुरुवयणासत्ता सत्ता दुरं तमणंतयं, तह जं , भववणमइक्कंताणंतागया य परं पयं ॥ २९॥ ता गीयत्थप्पवित्तिं मुणिय अणुगुणं चेव वट्टिज्ज तीए, धमत्थी धम्मकज्जे नउ समइ वियप्पेण किंची कयाइ । गीयाणापारतंतं सयलगुणकरं बिंति जं तित्थनाहा, तेणायाराइसुत्ते पढमगणहरेणावि तं दंसियंति ॥ ३०॥ ६७ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ द्वादशकुलका इय गणिजिणवल्लहवयणमसमसंवेग भावियमणाणं । निसुणंत मुणंत कुणंतयाण लहु कुणइ निव्वाणं ॥ ३१ ॥ इति पञ्चमकुलकम् ६. षष्ठं कुलकम् जीयं । २ ॥ संसारचारकारण-मिणमो धणकणगमाइसु ममत्तं । विसविसमा ही विसया, पमुहसुहा परिणइदुहा य ॥ १ ॥ खरपवणुत्तालतणग्गलग्गजलबिंदुचंचलं मयमत्ततरुणरमणीकटक्खचडुलाउ लच्छीओ ॥ दुव्वार तिव्वदुव्विसह- दुक्खनर गगइहे उणो परमा । जीवाण रांगदोसा, अनंतभवजम्ममरणकरा ॥ ३॥ ता विसमकसायपिसाय - विनडियं जाणिऊण जयमिणमो । कुरु सयलकुसलमूलं, सद्धं सद्धम्मकरणम्मि ॥ ४॥ सुगुरुपयपउमपणई, परोवयारे मई वएसु रई । चिइवंदणं तिसंझं, कुणसु दुसंझं च सज्झायं ॥ ५॥ जं जत्थ जया जेसिं, जईण जुग्गं तयं तहिं तइया । तेसिं सद्धा-सक्कार-सारमाणाऍ तह दिज्जा ॥ ६ ॥ परपरिवायं परवसण- तूसणं परपराभवं रोसं । अत्तुक्करिसं हरिसं, मुंचसु मायं विसायं च॥ ७॥ कुणसु य गुणिसु पमोयं, मित्तिं सत्तेसु दुक्खिएसु दयं । निग्गुणजणेसुविक्खं, दक्खिन्नं तह अपेसुन्नं ॥ ८ ॥ जं लोए न विरुज्झइ, सुज्झइ जेणऽप्पणो मणोभावो । नियगुरुकुलक्कमाणं, कलंकपंकं न जं कुणइ ॥ ९ ॥ सुत्ते जं न निसिज्झइ, सिज्झइ लहु जेण मुक्खसुक्खफलं । तं सव्वं कायव्वं, रागग्गहनिग्गहेण सया ॥ १०॥ इति षष्ठं कुलकम् Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ७. सप्तमं कुलकम् एगिदिएसु अत्थिय, कालमणंतं पसुत्तमत्तुव्व। कहमवि कयाइ केइ वि, जीवा पावंति तसभावं॥ १॥ तत्थ नरत्तं तत्थ वि, सुहखित्तं तत्थ जाइकुलरूवं। तत्थारोग्गं तत्थ वि, चिरजीवित्तं च अइदुलहं॥ २॥ तत्थ वि बहुसुहकम्मोदएण धम्मे वि हुज जइ बुद्धी। तो वि जियाण न सुलहो, जिणवयणुवएसगो सुगुरू । ३ ।। ता गहिरमहोदधिमज्झ-पडियरयणं व कुसलसामग्गिं । दुल्लहं पि लहिय विबुहो विहिज्ज सुद्धं सुधम्मम्मि ॥ ४॥ साहुगिहिभेयओ सो, दुविहो तत्थ पढमम्मि असमत्थो। जहसत्तिं गिहिधम्मं, कुणसु तुमं भावओ तत्थ ॥ ५॥ तिक्कालं चिइवंदण-ममंदआणंदसुंदरं “विहिणा। तह सुविहियजइसेवण-मित्तो जिणवयणसवणं च॥ ६॥ जिणपूयाइविहाणं, तग्गुणनाणं तहा मुणिंदाणं । विहिदाणं सुहझाणं, तवोवहाणं च जहसत्तिं ॥ ७॥ सज्झायनियमकरणं, अपुव्वपढणं च उचियसमयम्मि। किच्चं निच्चं पि तहा, जहजुग्गमभिग्गहग्गहणं ॥ ८॥ जिणसु कसायपिसाए, पसिद्धसिद्धं तमंतजावेण । उवसमयसु विसयतिसं, संवेगामयरसं पाउं ॥ ९॥ बहुलोएण विनिंदिय-मिंदियपसरं निरंभसु अमग्गे। पडिवज्जसु य जहारिह-मागमविहिणा गिहिवयाइं॥ १० ॥ सुहिसंबंधो बंधो, बंधुजणा हियविबंधगा धणियं । पासो अगारवासो, असंखदुक्खावहा कामा ॥ ११ ॥ ही चवलं देहबलं, ही लोलं जुव्वणं च जीयं च। थू अथिरं विसयसुहं, हद्धी!! रिद्धीउ चवलाओ॥ १२ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० द्वादशकुलकानि सुहसाहणमिह दुलहं, सुलहं दुहसाहणं चिय जियाणं। जं ता परिहरियव्वो, अव्वो सव्वो वि एस भवो ॥ १३ ॥ सव्वे सकज्जकंखी, सव्वे सकडोवभोगिणो जीवा। को कस्स इत्थ सयणो, ममत्त इह बंधहेउ त्ति ॥ १४ ॥ इय चिंतिय नियहियए, दुल्लहलंभं च जिणमयं नाउं। विरसावसाणभववासनासणं कुणसु वयणमिणं ॥ १५ ॥ इति सप्तमं कुलकम् ८. अष्टमं कलकम् पुवकयकम्मजणिओ, दुरंतचउगइदुहावहो एस। ही विसमो भववाही, देहीणं दुन्निवारो य॥ १॥ इमिणा किलिस्सिऊणं, सुइरं चुलसीइजोणिलक्खेसु। जुगसमिलाजोगसमं, लहिउं कह कहवि मणुयत्तं ॥ २॥ सव्वन्नुसव्वदंसीहिं, दंसियं सव्वभव्वबंधूहिं । सव्वाहिवाहिहरणं, सम्मं धम्मोसहं कुणह ॥ ३ ॥ तस्सोवएसयाणं, आणं च गुरूण भावविज्जाणं । सम्ममणइक्कमंता, जहोचियं जयह सव्वत्थ ॥ ४॥ पडिहयनिम्मलबोहं, पयडियकुग्गहकलंकसंदोहं । भवतरुवरपारोहं, उम्मूलह लहु महामोहं ॥ ५ ॥ दुहतरुतरुणलयाए, भवजलहिनिवासहे उभूयाए । रुंधह विसविरसाए, विसयतिसाए सया पसरं ॥ ६॥ जणियसमत्थअणत्थे, सव्वजगुव्वे यगे हयविवेगे। दुग्गइगमणसहाए, जिणह कसाए पिसाए व्व॥ ७ ॥ विमलगुणपरिगयं पि हु, कोपपरं को जणं समल्लियइ। फुरियफणामणिकिरणं, व घोरमासीविस भुयंगं॥ ८॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ७१ घडिउब्भडभउडीभंगभासुरो भमिरतंविरच्छिजुओ। वियडविडंबियवयणो, सिढिलकडिल्लो सुदुप्पिच्छो॥ ९॥ कयगहिरविरससद्दो, विसंठुलगई य सिज्जिरसरीरो। कोहमहग्गहगहिओ', होइ नरो लोगभयजणगो॥ १०॥ अइपंडिओ वि अइबहुगुणो वि अइसुद्धवंसजाओ वि। कुणमाणो माणं माणवो लहुं लहइ लहुयत्तं ॥ ११॥ परपरिभवमत्तुक्करिस-मसरिसकुलग्गया वि कुव्वंता। सयलजणुव्वियणिज्जा, न सकजं किंचि साहिति ॥ १२ ॥ नीयागुत्तं गाढं, समज्जिउं पर भवे पुणो सुइरं । सव्वजणगरहणीया, नीयासु भवंति जाईसु ॥ १३ ॥ दंभपरो लहइ नरो, कूडोत्ति सदुत्ति लोयवयणिज्जं। निच्चमवीससणिजो, य होइ सप्पु व्व सुद्धो वि॥ १४॥ मायापरस्स मणुयस्स झत्ति विहडंति बंधुमित्ता वि। अस्संखतिक्खदुक्खे, मयस्स उ ठिई तिरिक्खभवे ॥ १५॥ सयला चिय जइकिरिया, परमपयसाहिगा वि बहुसो वि। कवडेन कया न कुणइ, मुक्खाणुगुणं गुणं कमवि॥१६॥ सयलवसणिक्ककोसो, सुहरससोसो जओ अरइपोसो। नासियतोसो तो सो, बदुदोसो ही असंतोसो॥ १७ ॥ उग्गंतरंगरिउसच्छहम्मि लोहम्मि जेऽणुसजति । ते बहुदुहपडिहत्थं, हत्थं वंछंति नरयगई॥ १८॥ हयसोहं कयमोहं, दुहसंदोहं भवप्परोहसमं । विहुयसुबोहं लोहं, तो हंतुं होइ जइयव्वं ॥ १९ ॥ तह निययमणत्थनिबंधणं धणं बंधणं व बंधुजणो। कारागारा दारा, वि कामभोगा महारोगा ॥ २० ॥ १. 'कोहमहागहगहिओ' इति अ०। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર द्वादशकुलकानि जलबुब्बुय व्व सव्वे, जीवियजुव्वणधणाइसंबंधा। सुहसाहणमिह सयलं, पवणुद्धयधयवडविलोलं ॥ २१ ॥ सुलहा य पियविओगा, अणिट्ठजोगा सुदूसहा रोगा। बंधणधणहरणाणि य, वसणाणि य बहुपयाराणि ।। २२ ।। सहजं चिय इत्थ भयं, चिंतासंतावसंतई य सया। दोहग्गं दोगच्चं, पराणुवित्ती अकित्ती य॥ २३ ॥ ता धुवमधुवमसारं, दुक्खाहारं च मुणिय संसारं । तक्खयकए मइमया, न कयाइ पमाइयव्वं ति॥ २४ ॥ भवभयहरं च भणियं, नियनियगुणठाणगोचियं निच्चं । सदणुट्ठाणं ठाणं, कल्लाणाणं समग्गाणं ॥ २५ ॥ तं पुण सुजुत्तिजुत्तं, सुसुत्तवुत्तं सुगुरुनिउत्तं च। कुणइ सुनिउणमईणं, कम्मक्खयमक्खयपयं च ॥ २६ ॥ तं , पि - सुहाणुट्ठाणं, रागद्दोसविसपसममंतसमं । दुलहं पि कागतालीय-नायओ कहवि जइ पत्तं ॥ २७ ॥ ता तत्थसुगुरुकहिए, गीयत्थसमत्थिए जइक्कहिए। वितहाभिनिवेसो खलु, न खमो कल्लाणकामाण ॥ २८॥ किं तु भववासनासण-हेऊ जिणसासणं पि हु लहेडं। तत्थऽन्नत्थ य सम्मं, जइयव्वं भावसुद्धीए॥ २९ ॥ सा पुण नेया मग्गाणुसारिणो पयइसुद्धचित्तस्स। गीयत्थाणारुइणो, पनवणिज्जस्स सड्ढस्स॥ ३० ॥ इयरस्स उ समइकया, कुग्गहरूवा य सा अणिट्ठफला। मिच्छत्तओ चिय फुडं, जियाण जं कुग्गहो होइ॥ ३१ ॥ ता रागचागकुग्गह-निग्गहपुव्वं तहा पयइयव्वं । जह लोएऽणुवहासं, गुणवल्ली लहइ उल्लासं॥ ३२ ।। गणिजिणवल्लहवयणं, पउणं सउणं व जे सुणंति इमं । मग्गाणुसारिणो लहु, सुहेण ते सिवपुरमुर्वेति ॥ ३३ ॥ इति अष्टमकुलकम् Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ७३ ९. नवमं कुलकम् इह कुणयभुयंगे जम्ममच्चूतरंगे, दुहजलपडहत्थे नोकसाऊरुमच्छे। परिभमिरकसाउग्गाढगाहे अगाहे, महइ भवसमुद्दे मोहआवत्तरुद्दे ॥ १॥ चिरचियनियकम्मुद्दामसज्जो विवागु-ब्भडफुडरयवेलामज्जिरुम्मज्जिराणं। पुढविजलसमीरग्गीसु लोए असंखे, तरुसु पुणरणंतेऽणंतसो संठियाणं॥ २॥ चउगइकुलकोडीजोणिलक्खेसु भूयो, भमिय गुणियकम्मीभूयदुक्खद्दियाणं। अहह!! गहिरपारावारविक्खित्तमुत्ता-रयणमिव जियाणं दुल्हं माणुसत्तं ॥ ३॥ कहवि तुडिवसेणं तं पि लद्धं सुखित्तुत्तमकुलसुहजाईरूवमारुग्गमाउं। असुलभमवि राहावेहणाएण लद्धं', जइ तह वि हु बुद्धी दुल्लहा सुद्धधम्मे ॥ ४॥ अह कहमवि जाया कागतालीयनाया, जिणमयसुइबुद्धी तो वि से पच्चवाया। भयकुमयकसायालस्सविक्खेववन्ना-रमणकिवणयाहीसोगमोहप्पमाया॥ ५॥ अह कहवि किलेसा तस्सभावत्तकाल-परिणइक्सपत्तापुव्वपुण्णोदएणं। जुगसमिलपवेसन्नायओ मुक्खमूलं, सुणिय जिणवरुत्तं भाविणं च चित्ते॥ ६॥ तह वि हु बहुलाए चंडपासंडियाणं, जिणसमयविरोहा भासरासिग्गहस्स। बहुकुपहपरूढातुच्छमिच्छत्तपित्त-ज्जरविहुरियबोहा हा!! न तं सद्दहंति॥ ७॥ इइ बहुसुहलंभं पाविउं धम्मसद्धं, उवलहिय दुलंभं धम्मसामग्गियं च। खरपवणपणुल्लूत्तालतूलं व लोलं, मुणिय भवसरूवं सुत्तवुत्तं करेह ॥ ८॥ पडिहणियकसाए सिद्धिबद्धाणुराए, विहिअहिगयसुत्ते तस्स आणाइ जुत्ते। फुडपयडियतत्ते साहुणो निम्ममत्ते, सुहगुरुपरतंते पज्जुवासेह दंते ॥ ९॥ विणयनयपहाणा वत्थुवीमंसमेसिं, पयपउमसमीवे सव्वकालं करेह। गयभयमयमायामच्छरा तत्तकंखी, नियविसयविभागे तं सया संठवेह॥ १० ॥ अमयमिव मुणंता ताण वुत्तं कुणंता, दलह सबहुमाणं तेसि भत्तीऍ दाणं। धरह अकयहीलं सोचियं चारु सीलं, भयह तवविहाणं भावणं भावणाणं॥ ११ ॥ १. 'लढुं' इति अ०। २. 'इह' इति अ०। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ द्वादशकुलकानि गुणअगुणविहत्तिं पावठाणे विरत्तिं, सुयपढणपसत्तिं साहुकज्जेसु तत्तिं । पवयणअणुरत्तिं सासणत्थेसु सत्तिं, जिणमुणिजणभतिं धेह धम्माविवत्ति॥ १२ ॥ फुडमिह भवकज्जे सव्वसत्तीइ लोया, सययमइपसत्ता नो मणागं पि धम्मे। इय बहुजणसन्नं मुत्तु सव्वायरेणं, जयह जिणवरुत्ते चत्तभीसंकलज्जा ॥ १३ ॥ इह सुहुमनिगोया चेव अव्वावहारी, सुहुमियरइगिंदी वावहारी तसा य। सहजसपरिणामा भव्वभव्वा य कम्म-ऽगनिगडनिबद्धा झायहिच्चाइ तच्चं ॥ १४॥ अमुणियगुणदोसं पासिउं साहुवेसं, पढममसढभावा लेह सुस्संजयं व। पुण बकुसकुसीलुत्तिनमुस्सुत्तभासिं, विसविसहरसंसग्गिं व उज्झेह झत्ति ॥ १५॥ जइ वि दुसमदोसा भासरासिप्पवेसा, जिणमयमुणिसंघो नो तहिण्हिं महग्घो। तहवि दसमदुट्ठच्छेरउब्भूयनाम-स्समणगणपहे नो मुज्झियव्वं बुहेहिं ।। १६ ।। तह विलसिरहुंडोसप्पिणीकालदोसु-ल्लसियकुगुरुवुत्तुस्सुत्तरत्ते वि लोगे। अवगणिय तदुत्तं होइ दुद्देसणासी-विसपसमसुमंतायंत संसुद्धबुद्धी॥ १७॥ अइसंयविरहाओ खित्तकालाइदोसा, विगुणबहुलयाए संकिलिटे जणम्मि। सपरसमयलोयायारणाभिन्नतुण्ड-ग्गलखलजइरजे नज्जए नो गुणीवि ॥ १८ ॥ सययमिह जियाणं सोगदोगच्चवाही-जरमरणभयाई वेरिणो दुन्निवारा। जइ खयकरमेसिं कोइ कंखिज तत्तं, तहवि कुपहदंसी ही!! दुरंता कुलिंगी॥ १९ ॥ नियगुरुकमरागेणऽन्नदक्खिन्नओ वा, समइअभिनिवेसेणंधमंधीइ केई। सुविहियबहुमाणी होउ मज्झत्थनाणी, इय कुसुयकुबुद्धं बिंति आणाविरुद्धं ॥ २०॥ नियमइकयसामायारिचारित्तसन्ना, मुसियजलजणोहा सुत्तउत्तिण्णबोहा। वयमिह चरणड्डा हंत!! नन्नित्ति बिंता, परपरिभवमत्तुक्कासमुल्लासयंति ॥ २१ ॥ कुगुरुसु दढभत्ता तप्पहे चेव रत्ता, अमुणियसुयतत्ता साहुधम्मे पमत्ता। गुरुकुलकमचत्ता संकिलेसप्पसत्ता, अहह!! कहमपत्ता चेव ही खाइपत्ता ॥ २२॥ कुगुरुवयणदूढा संसयावत्तछूढा, अइबहुभवरूढारे-तुच्छमिच्छत्तमूढा । अपरिणयसुयत्थं जीवियासंसघत्थं, सुहगुरुरयमेवं बिंति मुत्तं व देवं ॥ २३ ॥ १. 'देढसत्ता' इति अ०। २. 'अतिभववनु' इति अ०। ३. 'रूढा' इति अ०। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ७५ अइ दसमदुरंतच्छेरय ! ब्भासरासी ! दुसमसमय ! हंभो ! तुब्भमेसप्पभावो। जमिह कवडकूडा साहुलिंगी गुणड्डे, परिभविय पहुत्तं जंति नंदंति दूरं॥ २४ ॥ किर बहुपहुपासे धम्मसुस्सूसणाए, कुमयविउडणेणासंकिया हुंति भावा। नवसुविहियसेवासत्ततत्तत्थियाणं, कहमिव विवरीयं जायमव्वो इयाणिं ॥ २५ ॥ इय कुपहपयारं सुद्धधम्मंधयारं, परिलसिरमसारं छड्डिउं निव्वियारं। सइ अणभिनिविठ्ठा सुत्तजुत्तीविसिट्टा, गयभयमयतिा होइ सम्मग्गनिट्ठा ॥ २६ ॥ इति नवमकुलकम् १०. दशमं कुलकम् इत्थुग्गकुग्गहकुसासणभिल्लभीमे, चिंताविसुक्कडकसायमहाभुयंगे। अन्नाणदारुणदवे नवनोकसाय-लल्लक्कसावयगणे भवसंकडिल्ले॥ १॥ जीवा चउग्गइगया कुलकोडिजोणी-लक्खेसु दुक्खतविया बहुसो भमंति। दीहद्धमेव भवकायठिईहिं धम्म-कम्मक्खमं नरभवाइ न पाउणंति ॥ २॥ गंभीरनीरनिहिनट्ठमणिं व धम्म-सामग्गिमित्थ समिलाजुगजोगतुल्लं। एमेव पाविय कहंपि कहिंचि काग-तालीयनायवसओ सहियं करेह ॥३॥ जंतू य दुक्खविमुहासइ सुक्खकंखी,सुक्खं च अक्खयमभिक्खणमाहु मुक्खे। सम्मत्तनाणचरणाणि य तस्सुवाओ, तस्साहणाय पुण रे ! इय निच्चकिच्चं ॥४॥ संविग्गसग्गुरुकमागयजुत्तजुत्ती-१ २वीसंतसुत्तपरमत्थविऊ जयंत । सेवेह धम्मगुरुणो बहुमाणभत्ति-रागेण ताण वयणं च मणे धरेह ॥ ५ ॥ वेरग्गभावणकसासुगुरूवएस-रज्जूहि इंदियतुरंगगणं दमेह । नाणंकुसेण गुणपायवलग्गमुद्दा-मुद्दामकामकरिणं सवसं विहेह॥ ६॥ १. 'जुत्तिजुत्त' इति अ०। २. 'वीसत' इति अ०। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशकुलकानि कालाइदोसवसओ घणकम्मकिट्ठ-चिट्ठत्तणेण य जणा बहुसंकिलेसा। तो लिंगिणो य गिहिणो य दढं विमूढा, किं किं न जं अणुचियं चिरमायरंति ॥७॥ नट्ठा य ते सयमसंगकुहेउजुत्ती, अन्नेसि नासणकए बहुहा वयंति। पायं जणा सयमइ अभाविभद्दा, तं चेव तत्तमिव लिंति चइंति मग्गं ॥ ८ ॥ मिच्छत्तछन्नपडिकप्पियजुत्तिहीण-नाणाकुसत्थमयमूढकुतित्थियाणं। दुव्वासणाविनडिया पडिया वसे ही, जीवा कयाइ न भवंति भवंतगामी॥९॥ ता भूरिकुग्गह-कुतित्थि-कुदेसणाउ, सुच्चा वि निच्चमचला जिणधम्ममग्गे। भो ! लग्गहुज्झियकुधीभयसंकलज्जा, एवं च होहिह सुधम्मऽहिगारिणु त्ति ॥ १० ॥ भूयोभिः सुकृतैः कथञ्चन जनैः कल्पद्रुरासाद्यते, सम्प्राप्तोऽभिमतं प्रयच्छति सकः संकल्पमात्रादपि। सोऽप्यस्माभिरलाभ्यभाजि च चिरं दध्ये विधायाञ्जलिं, घोरे व्यक्तमयुक्तमित्यपि वृथाऽभूदित्यचिन्त्यो विधिः॥ ११ ॥ इति दशमकुलकम् ११. एकादशं कुलकम् इह हि खलु दुरंते चाउरते भवम्मि, परिभमणमणंताणंतकालं करित्ता। कह कहवि तसत्तं तत्थवी माणुसत्तं, बहुसुकयवसेणं पाणिणो पाउणंति ॥ १ ॥ तमवि सुकुलजाईरूवनीरोगदीहा-उयमइगुणवंतं सव्वहा पत्तपुव्वं । चिरसुचरियभावा भाविभद्दाणमंते, हवइ तदिह लद्धे सव्वहा उज्जमेह ॥ २॥ परिहरह पमायं दिन्नदीहावसायं, मुयह कुगइमूलं धम्मसंदेहजालं। चयह कुगुरुसंगंरे सव्वकल्लाणभंगं, सुणह जिणवरुत्तं सुद्धसिद्धंततत्तं ॥ ३ ॥ २. "विधेयाञ्जलिं' इति अ० । १. 'वि' इति अ०। ३. 'कुमइसंग' इति अ०। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि मुयह निहयसोहं सव्वहा कोहलोहं, निहणह मयमायं दिन्नसंसारपायं । सरह सरहसं मो ! सव्वसत्तेसु मित्तिं, कुणह जिणगुरूणं पायपूयापसत्तिं ॥ ४ ॥ पयडह बहुदुक्खत्तेसु सत्तेसु दूरं, परमकरुणभावं दव्वओ भावओ य । भयह गुणिसु रागं सव्वकल्लाणवल्ली - पसरसरसनीरासारमच्वंतसारं ॥ ५॥ गरिहह कयणेगाणत्थसत्थं समत्था - सुहसयजणचारी रायमग्गं व दुग्गं । जणियविसयगिद्धिं पावमेत्तेहि सद्धिं, जइ महह महंति सव्वसंपत्तिसिद्धिं ॥ ६॥ किमिह सुबहुवायावित्थरेणं भवाउ, जइ कहमवि चित्तं तुम्ह दूरं विरतं । जय कुमुकंतिं वित्थरन्तिं च कित्तिं, अभिलसह बुहाणच्छेरयं संजणिन्ति ॥ ७ ॥ ता दूरं मुक्कसंकाविरइकयमणा चत्तमिच्छत्तदोसा, साहूणं पायसेवा जिणमयसवणच्चिंतणक्खित्तचित्ता । कालं बोलेह निच्चं पुणरवि दुलहा धम्मसामग्गि एसा, भुज्जो पाविज्ज जीवा कहमवि न इमं नज्जए जेण सम्मं ॥ ८॥ इति एकादशकुलकम् १२. द्वादशं कुलकम् कालस्स अहकिलट्ठत्तणेण अइसेसपुरिसविरहेण । पायमजुग्गत्तणणं गुरुकम्मत्तेण य जीयाणं ॥ १ ॥ किर मुणियजिणमया वि हु, अंगीकयसरिसधम्ममग्गा वि । पायमइकिलिठ्ठा, धम्मत्थी वित्थ दीसंति ॥ २ ॥ ते किंचि कहिंचि कसाय - विसलवं धरिय नियमणे मूढं । दरिसंति तव्वियारे, अप्परिणयसमयअमयरसा ॥ ३ ॥ केइ अपुट्ठा पुट्ठा, पुरओ तव्विहजणस्स पयडिंति । अन्नपसंगेणं परपरिभवमत्तउक्करिसं ॥ ४ ॥ चिय, ७७ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ गुरुमवि गुणमगणंता, परस्स दोसं लहुं ति पयडिंता । अन्नोन्नममन्नंता, जणयंति बहूण मइमोहं ॥ ५॥ अवरे नियडिपहाणा, पयडिय वेसासियं खणं रूवं । सुहलुद्धमुद्धजणवंचणेण कप्पंति नियवित्तिं ॥ ६ ॥ अवगणियनिजकज्जा, लज्जामज्जायवज्जिया अन्ने । कलहिंति मिहो बहुविह - बाहिरवत्थूण वि कएण ॥ ७ ॥ अन्ने दक्खिन्त्रेण वि, सच्छंदमईए अहव जडयाए । आजीवियाभयेण व, बहुजणआयरणओ वावि ॥ ८ ॥ गारवतिगोवरुद्धा, लुद्धा मुद्धाण जुगपहाण त्ति । अप्पाणं पयडिंता, विवरीयं बिंति समयत्थं ॥ ९ ॥ न परं न कुणंति सयं, अवि य भयमएहिं निंति सुत्तत्थं । जं समइपहेण तयं, अहह !! महामोहमाहप्पं ॥ १० ॥ एवंविहाण वि दढं, दढं, दसमच्छेरयमहापभावेण । सद्धालु मुद्धबुद्धी, भत्तीए कुणंति पूयाई ॥ ११ ॥ अन्ने उदग्गकुग्गह-घत्था दुरहिगयसमयलेसेहिं । नहि नासिया आसिया फुडं सुन्नयावायं ॥ १२ ॥ इय बहुविह असमंजस - जणदंसणसवणओ वि धीराण । मणयं पि न चलइ मणो, सम्मं जिणमयविहिन्नूणं ॥ १३ ॥ ता भासरासिगहविहुरिए वि तह दक्खिणे वि इह खित्ते । अत्थि च्चिय जातित्थं, विरलतरा केइ मुणिपवरा ॥ १४ ॥ ते य बलकालदेसाणु-सारपालियविहारपरिहारा । ईसि सदोसत्ते वि हु, भत्तीबहुमाणमरिहंति ॥ १५ ॥ ते य असढं जयंता, सुबुद्धिओ मुणियसमयसब्भावा। ईसि सकसायभावे, पि हुंति पुज्जा बहुजणाणं ॥ १६ ॥ इति द्वादशकुलकम् * द्वादशकुलकानि Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. धर्मशिक्षाप्रकरणम् नत्वा भक्तिनताङ्गकोऽहमभयं नष्टाभिमानक्रुधं, विज्ञं वर्द्धितशोर्णिमक्रमनखं वयं सतार्मिष्टदम्। विद्याचंक्रविभुं जिनेन्द्रसमकृलब्ध्वाऽर्थ पार्दै भवे, वेद्यं ज्ञानवतां विमर्शविशदं धर्म्य पदं प्रस्तुवे॥ १॥* भो भो भव्या ! भवाब्धौ निरवधिविधुरे बम्भ्रमद्भिर्भवद्भि दृष्टान्तैश्चोल्लकाद्यैर्दशभिरसुलभं प्रापि कृच्छ्रान्नरत्वम् । तेद्वत्क्षेत्रादिसामग्र्यपि समधिगता दुर्लभैवेति सम्यग्, मत्वा माहाकुलीनाः कुरुत कुशलतां धर्मकर्मस्वजस्रम्॥ २॥ ततश्चभक्तिश्चैत्येषु शक्तिस्तपसि गुणिजिने संक्तिरर्थे विरक्तिः, प्रीतिस्तत्त्वे प्रतीतिः शुभगुरुषु भवाद् भीतिरुद्धात्मनीतिः। क्षान्तिर्दान्तिः स्वशान्तिसुखहतिरबलावान्तिरभ्रान्तिराप्ते, ज्ञीप्सा दित्सा विधित्सा श्रुत-धन-विनयेष्वस्तु धीः पुस्तके च।। ३ ।। [चैत्येषु भक्ति-प्रक्रमः] व्यपोहति विपद्भरं हरति रोगमस्यत्वं, करोति रतिमेधयत्यतुलकीर्तिधीश्रीगुणान्। तनोति सुरसम्पदं वितरति क्रमान्मुक्ततां, __ जिनेन्द्रबहुमानतः फलति चैत्यभक्तिर्न किम् ॥ ४॥ * चक्रबद्धमिद काव्यम्। 'जिनवल्लभगणिवचनमिदम्' इति वाक्येन चक्रबन्धे स्वाभिधानं ग्रन्थक; सूचितम्। १. 'प्राप्य' अ०। २. 'तच्चेत्' मु० । ३. 'रक्तिः' मु० । 'सक्ति:-अत्यन्तप्रीतिः' इति वृत्तौ। ४. 'मति' अ०। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. धर्मशिक्षाप्रकरणम् तद्गेहे प्रस्तुतस्तन्यभिलषति मुदा कामधेनुः प्रवेष्टं, चिन्तारनं तदीयं श्रयति करमभिप्रैति तं कल्पशाखी। स्व:श्रीस्तत्सङ्गमाय स्पृहयति यतते कीर्तिकान्ता तमातुं, तं क्षिप्रं मोक्षलक्ष्मीरभिसरति रतिर्यस्य चैत्यार्चनादौ ॥ ५ ॥ [तपसि शक्ति-प्रक्रमः] चक्रे तीर्थकरैः स्वयं निजगदे तैरेव तीर्थेश्वर श्रीहेतुर्भवहारि दारितरुजं सन्निर्जराकारणम्। सद्यो विघ्रहरं हृषीकदमनं माङ्गल्यमिष्टार्थकृद्, देवाकर्षणकारि दुष्टदलनं त्रैलोक्यलक्ष्मीप्रदम्॥ ६॥ इत्यादिप्रथितप्रभावमवनीविख्यातसङ्ख्याविदां, मुख्यैः ख्यापितमाशु शाश्वतसुखश्रीक्लृप्तपाणिग्रहम् । आशंसादिविमुक्तमुक्तविधिना श्रद्धाविशुद्धाशयैः, शक्तिव्यक्तिसुभक्तिरक्तिभिरभिध्येयं विधेयं तपः॥ ७॥ युग्मम् [गुणिषु रक्तिप्रकमः] ज्ञानादित्रयवाञ्जनो गुणिजनस्तत्सङ्गमात्सम्भवेत्, स्नेहस्तेषु स तत्त्वतो गुणिगुणैकात्म्याद् गुणेष्वेव यत्। तस्मात्सर्वगसद्गुणानुमननं तस्माच्च सद्दर्शनाद्,' यस्मात्सर्वशुभं गुणिव्यतिकरः कार्यः सदायैस्ततः॥ ८॥ स स्नातश्चन्द्रिकाभिः स च किल मृगतृष्णाजलैरेव तृप्तः, खाजैर्मालां स धत्ते शिरसि से शशशृङ्गीयचापं बिभर्ति । मथ्नात्येष स्थवीय:स्थलतलसिकतास्तैलहेतोर्य उज्झन्, सङ्गं ज्ञानक्रियावद्गुणिभिरपि परं धर्ममिच्छेच्छिवाय ॥ ९ ॥ २. 'तस्मात्' अ०। १. 'सद्दर्शनं' अ०मु०। ३. 'शशकणं' अ०। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि [ अर्थे विरक्ति-प्रक्रमः ] त्वग्भेदच्छेदखेदव्यसनपरिभवाप्रीतिभीर्ति-प्रमीति क्लेशाविश्वासहेतुं प्रशमदमदयावल्लरी धूमकेतुम् । अर्थं निःशेषदोषाङ्करभरजननप्रावृषेण्याम्बु धृत्वा, लूत्वा लोभप्ररोहं सुगतिपथरथं धत्त सन्तोषपोषम् ॥ १० ॥ निद्रामुद्रां विनैव स्फुटमपरमचैतन्यबीजं जनानां, लक्ष्मीरक्ष्णोऽन्धभावः प्रकटमपटलः सन्निपातोऽत्रिदोषः । किञ्च क्षीराब्धिवासिन्यभजदियमपां सर्पणान्नीचगत्वं, कल्लोलेभ्यश्चलत्वं स्मृतिमतिहरणं कालकूटच्छटाभ्यः ॥ ११ ॥ [ तत्त्वे प्रीति प्रक्रमः ] जीवा भूरिभिदा अजीवविधयः पञ्चैव पुण्यास्रवौ, भिन्नौ षड्गुणसप्तधा प्रकृतयः पापे द्व्यशीतिः स्मृताः । भेदान् संवरबन्धयोः पृथगथाऽऽहुः सप्तपञ्चाशतं, मोक्षो देशविनिर्जरेति च नव श्रद्धत्त तत्त्वानि भोः ॥ १२ ॥ सर्वज्ञोक्तमिति प्रमाघटितमित्यक्षोभ्यमन्यैरिति, न्यायस्थानमिति स्फुटक्रममिति स्याद्वादधीभागिति । युक्त्या युक्तमिति प्रतीतिपदमित्यक्षुण्ण - लक्ष्मेति सत्, सप्त द्वे नव चेत्यवेत्त बहुधा तत्त्वं विवक्षावशात् ॥ १३ ॥ [ गुरुषु प्रतीति- प्रकमः ] सम्यग्ज्ञानगरीयसां सुवचसां चारित्रवृन्दीयसां, तर्कन्यायपटीयसां शुचिगुणप्राग्भारबृंहीयसाम् । विद्यामन्त्रमहीयसां सुमनसां भव्यव्रजप्रेयसां, ८१ धत्तोच्चैस्तपसां विकाशियशसां सम्यग्गुरूणां गिरः ॥ १४॥ १. 'नीतिप्र' अ० । ३. 'किञ्चित्' अ० । २. 'लक्ष्मी तृष्णौघभावः' अ० । ४. ' क्षोभ्यं' अ० । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशिक्षाप्रकरणम् मुक्तौ गन्तरि मोहहन्तरि सदा शास्त्रस्थितौ रन्तरि, ध्यानध्यातरि धर्मधातरि वरव्याख्यातरि त्रातरि। विद्वद्भर्तरि शीलधर्तरि तम:स्तोमं तिरस्कर्तरि, द्वेषच्छेत्तरि रागभेत्तरि गुरौ भक्ताः स्थ वाग्वेत्तरि ।। १५ ।। [भवाद् भीति-प्रक्रमः] प्रोत्सर्पद्दर्पसर्पन्मृतिजननजराराक्षसे नोकषाय क्रूरोरुश्वापदौघे विषमतमकषायेद्धदावाग्निदुर्गे। मोहान्धा भोगतृष्णाऽऽतुरतरलदृशो भूरि बम्भ्रम्यमाणा स्त्राणाय प्राणभाजो भववनगहने क्लेशमेव श्रयन्ते ॥ १६ ॥ सुखी दुःखी रङ्को नृपतिरथ नि:स्वो धनपतिः, प्रभुर्दासः शत्रुः प्रियसुहृदबुद्धिर्विशदधीः। भ्रमत्यभ्यावृत्त्या चतसृषु गतिष्वेवमसुमान्, ह हा !! संसारेस्मिन् नट इव महामोहनिहतः॥ १७॥ [आत्मनीति-प्रक्रमः] सख्यं साप्तपदीनमुत्तमगुणाभ्यासः परोपक्रिया, सत्कारो गुरुदेवताऽतिथियतिष्वायत्यनुप्रेक्षणम्। स्वश्लाघापरिवर्जनं जनमन:प्रेयस्त्वमक्षुद्रता, सप्रेम प्रथमाभिभाषणमिति प्रायेण नीतिः सताम् ॥ १८॥ तथ्यापथ्यायथार्थस्फुटमितमधुरोदारसारोच्यते वाक्, चेतश्च क्षोभलोभस्मयभयमदनद्रोहमोहप्रमुक्तम्। कार्यं देहं च गेहं व्रतनियमशमौचित्यगाम्भीर्यधैर्य स्थैर्यौदार्यार्यचर्याविनयनयदया दाक्ष्यदाक्षिण्यलक्ष्म्या ॥ १९॥ १. 'मेवाश्रयन्ते' अ०म०। २. 'लक्ष्म्याः ' अ०। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि [क्षान्ति-प्रक्रमः] प्रीत्या भीत्या च सर्वं सहति किल शठोऽप्यश्नुते चेष्टमेवं, कार्यं कुर्यात् क्षमी यन्न तदिह कुपितः स्पष्टमेतज्जनेऽपि । तस्मादप्युग्ररागद्विषि मिषति रिपौ सर्वशास्त्रोदितायां, सर्वाभीष्टार्थलाभप्रभवकृति सदा वर्तितव्यं क्षमायाम् ॥ २० ॥ दशविधयतिधर्मस्यादिमं क्षान्तिरङ्ग, विमलगुणमणीनां रोहणाद्रिः क्षमैव। तदिति कुशलवल्लिप्रोल्लसल्लास्यलीला, कुसुमसमयमुच्चैर्धत्त रोषप्रमोषम् ॥ २१ ॥ [दान्ति-प्रक्रमः] विद्याकन्दासिदण्डः कुगतिसुरगृह-प्रोल्लसत्केतुदण्डः, प्रद्वेषश्लेषहेतुः सुगतिजलधि-'निस्तारविस्तीर्णसेतुः। शस्त्रं सत्सङ्गरज्वा व्यसनकुलगृहं रागयागाग्र्ययज्वा, हाऽरिष्टं शिष्टतायाः करणवशगता तद्दमेऽतो यतध्वम्॥ २२॥ प्रेङ्खत्खङ्गा-ग्रभिन्नोत्कटकरटिघटाकुम्भकीलालकुल्या, वेगव्यस्त-भ्रकुद्युद्भटभटपटलीलूनचक्राम्बुजानि । क्रुद्धोद्धावत्कबन्धव्यतिकरविफलायस्तशस्त्राण्यभीक्ष्णं, भूयांसः प्रापुरत्र क्षयमिति करणैः कार्यमाणा रणानि ॥ २३ ।। [शान्ति-प्रक्रमः] मानः सम्मानविघ्नः स्फुटमविनयकृत्क्रोधयोधः प्रबोध ध्वंसी वैरानुबन्धी प्रणयविमथनी सव्यपाया च माया। लोभः सक्षोभहेतुर्व्यसनशतमहाधामकामोऽपि वामो, व्यामोहायेति जित्वाऽन्तरमरिविसरं स्वस्य शान्तिं कुरुध्वम्॥ २४॥ १. 'ऽर्थर्थि तद्यत्' मु०। ४. 'प्रेडद्वजाग्र' मु०। २. 'गृहे' अ०। ५. 'न्यस्त' मु०। ३. 'निधिस्ता' अ० । ६. 'वक्त्राम्बुजानि' अ० । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशिक्षाप्रकरणम् कान्ता कान्तापि तापं विरहदहनजं हन्त !! चित्ते विधत्ते, क्रीडा व्रीडा मुनीनां मनसि मनसिजोद्दामलीलापि हीला। गात्रं पात्रं विचित्रप्रकृतिकृतसमायोगरोगव्रजानां, सोऽहं मोहं निहन्तुं तदपि कथमपि प्रेमरक्तो न शक्तः॥ २५ ॥ [सुखहति-प्रक्रमः] अर्थे निःसीम्नि पाथ:प्लवजवजयिनि प्रेम्णि कान्ताकटाक्ष प्रक्षेपस्थेम्नि धाम्नि क्षयपवनचले स्थानि विद्युद्विलोले। जीवातौ वातवेगाहतकमलदलप्रान्तलग्नोदबिन्दु व्यालोले देहभाजामिह भवविपिने सौख्यवाञ्छा वृथैव ॥ २६ ॥ उद्धावत्क्रोधगृधेऽधिकपरुषरवोत्तालतृष्णाशृगाली शालिन्युद्यन्मनोभूललितकिलकिला-रावरागोग्रभूते। ईर्ष्याऽमर्षादिदंष्ट्रोत्कटकलहमुखद्वेषवेतालरौद्रे, हा .!! संसारश्मसाने भृशभयजनने न्यूषुषां क्वाऽस्तु भद्रम्॥ २७ ॥ [नारी-प्रक्रमः] चक्षुर्दिक्षु क्षिपन्ती क्षपयति झगिति प्रेक्षकाक्षीणि साक्षा ल्लीलालोलालसाङ्गी जगति वितनुतेऽनङ्गसङ्गाङ्गभङ्गान् । खेदस्वेदप्रभेदान् प्रथयति दवथुस्तम्भसंरम्भगर्भान्, बाला व्यालावलीव भ्रमयति भुवनं चेतसा चिन्तितापि॥ २८॥ कालुष्यं कचसञ्चयाच्चपलता लीलाचलल्लोचनाद्, । बिम्बोष्ठाद् गुरुरागिता कुटिलितभ्रूवंक्रतो वक्रता। नाभीतोऽपि च नीचता कुचतटात् काठिन्यमन्वर्थतो, वामानां बत तुच्छता परिचयालग्नावलग्ना ध्रुवम् ॥ २९॥ [आप्ते अभ्रान्ति-प्रक्रमः] रागद्वेषप्रमादाऽरतिरतिभयशुग्जन्मचिन्ताजुगुप्सा मिथ्यात्वाज्ञानहास्याविरतिमदननिद्राविषादान्तरायाः। १. 'कलिकला' अ०। २. 'चक्र' अ०। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि संसारावर्तगर्त्तव्यतिकरजनका देहिनां यस्य नैते, - दोषा अष्टदशाऽऽप्तः स इह तदुदिते वास्तु शङ्कावकाशः॥ ३०॥ विद्वत्प्रेयसि सद्गरीयसि परानन्दाश्रयस्थेयसि, स्फातश्रेयसि नाशितैनसि सदा सम्यग्गुणज्यायसि। सज्ज्ञानौकसि धर्मवेधसि हुताविद्यावितानैधसि, कोऽनन्तोजसि तारतेजसि जिने सन्देग्धि वृन्दीयसि॥ ३१ ॥ [श्रुतज्ञीप्सा-प्रक्रमः] उद्यद्दारिद्र्यरुंद्रद्रुमशित-परशुर्दुर्गदुर्गत्युदार द्वारस्फारापिधानं विषयविषधरग्रासगृध्यत्खगेन्द्रः । क्रुद्ध्यदुर्बोधयोधप्रतिभटपटलीमोहरोहत्प्ररोह प्रेङ्घत्तीक्ष्णक्षुरप्रः प्रमदमदकरिक्रूरकुप्यन्मृगारिः॥ ३२॥ सर्पत्कन्दर्पपांशुप्रकरखरमरुत्त्वङ्गदुत्तुङ्गदम्भ क्ष्माभृद्दम्भोलिरुच्चैरनुपशमदवोद्दाववर्षाम्बुवाहः। मिथ्यात्वापथ्यतथ्यस्फुरदमृतरसः प्रोल्लसल्लोभवल्लि च्छेदच्छेकासिपत्रं श्रुतमिह तदिति ज्ञाप्यमध्याप्यमाप्य॥ ३३॥ 1 [धनदित्सा-प्रक्रमः] तेने तेन सुधांशुधामधवलं विश्वक् स्वकीयं यशो, दौर्भाग्यद्रुरभाजि तेन ममृदे दारिद्र्यमुद्रा द्रुतम्। चक्रे केशवशक्रिचक्रिकमला तूर्णं स्वहस्तोदरे, पात्रत्राकृतमत्र येन विधिना स्वं स्वं नयोपार्जितम् ॥ ३४॥ प्रोल्लेसे गुणवल्लिभिः प्रननृते कीर्त्या त्रिलोकाङ्गणे, सौख्यैरुच्चकृषे श्रिया प्रववृधे बुद्ध्या जजृम्भे भृशम्। स्वर्लक्ष्म्या ददृशे सतर्षमभितो वीक्षाम्बभूवे शिव प्रेयस्या विधिदानदातुरसकृत् कैर्वान लिल्ये? शुभैः॥ ३५ ॥ १. 'शत' अ०। २. 'श्वगेन्द्रः' मु०। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशिक्षाप्रकरणम् [विनयविधि-प्रक्रमः] प्राहुर्दाहकमेव पावकमिव प्रायोऽविनीतं जनं, प्राप्नोत्येष कदाचनापि न खलु स्वेष्टार्थसिद्धिं क्वचित् । तस्मादीहितदानकल्पविटपिन्युल्लासिनिःश्रेयस श्रीसम्बन्धविधानधाम्नि विनये यत्नं विदध्यात् बुधः॥ ३६॥ मूलं धर्मद्रुमस्य धुपतिनरपतिश्रीलताकल्पकन्दः, सौन्दर्याह्वानविद्या निखिलसुखनिधिर्वश्यतायोगचूर्णः। सिद्धाज्ञामन्त्रयन्त्राधिगममणिमहारोहणाद्रिः समस्ता नर्थप्रत्यर्थितन्त्रं त्रिजगति विनयः किं न किं साधु धत्ते? ॥ ३७॥ [पुस्तक-ज्ञान दान-प्रक्रमः] संसारार्णवनौर्विपद्वनदवः कोपाग्निपाथोनिधि मिथ्यावासविसारिवारिदमरुन्मोहान्धकारांशुमान्। तीव्रव्याधिलताशितासिरखिलान्तस्तापसर्पत्सुधा सारः पुस्तकलेखनं भुवि नृणां सज्झानदानप्रपा॥ ३८॥ मिथ्यात्वोदन्वदौर्वे व्यसनशतमहाश्वापदे शोकशङ्का ऽऽतङ्काद्यावर्त्तगर्ते मृतिजननजराऽपारविस्तारिवारि । आधिव्याधिप्रबन्धोद्धरतिमिमकरे घोरसंसारसिन्धौ, पुंसां पोतायमानं ददति कृतधियः पुस्तकज्ञानदानम् ॥ ३९ ॥ शिक्षा भव्यनृणां गंणाय मयकाऽनर्थप्रदैनस्तरुं, दग्धुं वह्निरभाणि येयमनया वर्तेत योऽमत्सरः। नम्यं चक्रभृतां जिनत्वमपि सलब्धा -पादैः परं, रन्ताऽसौ शिवसुन्दरीस्तनतटे रुन्द्रे नरः सादरम्॥ ४० ॥* समाप्तं धर्मशिक्षाप्रकरणम् १. 'विस्तारवारि' अ०। + 'लब्ध्वाज़े' अ०। * आद्यपद्यवदत्रापि 'गणिजिनवल्लभचनमदः' इत्यनेन वाक्येन चक्रबन्धकाव्ये प्रकटितं स्वाभिधानं ग्रन्थकृद्भिः। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. सङ्घपट्टकः वह्निज्वालावलीढं कुपथमथनधीर्मातुरस्तोकलोकस्याग्रे सन्दर्घ्य नागं कमठमुनितपः स्पष्टयन् दुष्टमुच्चैः। यः कारुण्यामृताब्धिर्विधुरमपि किल स्वस्य सद्यः प्रपद्य, प्राज्ञैः कार्यं कुमार्गस्खलनमिति जगादेव देवं स्तुमस्तम्॥१॥ कल्याणाभिनिवेशवानिति गुणग्राहीति मिथ्यापथप्रत्यर्थीति विनीत इत्यशठ इत्यौचित्यकारीति च। दाक्षिण्यीति दमीति नीतिभृदिति स्थै-ति धैर्सति सद्धर्मार्थीति विवेकवानिति सुधीरित्युच्यसे त्वं मया ॥२॥ इह किल कलिकालव्यालवक्त्रान्तरालस्थितिजुषि गततत्त्वप्रीतिनीतिप्रचारे । प्रसरदनवबोधप्रस्फुरत्कापथौघ स्थगितसुगतिसर्गे' सम्प्रति प्राणिवर्गे ॥ ३॥ प्रोत्सर्पद्भस्मराशिग्रहसखदशमाश्चर्यसाम्राज्यपुष्यन्, मिथ्यात्वध्वान्तरुद्धे जगति विरलतां याति जैनेन्द्रमार्गे । संक्लिष्टद्विष्टमूढप्रखलजडजनाम्नायरक्तैर्जिनौक्तिप्रत्यर्थी साधुवेषैर्विषयिभिरभितः सोयमप्रार्थि पन्थाः॥४॥ यत्रौद्देशिकभोजनं जिनगृहे वासो वसत्यक्षमा, स्वीकारोर्थगृहस्थचैत्यसदनेष्वप्रेक्षिताद्यासनम् । सावधाचरितादरः श्रुतपथावज्ञा गुणिद्वेषधीः, धर्मः कर्महरोऽत्र चेत्पथि भवेन् मेरुस्तदाब्धौ तरेत् ॥ ५॥ १. 'सुगतिमार्गे' इति साधुकीर्तिप्रणीतटीकासम्मतपाठः। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्घपट्टकः षट्कायान् उपमृद्य' निर्दयमृषीनाधाय यत् साधितं, शास्त्रेषु प्रतिषिध्यते यदसकृत् निस्त्रिंशताधायि यत् । गोमांसाधुपमं यदाहुरथ यद् भुक्त्वा यतिर्यात्यधस्तत् को नाम जिघत्सतीह सघृणः सङ्घादिभक्तं विदन्॥६॥ गायद्गन्धर्वनृत्यत्पणरमणिरणद्वेणुगुञ्जन्मृदङ्गप्रेङ्घत्पुष्पस्रगुद्यन्मृगमदलसदुल्लोचचञ्चज्जनौघे । देवद्रव्योपभोगध्रुवमठपतिताशातनाभ्यस्त्रसन्तः, सन्तः सद्भक्तियोग्ये न खलु जिनगृहेऽर्हन्मतज्ञा वसन्ति ॥७॥ साक्षाजिनैर्गणधरैश्च निषेवितोक्ता, निस्सङ्गिताग्रिमपदं मुनिपुङ्गवानाम्। शय्यातरोक्तिमनगारपदं च जानन्, विद्वेष्टिक: परगृहे वसतिं सकर्णः॥८॥ चित्रोत्सर्गापवादे यदिह शिवपुरीदूतभूते निशीथे, प्रागुक्ता भूरिभेदा गृहिगृहवसती: कारणेऽपोद्य पश्चात् । स्त्रीसंसक्त्यादियुक्तेऽप्यभिहितयतनाकारिणां संयतानां, सर्वत्रागारिधाम्नि न्ययमि न तु मतः क्वापि चैत्ये निवासः॥९॥ प्रव्रज्याप्रतिपन्थिनं ननु धनस्वीकारमाहुर्जिनाः, सर्वारम्भिपरिग्रहं त्वतिमहासावद्यमाचक्षते । चैत्यस्वीकरणे तु गर्हिततमं स्यान्माठपत्यं यतेरित्येवं व्रतवैरिणीति ममता युक्ता न मुक्त्यर्थिनाम्॥ १० ॥ भवति नियतमत्रासंयमः स्याद्विभूषा, नृपतिककुदमेतल्लेकहासश्च भिक्षोः। स्फुटतर इह सङ्गः सातशीलत्वमुच्चै-रिति खलु न मुमुक्षोः सङ्गतं गब्दिकादि ॥११॥ गृही नियतगच्छ भाग् जिनगृहे ऽधिकारो यते:, प्रदेयमशनादि साधुषु यथा तथाऽऽरम्भिभिः। व्रतादिविधिवारणं सुविहितान्तिके ऽगारिणां, गतानुगतिकैरदः कथमसंस्तुतं प्रस्तुतम् ॥ १२ ॥ १. 'उपमध्' इति लक्ष्मीसेन-साधुकीर्तिटीकायां अप्रतावपि । २. 'अपोह्य' इति लक्ष्मीसेनटीकायां। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि निर्वाहार्थिनमुज्झितं गुणलवैरज्ञातशीलान्वयं, तादृग्वंशजतद्गुणेन गुरुणा स्वार्थाय मुण्डीकृतम् । यद्विख्यातगुणान्वया अपि जना लग्नोग्रगच्छग्रहा, देवेभ्योऽधिकमर्च्चयन्ति महतो मोहस्य तज्जृम्भितम् ॥ १३ ॥ दुष्प्रापा गुरुकर्मसञ्चयवतां सद्धर्म्मबुद्धिर्नृणां, जातायामपि दुर्लभ: शुभगुरुः प्राप्तः स पुण्येन चेत् । कर्त्तुं न स्वहितं तथाप्यलममी गच्छस्थितिव्याहताः, कं hi ब्रूमः कमिहाश्रयेमहि कमाराध्येम किं कुर्महे ? ॥ १४ ॥ क्षुत्क्षामः किल कोऽपि रङ्कशिशुकः प्रव्रज्य चैत्ये क्वचित्, कृत्वा कञ्चन पक्षमक्षतकलि : ' प्राप्तस्तदाचार्यकम् । चित्रं चैत्यगृहे गृहीयति निजे गच्छे कुटुम्बीयति, स्वं शक्रीयति बालिशीयति बुधान् विश्वं वराकीयति ॥ १५ ॥ यैर्जातो न च वर्द्धितो न च न च क्रीतोऽधमर्णो न च, प्राग्दृष्टो न च बान्धवो न च न च प्रेयान्न च प्रीणितः । तैरे वात्यधमाधमै : कृतमुनिव्याजैर्बलाद्वाह्यते, नस्योऽतः पशुवज्जनोयमनिशं नीराजकं हा !! जगत् ॥ १६ ॥ किं दिङ्मोहमिताः किमन्धबधिराः किं योगचूर्णीकृताः, किं दैवोपहताः किमङ्ग ! ठगिता: किं वा ग्रहावेशिताः । कृत्वा मूर्ध्निपदं श्रुतस्य यदमी दृष्टोरुदोषा अपि, व्यावृत्तिं कुपथाज्जडा न दधतेऽसूयन्ति चैतत्कृते ॥ १७ ॥ इष्टावासि तुष्ट - विट-नट-भट- चेटक - पेटकाकुलं, निधुवनविधिनिबद्धदोह दनर नारीनिकर सङ्कुलम् । राग-द्वेष - मत्सरेर्ष्याघनमघपङ्के निमज्जनं, जनयत्येव मूढजनविहितमविधिना जैनमज्जनम् ॥ १८ ॥ १. 'अक्षितकलिः' इति साधुकीर्तिटीकायां । २. 'ठकिता' इति साधुकीर्ति - हर्षराजयो : टीकायां । ८९ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० सङ्घपट्टकः जिनमतविमुखविहितमहिताय न मजनमेव केवलं, किन्तु तपश्चरित्रदानाद्यपि जनयति न खलु शिवफलम् । अविधिविधिक्रमाज्जिनाज्ञापि ह्यशुभशुभाय जायते, किं पुनरिति विडम्बनैवाहित-हेतुर्न प्रतायते ॥ १९ ॥ जिनगृह-जैनबिम्बं जिनपूजन-जिनयात्रादिविधिकृतं, दान-तपोव्रतादि गुरुभक्ति श्रुतपठनादि चादृतम्। स्यादिह कुमत-कुगुरु-कुग्राह-कुबोध-कुदेशनांशतः, स्फुटमनभिमतकारि वरभोजनमिव विषलवनिवेशतः॥२०॥ आक्रष्टं मुग्धमीनान्बडिशपिशितवद्विम्बमादर्श्य जैनं, तन्नाम्ना रम्यरूपानपवरकमठान् स्वेष्टसिद्धयै विधाप्य। यात्रास्त्रामधुपायैर्नमसितक-निशाजागरादिच्छलैश्च, श्रद्धालु म जैनैश्छलित इव शठैर्वञ्च्यते हा !! जनोऽयम्॥ २१ ॥ सर्वत्रास्थगिताश्रवाः स्वविषयव्यासक्त सर्वेन्द्रियाः, वल्गद्गौरवचण्डदण्डतुरगाः पुष्यत्कषायोरगाः। सर्वाकृत्यकृतोऽपि कष्ट मधुनान्त्याश्चर्यराजाश्रिताः, स्थित्वा सन्मुनिमूर्द्धसूद्धतधियः तुष्यन्ति पुष्यन्ति च ॥ २२ ॥ सर्वारम्भपरिग्रहस्य गृहिणोप्येकाशनाद्येकदा, प्रत्याख्याय न रक्षतोरे हृदि भवेत्तीव्रोऽनुतापस्तदा । षट्कृत्वस्त्रिविधं त्रिधेत्यनुदिनं प्रोच्यापि भञ्जन्ति ये, तेषां तु क्व तपः क्व सत्यवचनं क्व ज्ञानिता क्व व्रतम् ।। २३ ।। देवार्थव्ययतो यथारुचिकृते सर्वर्तुरम्ये मठे, नित्यस्थाः शुचिपट्टतूलशयनाः सद्गब्दिकाद्यासनाः। सारम्भाः सपरिग्रहाः सविषयाः सेाः सकांक्षाः सदा, साधुव्याजविटा अहो!! सितपटाः कष्टं चरन्ति व्रतम् ॥ २४ ॥ १. 'प्रसार्यते' इति लक्ष्मीसेनटीकायां। २. 'रक्षितः' इति साधुकीर्तिटीकायां। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि इत्याधुद्धतसोपहासवचसः स्युः प्रेक्ष्य लोकाः स्थिति, श्रुत्वान्येऽभिमुखा अपि श्रुतपथाद्वैमुख्यमातन्वते । मिथ्योक्त्या सुदृशोऽपि बिभ्रति मनः सन्देहदोलाचलं, येषां ते ननु सर्वथाजिनपथप्रत्यर्थिनोऽमी ततः ॥ २५ ॥ सर्वैरुत्कटकालकूटपटलैः सर्वैरपुण्योच्चयैः, सर्वव्यालकुलै : समस्तविधुराधिव्याधिदुष्ट ग्रहै : । नूनं क्रूरमकारि मानसममुं दुर्मार्गमासेदुषां, दौरात्म्येन निजघुषा जिनपथं वाचैष सेत्यूचुषाम् ॥ २६ ॥ अत: दुर्भेदस्फुरदुग्रकुग्रहतमः स्तोमास्तधी -. चक्षुषां, सिद्धान्तद्विषतां निरन्तरमहामोहादहम्मानिनाम्। नष्टानां स्वयमन्यनाशनकृते बद्धोद्यमानां सदा, मिथ्याचारवतां वचांसि कुरुते कर्णे सकर्णः कथम् ॥ २७॥ यत् किञ्चिद्वितथं यदप्यनुचितं यल्लोकलोकोत्तरोत्तीर्णं यद्भवहे तुरेव भविनां यच्छास्त्रबाधाकरम् । तत्तद्धर्म इति ब्रुवन्ति कुधियो मूढास्तदर्हन्मतभ्रान्त्या लान्ति च हा !! दुरन्तदशमाश्चर्यस्य विस्फूर्जितम्॥ २८॥ कष्टं नष्ट दृशां नृणां यददृशां जात्यन्धवैदेशिक :, कान्तारे प्रदिशत्यभीप्सितपुराध्वानं किलोत्कन्धरः। एतत्कष्टतरं तु सोऽपि सुदृशः सन्मार्गगांस्तद्विदस्तद्वाक्याननुवर्तिनो हसति यत् सावज्ञमज्ञानि च ॥ २९॥ सैषा हुण्डावसर्पिण्यनुसमयहसद्भव्यभावानुभावा, त्रिंशश्चोग्रग्रहोऽयं खखनखमिति वर्षस्थितिभस्मराशिः। अन्त्यं चाश्चर्यमेतजिनमतहतये तत्समा दुःषमा चेत्येवं दुष्टेषु पुष्टेष्वनुकलमधुना दुर्लभो जैनमार्गः॥ ३० ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एर सङ्घपट्टकः सम्यग्मार्गपुषः प्रशान्तवपुषः प्रीतोल्लसच्चक्षुषः, श्रामण्यर्द्धिमुपेयुषः स्मयमुषः कन्दर्पकक्षप्लुषः। सिद्धान्ताध्वनि तस्थुषः शमयुषः सत्पूज्यतां जग्मुषः, सत्साधून् विदुषः खलाः कृतदुषः क्षाम्यन्ति-नोद्यद्रुषः॥ ३१ ॥ देवीयत्युरुदोषिणः क्षतमहादोषानदेवीयति, सर्वज्ञीयति मूर्खमुख्यनिवहं तत्त्वज्ञमज्ञीयति। उन्मार्गीयति । जैनमार्गमपथं सम्यग्पथीयत्यहो!, मिथ्यात्वग्रहिलो जनः स्वमगुणाग्रण्यं कृतार्थीयति ॥ ३२ ॥ सङ्घत्राकृतचैत्यकूटपतितस्यान्तस्तरां ताम्यतस्तन्मुद्रादृढपाशबन्धनवतः शक्तस्य न स्पंदितुम्। मुक्त्यै . कल्पितदानशीलतपसोप्येतत्क्रमस्थायिनः, सङ्घव्याघ्रवशस्य जन्तुहरिणवातस्य मोक्षः कुतः॥ ३३ ।। इत्थं मिथ्या पथकथनया तथ्ययापीह कश्चिद्, मेदं ज्ञासीदनुचितमथो मा कुपत् कोऽपि यस्मात् । जैनभ्रान्त्या कुपथपतितान् प्रेक्ष्य नृस्तत्प्रमोहापोहायेदं किमपि कृपया कल्पितं जल्पितं च ॥ ३४॥ प्रोद्भूतेऽनन्तकालात् कलिमलनिलये नामनेपथ्यतोऽर्हन्मार्गभ्रान्तिं दधानेऽथ च तदभिमरे तत्त्वतोऽस्मिन्दुरध्वे । कारुण्याद् यः कुबोधं नृषु निरसिसिषुर्दोषसङ्ख्यां विवक्षेदम्भोम्भोधेः प्रमित्सेत् सकलगगनोल्लङ्घनं वा विधित्सेत् ।। ३५ ।। न सावधाम्नाया न बकुशकुशीलोचितयतिक्रियामुक्ता युक्ता न मदममताजीवनभयैः । न संक्लेशावेशा न कदभिनिवेशा न कपटप्रिया ये तेऽद्यापि स्युरिह यतयः सूत्ररतयः॥ ३६ ॥ १. 'शमजुषः' इति लक्ष्मीसेन-हर्षराज-टीकायां अ० प्रतावपि। २. 'चा' इति हर्षराजटीकायां । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि संविग्नाः सोपदेशाः श्रुतनिकर्षाविदः क्षेत्रकालाद्यपेक्षानुष्ठानाः शुद्धमार्गप्रकटनपटवः प्रास्तमिथ्याप्रवादाः । बन्धाः सत्साधवोऽस्मिन्नियम-शम- दमौचित्य-गाम्भीर्य-धैर्यस्थैर्योदार्यार्यचर्या विनय-नय- दया- दाक्ष्य - दाक्षिण्यपुण्याः ॥ ३७ ॥ बिभ्राजिष्णुम गर्वमस्मरमनाशादे श्रुतोलँङ्घने, सज्ज्ञार्नद्युमणिं जिनं वरवपुः श्रीचैन्द्रिकाभैश्वरम् । वन्दे वैर्ण्यमनेकधाऽसुरनरै: शक्रेण चैर्नच्छिदं, दम्भारिं विदुषां सदा सुवचसानेकान्तरङ्गप्रदम् ॥ ३८॥* जिनपतिमतदुर्गे कालतः साधुवेषैविषयिभिरभिभूते भस्मकम्लेच्छसैन्यैः । स्ववशजडजनानां शृङ्खलेव स्वगच्छस्थितिरियमधुना तैरप्रथि स्वार्थसिद्ध्यै ॥ ३९॥ सम्प्रत्यप्रतिमे कुसङ्घवपुषि प्रोज्जृम्भिते भस्मकम्लेच्छातुच्छबले दुरन्तदशमाश्चर्ये च विस्फूर्जति । प्रौढिं जग्मुषि मोहराजकटके लोकैस्तदाज्ञापरैरेकीभूय सदागमस्य कथयापीत्थं कदर्थ्यामहे ॥ ४० ॥ इति श्रीसङ्घपटकः १. ' अनासादं' इति ल० टी० अ० । * चक्रबन्धमिदं काव्य 'जिनवल्लभगणिनेदं चक्रे ' - इति सूचितम् । ९३ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. शृङ्गारशतकाव्यम् स्वयम्भुवो' वृषाऽहीनराजहंससमाश्रिताः । शिवश्रीकान्तधातारो, जयन्ति जगदीश्वराः ॥ १॥ यन्नामस्मरणादपि श्रुतिसुधासारानुकारा नृणां, सर्पन्ति प्रविवादिकोविदमदक्षोदक्षमः सूक्तयः। तां वन्दे बुधवृन्दवन्धचरणां वाग्देवतामुद्धत ध्याऽऽन्ध्यं ध्वंसकरी स्थितां हृदि शरच्चन्द्रोज्ज्वलाङ्गश्रियम् ॥ २ ॥ सुललितपदा: सालङ्कारा विदग्धमनोहराः, . स्फुटरसघनश्लेषाश्छन्दानुवर्तनतत्पराः। प्रकृतिमधुराः शय्यां प्राप्ताः प्रसन्नतया स्वयं, कविजनगिरः कान्ताः कान्ता जयन्ति गुणोज्ज्वलाः॥ ३॥ सन्तोऽसदपि कुर्वन्ति, भूषणं दूषणं परे। एकान्ततस्ततश्चेह, कुतस्त्यस्तत्त्वनिश्चयः॥ ४॥ लक्ष्मीमुक्तोऽपि देवादुदितविपदपि स्पष्टदृष्टाऽन्यदोषो प्यज्ञावज्ञाहतोऽपि क्षयभृदपि खलालीकवाक्याकुलोऽपि। नैव त्यक्त्वाऽऽर्यचर्यां कथमपि सहजां सज्जनोऽसज्जनः स्यात्, किं कुम्भः सातकौम्भः क्वचिदपि भवति त्रापुषो जातुषो वा ॥५॥ नास्ते मालिन्यभीतेरखिलगुणगणः सन्निधानेऽपि येषां, येषां सन्तोषपोषः सततमपि सतां दूषणोद्घोषणेन। १. गुरुशिष्योपदेशरहितः २. पुण्यपूर्णप्रधाननृपैः सेविताः, वृषभशेषमरालासीनाः निर्मलचारित्रधारिणः, ३. रुद्रविष्णुब्रह्माणः ४. जिनेन्द्राः, जगन्नाथाः, ५. अविद्यमानपि कुत्रचिद् दृश्यमानं दूषणं भूषणं कुर्वन्ति, अन्यथा तत्त्वनिश्चयः कथंकारं स्यादिति योजना। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २५ तेषामाशीविषाणामिव सकलजगन्निर्निमित्ताऽहितानां, कर्णे कर्णेजपानां विषमिव वचनं कः सकर्णः करोति ॥ ६ ॥ कोऽयं दर्पकरूपदर्पदलनः कः पुण्यपण्यापणः, - कस्त्रैलोक्यमलङ्करोति कतमः सौभाग्यलक्ष्म्यावृतः। सोत्कण्ठं तव कण्ठकाण्डकुहरे कुण्ठः परं पञ्चमो, मुग्धे! यस्य कृते करे च विलुठत्यापाण्डुगण्डस्थलम्॥७॥ सद्यः स्विद्यति यन्मुखं पुलकि यन्कान्तं कपोलस्थलं, ___यच्च न्यञ्चति चक्षुरर्द्धमुकुलं यत्कम्पसम्पत्परा। स्तम्भारम्भि यदङ्गमङ्गणतटी दृष्टेऽपि कान्ते सखि, प्रौढ़ालिङ्गनभङ्गिसङ्गिनि न तज्जानामि यद्भावितः॥ ८॥ वैदग्ध्यबन्धुरमनुद्धरमुग्धदुग्ध-स्निग्धच्छटाभिरभिषिञ्चदिवाङ्गमङ्गम्। तत्तद्विलोकितमनाकुलमायताक्ष्याः, शृङ्गारसारसुभगं सततं स्मरामि ॥९॥ - स्मेरस्फारविवृत्ततारनयनं त्रस्यत्कुरङ्गीक्षणा, ... ___मामैक्षिष्ट निविष्टविष्टपशिरःसौभाग्यभाग्यश्रि यत्। यच्चावोचत विस्मयस्मितसुधाधाराम्बुधौताऽधरं," ___ तत् किं क्वापि ममापि कोपि कथमप्यन्योऽपि विस्मारयेत्॥१०॥ वर्णः कीर्णसुवर्णचूर्णमहिमा देहस्य हास्यावहं, पूर्णेन्दोरमलास्यमस्यति रतिं चेतो भुवोऽपि स्मितम्। सुभ्रूविभ्रमविभ्रमत्रिजगतस्तस्या रसस्रोतसो, बालेन्दीवरदामसुन्दरदृशः किं किं न लोकोत्तरम् ॥ ११ ॥ पीनोन्नतस्तनतटे तव भात्यखण्ड-खण्डाभ्रकं विकटकूटमिदं मृगाक्षि!। प्राकारमण्डलमिव त्रिजगजिगीषु-पञ्चेषुणा रचितमुच्चगिरीन्द्रदुर्गे ॥ १२ ॥ मानिन्याः कुटिलोत्कटभ्रु सहसा संदष्टदन्तच्छदा, स्वेदातङ्कभयेन मोचनकृते हुङ्कारगर्भं मुखम् । कामं केलिकलौ दृढाङ्गघटनानिष्पेषपीडोत्त्रस त्तिर्यग्मानकृतार्त्तनादवदिव प्रीणाति यूनां मनः॥ १३ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृङ्गारशतकाव्यम् सव्याजवक्रितमनोहरकण्ठकाण्डं, स्थित्वा सखीजनसमक्षमलक्ष्यवृत्त्या। उल्लासितैकतरलभ्र सरोरुहाक्ष्या, क्षिप्तः सुधाधवलमाविजयी कटाक्षः॥ १४ ॥ कम्रोन्नम्रास्यपद्मा व्यवहितवपुरासन्नरथ्याचरं मां, द्रष्टं साकूतकौतूहलतरलचलल्लोचनोदञ्चितभूः। भूयो भूयः प्रकम्पाभरणरणझणत्कारिणीयं गवाक्षं, चक्रे कं कं न राकारजनिकरयुतोन्नालनीलाम्बुजं सा॥ १५ ॥ यन्मिथ्या हसति क्षणं क्षणमथोदोक्षणं रोदिति, स्वैरं क्रोशति यत् क्षणं प्रलपति व्यर्थं क्षणं गायति। यच्चास्ते क्षणमुत्थिता क्षणमथो शेते क्षणं चास्थिरा, तद् वातूलतुलां भवानदय हे बालां बलानीतवान् ॥ १६ ॥ पीतं पीतमथो सितं सितमिति प्रागन्ववादीद्वचो, यो मे शिष्य इवाऽथवा शुक इव प्रेमप्रसन्नः प्रियः। सख्यः, सोऽन्य इव क्षणक्षयितया स्नेहस्य यन्मय्यभू त्तयुक्तं कतमोऽयमत्र तु विधिः सैवेत्थमस्मीह यत् ॥ १७॥ विनीतः कान्तो मे प्रियसहचरी वक्ति च शठं, भृशं रम्यो मानः स्फुटचटुहठालिङ्गनघनः। निकामं कामोऽपि प्रहरति तदित्थं किमिह मे, विधेयं चिन्तेयं भ्रमयति मनो मोहयति च॥ १८॥ वाचो वैदग्ध्यदिग्धाः स्मितशुचिवदनं 'साचिसञ्चारिचक्षुः, सुन्यस्तः केशहस्तोऽलिकमलकचितो बन्धुरो नीविबन्धः । चेतः कान्तैकतानं वपुरतिमधुरं भूलतोल्लासिलास्याः, तस्या बाल्येऽतियाति स्मरगुरुरचितः कोऽपि कान्तः क्रमोऽयम्॥१९ ।। लीलाविलोलनयनोत्पलमङ्गभङ्ग-संसङ्गसुन्दरमनङ्गतरङ्गिताङ्गम्। मद् वीक्षणे क्षणमभूद्वत चञ्चदुच्च-रोमाञ्चकञ्चुकचितं स्थितमानताड्याः॥ २० ॥ १. तिर्यग्वर्ति Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि अमन्दानन्दं तद्वदनमनिशं वेद्मि मनसा, दृशा पश्याम्याशादश विशदयत्तद्वपुरहम्। सदा तन्निर्वृत्तं जगदखिलमीक्षे च यदतो, वियोगः संयोगाद् वरमिव हि मन्ये मृगदृशः॥ २१ ॥ सखि! गतिरियं किं ते जाता श्रमादिव मन्थरा, मधुमदवती चेयं किं वा स्मिता मुकुला च दृक् । भयमयमिव स्वेदस्तम्भि प्रकम्पि च किं वपु नयनमधुराऽकस्मात् कस्माद्दशाऽभवदीदृशी ॥ २२ ।। निश्वासा करकेलिपङ्कजदलोल्लासा यदेते चला, यच्चैष स्फुरति प्रकम्पितजपापुष्पप्रकाशोऽधरः। यच्च स्वेदि ललाटमङ्गमलसं विभ्रान्तमक्षिभ्रुवं, तन्नूनं सखि ! ते स्मरग्रहमहापस्मारजं वैकृतम् ।। २३ ।। शल्यत्यद्यापि तन्मे मनसि गुरुपुरो यत्तदा पक्ष्मलाक्ष्या, मां लक्षीकृत्य मुक्तो झगिति निविडितव्रीडमाकेकराक्ष्या। चञ्चत्पञ्चेषुनाराचरुचिरभिवलद् ग्रीवया पक्ष्मलेखा पुङ्खः कर्णावतंसाम्बुरुहमिलदलिश्रेणिकान्तः कटाक्षः॥ २४॥ कान्तिभ्रमोन्नमितवेल्लितबाहुवल्लि-संदर्शितोन्नतघनस्तनबाहुमूला। यन्मां मदालसमुदैवत साङ्गभङ्ग-मङ्गारवद्दहति तद्धृशमम्बुजाक्षी ॥ २५ ॥ दृश्योल्लासिशर्शप्लुतोद्गतपदं सोल्लेखरेखस्फुटो द्भाव्यव्याघ्रनखाङ्कमङ्कविकसल्लावण्यवारां पदम्। तनिर्व्यक्तवराहचर्चितदलत्पत्राङ्करं सोष्म ते, ___ पुष्णात्येव घनस्तनस्थलमिदं तृष्णां न मुष्णाति नः॥ २६ ॥ हे सौभाग्यनिकेत ! कोपकणिकाकूतेने बालोऽचल त्वां धूत्वापि यदैव दैवहतिका मुक्ता त्वयेव क्रुधा। २. अल्पक्रोधाभिप्रायेण १. बन्धविशेषः ३. अज्ञा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृङ्गारशतकाव्यम् तत्कालावधि सा मनस्तृणकुटीलग्नस्मराग्निर्निशां, बाष्पव्याकुलकण्ठनालमनयत् कृत्स्नां रुदत्यैव ताम्॥ २७॥ दासस्तेऽस्मि परिश्रुताश्रुसलिलं सुश्रोणि ! किं रुद्यते, गोत्राग:कृर्तिजल्पतीति दयिते बाला विहस्यावदत् । नाहं रोदिमि मन्मुखेक्षणरुचे यन्नामगृह्णास्यदः, सैवं मेऽक्षिगता प्रिया तव शठ! त्वदर्शनात् खिद्यति ॥ २८ ॥ मनसि निहितं ध्यानैकाग्रयं हताः सकलाः क्रियाः, वचसि कृतमक्षुण्णं मौनं तनुस्तनुतां गता। अपि कुचतटी मालामुक्ता वराक्षिनिरञ्जनं', तदपि समभून्नास्या योगो वियोगविधिः परम् ॥ २९ ॥ सद्य:स्वेदपयःप्लवप्लुतवपुः सम्पृक्तकूर्पासकार, तत्कालप्रबलोच्छलद्रतिबलैस्तिम्यन्नितम्बाम्बरा । दुर्दृष्टे त्वमदृष्ट एव हि वरं येनेयमस्मत्सखी, प्राप्ताऽऽकस्मिकसाध्वसाऽऽकुलतनुर्दुस्थामवस्थामिमाम्॥३०॥ उद्भूतविभ्रम[मनोज्ञ] विजृम्भिकाऽपि, लीलानिमीलनयनाप्यविदूरतोऽपि। सा पुण्डरीकवदना मदनावरुग्ण-मस्मन्मनोहरिणमङ्कगतं चकार ॥ ३१॥ आस्यं दास्यदशातिदेशि शशिनः कातर्यचर्याङ्कित स्फाराऽक्षेक्षणकल्पदत्तहरिणस्त्रीवीक्षणं वीक्षणम्। भ्रूविभ्रान्तिरनङ्गचापलतिकालीलाकृताचार्यका, किं वा खर्वितसर्वगर्वविभवं नाऽस्या मनोज्ञाकृतेः॥ ३२ ॥ सत्यं सख्यविकल्पदृक्षणिकधीर्नष्टायकः सौगतः, प्रामाण्येन न यो ब्रवीत्यवितथज्ञाने विकल्पस्मृती। यस्मादस्मि विकल्पतल्पशयितं प्रेयांसमङ्गस्पृशं, स्मृत्वा केलिकलां च तां रतिफलं विन्दामि निन्दामि च ॥३३॥ १. सपत्नीनामग्रहणापराधिनि २. अत्र वराक्षि इति पदं कर्मधारयसमस्तं बोध्यम् ३. तत्कालप्रस्वेदजलप्रवाहस्नाताङ्गलग्नकञ्चका . ४. गतपुण्यः Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि यस्य स्वप्नसमागमेऽपि समभूत्सा काऽप्यवस्था मनो, यत्रानन्दनदावगाहि तु सुधा सारोक्षितं नुरे क्षणात् । आसीत् सोऽपि जनो ह हा !! विधिवशात् तस्यापि मे चेतसो, दृष्टोऽप्यन्यजनायते झगिति तद् धिक् प्रेम निःस्थेम' यत् ।। ३४ ।। यदेतत् तन्वड्या नयननलिनाढ्यं मुखसरस्तरत्यत्रं [?] नीलाऽलकविपुलसेवालपटलम्। लसल्लावण्याम्भः प्रसरमरमुत्तापहतये [?], स्मरज्ज्वालाजालग्लपितवपुषामेष विषयः ॥ ३५ ॥ मृद्वङ्गीति तनूदरीति विलसल्लावण्यवापीति वा, बिम्बोष्ठीति पृथुस्तनीति सुमुखीत्याऽऽवर्त्तनाभीति च। शृङ्गारोरुतरङ्गिणीति हृदयस्मेराम्बुजाक्षीति च, स्मारं स्मारमरे ! स्मरज्वरभरभ्रान्तं किमुत्ताम्यसि ॥ ३६॥ स्त्रीपुंसाः सखि तावदत्र दधतस्तास्ता दशा रागिणोः, ___ प्रेमप्रेमवियोगयोगजनितं दुःखं सुखं वाप्नुयुः। पुंस्त्वं स्त्रीत्वमृतेऽपि यत्तु हृदयं विद्राति निद्राति मे, नाऽक्षि ग्लायति चाङ्गमेतदुचितं नैषां प्रिये प्रोषिते ॥ ३७॥ दुर्लक्ष्योऽस्या विकारो वपुषि वरतनोः कोऽपि वैद्याऽचिकित्स्यो, यन्नाऽपस्मारहेतोर्व्यथयति विरहे केवलं किन्त्वकस्मात् । दृष्टेऽपीष्टेऽमृताम्भः प्लवमुचि निविडस्तम्भसंरम्भदुस्था, सद्यः स्वेदाम्बुधौताङ्ग्यपि मुकुलितदृग्मूर्च्छया छाद्यते स्म॥३८॥ बाला बालिशदेश्य पश्चिमकलाशेषेन्दुलेखेव ते, भूयो दर्शनकांक्षया जिगमिषु जीवं बलाद् रुन्धती। वारं वारमरालपक्षविगलद् बाष्पप्रवाहाऽऽविलं, चक्षुर्दिक्षु ससर्ज गर्जति घने सा लोललम्बालका॥ ३९ ॥ १. चार्थे ३. अस्थैर्य २. वितर्कार्थे ४. एतदौषधम् Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० शृङ्गारशतकाव्यम् तिर्यग्वर्तितनर्त्तितालसलसत्तारे चले चाक्षिणी, लीलाबन्धुरमुद्धरं च गमनं भ्रान्ते स्थिरे च भ्रुवौ। तन्वड्याः स्मितदुग्धदिग्धमुदयद् वैदग्ध्यमुग्धं वचः, प्रीत्यै कस्य न वाऽभ्रविभ्रममहो स्निग्ध्यं विमोग्ध्यं वयः॥ ४० ।। आबद्धस्तनबिम्बबन्धुरमुरोऽमुष्या मनोजन्मने, दत्तद्वारसुवर्णपूर्णकलशावासश्रियं पुष्यति। , यूनां विस्मयविस्मृतान्यविषयं यस्मान्मुहुः पश्यतां, चक्षुर्दीधितितालिका विघटिते वा याति चित्ते रतिः॥ ४१ ॥ सा कुम्भसन्निभकुचा स्फुरदूरुदण्ड-सुण्डातिमन्थरगतिर्मदघूर्णिताक्षी। यन्मानसं रतिमतिस्मृतिपद्मिनीभिः, साकं करेणुरिव सोत्कलिकं ममन्थ ॥४२ ।। चक्षुःक्षिप्तवलक्षपक्ष्मलचलच्चक्षुःकटाक्षच्छटाः, सा बाला सविलासमस्यति सुधाधारानुकाराः स्म यत्। हुं तत्कामिकुरङ्गबन्धविधये शृङ्गारलीलागुण प्रेमग्रन्थिघनामनङ्गमृगयुः प्रासीसर वागुराम् ॥ ४३ ।। स्फाराक्ष्युत्क्षिप्तपक्ष्मोद्घटितपुटपिधानोरुशृङ्गारपाथो, भृङ्गारद्वन्द्वभासा स्नपयदनभितो मां यदक्षिद्वयेन। मुक्ताचूर्णैर्नु चन्द्रद्युतिभिरुत सुधासारधाराभिराहो, मुग्धा दुग्धाब्धिनीरैस्तदभृतककुभः किं नु कर्पूरपूरैः॥ ४४ ॥ स्निग्धं मुग्धमपाङ्ग सङ्गि मुकुलं चक्षुः किमाकेकरं, किञ्चोत्क्षिप्तनिकुञ्चितान्तचतुरा भ्रूवल्लिरुल्लासिनी। स्वस्थानस्थमपीदमंशुकमरं किं रच्यतेऽथोल्लस ल्लीलांदोलितदोर्लतं गतमभूत् कस्मादकस्मात् सखि!॥ ४५ ॥ सा ते चित्तगता स्वभावचपला ब्रूते स्वनामेति त न्मा गोत्रस्खलनेन ते सुभगभूद्वैलक्षलक्षं मनः। १. चित्तं, पक्षे सरः ४. चिक्षेप ५. व्याधः २. हस्तिनीव ६. प्रसारयामास. ३. सोत्कण्ठं ७. गमनं Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १०१ इत्युक्त्वा धृतमन्नुतन्तुरचितस्थूलाश्रुमुक्तावलि विस्रस्तभ्र सबाष्पगद्गदगलं बाला परं रोदिति ॥ ४६ ।। यत्कान्तेऽवनतेप्यहं स्मरगुरुद्दिष्टं सखी प्रार्थितं, - कोपान्नाकरवं तदेतदुदितं पापं स्फुटं यत्नतः। कर्पूरोऽग्निकणायते मृगमदश्रीः कालकूटायते, शीतांशुर्दहनायते कुवलयस्रक् कालपाशायते ॥ ४७ ॥ स्वच्छोच्छलद्विपुलकान्तिजलान्तराल-रङ्गद्वलित्रयतरङ्गवती विभाति। तन्व्यास्तनु स्मरविलासनदीव यत्र, रोमावली ललति शैवलवल्लरीव ॥४८॥ चञ्चद्भिश्चन्द्ररोचिः शवलितविततध्वान्तलेखायमानै मुक्तायुक्तात्मवेणीरुचिभिरभिचलत्तारसारैः कटाक्षैः। यदृष्टः कान्तयान्तर्ग्रथित विचिकिलेन्दीवरस्रक्समैस्त गङ्गासङ्गापुत्री लुलितजलचलद्वीचिभिः स्नापितोऽहम्॥४९॥ भ्रमभ्रमरविभ्रमोद्भटकटाक्षलक्षाङ्किता, दृशामसदृशोत्सवाश्चतुरकुञ्चितभ्रूलताः। स्फुरत्तरुणिमद्रुमोल्लसदनल्पपुष्पश्रियो, हरन्ति हरिणीदृशां किमपि हन्त ! हेलोदयाः॥५०॥ तामद्याप्यहमर्ककर्कशदशासम्भूतंशोकाष्टदिक् कान्तामुत्कलकान्तकुन्तलतुले जाते त्रियामामुखे। ध्यानानीतमुखेन्दुनेव दलितस्फीतान्धकारः पुरः, पश्यामि स्फुटमष्टमीयशशभृद्बिम्बालिकां बालिकाम् ॥ ५१॥ यत्तद् विलोकयतु यातु यथा कथञ्चिद्यत्किञ्चिदाचरतु यत्र यथा तथा साम्। प्रेयान् जनो य इह यस्य स तस्य दृष्टौ, दृष्टो दधाति सहसाऽमृतवृष्टिसृष्टिम्॥ ५२॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦૨ शृङ्गारशतकाव्यम् विलासलसदंशुकव्यतिकराङ्गसङ्गोपनक्रमोन्नमितदोलताविशद्बाहुमूलस्तनम्। विलोलचलनाङ्गलीलिखितभूतलं सुभ्रवः, स्मरामि तरलेक्षणं तदवहित्थदुस्थं स्थितम्॥५३॥ किञ्चित्त्र्यस्तैकपार्श्वस्तनतटघटनादुत्रुटत्कञ्चकाङ्गी, मां दृष्ट्वा स्पष्टमोट्टायिततरलचलत्तर्जनीकं व्यधात् या। तामीक्षेऽद्यापि हेलाबलललितवलत्कण्ठमामीलिताक्षं, लोलबोर्नाललीलाचलनकलकणत्कङ्कणं कर्णकण्डूम्॥ ५४॥ प्राक्कोपादवधूय भूयसि परिम्लानेऽपमाने कृत स्वप्नायाश्चरणस्पृशं धृतसखीवेषं प्रिया[ ! प्रियं]जानती। पादौ मे सनि मृगती प्रियकरस्पर्शभ्रमव्याकुलां, मा मा कुर्वति मामुदीर्य सहसा शय्यां समारोपयत् ॥ ५५ ॥ 'स्थाने सख्यः परिचयवति प्राड्नमः प्राणनाथे, लज्जामज्जत्युदयति रतिः स्रंसते नीविबन्धः। नैवेदानीमदयहृदये प्रोषिते तत्र युक्तो, नामोच्चारादपि हततनो सात्विकारम्भदम्भः ।। ५६॥ मुक्ता मुक्तावलिरचनया सुभ्र! किं तेऽलकाली, किञ्चित् श्लिष्यत्कुसुमविसरः केशहस्तो विहस्तः। किं वा यूनां स्मरतिमिरिणां नाद्य साङ्कद्विचन्द्र भ्रान्तिं धत्ते मृगमदरसोच्चित्रपत्रौ कपोलौ॥ ५७॥ चेतः सन्निहिताऽपि सा प्रतिपदाहूतापि यत्नोत्तरं, दत्ते मेतदुदीक्ष्य मां प्रकुपिता साऽसूयमुक्त्वेति माम्। लोलत्पाटलचक्षुरुद्भटभवद्भूभङ्गभीमा रुषा, मानिन्याऽऽकुलकुन्तला हठकराकृष्टं पदाऽताडयत् ।। ५८॥ १. आकारगोपनविषमम् २. युक्तम् Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १०३ अस्याः सद्यो मदनसरितश्चन्द्रकान्तप्रभायाः, सारङ्गाक्ष्याः सपदि भवति स्वेदगर्भाङ्गयष्टिः। किं वा बन्धात् कुसुममिव सम्फुल्लसेफालिकायाः, नीवीग्रन्थिः स्खलितदयिताऽऽस्येन्दुसन्दर्शनेन ॥५९ ॥ सा चेद् वक्त्रेण चञ्चन्मृगमदरचितोच्चित्रपत्रेण रम्भा, स्तम्भोरू रूपरेखाविजितमनसिजप्रेयसी प्रेयसी नः। न्यच्चक्रे' तजिगीषु सकलमपि यदा त्वां तदा लक्ष्यलक्ष्मन्, कस्मादस्मानकस्मात् स्मरपरमसुख!' श्वेतगो!६ हंसिपादैः।। ६० । यत्सत्यं सुभग ! स्वजीवितविभोः तस्याः सदैवाऽऽदरा दुत्कण्ठाभरनिर्भरे हृदि कृतावासोऽसि तेनाऽधुना। मामप्युत्कयसि प्रियत्वमथवा किं पाटलासङ्गमात्, सौगन्ध्यं पयसः कपालशकलं नाधातुमस्मिन्नलम्॥ ६१॥ गुरुः स्तम्भारम्भः कुचमुकुलयोराऽऽहितसखी ___ मनः कम्पः कम्पः श्वसितमधिकं चक्षुरभसम्। अविच्छेदः स्वेदः पृथुदवथु शून्यं च हृदहो!, न जानीमः तस्याः क इव हि चिकारव्यतिकरः॥ ६२ ।। कान्तं १°मानसमक्षिपुष्करवरं शोणोऽधरः१२ कुन्तलाः, कालिन्दीरुचिराः१३ कपोलफलकश्रीश्चन्द्रभागाऽधिका। सूते शर्म सरस्वती१५ मुखनदी१६ नाभिः क्रिया नर्मदा, तापक्लान्तिनुदे मुदे च सुतनु! त्वं पुण्यतीर्थाश्रिता ॥६३॥ इन्दोर्नाम मुधा सुधाकर इति व्यक्तं यदेकं प्रियं, कामं नाम हराक्षिवह्निकणिकोत्तापान्न पातुं क्षमः। १. पराबभूव २. वदनजेतुकामं ५५. हे चन्द्र ६. पार्वण ९. बहुलसन्तापं १०. चित्तं १३. दीप्तिदा १४. नदीविशेषः ३. दृश्यकलङ्क ४. हेतोः ७. मारयसि - ८. उत्कण्ठयसि ११. पानीय श्रेष्ठं १२. नदः १५. वाणी १६. प्रमुखसरिद् गङ्गा। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ शृङ्गारशतकाव्यम् यत्सत्यं तु सुधामयीह तरुणि त्वं यादृशाऽपि क्षणं, पश्यन्ती विरहाग्निदग्धवपुषां पुष्णासि कामान् बहून्। ६४॥ साकं बाष्पकणाः पतन्ति वलयैः सार्धं शुचा वर्द्धते, सन्तापः सह निद्रया तनुलताऽत्यर्थंगता तानवम्। तस्यास्त्वविरहादहानि दधति श्वासैः समं दीर्घतां, सत्रा निस्त्रप सम्मदेन गलिता लीलाविलासोदयाः॥६५॥ परिहर गृहमेतत् मुञ्च वा गोचरं मे, त्यज नगरमिदं वा गच्छ देशान्तरं वा। अयि! दयित विजाने कौशलं ते यदीतः, पदमपि चलसि त्वं हृत्कुटीकोटरान् मे ॥ ६६ ॥ मुञ्चत्युच्चकुचप्रकम्पविधुराऽऽहारं च हारं च सा, धत्ते कण्ठगतानसूंस्त्वदभिधामन्त्रं च बाष्पाकुला। म्लायद्बालमृणालकोमलतनुस्तन्वीति दधे दशां, त्वं निस्त्रिंश! किमुच्यसे स्मरशिखिज्वालानभिज्ञोऽसि रे!॥ ६७॥ सास्त्रं वामभुजेन तोरणतटीमालम्ब्यमार्गे क्षणो त्क्षिप्तैकभ्रकपाटपट्टमपरेणोद्वन्तवक्त्रं स्थिताम्। चिन्तोत्तानविषण्णशून्यहृदयां द्रागेष धन्यः प्रिया मुद्गच्छत् पुलकावलुप्ततनुतां सर्वाङ्गमालिङ्गति ॥ ६८॥ सं..................."वा मृगदृशः..............."दं, स्नानात्युन्नत...... ............. पालिपुलिनासीनस्त............." ....... वियोगजनवं, प्राप्नोति मुक्तक्रियः॥ ६९ ।। ........."हिमानी परिपतन गंगाम्भोजवित्थायवक्त्रा "लमन्तःशुक्तमिश्रामुकुलितकमलाक्षी मृगाक्षी निरीक्ष्य। तच्चेतोऽनन्यवृत्त्या....."टुकसुचास्यानिसृष्टार्थदूत्या, सध्रीच्याऽवाच्यं त्वयि तददययन्नास्मि शक्तोऽपि वक्तुम्॥७० ॥ ....." Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १०५ यच्चित्रोत्पलपत्रकं त्रिकतटं यद् बिन्दुमालाऽलके, - यद् विस्पष्टशशप्लुतं स्तनयुगं यद् बिन्दुहृद् योऽधरः। सद्यो गण्डतलं प्रवालमणिवद् यत्ते स्वयं दूति तद्, दातुं सम्प्रति सर्वथाऽहितरते युक्तोऽर्द्धचन्द्रो गले ॥ ७१॥ चिन्तासन्तानदृष्टं पुर इव शयने त्वामुपालम्भयन्ती, त्वद्गोत्राऽद्वैतबुद्ध्या सकलपरिजनं नाम ते लम्भयन्ती। अन्तः सन्तापसारां स्तनभुवमनिशं सिञ्चती नेत्रनीरै द्र्छासञ्छन्नसंज्ञा विकरुण करुणां तां दशां सा पिधते ॥ ७२ ।। दृष्ट्वा कामनिकामकेलिकलितानुत्तुङ्गसौधावलीतल्पाऽनल्पविकल्पकल्पितरतारम्भान् पुरः कामिनः । प्राचीषद्गलिते तमोमुखपटे वैकृत्यकृत्येक्षणाद्, उद्यच्चन्द्रमुखीव रश्मिभिरभिस्पष्टाट्टहासाऽभवत् ।। ७३ ।। इन्दोरुद्यदखण्डमण्डलमदः प्राच्या वधूट्या स्फुटं, वक्त्रं कुङ्कमपङ्किलं किल निशारम्भे क्षयोदञ्चितम् । यस्मादत्र विशालभालफलकां तां स्तोककस्तूरिका विन्यस्तस्तबकाकृतिं विरचयत्यन्तः कलङ्कोऽपि च ॥७४ ॥ चञ्चन्ति चन्द्रकिरणाः किल केरलस्त्री-हासश्रियां च मुरुलीदशनद्युतां च। कीराङ्गनामलकपोलतलत्विषां च, लाटीललाटतटरुच्यरुचां च चौराः ।। ७५ ।। वेषः किं विषति क्षणान् मलयजालेपः किमङ्गारति, स्रक्पौष्पी किमु कालपाशति पुरं किं जीर्णकान्तारति। कारागारति तेऽद्य किं रतिगृहं किं भूषणं भारति, त्रैलोक्यं च सखे ! ज्वलज्ज्वलनति द्रागेव किं सर्वतः॥७६॥ उद्भूतोद्दामकामक्रमकलितसलीलाङ्गभङ्गप्रसङ्ग प्रोटेलबाहुपाशोच्छसितकुचतटोदस्तवस्त्रान्तकान्तं । व्यक्तिभूताङ्गभागोल्लसदलसमनोहारिलावण्यलक्ष्मी लुभ्यल्लोलाक्षलोकोत्करतरलचलन्नेत्रनीराजितानाम् ॥ ७७ ।। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ शङ्कातङ्कविवर्जितं रतिपतेरावासवेश्माऽसमं, चिन्तातीतविचित्रवागविषयस्पष्टस्मराचार्यकम् । सर्वस्याश्च विदग्धहृत्प्रिय चतुःषष्ठे प्रकर्षं गतं, प्राप्यं पुण्यपरम्परापरिगतैः पण्यङ्गनानां रतम् ॥ ७८ ॥ युग्मम् मुग्धे ! दुग्धैरिवाऽऽशा रचयति तरला ते कटाक्षच्छटाली, दन्तज्योत्स्नापि विश्वं विशदयति वियन् मण्डलं विस्फुरन्ती । उत्फुल्लद्गण्डपाली विपुलपरिलसत् पाण्डिमाडम्बरेण, क्षिसेन्दो कान्तमद्धाऽभिसर सरभसं किं तवेन्दूदयेन ॥ ७९ ॥ संरम्भोद्भ्रमितभ्रुवा रणरणत् काञ्च्या कचाऽऽकर्षणात्, क्षिप्त्वाऽधः प्रियया रहस्यतिदृढं बध्वा च हारस्रजा । कोपाकम्पबलस्खलनूमृदुपदं यातासि तस्या गृहानित्युक्त्वा चरणेन निर्दयमयं कश्चित् कृती ताड्यते ॥ ८० ॥ अयि ! तरुणि मयि भ्रूविभ्रमाद शोभभ्रुकुटिलतलभालभ्राजि कोपक्रमेषु । तव वचनकरोऽपि व्यर्थयन्नो मदर्थं, कुसुमधनुरधिज्यं कार्मुकं नैव धत्ते ॥ ८१ ॥ लब्धव्या मणिमालिकेति पणिते दन्तच्छदादिग्रहे, कान्ते द्यूतजिते रदैः सपदि तां कण्ठे हठात् कुर्वति । सेर्ष्याऽमर्षससीत्कृतार्द्धरुदिताक्रोशस्मिताङ्कं रतौ, लोलाक्ष्याः किलकिञ्चितं रतिपतेराहूतिमन्त्रायते ॥ ८२ ॥ गाढान्तर्वासनातोऽजनि सुभग ममाऽपि प्रियाद्वैतमेवं, तन्मात्रेऽत्र त्रपाऽभूदिति हसितमृदूदीर्यते ते स्वनाम्नः । सान्तः संरुद्धमन्युर्मनसिजविजयोद्घोषणामञ्जुकूजत्-, कांच्या संयम्य सम्यक् चरणतलहतं मामशोकं चकार ॥ ८३ ॥ शृङ्गारशतकाव्यम् Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १०७ चरणपतितं प्रत्याख्याय प्रियं प्रियवादिनीमपि मम गिरं धूत्वा भूत्वाऽभिमानधना सखि। विरह दह नोभूमज्वालातुलैस्तनुतापिभिः, सरलतरलश्वासैमिथ्याऽधुना परिखिद्यसे । ८४ ॥ भुनभ्रस्फुटरक्तगण्डफलकं प्रस्यन्दि दन्तच्छदं लोलल्लोहितचक्षुरुद्गिरदिव प्रौढानुरागं हृदः। सर्वाकारमनोहरं सुतनु ! ते कोपेऽपि पश्यन् मुखं, दूयेनाऽस्मि यतस्ततोऽयमधुना मानानुबन्धेन ते॥ ८५॥ कान्ते! कान्ते कदाऽहं शिरसि न कृतवान्माल्यमालामिवाज्ञां, क्षुण्णं चेत् क्षाम्य तावन्न पुनरपि विधास्यामि पादानतोऽस्मि। प्रेङ्खत्केतूद्यदिन्दुद्युतिभयदमिदं मे विलोलालकाग्रं, चण्डि! त्वं पाण्डुगण्डस्थलमलमरुणं किं मुधैवाऽऽदधासि॥८६॥ कान्ते! लोचनगोचरेऽपि सपदि प्रोद्दामरोमोद्गम नुद्यत्कञ्चकसन्धिसूचितरुचिः कम्पाकुलोरस्तनि । सद्यः सान्द्रतरद्रवद्रतिजलैरार्द्र नितम्बाम्बरं, गोपायन्त्यपि किं न दैवहतिके! मानग्रहं मुञ्चसि ।। ८७ ॥ तन्वि! तन्विदमनाकुलं मनः, किं करोषि क इव श्रमो मयि। चण्डि! वध्यकरवीरमालिका-दारुणे रचयमारुणे दृशौ॥ ८८॥ कोपत्र्यस्रपरान्मुखाङ्गकृतकस्वप्नां प्रियां पृष्ठत स्तिष्ठन्नुत्कटकण्टकाङ्करकणाकीर्णां करेण स्पृशन्। कोऽपि स्वेदजलच्छलद्रुतगलन्मानां विद न्याट्वात्(?), धूर्तः प्रक्रमते हठाच्चटुपटुः स्पष्टं परावृन्तकम्॥ ८९ ॥ दृष्टेऽभीष्टजने ततो हृदि धृते जाते मिताभाषणे, विस्रम्भे च मनोगते करचितोपायप्रवृत्ते चिरात्। रागे पुष्यति शुष्यदङ्गमपि सद्धत्ते रतिं तां मिथः, सङ्कल्पाहितसङ्गमङ्गमिथुनं नो यत्र वाचां गतिः॥ ९० ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ शृङ्गारशतकाव्यम ऋतुं सफलयाऽधुना हठकचग्रहाकर्षणात्, ___ कपोलतलदोलिनी: कुटिलकुन्तलालीलताः। उदस्य सहसैव चेदमृतयत्वमीप्सुस्तदा, सुधामधुरिमाऽधरं भ्रमर ! चुम्ब बिम्बाधरम् ।। ९१ ।। आस्ते कौलीयमार्गेऽर्गलमिव पुरतो वेत्रधारीव लज्जा, सत्यं सूक्ष्मेङ्गितज्ञः परहसनरतिय॑र्थवैरी च लोकः। दूरे गाढाङ्गसङ्गः स्वरुचि सखि दृशाऽपीक्षितुं न क्षमा तं, यातः सन्तापतप्ते हृदि मदनरसो मे सदा शोषमेव ॥ ९२॥ सख्यो मानधना मनः पुनरिदं कान्तैकतानं सदा, सद्भावच्युतमस्य च व्यवहृतं दाक्षिण्यतोऽस्मास्विति। क्रूरात्मा विषमायुधः स्फुटमयं कामोऽपि वामोऽपि य __जाता दुःखमहाखनिः किमपरं पापाऽहमेका भुवि ॥ ९३ ॥ प्रत्यक्षं किलं तर्ककर्कशधियः प्राहुः प्रमाणं बुधाः, तन्मिथ्या हृदि वाचि चक्षुषि गतां तां संविदेऽहं सदा। सन्तोषापगमे तु यस्तदविनाभावो मया निश्चितो, धूमाग्न्योरिव सर्वथा न सघटाकोटि समाटीकते ॥ ९४ ॥ प्रियोऽर्द्धमुकुलेक्षणः सुरतसङ्गरे सुभ्रुवो, ददंश दशनच्छदं हठकचग्रहोत्तानितम्। अथो धुत्करत(?) कणत्वलयमांसलं सीत्कृतं, सशुष्करुदित व्यधान् मदनहुंकृतं च प्रिया॥ ९५ ।। कान्ता कोपकषायिताऽपि हि मया संसाधितासादर-, "युद्धधमऽवाङ्मुखेन शिरसा सद्यः प्रसाद्याऽऽदरात् । प्रादुःषत् कुचकुम्भलोभितदृशा स्वौष्ठव्रणाशङ्किना, चादञ्चितकञ्चकस्थगितदृक् संश्रुिष्य सा चुम्बिता ।। ९६ ।। क्षीरनीरधिकल्लोललोललोचनया नया। क्षालयित्वेव मे सद्यः, स्थैर्य धैर्यं च नीयते ॥ ९७ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १०९ सौत्सुक्य बद्धं द्वन्द्व दृष्टदुःखं तशामुक्तान्तकूजम। चित्तं सङ्केतितरतविधौ भावसम्भोगभङ्ग व्यक्तातकं च्युतनखरदच्छेदमुक्तान्तकूजम्। शङ्काकूताऽऽकुलतरलदृग्दृष्टदुःखं तथा चाऽ द्वन्द्वं द्वन्द्वं सुरविलसितं शिश्रिये पिप्रिये च॥ ९८॥ सौत्सुक्यं भुजबन्धबन्धुरमुरो निश्शेषभुग्नं स्तनं, तामालिङ्गय तथोन्नमय्य वदनं बिम्बाधरं चुम्बतः। हुं हुं मे विधुताग्रपाणि मृदुयत्तन्वी दधेऽद्यापि तत्, स्पष्टं कुट्टमितं निकुट्टितमिव प्रेक्षे मनःपट्टके ॥ ९९ ॥ उन्नालाम्बुजलोलबालशफरस्फारस्फुरच्छैवल व्याकीर्णं तव तन्वि! पल्वलतुलामङ्गं बिभर्ति स्फुटम्। लावण्यद्रवपङ्किले किल यदेतन्मध्यभागे गता, दृष्टिर्मे करिणीव वर्षतरला मनेव निस्पन्दताम्॥ १०॥ शङ्के सुभ्र! सुधारसैर्विरचितं ते कालकूटच्छटा ___गर्भे मौक्तिकदामवन्मरकतश्रीरोचनं लोचनम्। यन्मामन्तरचारिभृङ्गसुभगश्वेताब्जपत्रप्रभा धिक्षेपीदमनङ्गसङ्गि सपदि प्रीणाति मीनाति च ॥ १०१॥ साकूतोत्कलिकाः सकौतुककणाः प्रेमद्रवार्दास्तव, क्रीडन्त्यस्तरलाक्षि ! दिक्षु निविडव्रीडा जडा दृष्टयः। चेतश्चञ्चलयन्ति कायलतिकामुत्कम्पयन्ति क्षणात्, चक्षुः शीतलयन्ति किं तदथवा यूनां न यत् कुर्वते ॥१०२॥ दिग्विस्तारि शिलांशुकान्तिरुचिरप्राञ्चत्कटाक्षच्छटा च्छायासूत्रितसूत्रतन्तुविसरं तत्तेद्दशोल्लासि च । अन्त:सन्ततकामपावकशिखासन्तापशान्त्यै मना ग्बाले ! वालय लोचनाञ्चलमपि प्रेमद्रवाट्टै मयि ॥ १०३ ।। त्वयि नियतमिदानी चारुतारुण्यलीलाविजितजगति जातवीडवैलक्षरक्षः। कुसुमधनुरधिज्यं कार्मुकं नैव धत्ते, क इव बलिजितोऽपि ख्यापयेदात्मदाक्ष्यम्॥ १०४॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० शृङ्गारशतकाव्यम् न्यस्तं सारयुगं नु कामकितवेनोरस्तटाऽष्टापदे, क्रीडायैरतिकन्यया नु निहितं यत्कन्दुकद्वन्द्वकम्। तज्जन्मद्वयसत्फलोदयनिभं कल्याणि ! कल्याणिनः, कस्येदं कुचयुग्ममेष्यति तवाऽस्मिन्भोग्यतायोग्यताम्॥१०५॥ स्वच्छस्वच्छविचारिनाभिविततावतँ स्मितास्याम्बुजं, लोलद्बाहुमृणालवल्लिविलसल्लोमावलीशैवलम्। रङ्गत्तुङ्गतरङ्गभङ्गरवलिस्मेराक्षिनीलोत्पलं, किं गौराङ्गि ! तवाङ्गसुन्दरसरस्तष मनः कर्षति ॥ १०६॥ न प्रालेयजलानिलैर्न सरसैरम्भोरुहस्रस्तरै स्तारैौक्तिकदामभिर्न विततैः सान्द्रैर्न चान्द्रैः करैः। न प्राज्यैर्घनसारसारकुमुदस्रक्चन्दनालेपनैः, शक्योऽन्तलितः क्षणं शमयितुं चैतद्वियोगानलः॥ १०७॥ वक्त्रं गौराङ्गि! राकामृतकररुचिरं गाढसम्भोगयोग व्यासक्तव्यक्तमुक्ताकणगणविशदस्वेदबिन्दु प्रगे ते। धत्तेऽवश्यायलेशस्तबकितविकचाम्भोजशोभामखण्डां, यत्तत्तज्ज्ञा विहायाऽखिलकमलवनान्येतदाशिश्रिये श्रीः॥ १०८ ॥ प्रागुद्गम्य मुदा सबिन्दुमधरं प्रोद्वीक्ष्य जातक्रुधा, हन्तुं तं चरणो रणन्मणितुलाकोटियोत्पाटितः । तं चाऽऽक्षिप्य हरिक्रमः क्रममनुष्ठाय दृढौष्ठग्रहं, श्लिष्ट्वा मां सखि ! कर्तुमात्मरुचितं धूर्तः प्रवृत्तो हठात् ॥ १०९ ॥ अन्तःपृष्ठविनिष्टनिष्ठुरनखाभुग्नाङ्गुलीपादुका, संयोगाजडितं नु मोहनरसश्लेषेण नु श्लेषितम् । प्रोद्यत्कण्टककीलितं नु मिथुनं स्यूतं नु कामेषुभि ढालिङ्गनसङ्गिकेलिविरतौ धत्ते स्फुटं सम्पुटम् ॥ ११० ॥ कृत्वा रागवदुद्धतं रतमथो मीलदृशं निःसहां, श्रोणीपार्श्वसमस्तहस्तवितताघातेप्यसंज्ञामिव । दृष्ट्वा मां सखि ! मूर्च्छिता किमुमृता सुप्ता नु भीताथवे त्याकूता कुलधीरिव द्रुतमभूत् सोऽपि प्रियोऽस्मत्समः॥ १११ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १११ कान्ते ! कल्पितकान्तमोहनविधावाऽऽनन्दसान्द्रद्रव द्रागावेगनिमीलिताक्षियुगला वीक्षे न तं यद्यपि। नेत्रानन्दकरं तथापि सखि! मे तच्चुम्बनालिङ्गन प्राक्संक्रान्त इव स्फुरत्यनुपमः कश्चिद् रसश्चेतसि ॥ ११२ ॥ यत्र स्वेदाम्बुधौते वपुषि दवथुवल्लुप्यते चन्दनश्री र्यस्मिन् मञ्जीरसिंजा बहुविधमणितैः श्रूयते नोद्धराऽपि। नाऽऽत्मा यत्रान्त्यधारास्थिततुरग इवाऽवैति घातक्षतादी स्मन्येऽहं भूतसर्वान्यविषयमिव सम्मोहनं मोहनं तत् ॥ ११३ ॥ प्रारब्धेऽधरबिम्बचुम्बनविधौ वक्त्रं हरत्युत्तरं, कृच्छ्राद् यच्छति किञ्चिदस्फुटपदं दृष्टाप्यधः पश्यति । शय्यायां परिवर्तते विचलते चालिङ्गयमाना मुहु र्यत्तेनैव मनोमुदं नववधूर्धत्तेऽधिकं कामिनाम्॥ ११४॥ न ताः काश्चिद्वाचः क्वचन न च ताः काश्चन कलाः, स नोपायः प्रायः स्फुरति न तदस्त्यक्षरमपि। यतोऽन्योन्यं यूनां विरह भवभावव्यतिकरं, परं वक्तुं शक्तः कथमपि कदापि क्वचिदपि ॥ ११५ ॥ पण्यस्त्रीपाण्डुगण्डस्थलपुलककृतो दम्भसम्भोगरङ्ग ___व्यासङ्गश्रान्तकान्तास्तनतटघटितस्वेदबिदून्नुदन्तः। कर्णाटीकर्णकर्णोत्पलदलदलनाः स्पष्टलाटीललाट व्यालोलाराललीलालकचयचलना वान्त्यवाचीनवाताः॥११६॥ नीरन्ध्रान्ध्रपुरन्ध्रिपक्ष्मललनाः सानङ्गबङ्गाङ्गना तुङ्गाभोगनितम्बबिम्बघटितश्लक्ष्णाम्बराकर्षिणः। वान्ति क्लान्तिमवन्तिकुन्तलवरस्त्रीणां हरन्तो रतौ, मन्दान्दोलितसान्द्रचन्दनवनाः स्वैरं वसन्तानिलाः॥ ११७॥ सम्भोगान्तनितान्ततान्तसुदृशां विस्रस्तवस्त्रस्फुट श्रोणिर्पर्शरसालसा इव मुखैः पीता इवोच्छ्ासिभिः। नाभीकन्दरमूर्छिता इव शनैर्वान्ति प्रभावानिला स्तुङ्गाभोगघनस्तनस्थलवलद्व्यावृत्तवेगा इव ॥ ११८ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ उद्यत्केलिकलाहितभ्रमरकादभ्रभ्रमावद्वपु लेखास्तोत्पुलकक्रमत्क्रमरणन्मञ्जीरहूतस्मरम् । साक्षाद् भूतरसं प्रकर्षपदवीरूढानुरागं मिथ स्तन्वङ्गयाः पुरुषायितं प्रविकृताशेषक्रियं पातु वः॥ ११९॥ वाचः काश्चिदधीत्य पूर्वसुधियां तत्काव्यदीक्षागुरुं, वीक्ष्य श्रीभरतं च संज्ञरुचिरं श्रीकामतन्त्रं च तत् । साहित्याम्बुधिबिन्दुबिन्दुरपि सत्य [?] विधित्सुर्मना - गभ्यासं जिनवल्लभोऽद्भदिमाः शृङ्गारसारा गिराः ॥ १२० ॥ भेदो विद्यत एव दाहकतया नाऽङ्गारशृङ्गारयो रित्युक्तं न यदस्मदर्व्यचरणैः सार्वैस्तदेवाधुना । दाक्षिण्यात् किल नीरसेन रचितं किञ्चिन्मयाऽपीति यद्, बालस्येव सहन्तु मे सुकवयो वाचालताचापलम्॥ १२१ ॥ इति शृङ्गारशतकाव्यं समाप्तम् ** शृङ्गारशतकाव्यम् Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् क्रमनखदशकोटीदीप्रदीप्तिप्रतानैदशविधतनुभाजामुज्ज्वलं मोक्षमार्गम् । पृथगिव विदिशन्तं पार्श्वमानम्य सम्यक् , कतिचिदबुधबुद्धयै वच्म्यहं प्रश्नभेदान्॥ १॥ कीदृग्वपुस्तनुभृतामथ शिल्पिशिक्यदेहानुदाहरति का ध्वनिरत्र कीदृक्?। काश्चारुचन् समवसृत्यवनौ भवाम्बुमध्यप्रपातिजनतोद्धृतिरज्जुरूपा:?॥ २॥ 'जिनदन्तरुचयः।' सश्रीकं यः कुरुते, स कीदृगित्याह जलचरविशेषः?। अप्सु ब्रुडन् किमिच्छति, कीदृक्वामी च किं वाञ्छेत्? ॥ ३ ॥ 'समुद्रतरणम्।' कीदृक् पुष्पमलिव्रजो न भजते? वर्षासु केषां गतिर्न स्यादध्वनि? कं श्रितश्च कुरुते कोकं सशोकं रविः?। लङ्के शस्य किल स्वसारमकरोद्रामानुजः कीदृशीं? केषां वा न मनो मुदे मृगदृशः शृङ्गारलीलास्पृशः? ॥ ४॥ 'अपरागमनसां' द्विळस्तसमस्तजातिः। प्रभविष्णुविष्णुजिष्णुनि, युद्धे कर्णस्य कीदृगभिसन्धिः? । नकुलकुलसंकुलभुवि, प्रायः स्यात् कीदृगहिनिवहः? ॥ ५ ॥ 'बिलसदनरतः' द्विःसमस्तः। १. 'प्रदानैः' इति अ० २. 'सुदिशन्तं' इति अ० Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् ब्रूतो ब्रह्मस्मरौ के रणशिरसि जिताः? केन जेवाह विद्वानुद्यानं स्यान्न कीदृग्जलधिजलमहो कीदृशं स्यान्न गम्यम्?। को मां वक्त्याह कृष्ण:? क्व सति पटु वचः? स्यादुतः केन वृद्धिस्त्याज्यं कीदृक् तडागं? नतिमति लघुका किं करोत्युत्कटं किम्?॥६॥ 'वीराज्ञा विनुदति पापम्' शृंखलाजातिः। दृष्ट्वा राहुमुखग्रस्यमानमिन्दुं किमाह तद्दयिता? । असुमेति पदं कीदृक्कामं लक्ष्मी न बोधयति? ॥७॥ 'अवत मसम्' विषमजातिः। कमभिसरति लक्ष्मी:? किं सरागैरजय्यं? सकलमलविमुक्तं कीदृशं ज्ञानमुक्तम्? । सततरतविमर्दै निर्दये बद्धबुद्धिः , किममिलषति कान्ता? किं च चक्रे हनूमान?॥ ८॥ 'अक्षरणम्' (अं-अक्षं-अक्षरं-अक्षरणं-अक्षरणम्) चलद्विन्दुजातिः। भूरापृच्छति . किल चक्रवाकमेषोऽपि भूमिमप्राक्षीत्। पीतांशुकं किमकरोत्, कुत्र व नु मादृशां वासः? ॥ ९॥ 'कोकनदे' द्विर्गतजातिः। हरिरतिरमा यूयं कान् किं कुरुध्व-मदोऽक्षरं? किमपि वदति भेजे गीतश्रियापि च कीदृशा?। जिनमतजुषां का स्यादस्मिन् कियाच्चिर मंगिनां? गतशुभधियां का स्यात् कुत्राभियोगविधायिनाम्? ॥ १० ॥ ___'यानतामस. समतानया, विभुता सदा-दासता भुवि' मन्थानजातिः। प्रतिवादिद्विरदभिदे, गुरुणेह किमक्रियन्त के कस्य?। उरशब्द: कल्याणदबलहिमशृंगान् वदति कीदृक्? ॥ ११ ॥ 'आदिश्यन्त रवविशिखा नुः' व्यस्तसमस्तजातिः। हरति क इह कीदृक् कामिनीनां मनांसि? व्यरचि सचिवभावः केन धूमध्वजस्य?। क्षयमुपगमिता रुक् कीदृशे नातुरेण? प्रसरति च विबाधा कीदृशीहार्शसानाम्? ॥ १२ ॥ 'ना युवा-वायुना-जायुपा-पायुजा' मन्थानान्तरजातिः। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि वाजिबलीवर्दविनाशसुष्ठनिष्ठरमुरद्विषे यमिह । प्रश्नं विदधुर्वपुषस्तस्मिन्नेवोत्तरमवापुः ॥ १३ ॥ 'हेतुरंग मोक्षान्तसुखराजिनयेक : ' समवर्णप्रश्नोत्तरजातिः । क्रव्यादां केन तुष्टिर्जगदनभिमता का रिपुः ? कीदृगुग्रः ?, कं नेच्छन्तीह लोका: ? प्रणिगदति गिरिर्वृश्चिकानां विषं क्व ? | कुत्र क्रीडन्ति मत्स्याः प्रवदति मुरजित्कापिले भोगभाक्क : ?, कीदृक्का कीदृशेन प्रणयभृदपि चालिंग्यते न प्रियेण ? ॥ १४ ॥ 'अस्नातास्त्रीमंगलेप्सुना' अष्टदलकमलम्। कीदृश्यो' नाव इष्यन्ते, तरीतुं वारि वारिधेः? अशिवध्वनिराख्याति, तिर्यग्भेदं च कीदृश: ? ॥ १५ ॥ पीनकुचकुम्भलुभ्यन्, किमाह भगिनीं स्मरातुरः कौल : ? । हरनिकरपथस्व:-सृष्टिवाचि नर्नगपदं कीदृग् ? ॥ १६ ॥ १. 'कीदृशो' इति वि० ३. 'करै:' इति वि० ११५ 'अपराजयः' द्विः समस्तः । 4 'भवमा स्वसा दिशं स्तनम् ' ( भवमास्वसादि, शस्तनम् ) द्विर्गतजातिः । नाभ्यम्भोजभुवः स्मरस्य च रुचौ विस्तारयेति श्रियः, पत्युः प्रत्युपदेशनं कथमथो पत्नीष्यते कीदृशी ? इत्याख्यत् कमला तथा कलियुगे कीदृक्कुराज्यस्थिति: ? कीदृश्याऽहनि चण्डभास्करकरे नक्षत्रराज्याऽजनि ? ॥ १७ ॥ 'विभाः वितानया' गतागतद्विर्गतः (या नता विभौ इ, २. विभाविताऽनया : ३. विभावितानया ४ ) प्रभुमाश्रित्य श्रीदं, किमकुर्वन् के कया समं लक्ष्मि !? कह केरिसया के मरणमुवगया लुद्धयनिरुद्धा ? ॥ १८ ॥ 'समगंसताऽसा मया' द्विर्गतभाषाचित्रकजातिः । वसुदेवेन मुररिपुर्यैर्हिंसाहेतुतां श्रियां पृष्ठः । तेणं तेहिं चिय अक्खरेहिं से उत्तरं सिद्धं ॥ १९ ॥ 'तायऽकमऽनयंत रयम्' भाषाचित्रसमवर्णप्रश्नोत्तरम् । २. 'कथमहो' इति वि० Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् किं प्राहुः परमार्थतः कमृषयः ? किं दुर्गमं वारिधेविद्या कं न भजन्ति ? रागिमिथुनं कीदृक्किमधैं स्मृतम्? रक्षांसि स्पृहयन्ति किं ? तनुमतां कीदृक् सुखार्थादिकं? कीदृक्कषुकलोकहर्षजनकं न व्योम वर्षाष्वपि? ॥ २० ॥ 'विगतजलदपटलम्' विपरीतमष्टदलकम्। अभिसारिकाह 'कांश्चित्तरुणाः, किं कुर्वतेऽत्र कं कस्या:? रतिसागरे मृगदृशः, किं किमकार्षीत् कथं कामी? ॥ २१ ॥ 'समयं ते अधरदलम्' समस्तव्यस्तजातिः। कामाः प्राहुरुमापते! तव रुषः प्रागत्र कीदृग् सती, का केषां किमकारि वारितनुदे रत्या स्वचेतो मुदे। पश्चादुद्भवजानुसंभवनरान् दैत्यान्त्यदंष्ट्रांगजान्, मन्दं च क्रमशोमुजध्वनिरगात् कीदृक् क्व कस्मिन् सति ॥ २२ ॥ 'अजा मदहतभा पूर्वो मेने' द्विः समस्तजातिः। जलस्य जारजातस्य, हरितालस्य च प्रभुः। मुनियँ प्रश्नमाचष्टे, तत्रैव प्रापदुत्तरम् ॥ २३ ॥ ___ 'का कुलानेन मृद्यते' 'काकुलालेनमृद्यते' समवर्णप्रश्नोत्तरजातिः । ब्रूते पुमांस्तन्वि! तवाधरं कः? क्षिणोति को वा मनुजव्रजच्छित्? । प्रिये! स्वसान्निध्यमनभ्युपेते, किमुत्तरं यच्छति पृच्छतः श्री:? ॥ २४॥ 'नारदः' त्रिर्गतः। किमिष्टं चक्राणां वदति बलमर्कः किमतनोत्?, जिनैः को दध्वंसे ? विरहिषु सदा कः प्रसरति? । भरं धौरेयाणां निरुपहतमूर्तिर्वहति कः?, सुरेन्द्राणां कीदृग् भवति जिनकल्याणकमहः? ॥ २५ ॥ 'असममोदावहः' मंजरीसनाथजातिः। १. 'कश्चित्' इति वि०, 'किञ्चित्' इति अ०। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि प्राह द्विजो गजपते रुपनीयते का?, पात्री प्रभुश्च जिनपंक्तिरवाचि कीदृक् ? | कीदृग्विधेह वनिता नृपतेरदृश्या?, प्रस्थास्णुविष्णुतनुरैक्षत कीदृशी च ? ॥ २६ ॥ 'विप्र विधा विना विग्रा, विप्रधानाग्रा' पद्मजातिः । वदति विहगहन्ता कः प्रियो निर्धनानां ? भणति नभसि भूतः कीदृशः स्याद्विसर्गः । वदति जविनशब्दः कीदृशः सत्कवीन्द्राः ? कथयत जनशून्यः कज्जलं भर्त्सनं च ? ॥ २७ ॥ 'व्यन्तरादिव्यस्तः' व्यस्तसमस्तजातिः । वीतस्मरः पृच्छति कुत्र चापलं, स्वभावजं? कः सुरते श्रियः प्रियः ? सदोन्मुदो विन्ध्यवसुन्धरासु, क्रीडन्ति काः कोमलकन्दलासु ? ॥ २८ ॥ 'अने कपावऽलयः' व्यस्तसमस्तजातिः । खलधान्यादिधामसु?। मूषक' निकर: कीदृक्, भीरुः सम्भ्रमकारी च कीदृगम्भोनिधिर्भवेत् ? ॥ २९ ॥ 'विलसद्मकरः ' द्विः समस्तः । किं लोहाकरकारिणामभिमतं ? सोत्कर्षतर्षातुराः, किं वाञ्छन्ति ? हरन्ति के च हृदयं दारिद्र्यमुद्राभृताम् ? । स्पर्धावद्भिरथाहवेषु सुभटैः कोऽन्योऽन्यमन्विष्यते ? जैनाज्ञारतशान्तदान्तमनसः स्युः कीदृशाः साघवः ? ॥ ३० ॥ 'अपराजयः' मञ्जरीसनाथजातिः । पापं पृच्छति विरतौ, को धातुः? कीदृशः कृतकपक्षी ? उत्कण्ठयन्ति के वा, विलसन्तो विरहिणीहृदयम् ? ॥ ३१ ॥ ११७ १. 'मूषिका' इति वि० 'मल यमऽरुतः' व्यस्तसमस्तजातिः । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् केनोद्वहन्ति दयितं विरहे तरुण्यः?, प्राणैः श्रिया च सहितः परिपृच्छतीदम्। तार्क्ष्यस्य का नतिपदं ? सुखमत्र कीदृक्?, किं कुर्वताऽन्यवनितां किमकारि कान्ता? ॥ ३२॥ 'मनसाविनता' मन्थानान्तरजातिः। भवति चतुर्वर्गस्य, प्रसाधने क इह पटुतरः प्रकट:? पृच्छत्यङ्गावयवः कः पूज्यतमस्त्रिजगतोऽपि? ॥ ३३॥ 'नाभेयः' वर्धमानाक्षरजातिः। वैदिकविधिविशस्तबस्तामिषमदतां स्वर्गदं द्विजं, जैनादिः किमाह साक्षेपं सासूयं सकाकु च? कीदृक्। पूतवातपरितापम्लेच्छोपास्तिनुतिगृहक्रीडाहोमविश्ववेगवतो जल्पति पवदनदपदम्? ॥ ३४॥ 'पाप दयसे स्तभदेहभुजा दिषि पदम्' द्विर्गतजातिः। औषधं प्राह रोगाणां, मया कः प्रविधीयते। जामातरं समाख्याति, कीदृशो बठरध्वनिः? ॥ ३५॥ . 'अगद शमः' अग्रे गम्येत केन? प्रविरलमसृणं कं प्रशंसन्ति सन्त:?, पाणिर्द्रते जटी कं प्रणमति? विधवा स्त्री न कीदृक् प्रशस्या? वक्ति स्तेनः क्व वेगो? रणभुवि कुरुतः किं मिथः शत्रुपक्षावुद्वेगावेगजातारतिरथ वदति स्त्री सखीं किं सुषुप्सुः? ॥ ३६॥ 'हला संस्तरं सारयेतः' अष्टदलं कमलम्। व्यथितः किमाह सदयः, क्षितकं क्षुत्क्षामकुक्षिमुद्वीक्ष्य?। दारुणधन्वनि समरे, कीदृक्कातर नर श्रेणिः॥ ३७ ।। 'हा वराक निरशन' गतागतः। चन्द्रः प्राह वियोगवानकरवं किं रोहिणी प्रत्यहं?, शम्भोः केन जवाददाहि सरुषा कस्याङ्गयष्टिः किल?। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ११९ शीघ्रं कैः पथि गम्यते ? ऽथ कमला ब्रूते मुहुर्वल्लभं, ध्यानावेशवशादलाभि पुरतः कैर्वैश्वरूपं मम? ॥ ३८॥ 'मयैः' चतु:समस्तः। गुरुरहमिह सर्वस्याग्रजन्मेति भट्ट, समदममदयिष्यन् कोपि कुप्यन् किमाह?। त्वमलदयपदं' वा आश्रयाभावमूर्छाकटकनगविशेषान् कीदृगामन्त्रयेत? ॥ ३९ ॥ 'आ विप्र वमाद्यत्वमदम्' द्विर्गतजातिः। कीदृग्मया सह रणे, दैत्यचमूरभवदिति हरिः प्राह?। लोको वदति किमर्थं ? का विदिता दशमुखादीनाम्? ॥ ४० ॥ क्षीणारिहयवाहनाज' गतागतजातिः। दृष्ट्वाग्रतः किल कमप्यवसादवन्तं, स्वामी पुर:स्थितनरं किमभाषतैकम्?। कश्चिद् ब्रवीत्यपि जिगीषुनृपा अकार्षीत्, किं कीदृशो वदत राजगणोऽत्र केषाम्? ।। ४१ ॥ 'अयं सीदति रे को नः' द्विर्गतजातिः। सीरी पाणिं क्व धत्ते? क्रतुरथमुदगात् स्यात् कया देहिनां भीबूंतेऽश्वः क्वारि विष्णुर्व्यधृत सविधगं हन्तुकामः किमाह?। शम्भुं घ्नन्तं गजं द्राक् सदय ऋषिरगात् किं तु काक्वा तथास्मिन्, हारं किं नापिधत्से? विरहिणि नभसीत्यूचुर्षी सा वदेत् किम्॥४२ ।। 'हलेवर्षत्यायस्तेम्भोदेहारस्तीतः' द्वादशपत्रमिदं पद्मम् । मधुरिपुणा निहते सति, दनुजविशेषे तदनुगताः किमगुः? । अभिदधते च विदग्धाः, सत्कवयः कीदृशीर्वाचः? ॥ ४३॥ . 'अमृतमधुराः' द्विर्गतजातिः। १. 'त्वमदलयपदं' इति वि० २. 'दृष्ट्वात्मनः' इति वि० Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ब्रूते पुमान् मुरजिता रतिकेलिकोपे, सप्रश्रयं प्रणमता किमकारि का कम् ? | दुःखी सुखाय पतिमीध्सति कीदृशं वा ? कामी 'कमिच्छति सदा रतये प्रयोगम्? ॥४४॥ प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् यूयं किं कुरुत जनाः, स्वपूज्यमिति शिल्पिसुतखगौ ब्रूतः । स्मरविमुखचित्तजैन ? कथमाशास्ते जनविशेषम् ॥ ४५ ॥ : 'संननाम कारुकुमारवी' गतागतः । सुभटोsहं वच्मि रणे रिपुगलनालानि केन किमकार्षम् ? । चेटीप्रियो ब्रूवेऽहं किमकरवं का: स्वगुणपाशैः ? ॥ ४६ ॥ , 'असिनादासी : ' द्विर्गतजातिः । , 'नरनारीप्रियंकरम्'। भूषा कस्मिन् सति ? स्यात् कुचभुवि मदिरा वक्ति ? कुत्रेष्टिकाः स्युः ? कस्मिन् योधे जय श्रीर्युधि ? सरति रतिः प्राजने कुत्र नोक्ष्णः ? । कामद्वेषी तथोडुर्वदति दधि भवेत् कुत्र ? किं वा वियोगे, दीर्घाक्ष्याः ? कोपि पीनस्तनघनघटितप्रीतिरन्यं ब्रवीति ॥ ४७ ॥ 'हासुस्तनीसायताक्षीरे' व्यस्तकमलमष्टदलम्। किं कुर्या: ? कीदृक्षौ, रागद्वेषौ समाधिना त्वमृषे ! | कीदृक्षः कक्षे स्यात्, किल भीष्मग्रीष्मदवदहनः ॥ ४८ ॥ 'तृणहानिकारी' द्विर्गतजातिः । शुभगोरसभूमीरभि, किमाह तज्ज्ञः स्मर श्रीपृष्ट : ? । विरहोद्विग्नः कामी, निन्दन् दयितां किमभिधत्ते ? ॥ ४९ ॥ ' क्षीरादि मनोहारीमासु' गतागतजातिः । इह के मृषाप्रषक्ता, नरनिकरा : ? इति कृते सति प्रश्ने । यत्समवर्णं तूर्णं, तदुत्तरं त्वं वद विभाव्य ॥ ५० ॥ 'केऽलीकरता मनुजनिवहा: ' समवर्णप्रश्नोत्तरम् । १. 'किं' इति वि० ३. 'स्मरश्रिपृष्टः सन्' इति अ० 'स्मरेन्दिरापृष्ठ:' इति वि० २. 'किमिच्छति' इति वि० Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि बभ्रुः प्रभूततुरगान् स्वजनास्तवेति, राज्ञोदितः कृपणकोऽपलपन् किमाह ? | छलेन पीत्वा दशनच्छदमुग्रमानां, भर्ता किमाह दयितां किमपि ब्रुवाणाम्? ॥ ५१ ॥ श्रीराख्यदहं प्रियमभि, किमकरवं? का च कस्य जनयित्री ? | अदिवारीशब्दो वा, कैस्त्यक्तः प्राह गृहदेशम् ? ॥ ५२ ॥ 'यैः' त्रिः समस्तः । 'अधरं तवाहमपिबंधवो न मे' द्विर्गतजातिः । कीदृक् सरः प्रसरदम्भसि भाति काले ?, भुक्त्यर्थतेह विहिता' कतमस्य धातो: ? । उत्कण्ठयेद् विरहिणं क इह प्रसर्पन्, ब्रूते शिफाध्वनिरथ श्रियमत्र कीदृक् ? ॥ ५३ ॥ वदति मुरजित् कुत्राता च प्रिया वरुणस्य का?, स च भणति यः क्रुद्धो नैव द्विषः परिरक्षति । दशमुखचमूः काकुत्स्थेन व्यधीयत कीदृशी ?, रवरवकवर्णाली कीदृग्ब्रवीति गतारति: ? ॥ ५४॥ १. 'विदिता' इति वि० ३. ' भूमिसु' इति वि० १२१ 'विशदपञ्चमः ' व्यस्तद्विः समस्तः । निःस्वः प्राह लसद्विवेककुलजैः सम्यग्विधीयेत को ?, मुग्धे ! स्निग्धदृशं प्रिये ! किमकरो : ? किं वातदोष्ठं व्यधाः ? | लोकैः कोऽत्र निगद्यते बलिवधूवैधव्यदीक्षागुरु : ?, कीदृग् भूमिशुभासशब्द े इह भो ! विश्रम्भवाची भवेत् ? ॥ ५५ ॥ 'अतनवमदशमः ' द्विर्व्यस्तसमस्तः । २. 'विरहिणी' इति मु० 'अपरावणा' वर्धमानाक्षरजातिः । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् शशिना प्रमदपरवशः, पृच्छति कः स्वर्गवासमधिवसति? । च्युतसत्पथाः किमाहुलौकिकसन्तो विषादपराः॥ ५६ ।। 'मयानंदवश नाकी' गतागतः। उष्ट्रः पृछति किं चकार मदृते कस्मिन् शमीवृक्षक:?, कीदृक् सन्नधिकं स्वभक्ष्यविरहे' दुःखी किलाहं ब्रुवे? । यूनः प्राह सरोजचारुनयना सम्भोगभङ्गिक्रमे, प्रारब्धेऽधरचुम्बने मम मुखं यूयं कुरुध्वे किमु? ॥ ५७ ॥ 'हे मयाननंदवनेचलोऽलमक' गतागताः। चक्री चक्रं क्व धत्ते? क्व सजति कुलटा? प्रीतिरोतो: क्व? कस्मै, कूपः खन्येत राज्ञां? क्व च नयनिपुणैर्नेत्रकृत्यं निरुक्तम्? । कन्दर्पापत्यमूचे रणशिरसि रुषा ताम्रवर्णः क्व कर्णश्चक्षुश्चिक्षेप? विष्णुर्वदति वसुपुर स्तेन! किं त्वं करोषि? ॥ ५८॥ युज्यन्ते कुत्र मुक्ताः? क्व च गिरिसुतयाऽसञ्जि? कस्मिन्महान्तो, यत्नं कुर्वन्ति? चौर्यं निगदति विदिता क्वैकदिक् तिग्मधारा? । कस्मिन्दृष्टे रटन्ति क च सति करभा:? पक्ष्मलाक्ष्या किलोक्तः, कश्चित् किंवा ब्रवीति स्मरशरनिकराकीर्णकायः सदेश्यान्? ॥ ५९॥ 'कजाक्षी वाचाऽस्मानहह सहसाऽचुक्षुभदरे' षोडशदलं कमलं विपरीतं, युगलस्थापनम् । जलनिधिमध्ये गिरिमभिवीक्ष्य, क्षितिरिति वदन् किमाह विवादे?। स्निग्धस्मितमधुरं पश्यन्ती, हरति मनांसि मुनीनामपि का? ।। ६० ।। 'ना चलोऽङ्ग रसा' गतागतः। धर्मेण किं कुरुत काः क्व नु यूयमार्याः?, कीदृश्यहिंसनफलेन तनुः सदा स्यात्? । पुंसां कलौ प्रतिकलं किल केन हानिः?, कीदृग्व्यधायि युधि कार्जुनचापनादै:? ।। ६१ ।। 'सारतादिना, नादितारसा, यामतागवि विगतामया' मन्थानजातिः। १. 'स्वभक्ष्य विरहात्' इति अ० Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૧૨૩ कीदृशः स्यादविश्वास्य:?, स्निग्धबन्धुरपीह सन्। न स्थातव्यं च शब्दोऽयं, प्रदोषं प्राह कीदृशः? ॥ ६२॥ 'वितथवचनः। नृणां का कीदृगिष्टा वद? सरसि बभुः के? स्मरक्रीडितोष्ट्राः, साधुः श्रीशश्च सर्वे पृथगभिदधतो बोधनीयाः क्रमेण। कुर्वेऽहं ब्रह्मणे किं? वदति मुनिविशेषोऽथ कीदृक् समग्रः?, स्यात् किं वा पङ्कजाक्षीसुखविमुखमना भुक्तभोगोऽभिदध्यात् ॥ ६३॥ 'सा रामा रमयते न मनो नः' शृङ्खलाजातिः। स्वजनः पृच्छति जैनैरघस्य कः कुत्र कीदृशे कथितः?। कथयत वैयाकरणाः, सूर्य कात्यायनीयं किम्? ॥ ६४॥ 'बन्धोऽधिकरणे' त्रि:समस्तसूत्रोत्तरजातिः। ब्रवीत्यविद्वान् गुरुरागतः कौ?, सावित्र्युमे किं कुरुतः सदैव? । आशैशवात् कीदूगुरभ्रपोतः?, पुष्टिं च तुष्टिं च किलाप्नुवीत ॥६५॥ . 'अविदूसरतः' व्यस्तसमस्तजातिः। तन्वि! त्वं नेत्रतूणोद्गतमदनशराकारचञ्चत्कटा:लक्षीकृत्य स्मरार्तान् सपदि किमकरोः सुभ्र! तीक्ष्णैरभीक्ष्णम्? किं कुर्वाते भवाब्धिं सुमुनिवितरणादायकश्रावकौर द्राक्?, श्रद्धालुः प्राप्तमन्त्राधुचितविधिपरः प्रायशः कीदृशः स्यात्? ॥६६॥ 'अविध्यंतरतः। कीदृगनिष्ट मनिष्टं४ नुः, स्यादित्यक्षकीलिका ब्रूते । भणइ पिया ते पिययम, कीए कहि अभिरमइ दिट्ठी॥ ६७॥ 'मुद्धे तुहरमणे' भाषाचित्रजातिः। कीदृग्जलधरसमयजरजनी?, पथिकमनांसि किमकरोत् कस्मिन्? । मधुरस्निग्धविदग्धालोकं, स्त्रैणं कीदृग भ्रमयति लोकम्? ॥ ६८॥ 'सज्जघनस्तननाभिनदध्वनिः' पादोत्तरजातिः। १. 'वाऽयं कजाक्षी' इति अ० २. 'स्तावकौ' इति वि० ३. 'श्राक्' इति अ० ४. 'कीदृगनिष्टमदृष्ट' इति वि० 'कीदृग् दृष्टमनिष्टं' इति अ० । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् पद्मस्तोमो वदति कपिसैन्येन भोः कीदृशा प्राक् ?, सिन्धौ सेतुर्व्यरचि ? रुचिरा का सतां वृत्तजाति: ? । को वा दिक्षु प्रसरति सदा कण्ठकाण्डात् पुरारै: ?, किं कुर्याः कं रह ' इति सखीं पृच्छतीं स्त्री किमाह? ॥ ६९ ॥ 'नालिन, नलिना, मालिनी, नीलिमा, नामानि इनं, आलि' मन्थानान्तरजातिः । पथि विषमे महति भरे हे धुर्या: किं स्म कुरुथ कां कस्य? | अत्यम्लतामुपगतं, किं वा के नाभिकाङ्क्षन्ति ? ॥ ७० ॥ > , 'दधिमधुरमनसः ' वाक्योत्तरजाति: । भानोः केष्येत पद्यैरुडु वदति पदं ? पप्रथे किं सहार्थे ?, कामो वक्ति व्यवायोऽपि च पदनिपुणैः पञ्चमी केन वाच्या? | सप्राणः प्राह पुंसि क्व सजति जनता ? भाषतेऽथार्द्रभावः, कुर्वेऽहं क्लेदनं किं ? क्व च न खलु मुखं राजति व्यङ्गितायाम् ? ॥ सत्यासक्तं च सेर्ष्याः किमथ मुररिपुं रुक्मिणीसख्य आख्यान् ? ॥ ७१ ॥ 'भामारतसानतेमनसि' शृङ्खलाजातिः, पञ्चपदं वृत्तम् । तरुणेषु कीदृशं स्यात्, किं कुर्वत् कीदृगक्षि तरलाक्ष्या : ? । सा जोव्वणं भयंती, मयणं केरिसं कुणइ ? ॥ ७२ ॥ 'उवलद्धबल' । सत्यक्षमार्त्तिहर आह जयद्रथाजौ पार्थ! त्वदीय रथवाजिषु का किमाधात् ? । अप्पोवमाइ किर मच्छरिणो मुणंति, किं ख्वमित्थ सुअणं भण केरि संति े? ॥ ७३ ॥ 'सच्छमतुच्छमच्छरसरिच्छम्'। कीदृक्षः कथयत दौषिकापणः स्यात् ?, ना केन व्यरचि च पट्टसूत्रराग: ? । क्षुद्रारिर्वदति किमुत्कटं जिगीषो : ?, किं जने शकरपुणेति वक्ति रङ्कः? ॥ ७४ ॥ 'शाटकी, कीटशा, कंटक, कटकं, शाकं, कीकट' मन्थानान्तरजातिः । २. 'संतु' इति वि० १. 'रत' इति वि० Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि शत्रुकिमाह ? | ब्रह्मास्त्रगर्वितमरिं रणसीनि खङ्गाक्षमं हरवितीर्णवर: कामी प्रियां भणति किं त्वरितं रतार्थी ?, वस्त्रं परास्य सहसादयितेभवाधः ॥ ७५ ॥ प्रत्याहारविशेषा, वदन्ति नन्दी निगद्यते कीदृक् ? | आपृच्छे गणकोऽहं किमकार्षं ग्रहगणान् वदत ? ॥ ७६ ॥ , १. 'वद' इति मु० ३. 'कं' इति वि० 'वृत्तमध्यस्थितोत्तरा' द्विर्गतजातिः । 'अजगणः ' त्रिः समस्तः । कीदृक्षे कुत्र कान्ता रतिमनुभवति ? ब्रूत वल्लिं क्व मे मुत्?, प्राहर्षिः कोऽत्र कस्याः स्मरति गतधनः श्रीतया पृच्छ्यतेऽदः ? | क्व स्यात् प्रीतिस्तृतीयं वदति युगमिह ? क्वोद्यमी कामशत्रु : ?, कामी रज्येत् प्रियायाः क्व च ? नयविनयी कुत्र पुत्रः प्रतुष्येत् ? ॥ ७७ ॥ स्पृहयति जनः कस्मै नास्मिन् सुखे न च ' कीदृशे ?, प्रसजति सुधीः स्यात् कीदृक्षे क्व वा वपुरव्यथम्? । सुदृशमभितः पश्यन् कामी ? किमाह सखीन् युवा ?, तरलनयना मामत्रेयं स्मितास्यामितीक्षते ॥ ७८ ॥ युगलम् । पादोत्तरं, षोडशदलं कमलं विपरीतम् । राजन् ! कः समरभरे, किमकारयदाशु किं रिपुभटानाम् ? । कुच्छिअविलास पभणइ, केरिसं पिसुणजणहिययं ? ॥ ७९ ॥ 'अहमलीलवंकं' भाषाचित्रकद्विर्गतः । अयि सुमुखि ! सुनेत्रे ! सुभ्रु ! सुश्रोणि मुग्धे, वरतनु कलकण्ठि स्वोष्ठि पीनस्तनि त्वम् । वद निजगुणपाशैः किं करोषीह केषां ?, सुगुरुरपि च दद्यात् कीदृशां मन्त्रविद्याम् ? ॥ ८० ॥ 'नाहंयूनां' द्विर्गतः । १२५ २. 'पश्यां' इति अ० ४. 'अत्रविद्याम्' इति वि० Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨૬ प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् पृच्छामि जलनिधिरहं, किमकरवं सपदि शशधराभ्युदये? । अलमुद्यमैः सुकृतिनामित्युक्ते कीदृशः कः स्यात्? ॥ ८१ ।। 'समुदलसः' द्विर्गतः। नामाख्यातजातिः। वदति हरिरम्भोधिं पाणिं श्रियः करवाणि किं?, किमकुरुत भो! यूयं लोकाः सदा निशि निद्रया? । मुनिरिह सतां वन्द्यः कीदृक् तथास्मि गुरुर्ब्रवे?, तव जडमते! तत्त्वं भूयोऽप्यहं किमचीकरम? ॥ ८२॥ 'असस्मरः' वर्धमानाक्षरजातिः। रतये किमकुर्वातां', परस्परं दम्पती चिरान्मिलितौ। मोक्षपथप्रस्थितमतिः, परिहरति च कीदृशीं जनताम्? ॥ ८३॥ - ....- 'अतत्त्वरतां' द्विर्गतः। नामाख्यातजातिः। हे नार्यः! किमकार्षुरुद्गतमुदो युष्मद्वराः काः किल?, क्रुद्धः कामरिपुः स्मरं किमकरोदित्याह कामप्रिया? । इच्छु लाभमहं मनोगृहगतं रक्षामि शम्भुं सदाऽपीति स्वं मतमूचुषे किल मुनिः कामाशिषं यच्छति? ।। ८४ ।। 'उपायंसतनोतु भद्रते' व्यस्तसमस्तजातिः। सरभसमभिपश्यन्ती, किमकार्षीः कं मम त्वमिन्दुमुखि?। नयनगतिपदं कीदृक्, पूजयतीत्यर्थमभिधत्ते? ॥ ८५ ।। 'अपप्रथमङ्गज' द्विर्गतः, विषमजातिः। विधुन्तुदः प्राह रविं ग्रहीतुं, कीदृक्षमाहुः स्मृतिवादिनो माम्? । का वा न दैवज्ञवरे स्तुतेह, प्रायेण कार्येषु शुभावहेषु? ॥८६॥ 'राहोनिशविरलगमं' गतागतः। अग्निज्वालादिसाम्याय, यं प्रभू श्रीरुदीरयत्। तेनैव समवर्णेन, प्रापदुत्तममुत्तरम् ॥ ८७॥ 'कोपमानलाभाद्ये' समवर्णप्रश्नोत्तरजातिः। १. 'किमकारयतां' इति अ० २. 'त्वं' इति वि० ३. 'श्रीरुदैरयत्' इति वि० । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १२७ कीदृक्षोऽहमिति ब्रवीति वरुण:? काप्याह देवाङ्गना, हं हो! लुब्धक को निहन्ति हरिणश्रेणी वनान्याश्रिताम्?। कान्तन्यस्तपदं स्तने रमयति स्त्री किं विधिर्वक्त्यदः, किं अन्नोन्नविरोहवारणकए जंपंति धम्मत्थिणो।। ८८ ॥ 'अवरोप्परंभेमच्छरोनखमो' भाषाचित्रकजातिः । खङ्ग श्रियोर्यमब्रवीत्, प्रश्रं मुनिः किल स्वकम्। उत्तरं प्राप तत्रैव', कामेसिसेविषायते ॥ ८९॥ शकमध्यस्थितसमवर्णप्रश्नोत्तरजातिः। कीदृग्भवेत् करजकर्तनकारि शस्त्रं,? क्वाकारि किं रहसि केलिकलौ भवान्या? । कश्चित्तरुः प्रवणयश्चरे पृथग् विबोध्यौ, किं वा मुनिर्वदति बुद्धभवस्वभावः? ॥ ९० ॥ _ 'नखलुभवेकोपिशमितोऽत्र' व्यस्तसमस्तजातिः। कुमुदैः श्रीमान् कश्चिद्गदपात्रं प्रश्नमाह यं भूमेः। तत्रैवोत्तरमलभत्, कैरवनिवहैरमामत्र ।। ९१ ।। श्लोकमध्यस्थितसमवर्णप्रश्नोत्तरजातिः। सदाहिताग्नेः क्व विभाव्यते का?, प्रावृष्युपास्ते शयितं क्व का कम्? । दीक्षणा वक्ति पुरः स्थिताप्यह-मवीक्ष्यमाणा प्रिय! किं करोमि कम्? ॥ ९२ ।। 'आयतनेत्रे तापयसि मां' व्यस्तसमस्तजातिः। लक्ष्मीर्वदति बलिजितं, त्वमीश! किं पीतमंशुकं कुरुषे? । अपरं पृच्छामि प्रिय!, किं कुर्वेऽहं भवच्चरणौ?॥ ९३ ॥ 'सेवसे' गतागतः। प्रवीरवरशूद्रकं किल जगुर्जनाः कीदृशं?, पयो वदति कीदृशीं नृपततिं श्रयन्त्यर्थिनः?। १. 'तत्रैव प्रापदुत्तरं' इति अ० वि० ३. 'बलजितं' इति अ० वि० २. 'प्रवयणश्च' इति अ० वि० ४. 'शू(सू)दकं' इति मु०। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ चकार किमगं हरिर्वदत विस्मये किं पदं ?, निनीषुरमतास्पदं कथमिहाह' जैनो जनान् ? ॥ ९४ ॥ ‘सदाजिनवरागमंबुधनरामुदासेवत' व्यस्तसमस्तजातिः। का दुरितासद्दूषणसान्त्वक्षतिभूमिरिति कृते प्रश्ने । यत्तत्समानवर्णं तदुत्तरं कथयत विभाव्य ॥ ९५ ॥ 'कामलालसामहेला' समवर्णप्रश्नोत्तरम् । विधत्से किं शत्रून् युधि नरपते ! वक्ति कमला ?, वराश्वीयं कीदृक्? क्व च सति नृपाः स्युः सुमनसः ? । विहङ्गः स्यात् कीदृक् ? क्व रजति रमा पृच्छति हरप्रतीहारी ? भीरो! किमिह कुरुषे ब्रूत मदनम् ? ॥ ९६ ॥ 'विजये' गतागतश्चतुर्गतः । हंहो शरीर कुर्या:, किमनुकलं त्वं वयो- बलविभाद्यैः ? । - मदनरिपोर्दृक् कीदृग्जैन: कथमुपदिशति धर्मम् ? ॥ ९७ ॥ प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् 'जिनान्यजध्वजंसदा' व्यस्तसमस्तः । कीदृग्भाति नभो ? न के च सरुजां भक्त्या ?? नृपः पाति कं?, वादी पाशुपतो विवाद उदयद्दुःखः शिवं वक्ति किम् ? | निर्दम्भेति यदर्थतः यदर्थतः प्रणिगदेद्रूपं विपूर्वाच्च तन्मीनातेः कमपेक्ष्य जायत इति क्त्वाप्रत्ययः पृच्छति ? ॥ ९८ ॥ 'भवद्यवादेशम्' व्यस्तं द्विः समस्तम् । स्मृत्वा पक्षिविशेषेण, जग्धं कमपि पक्षिणम् । वृष्णिवंशोद्भवो लक्ष्मी - मप्राक्षीत् किं समोत्तरम् ? ॥ ९९ ॥ 'यादवकङ्कः' व्यस्तसमस्तः, समवर्णप्रश्नजातिः । प्रपञ्चवञ्चनचणं, ध्यात्वा कमपि देहिनम् । विश्वम्भरा यदप्राक्षी - ततः प्राप तदुत्तरम् ॥ १००॥ 'कोनालीकः ' समवर्णप्रश्नजातिः । २. ' भक्ष्या' इति मु० १. 'कथमिवाह' इति वि० Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि जात्यतुरगाहितमतिर्लक्ष्मीपतिमप्सरो यैर्वर्णैर्यदपृच्छत्तैरेव केन केषां प्रमोदः स्यादिति पृच्छन्ति केकिनः । सङ्गीतके च कीदृक्षाः, प्राह शम्भुर्न भान्ति के ॥ १०२ ॥ विशेषपतिः । तदुत्तरं प्रापत्॥ १०१॥ कश्चिद्दैत्यो वदति दनुजान् घ्नन हरे ! किं किमाधा: ?, शक्रात्प्राहुः पृथगुदधिजाकान्तवैवस्वतान्ताः । क्षिप्तः कश्चित् किल ललनया मन्मथोन्माथदुःस्थः, सख्या चख्ये कथमथ मनः खेदविच्छेदहेतो: ? ॥ १०३ ॥ 'मेनकाजानेययुता' समवर्णजातिः । ‘कंसमानमायमकालावसान' गतागतजातिः । सितकुसुमभेदगतबुद्धिः । जननीरहितनरोद्भवलक्ष्मी: सध्रीचीं यदपृच्छत्तदुत्तरं प्राप तत एव॥ १०४॥ १. ' कं' इति वि० देवीं कमलासीना-मन्तकचिरनगररक्षकः - स्मृत्वा । यदपृच्छत्तत्रोत्तर - मवाप कालीयमानवपुरत्र ॥ १०५ ॥ 'नीरवाहरवेणवः' द्विर्गतः । > सैन्याधिभूरभिषिषेणयिषुस्त्वदीयः, किं किं करोति विजयी नृपते ! हठेन ? | कीदृक् च मन्मथवतः प्रतिभाति कान्ता, पत्नीहितो वदति चेतसि कस्य पुसः ? ॥ १०६॥ 'प्रसूनपुञ्जे नवमालिका' समवर्णप्रश्नोत्तरजातिः। १२९ कीदृक्षा किं कुरुते, रतिसमये कुत्र गोत्रभिदि भामा ? | कस्मै च न रोचन्ते रामा यौवनमदोद्दामा : ? ॥ १०७ ॥ 'श्लोकमध्यस्थितसमवर्णजातिः ' । 'मदनमञ्जरीगृह्यते' द्विर्गतः । 'भवदरतीरमतये' द्विर्गतः । २. ‘व्यस्तसमस्तजाति:' इति वि० Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम सिन्धुः काचिद्वदति विदधे किं त्वया कर्म जन्तो ?, यज्वा कस्मिन् सजति ? हरिणाः क्वोलसत्युद्विजन्ति ? । ब्रूते वज्रं १ पदमुपमितौ किं रविः पृच्छतीदं ?, देहिन्! बाधाभरविधुरितः कुत्र त्वं किं करोषि ? ॥ १०८ ॥ 'रेमेसदपवाभदेवे' मञ्जरीसनाथजातिः । संतो कम्मि परम्मुहा ? घरमुहे सोहा कहिं कीरए ?, रूढे कम्मि रसंति दुट्ठकरहा? कम्मिं बहुत्तं ठियं ? | दिट्ठे कत्थ य दूरओ नियमणे कत्थुल्लसंते दुअं, के मुंचति धणुद्धरति भणिरं मज्जायमामंतसु ॥ १०९ ॥ 'रेमेसदपवाभदेवे' विपरीतमञ्जरीसनाथजातिः । मिथ्याज्ञानग्रहग्रस्तैः, किं चक्रे व किलाङ्गिभिः ? | क्वाभीष्टे का भवेत् कीदृगिति जैन ! वद क्षितेः ॥ ११० ॥ 'रेमेसदपवाभदेवे' गतागतः । त्रिभिर्कुलकम् । भाद्रपदवारिबद्धः, सितशकुनिविराजितं वियद्वीक्ष्य । कंरे प्रश्नं सदृशोत्तरामकष्टमाचष्ट विस्पष्टम् ॥ १११॥ 'नभस्यकनद्धबलाका' समवर्णप्रश्रजातिः । भूरभिदधाति शरदिन्दुदीधिति: केह भाति पुष्पभिदा ? | प्रथमप्रावृषि वर्षति, जलदे कः कुत्र सम्भवति ॥ ११२ ॥ सन्निहपरभवे कीदृक्षः कीदृक्का स्याद्वद का कीदृक्षा पुरी गदवतामत्र न भवतीत्याहतुर्वारिभृङ्गौ?३, कीदृश्यो वा कुवलयदृशः कामिनः कीदृशः स्युः ? ॥ ११३ ॥ 'हेवनिनवमालिका' गतागतः । १. 'वज्रः' इति वि० ३. 'ब्रह्मभृङ्गौ' इति अ० कीदृशः स्याद्धितैषी ?, दोषत्रयच्छित् ? । 'सदयः, मधुरता, विपण्यावली, गौरवपुषः ' द्विः समस्तजातिविशेषः । २. 'किं' इति अ० Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १३१ मुदा श्रयति कं ब्रूते, वर्णः कोऽपि सदैव का? । ध्वान्तेऽन्ययाऽन्वितं वीक्ष्य, प्राहोमा किं हरं रुषा? ॥ ११४ ॥ 'अन्धकारे' चतुर्गतः। भूमी कत्थ ठिया भणेइ गणिया? रनो पहुत्तं कहिं?, केली कत्थ करेसि किं हरिणहे दिवे ? कहिं तक्खणं?। आमंतेसु करेणुअं पभणए नक्खत्तलच्छी कहिं?, लोआ बिंति कयत्तणं? भण कहि मुद्धे धरेमो मणं ॥ ११५ ॥ 'सेवेदेहतपावभवावासे' मञ्जरीसनाथजातिः। किं कुरुषे को जन्तो?, विष्णुः प्राह क्व कर्मविवशस्त्वम्? । का क्रियमाणा कीदृक्?, कुत्र भवेद्वक्ति करवाल:? ॥ ११६ ॥ 'सेवेदेहतपावभवावासे' गतागतः। युगलकम्। कपटपटुदेवतार्चा, बुद्धिप्रभुतोद्भवो नरः स्मृत्वा । समवर्णवितीर्णोत्तर-मकष्टमाचष्ट कं प्रश्नम्?॥ ११७॥ 'कंसमायंध्यायति जनः'। भृङ्गः प्राह नृपः क्व रज्यति बत स्थैर्यं न कस्मिन् जने?, युद्धं वक्ति दुरोदरव्यसनिता कुत्र? क्व भूम्ना गुणाः? । कस्मिन् वातविधूनिते तरलता ब्रूते सखी कापि मे?, क्वोद्गच्छत्यभि वल्लभं विलसतोऽसङ्कोचने लोचने? ॥ ११८॥ 'अवलोकनकुतूहले' अष्टदलं विपरीतं कमलम्। कीदृक्षमन्तरिक्षं स्यान्नवग्रहविराजितम्। हनूमता दह्यमानं, लङ्कायाः कीदृशं वनम्? ॥ ११९ ॥ 'गुरुशिखिविधुरविज्ञसितमन्दारागुरुचितम्' द्विः स्मस्तः । श्रुतिसुखगीतगतमनाः, श्रीसुतबन्धनवितर्कणैकरुचिः। प्रश्नं चकार यं किल, तदुत्तरं प्राप तत एवं ॥ १२० ॥ 'काकलीभूयमनोहरते' समवर्णप्रश्नोत्तरजातिः। १. 'चित्ते' इति वि० Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् स्मरगुहराधेयान् किल, दृष्ट्वाग्रेऽङ्गारशकटिकाऽपृच्छत् । किं शत्रुश्रुतिमूलं, प्रश्राक्षरदत्तनिर्वचनम् ॥ १२१॥ 'इहारिकर्णजाहसन्तिके' समवर्णप्रश्नोत्तरजातिः। जन्तुः कश्चन वक्ति का क्व रमते? प्रोचुः कचान् कीदृशान्, ब्रह्मादित्रयमत्र कः कृशयति?२ क्वेडागमः स्याज्जने:? । किं वाऽनुक्तसमुच्चये पदमथो धातुश्च को भर्त्सने?, किं सूत्रं सुधियोऽध्यगीषत तथा विश्रान्तविद्याधराः? ॥ १२२ ॥ 'झष्येकाचोवश:स्ध्वोश्च भष् याञ्चार्थविततपाणिं, द्रमकं स्मृत्वा सदर्थलोभेन । यैर्वर्णैर्यदपृच्छत्तैरेव तदुत्तरं लेभे॥ १२३ ॥ 'तत्वाययाचकरङ्कः मानं कुत्र? क्क भाण्डे नयति? लघुसुधामाप्तिराहानुकम्पा?, शैत्यं कुत्र? क्व लोको न सजति? तुरगः क्वार्च्यते? क्व व्यवस्था? । श्रीब्रूते मुत् क्व पुंसां?' क्व च कमलतुला? मूलतः क्वाशुचित्वं, कस्मै सर्वोपि लोकः स्पृहयति पथिकैः सत्पथे किं प्रचक्रे? ॥ १२४॥ 'मेनेमदतोक्षरनयशकारातेये' मञ्जरीसनाथजातिः। किं चक्रे रेणुभिः खे? क्व सति निगदति स्त्री रतिः क्वानुरक्ता?, क्वाक्रोधः? क्रूरताऽत्र क्व च वदति? जिनः कोऽपि लक्ष्मीश्च भूश्च । विष्णुस्थाण्वोः प्रिये के? परिरमति मतिः कुत्र नित्यं मुनीनां, किं चक्रे ज्ञानदृष्ट्या? त्रिजगदपि मयेत्याह कश्चिजिनेन्द्रः? ॥ १२५ ॥ _ 'मेनेमदतोक्षरनयशकारातेये' विपर्यस्तमञ्जरीसनाथजातिः। किमकृत कुतोऽचलक्रमविक्रमनृप आह सुभगतामानी कश्चिदलं स्वम्। कस्मै स्त्रीणां किं चक्रे का कस्मात्कस्य वद मत्कुण मम त्वम्॥ १२६ ।। ___ 'मेनेमदतोक्षरनयशकारातेये' गतागतः। १. 'काचन' इति अ० २. 'क्रकयति' इति अ० ४. 'तदर्थलाभेन' इति वि० 'सदर्थलेभेन' इति अ० ६. 'मन' इति वि० . ३. 'बुधा' इति मु० ५. 'मे स्यात्' इति वि० ७. 'स्वं' इति अ० Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि . १३३ पाता वः कृतवानहं किमु? मृगत्रासाय कः स्याद्वने?, कोऽध्यास्ते पितृवेश्म? कः प्रमदवान्? कः प्रीतये योषिताम्। हृद्यः कः किल कोकिलासु? करणेषूक्तः स्थिरार्थश्च को? दृष्टे व प्रतिभाति को लिपिवशाद्वर्णो?ऽपुराणश्च कः? ॥ १२७ ।। ___ 'आदशकन्धरवधेनवः' मंजरीसनाथजातिः। लंकेश्वरवैरिवैष्णवाः केप्याहुः प्रीतिरकारि केन केषाम्?। किमकृत कं विक्रमासिकालः? क्ष्माघरवारुणबीजगाव आख्यन् ॥ १२८॥ ___ 'आदशकन्धरवधेनवः' युगलकम्। प्राह रविर्मद्विरहे, कैस्तेजः श्रीः क्रमेण किं चक्रे?। कीदृशि च नदीतीर्थे, नावतितीर्षन्ति हितकामा:? ॥ १२९ ॥ 'अहिमकरभैरवापे' स्थिरसुरभितया ग्रीष्मे, ये रागिष्ठा विचिन्त्य तान्प्रश्नम्। यं चक्रे करिपुरुषस्तदुत्तरं प्राप तत्रैव॥ १३०॥ 'केसरागजनरुचिता:' समवर्णप्रश्नजातिः। प्रणतजनितरक्षं कीदृगर्हत्पदाब्जं? वदति विगलितश्रीः कीदृशं कामिवृन्दम्? प्रणिगदति निषेधार्थं पदं तन्त्रयुक्त्या, कृतिभिरभिनियुक्तं किंकिलाहं करोमि? ॥ १३१ ।। __'नत्वमसि' द्विःसमस्तः। दम्पत्योः का कीदृक्के कं भेजुरिति सुनृपते! ब्रूहि?। मुक्ताः कयाद्रियन्ते, वदत्यपाच्यश्च मदनध्रुक् कीदृक्? ॥ १३२॥ 'मायानमदनदा, दानदमनयामा, हारदामकाम्यया, याम्यकामदारहा' मन्थानजातिः। ते कीदृशाः क्व कृतिनो? व्यञ्जनमाह रिपवोऽनमन् कस्मै? कां पातीन्द्रः पट्टो ब्रवीति? कीदृक् क्व भू प्रायः? ॥ १३३ ॥ 'ये रता जिनमते, तेमनजितारये, लेखराजिमासन, नसमाजिराखले' मन्थानजातिः। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् वर्षाः शिखंडिकलनादवतीर्विचिन्त्य, शैलाश्ववक्त्रदहनाक्षरवावदूकान् । लक्ष्मीश्च नष्टमदनश्च समानवर्ण-दत्तोत्तरं कथय किं पृथगुक्तवन्तौ? ॥ १३४॥ ___ 'कदागमयुरगादिनः केकास्तेनिरे' समवर्णप्रश्नोत्तरजातिः। सम्बोधयार्धमहिमांशुकरैः स्वभावं, कुर्वे किमित्यभिदधाति किलार्द्रभावः? क्षान्तिं वद प्रहरमाह्वय पृच्छ पुच्छं, ब्रूयास्तनूरुहमुदाहर मातुलं च ॥ १३५ ॥ 'नेवस्तेशयालूलोमाम' मंजरीसनाथजातिः। किं कुर्यां हरिभक्तिमाह कमला कुत्र च्युते चाटुभिः? कीदृक्षे किल शुक्लशुक्लवचसी कञ्चित्खगं प्राहतुः?। ज्ञानं कीदृशि मोहभूरुहि भवेदिभ्यः वव चारुह्यते? वक्त्यार्किः क्व चुरा चकास्ति विमले कस्मिन्सरोजावली?॥१३६ ।। . 'नेवस्तेशयालूलोमाम' विपर्यस्तमंजरीसनाथजातिः। किं कुरुथः के कीदृशकौ, वामलसौ पृच्छति तनूरुहरोगः। छेत्तुमवांछन् वरामारामं, केनाप्युक्तः कोपि किमाह ॥ १३७॥ 'नेवस्तेशयालूलोमाम' गतागतः । का कीदृक्षा जगति भविनां वक्ति मृत्यूनरोगः? शोचत्यन्तः किल विधिवशात्कीदृगित्युत्तमा स्त्री? । गम्मीराम्भः सविधजनता कीदृशी स्याद्भयार्त्ता? ब्रूते कोऽपि स्मरपरिगतोऽरक्षि का भूरिभूपैः? ॥ १३८॥ 'तगत्वरीमरक, करमरीत्वगता, सारतरीपरमा, मारपरीतरसा' मन्थानजातिः। सान्त्वं निषेधयितुमाह किमुग्रदण्डः?, स्वामश्रियं वदति किं रिपुसाच्चिकीर्षन्? । नम्रः स्थिरो गुरुरिहेति वदन्३ किमाह? ये द्यन्ति शत्रुकमलां किल ते किमूचुः? ॥ १३९ ॥ 'साम धारि मा त्वया, यात्वमाऽरिधाम सा, नेह गरिमोद्यातां, तां धामोऽरिगहने' मन्थानजातिः। १. 'लक्ष्मीष्ट' इति अ० २. 'कुहारुह्यते' इति अ० ३. 'विदन्' इति वि० Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १३५ का स्त्री ताम्यति कीदृशा स्वपतिना? विद्या सदा किंविधा? सिद्धयेद्भक्तिमतोऽथ लोकविदिता का कीदृगम्बा च का?। किम्भूतेन भवेद्धनेन धनवान् सांख्यैश्व पुंसेष्यते?, कीदृक्षा प्रकृतिर्वसन्तमरुतोत्कंठा भवेत् कीदृशा? ॥ १४० ॥ 'मयाध्यासामासयुवाता' मंजरीसनाथजातिः। केष्टा विष्णोर्निगदति गदः प्राह सव्येतरोऽथ, श्रीरुद्राण्योः कथयत समाहारसम्बोधनं किम्? प्राहर्जुः किं जिगमिषुमिनं वक्ति कान्तानुरक्ता, सान्त्वं धूम्र प्रहरमपि सम्बोधयानुक्रमेण॥ १४१ ॥ 'मयाध्यासामासयुवाता' विपरीतमंजरीसनाथजातिः। भण केन किं प्रचक्रे, नयेन भुवि कीदृशेन का नृपते? । काः पृच्छति तरलतरः, के यूयं किं कुरुत सततम्? ॥ १४२ ।। ' 'मयाध्यासामासयुवाता' गतागतः। लोके केन किलाऽऽपि कान्तकविता? कीदृग् प्रहावंशजा, श्रेणिः? श्रीसुरयाज्ञिकेन्द्रियजया बोध्याः समाहारतः। हे दुष्प्रव्रजितप्रदानक! कुतः का पात्रदात्रोर्भवेत्?, कीर्तिर्यस्य किलोत्तरं तमखिलं प्रश्रं सुरायै वद ॥ १४३ ।। 'कालिदासकविना, नाविकसदालिका, तामरसविदम, मदविसरमता, सरकविदामविदलिका, नाम का' मन्थानान्तरजातिः। तमालव्यालमलिने, कः क्व प्रावृषि सम्भवी? आख्याति मूढः२ क्वारूलैर्निस्तीर्णस्तूर्णमर्णवः?॥ १४४ ।। 'तेपोनवजलवाहे' गतागतः। ध्वान्तं ब्रूतेऽर्हतां का? तृणमणिषु खगः कश्चिदाख्याति केन? प्रीतिर्मेऽथाह कर्म प्रसभकृतमहो दुर्बलः केन पुष्येत्?। १. 'दधे' इति अ० २. 'मूर्खः' इति अ० Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् कामध्रुग्वक्ति कात्र प्रजनयति शुनो युद्धहृत्पूर्वलक्ष्मी:?, सत्तासन्दिग्धबुद्धिः कथमथ कृतिभिः शश्वदाश्वासनीयः॥ १४५ ॥ तामस, समता, सारस, सरसा, साहस, सहसा, मारस, सरमा, समरहर, तासासामास' पद्मान्तरजातिः । किमभिदधौ करभोरं, सततगतिं किल पतिः स्थिरीकर्तुम्। जननी पृच्छति विकचे, कस्मिन्सन्तुष्यते भ्रमरः? ॥ १४६ ॥ 'मातरम्भोरुहे' द्विर्गतः। प्राधान्यं धान्यभेदे क्व? कथयति वयः कीदृशी वायुपत्नी?, नक्षत्रं वक्ति कुर्वे किमहमिनमिति प्राह शस्त्रोपजीवी?। ब्रूहि ब्रह्मस्वरं च क्षितकमभिगद प्रोल्लसल्लीलमंजूल्लपामामन्त्रय स्त्री, क्व सजति न जनः ग्राहकोप्यम्बुपक्षी? ॥ १४७॥ _ 'कलमे, मेलक, करता, तारक, कवसे, सेवक, कराव, वराक, कलरवरामे, तासेवक' पद्मान्तरजातिः। कीदृक्ष लक्ष्मीपतिहृदयं? कीदृग्युगं रतिप्रीत्योः? । कः स्तूयतेऽत्र शैवैर्गुणवृद्धि वाऽज्झलौ कस्य? ॥ १४८ ॥ 'स्युः' द्विर्गतजातिविशेषः। कुत्र प्रेम ममेति पृच्छति हरिः? श्रीराह कुर्यां प्रियं, किं प्रेम्णाहमहो गुणाः कुरुत किं यूयं गुणिन्याश्रये?। किं कुर्वेऽय॑महं? प्रगायति किमुद्गाताह सीरायुधः?, किं प्रेयः प्रणयास्पदं स्मरभवः पर्यन्वयुंक्तामयम्? ॥ १४९ ॥ 'यायमानसारादहेम' मंजरीसनाथजातिः। विकरुण! भण केन किमाधेया?, का रज्यते च केन जनोऽयम्? कार्या च? का वाणिज्या? का धर्मे नेष्यते? कयाऽरंजि हरि? ॥ १५० ॥ 'यायमानसारादहेम' विपरीतमंजरीसनाथजातिः। १. 'न' इति मु० Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १३७ काः कीदृशीः कुरुध्वे किं? सन्तोषाग्निनर्षयो यूयम्। किमहं करवै मदन-भयविधुरितः कान् कया कथय? ॥ १५१॥ 'यायमानसारादहेम' गतागतः। कृषीबलः पृच्छति कीदृगार्हतः?, क्व केन विद्वानुपयाति हास्यताम्? सुरालयक्रीडनचञ्चुरुच्चकै-श्च्युतिक्षणे शोचति निर्जरः कथम्? ।। १५२ ॥ ___ 'हालिक, कलिहा, नालिके, केलिना, नाककेलि हा' मन्थानजातिः। कं कीदृक्षं स्पृहयति जनः शीतवाताभिभूत:?, कश्चिद्वृक्षो वदति पलभुग्मांससत्के क्व रज्येत्? । हे तुबूते परिवहति का स्थूलमुक्ताफलाभां?, यव्यक्षेत्रक्षितिरिह भवेत् कीदृगित्याह काकः? ॥ १५३ ॥ _ 'कंबल, केसर, कारक, सयवा' गतागतचतुष्टयम्। श्रीचित्ते प्रियविप्रयोगदहनोऽहं कीदृशे किं दधे?, प्रेम्णा किं करवाण्यहं हरिपदोः पप्रच्छ लक्ष्मीरिति?। कस्मै चिक्लिशुरंगदादिकपयः? क्वानोकहे नम्रता?, कस्मै किं विदधीत भक्तविषयत्यागादिकर्हितः? ॥ १५४ ॥ से तप, पतसे, सेतवे, वेतसे' मन्थानान्तरजातिः। हिमवत्पत्नी परिपृच्छति कः, कीदृक् कीदृशी कस्याः कस्मिन्? केन न लभ्या नृसुरशिवश्री-रित्याख्यत् किल कोऽपि जिनेन्द्रः? ॥ १५५ ।। 'मेनेपिनाकीवक्तावाननेतेविनये' गतागतः। तणजलतरुपुन्नं वाहसुन्नं पि रन्नं, भण हरिणकुलाणं केरिसं केरिसं नो। प्रलयपवनवेगप्रेरणात् कीदृशेऽब्धौ, सतततदधिवासं व्यूढमैक्षं तकं वा? ॥ १५६॥ 'बहुलहरितरच्छाकुलचलच्छंखेमकरं' को धर्मः स्मृतिवादिनां? दधति के द्विःसप्तसंख्यामिह?, प्रार्थ्यन्ते च जनेन के भवभवा:? पुंसां श्रियः कीदृशः? । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ प्रश्नोतरैकषष्टिशतकाव्यम् के वाऽभ्रंकषकोटयः शिखरिणां रेजुस्तथा कांश्चन, श्रीरस्मानजनिष्ट नाङ्गजमिति प्रोक्तान् वदेत् किं स्मरः? ॥ १५७॥ 'मामसूतसानवः' मंजरीसनाथजातिभेदः। पाके धातुरवाचि कः? क्व भवतो भीरो! मनः प्रीयते?', सालंकारविदग्धया वद कया रज्यन्ति विद्वज्जना:?। पाणौ किं मुरजिद्विभर्ति? भुवि तं ध्यायन्ति वा के सदा?, के वा सद्गुरवोऽत्र चारुचरणश्रीसुश्रुता विश्रुताः? ॥ १५८॥ 'श्रीमदभयदेवाचार्याः। कः स्यादम्भसि वारिवायसवति? क्व द्वीपिनं हन्त्ययं?, लोकः प्राह हयः प्रयोगनिपुणैः कः शब्दधातुः स्मृतः? । ब्रूते पालयिताऽत्र? दुर्धरतरः बव क्षुभ्यतोऽम्भोनिधे-? ब्रूहि श्रीजिनवल्लभस्तुतिपदं कीदृग्विधाः के सताम्? ॥ १५९ ॥ 'मद्गुरवोजिनेश्वरसूरयः' द्विर्गतः। प्रत्येकं हरिधान्यभेदशशिनः पृच्छन्ति किं लुब्धकः?, त्वं प्राप्तं कुरुषे मृगव्रजमथो खादद्गृहीताऽवदत् । कीदृग्भाति सरोऽर्हतश्च सदनं? किं चाल्पधी वन्, पृष्टः प्राह? तथा च केन मुनिना प्रश्नावलीयं कृता? ॥ १६०॥ 'जिनवल्लभेन' गतागतद्विर्गतः। किमपि यदिहाश्लिष्टं क्लिष्टं तथा विरसं क्वचित्प्रकटितपथानिष्टं शिष्टं मया मतिदोषतः। तदमलधिया बोध्यं शोध्यं सुबुद्धिधनैर्मनः, प्रणयविशदं कृत्वा धृत्वा प्रसादलवं मयि ॥ १६१॥ इति प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् * * * १. 'प्रीतये' इति मु० २. 'स्यादम्बुनि' इति अ० Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. चित्रकूटीय-वीरचैत्य-प्रशस्तिः (अष्टसप्ततिः) स्वयम्भुवोऽक्षावलियाम आदृता, विशेषतु[ष्य]वृषभावभासिनः। चतुर्मुखश्री[ध]रशङ्कराश्चिरं, भवस्थितिध्वंसकृतः पुनन्तु वः॥ १॥ भक्तिव्यक्ति[भरा]नतामलवपुःसङ्क्रान्तकान्तस्फुरत् सर्वाङ्गस्तदनुस्मृतेरिव तरां बिभ्रत्तदेकात्मताम्। यः सद्धर्मकथाक्षणे सममि[मं] त्रातुं समग्रं जनं, क्लृप्तानेकतनुर्व्यभाव्यत स वो वीरः शिवं यच्छतात् ॥ २॥ स जिनो जीयादलिकुल[ललामविलुलितसुकार्य] बहुलजटम्। ___ मुखचन्द्रचन्द्रिकावा[या]मकाम विचरंश्चकोर इव॥ ३ ।। बद्धाञ्जलिस्त्रिदशसंहतिरास्यपद्म-निर्यद्वचो मधुरसं निभृता[तं] पिबन्ती। यत्कायकान्तिविसरच्छुरितावभासे, भृङ्गावलीव भविनां स मुदे सुऽस्तु] पार्श्वः॥ ४॥ श्रीलीलासद्मपद्मं मुखशशिविशदाभीषुभिभिन्नमुच्चै रुन्मीलत्पत्रपुञ्जारुणरुचिरुचिरं हस्तपादानुलग्नम्। जिह्वालं[शं] जगत्याः समुदितमिव वाक्सारसंसारहेतो __ र्बिभ्राणा भूरिभूतिस्त्रिभुवनजननी पातु देवी गिरां वः॥ ५ ॥ मथितदवथौ सम्पूर्णांशे सदामृतवर्षिणि, प्रसरति घनच्छाये प्राज्ये प्रमारनृपान्वये। स्फुटशुचिरुचिः श्रीमान्मुक्तोपमोऽद्भुतवैभव स्त्रिभुवनजयी राजा भोजो बभूव विभुर्भुवः॥ ६॥ १. यह प्रशस्ति चित्तौड़ के वीर-चैत्य में शिलापट्ट पर उत्कीर्ण की गई थी किन्तु आज यह प्राप्त नहीं है। इसकी एकमात्र प्रतिलिपि हस्तलिखित प्रति के रूप में लालभाई दलपतभाई भारतीय संकृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद, पू० मुनि श्री पुण्यविजयजी के संग्रह में ग्रन्थाङ्क ७९३ पर प्राप्त है। इस प्रशस्ति का प्रसिद्ध नाम 'अष्टसप्तति' भी है। इसके प्रणेता श्रीजिनवल्लभसूरि हैं। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० चित्रकूटीय वीरचैत्य-प्रशस्तिः कान्तित्यक्ताश्च्युतार्था गलितगुणरसौज:समाधिप्रसादाः, . सन्मार्गातिक्रमेण त्रिजगदवमता हीनवर्णस्वराश्च। क्लिष्टाः शिष्टैरजुष्टाः स्खलितपदभृतो प्रष्टभावानुभावाः, यस्यालङ्कारमुक्ताः कुकविगिर इवाख्यातिमापुर्विपक्षाः॥ ७॥ यश्चकार कलिं भूयः कृत प्रतिकृतिं बलात्। चक्रे च द्वापरं नासाव त्रेतायां जयश्रियि॥ ८॥ स्थिराशोकः पृथ्वीतलमदनवारः सुकरजः, शमीश्रीपुन्नागः प्रियकलवलीवंशतिलकः। जयारम्भारोही सरलसहकारोऽर्जुनरुचि र्य इत्थं स त्यागप्रकृतिरपि नाधत्त विटपान्॥ ९॥ उत्सर्पद्दर्पसर्पत्सुभटभरकरोद्भूतधौतासिधारा ___ संघट्टस्पष्टनिर्यज्ज्वलदनलकणव्याप्तरोदोन्तरालः। संख्ये संसक्तमुक्ताफलनिकरनिभस्वेदवार्बिन्दुसीते, यद्वक्षोजल्पतल्पे दितदवथुरिवाशेत सुस्था जयश्रीः॥ १०॥ वेदाभ्यासजडं पुराणपुरुषं हित्वा गुणान्वेषिणी, ___ शश्वद् यद्वदनाम्बुजं ध्रुवमशेश्रीयिष्ट वाग्देवता । तर्कव्याकरणेतिहासगणितादित्यद्भुतं वाङ्मयं, स्रष्टेवाभुजदन्यथा कथमयं निःशेषमिच्छावशात् ॥ ११॥ नम्रानेकक्षितीशोद्भटमुकुटतटीकोटिकाषोज्ज्वलांहे लक्ष्मीर्यस्याक्षिपद्मं ध्रुवमखिलगुणैः सार्धमेवाध्युवास। लोकन्यक्कारहेतावधमतमजनेऽप्याशु यदृष्टिपाता ....."नकस्मादहमहमिकया सद्गुणाश्च श्रियश्च ॥ १२ ॥ कर्णाटीकिलकिञ्चितक्षतिकृतः कामार्तजाताङ्गना, तुङ्गानङ्गनिषङ्गभङ्गगुरवो गौडीमदच्छेदिनः। लाटीकुट्टमितान्तकाः समभवन्नाभीरनाभीभवद् भूयो विभ्रमभेदिनो विजयिनो यस्य प्रयाणोद्यमाः॥ १३ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १४१ नित्यानन्ददशान्वितो नवशशिच्छायोऽष्टदिङ्नायकः, सप्ताश्वप्रतिमोऽरिषट्कविजयी पञ्चाङ्गमन्त्रोद्यमी। चातुर्वर्ण्यविभुः शुभोदयफलाभिव्यक्तशक्तित्रयः, श्रीमान्यः समिति द्विधा दधदरीनेकः क्षितीशोऽभवत्॥ १४॥ सर्वो[v] पतिगर्वखर्वणचणे दैवात्प्रतीपोल्बणे, न्यग्भूते पर[सर्व]पार्थिवगणे मग्ना विपक्षार्णवे। येनैकेन महावराहवपुषा मालव्यभूरुद्धृता, कृष्णेनेव ततः स सत्य उदयादित्योऽभवद् भूपतिः ॥ १५ ॥ अस्खलितसुललितगतिर्दानप्रसरप्रसादितजनालिः। गुरुगिरि निबद्धरागः, स्फुटमभवदनेकपो भुवि यः॥ १६॥ नीलत्तालतमालपत्रविशदश्यामासिपत्रप्रभा पुजैर्नीलपटावगुण्ठनमिव प्रावृत्य विष्वकृतैः। युद्धेषूद्धतवैरिवीरविसरं मुक्त्वानुरागग्रहा वेशाद् द्रागभिसारिकेव विजयश्री: शिश्रिये यं स्वयम्॥ १७॥ यत्सैन्यैरेव लुण्ठत्तुरगखरखुराग्रक्षतक्षोणिपृष्ठ प्रोत्सर्पत्पांशुपुञ्जस्थगितसुरपथे प्रस्थिते दिग्जयाय। यद्वीक्षा कौतुकिन्योऽनिमिषमृगदृशो विस्मयस्फारिताक्ष्यो, __ व्योनि व्यासर्पि रेणूत्करकलिपिप्रियुश्च ॥ १८॥ बिभ्रज्जागरमादधद्विजयतां धैर्यं समुन्मूलयन्, कुर्वन् गाढमनोज्वरं प्रतिकलं निघ्नन् विवेकोदयम्। तन्वानस्तनुकम्पसम्पदमलं लज्जां समुज्जासयत्, यः स्त्रीणां द्विषतां च पर्णशयने तुल्यं स्थितिश्चेतसि ॥ १९॥ शस्त्रोद्भिन्नमहेभकुम्भविगलत्कीलालकुल्याशता, स्रोतोवेगवहन्मृतोद्भटभटा श्रेणीशिरः संकटाः। चञ्चच्चञ्चलचञ्चु विचरत्... "कङ्करकोत्करा, - कीर्णाः काककुलाकुला रणभुवः प्रोचुर्यदुज्जृम्भितम्॥ २० ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ चित्रकूटीय वीरचैत्य-प्रशस्तिः स्वकायकान्त्या जितजातरूपः, पुरूरव:पार्थपृथुस्वरूपः। साम्राज्यमज्यानि ततोऽनुरूपः, समासदच्छ्रीनरवर्मभूपः॥ २१ ॥ यद् यात्रासु प्रसर्पद्बहलवरभ[टो]द्धृतधूलीविताने, रुन्धाने व्योम सद्यो मनसि घनघटाटोपमारोपयद्भिः। स्फूर्जत्पर्जन्यगर्जोर्जितजयपटहध्वानमाकर्ण्य नूनं, नेशे कुत्रापि देशे भयतरल[लस]न्मानसं राजहंसैः ।। २२ ।। प्रणयिजनकल्पवृक्षो हरिचन्दनकान्तिरमलसंतानः । मन्दारसुरतरुचितवपुरपि यो पारिजातोऽभूत् ॥ २३ ॥ सौम्यः पूर्णकलामयः कविगुरुर्भूनन्दनोऽत्यूजित___ स्फूर्जद्वीर्यशिखी विभाकरवपुर्भास्वत्सुतः सत्तमः। शत्रूणामनवग्रहप्रकृतिरप्याश्चर्यचर्याकरः, श्रीमानित्थमहो नवग्रहमयीमूर्तिर्बिभर्ति स्म यः॥ २४ ॥ धृतासिरेकोऽपि यदैव सोऽरीन्-द्विधा व्यधाद् यत्र रणाजिरे यान्। पञ्चत्वमप्याप्य तदैव चित्रं, त एव तत्र त्रिदशत्वमीयुः ।। २५ ।। तत्कालोन्मीलदन्तर्मदवशमुकुलं लोलनेत्रोत्पलानि, द्रागुद्यद्रागवेगोद्गतरतिजलतिम्यन्नितम्बाम्बराणि। सद्यः स्वेदोदवाहस्नपितजडतनूत्फुल्लसत्कम्पशीर्य नीवीबन्धानि जजुर्विजितरतिपतिं वीक्ष्य यं यौवतानि॥ २६॥ अपरितिमिताः कण्ठे हारावरोधविधानतः, समुदितशुचोऽलंकारार्हाः सदानविलासिनः। अवनिमवनिप्रापुर्यत्र द्विषः सुहृदोऽपि च, स्फुटकुपतिताः कान्तारागाश्रयाः परमश्रियम्॥ २७ ॥ सीत्काराः कण्टकार्त्या कुचकलशतटे साध्वसात्कम्पसम्पत्, त्रासायासप्रणाशान्निवसनकबरीस्रंसनास्तद्वदेव । रोमाञ्चः शीतवातैः प्रहणनमुरसः शश्वदस्तोकशोकात्, कान्तारेपीत्यभूवन् यदरिमृगदृशां केलिलीलाविलासाः॥ २८ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १४३ दोर्दण्डचण्डिमवशीकृतमेदपाट-क्षोणीललाटतिलकोपममस्ति तस्य। श्रीचित्रकूटगिरिदुर्गमुदग्रकूट-कोटीविटङ्कितसुघट्टितपुष्पदन्तम् ॥ २९ ॥ यत्रेन्दुद्युतिचौरपौरसुदृशो गम्भीरनाभ्यन्तर भ्राम्यत्तोयरयोच्छलत्कलकुहूत्कारभ्रमत्कुक्कुहम्। व्यातेनुः स्मितनेत्रवक्त्रमिषतो गाम्भीरमम्भोमिलत्, फुल्लेन्दीवरपङ्कजं किल [वपुः?] क्रीडाक्षणेषु क्षणम्॥ ३० ॥ व्यक्तं ......"प्रतिरतिगृहं गातु सम्भोगभङ्गि __ व्यासक्तानां त्रिलयनिपुणप्रौढ़पण्याङ्गनानाम्। कामाह्वानध्वनिमिव रताघातसीत्कारमिश्र, लोको यस्मिन्ननिशमसृणोन्म मञ्जीरसिञ्जाम्॥ ३१॥ शश्वद्देहार्द्ध[भा]वस्थितगिरितनया कोपशङ्काकुलेन, त्र्यक्षेणावीक्षितानां जितसुरसदृशां यत्र लीलावतीनाम्। भ्रूवक्रे चापलेखां जघनभुवि रतिं दृम्विलासेषु वालान्, धृत्वा शृंगारसारं कुचकलशतटे निर्वृतोऽभून्मनोभूः॥ ३२ ॥ प्रवालमणिरुच्छलच्छविरुचौ कपोलस्थले, गले च मणिमालिका विशदबिन्दुमालालिके। शशप्लुतकमुद्धरे स्तनभरे विडू(?)रित्युदै दनङ्गरतिषु(?)........."यत्र वामध्रुवा ।। ३३ ।। शुभ्रादभ्रस्फुटाभ्रङ्कषशिखरतटीकोटिसंघातघात___ प्राज्यज्योतिर्विमानत्रुटितमणिशिलाखण्डपिण्डभ्रमाणाम्। यत्रार्हद्वेश्मपंक्तिस्फुरितशुचिरुचिस्फारहैमाण्डकानां, श्रेणिर्निश्रेणिकेव त्रिदिवशिवपदप्राप्तये भक्तिभाजाम्॥ ३४ ॥ श्रद्धाबुद्धिविशुद्धबन्धुरविधिप्रस्तावकश्रावक स्तोमे शान्तमतौ वितन्वति यथाऽर्हषड्विधावश्यकम् । तद्वर्णोज्ज्वलवी[चि]गर्भनिनदैर्मन्त्रैरिव त्रासितं, सम्यक्शुश्रुवुषामनस्यदशुभं यत्राङ्गिनां दूरतः॥ ३५ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ चित्रकूटीय वीरचैत्य-प्रशस्तिः तत्राम्बक-केहिल-वर्द्धमानदेवप्रमुखप्रचुरवणिजाम्। सद्धर्मकर्मनिर्मितिमान् वसति स्म समुदायः॥ ३६ ।। दाक्षिण्यं निर्व्यपेक्षं कृतविविधबुधाश्चर्यमौदार्यमार्य, ___ शुद्धो बोधः प्रियत्वं जगति निरुपमं पापगर्दा प्रवर्हा। शुश्रूषा विश्वभूषा जिनवचसि गुरुर्धर्मरागोपरागः, प्रायः सम्यक्त्वलिङ्गं गुणगण इति यस्मिन् समालक्षि तज्ज्ञैः॥ ३७॥ तृष्णाकृष्णाहिताक्षाः कृतविलसदसदृष्टिसम्मोह"न्, प्रारोहोन्ता(?)हदाहः प्रचितभवदवज्वालजालाम्बुवाहः। तथ्यार्हद्धर्मपथ्यारुचिविजितगदः क्रोधकण्डूतिपूति प्रोभूतिस्फीतवातः प्रतिसमयमदीपिष्ट यद्दर्शनात् सः॥ ३८॥ इतश्च नृचकोरदयितमपमलमदोषमतमोऽनिरस्तसद्वृत्तम्। नालीककृतविकासोदयमपरं चान्द्रमस्ति कुलम्॥ ३९ ॥ तस्मिन्बुधोऽभवदसङ्गविहारवर्ती, सूरिर्जिनेश्वर इति प्रथितोदयश्रीः। श्रीवर्द्धमानगुरुदेवमतानुसारी, हारोऽभवन् हृदि सदा गिरिदेवतायाः॥ ४०॥ सामाचार्यं च सत्यं दशविधमनिशं साधुधर्मञ्च बिभ्र तत्त्वानि ब्रह्मगुप्तीनवविधविदुरः प्राणभाजश्च रक्षन्। हित्वाष्टौ दुष्टशत्रूनिव सपदि मदान् कामभेदान् च पञ्च, __ भव्येभ्यो वस्तुभङ्गान्विनयमथ नयान् सप्तधाऽदीदिपद्यः॥ ४१ ॥ क्रूराकस्मिकभस्मकग्रहवशेऽस्मिन् दुःखमादोषतो, ___ बाढं मौढ्यदृढाढ्यदूढ्यकुगुरुग्रस्ते विहस्ते जने। मध्ये राजसभं जिनागमपथं प्रोद्भाव्य भव्ये हितं, सर्वत्रास्खलितं विहारमकरोत् संविनवर्गस्य यः॥ ४२ ॥ के मूर्खन्ति कुतीर्थिका न च न वा नाकन्ति वा वादिनो, लोकाः केचन किंकरन्ति न च के खर्वन्ति वा गर्विताः। शिष्टः शिष्यति को न पुत्रति न कः साधुर्न मित्रन्ति वा, के मित्राः करुणास्पदन्ति न च के यस्याग्रतो जन्तवः॥ ४३ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि यस्मिन्मोहवनप्लुषि स्मरपिषि ध्वस्तोग्ररागत्विषि, क्षीणद्वेषदवार्चिषि स्मयमुषि "ध्यान्ध्यं सतां जक्षुषि । दृष्टे पुण्यपुषि प्रशान्तवपुषि प्रत्तप्रशस्ताशिषि, १४५ द्रष्टुर्ध्यानजुषि क्षणात्क्षतरुषि प्रीतिर्बभौ चक्षुषि ॥ ४४ ॥ अनेकविधनायकस्तुतपदः सदोमाश्रयः, स्फुरद्वृषपरिग्रहस्तुहिनधामरम्याकृतिः । प्रभूतपतिरद्भुतश्रुतविभूतिरस्तस्मरो, महेश्वर इवोदभूदभयदेवसूरिस्ततः॥ ४५ ॥ हर्षोत्कर्षोरुपुष्यत्पुलककणमिषा यद्वचः शुश्रुवांसः, स्फीतान्तः[पुण्य?]पुञ्जोपचितमिव दलन्मोदकन्दोत्करञ्च । श्रद्धाम्बूत्सेकसुस्थं(?) परमशिवसुखप्राज्यबीजप्रभूतं, प्रोद्भूतं कूरपूरप्रथितमिव वपुर्बभ्रिरे भव्यसभ्याः ॥ ४६॥ दर्पासेवाविशेषान् दश नव निदानानि माना तथाष्टौ, भीतिः सप्तापभाषाः षडपि च विषयान्पञ्च संज्ञाश्चतस्रः । त्रीन् दण्डान् बन्धने द्वे प्रथमगुणभृदप्येकमज्ञानमित्थं, मिथ्यादृग्बन्धहेतून् व्यमुचदपरथा [ पञ्च ] पञ्चाशतं यः ॥ ४७ ॥ श्रीवीरान्वयवृद्धये गणभृता नानार्थरत्नैर्दधे, यः स्थानादिनवाङ्गशेवधिगणः कैरप्यनुद्घाटितः । तद्वंश्यः स्वगुरूपदेशविशदप्रज्ञः करिष्यत्शुभां, तट्टीकामुदजीघटत् तमखिलं श्रीसंघतोषाय यः ॥ ४८ ॥ सत्तर्कन्यायचर्चार्चितचतुरगिर : श्रीप्रसन्नेन्दुसूरिः, सूरिश्रीवर्द्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनीड् देवभद्रः । इत्याद्याः सर्वविद्यार्णवकलशभुवः सञ्चरिष्णूरुकीर्तिः, स्तम्भायन्तेऽधुनाऽपि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः ॥ ४९ ॥ सद्गन्धे न च सद्रसे न च [ शुभ ] स्पर्शे न चेष्टे स्वरे, पादाते न च हास्तिके न च न वा श्वीये न च श्रीगृहे । साम्राज्ये न च वैभवे न च न च स्त्रैणे न चैन्द्रे पदे, यस्यात्मा सृजदागमस्थिरधियोऽन्यत्र व विद्वान्न च ॥ ५० ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ चित्रकूटीय वीरचैत्य-प्रशस्तिः दिक्कान्ताकर्णपूरप्रणयपरिचितान्वर्णन..."सान्, प्रोद्दामानन्दमन्दं गुणिजनमनिशं कुर्वतः सर्वतोऽपि। यस्तस्य स्फूर्जदूर्जस्वलसकलगुणान्वक्तुमीहेत वाचा, __सर्वाकाशप्रदेशानपि विशकलितान् सोऽर्हति द्रष्टमक्ष्णा॥ ५१ ॥ लोकाय॑कूर्चपुरगच्छमहाघनोत्थ-मुक्ताफलोज्ज्वलजिनेश्वरसूरिशिष्यः। प्राप्तः प्रथां भुवि गणिर्जिनवल्लभोऽत्र, तस्योपसम्पदमवाप ततः श्रुतञ्च ॥५२॥ योग्यस्थानानवाप्तेः पृथुदवथुमिथोविप्रयोगाग्नितप्तेः, शश्वद्विश्वभ्रमार्तेरपि च तनुतरामात्ममूर्तिं दधत्यः। सत्यं यद्वक्त्रपङ्केरुहसदसि सहावासमासाद्य सद्यः विद्याः प्रीत्येव सर्वा युगपदुपचयं लेभिरे भूरिकालात्॥ ५३॥ कदाचित् विहरन् सोऽथ, चित्रकूटमुपाययौ। तत्रत्यसमुदायश्च तं सद्गुरुममन्यत ॥ ५४॥ अर्हच्छास्त्रनिशातशाणनशिलाशातीकृतप्रोल्लसत्, यद्वाक्सारकुठारदारितचिरोदग्रग्रहग्रन्थयः। उन्मीलद्विमलावबोधविकसत्सद्दर्शनास्तत्त्वत स्ते प्रायः समुदायिनो नवमिवार्हच्छासनं मेनिरे ॥ ५५ ॥ बिभ्युश्च भस्मकात्प्रास्थन्, प्रस्थितं तत्पथे जनम्। तदुक्तीस्तत्यजुर्जजुस्तद्दौष्ट्यं तुष्टवुर्गुरून् । ५६ ॥ तथ्यताथागताम्नायश्रुतिवर्धिष्णुसद्धियः। कर्हिचित्तेऽथ संविग्नाश्चित्ते चिरमचिन्तयन् ।। ५७ ॥ कान्ताकुञ्चितकुन्तलालिकुटिलः संसारवासोङ्गिनां, तद्विस्तीर्णनितम्बपालिविपुलं दु:खं मन:कायजम्। तद्व्याल[प्र!]विलोचनाञ्चलबलं लक्ष्म्यादि तद्विभ्रम भ्रान्तभ्रूयुगभ[ङ्गरं]गुरुपदं तन्मध्यतुच्छं सुखम् ॥ ५८ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १४७ आः क्रूरः कामवैरी बत विषयकषायाः कृतारुच्यपाया, हा रौद्राः कापथौघा अहह सुविषमाः साधयो व्याधयोऽपि। ही भीमो मोहभिल्लः प्रविलसति हहा मृत्युरत्युग्ररूपः, संसारेऽतः श्रुतोक्त्या भवहरमुचितं धर्मकर्म प्रकुर्मः॥ ५९॥ श्रीमान् सोमिलकोत्थधर्कटवरोऽथो वर्द्धमानाङ्गभू वर्ण्यः स्वर्णवणिक्षु धार्मिकगणाग्र्यो वीरदेवः सुधीः। माणिक्याङ्गहश्च धर्कटवृषा श्रीपल्लिकायां पुरि प्रख्यातः सुमतिः प्रणष्टकुमतिः प्रद्युम्नवंशाग्रजः॥ ६० ॥ भिषग्वरः क्षेमसरीय-सर्वदेवाङ्गभूः रासल धन्धमध्यः। सद्धर्मधीींरक आद्यहेतुर्विशेषतश्चैत्यचतुष्कसिद्धेः॥ ६१॥ खण्डेल्लवंश्योऽग्रजमानदेवः, पाद्मप्रभिः प्रल्हक इत्युदात्तः। विचार्यबुद्धया जिनधर्मरत्नं, जग्राह यः कुग्रहनिग्रहीता ।। ६२ ।। श्रीपल्लिकाविश्रुतशालिभद्र-सूनुः समग्राम्यगुणाधिवासः। साधारणः साधुसधर्मचारिसमर्थसामर्थ्यतया यथार्थः॥ ६३ ॥ ईदृग्गुणाढ्यः खलु सढकोऽपि-श्रीपल्लिकेन्दोर्ऋषभस्य पुत्रः। यः प्राप्तुमिच्छुः पदमक्षरं स्वे, चैत्यालयेऽलेखयदक्षराणि ॥ ६४ ॥ ध्यात्वा विशेषत इमे समुदायमध्या"""म धर्मविधिबन्धुरवृद्धबोधाः। क्षेत्रप्रकीर्णविभवा विधिचैत्यवेश्मा[धी]शाज्ञया किल चिकारयिषां बभूवुः ।। ६५ ॥ यतः - क्षुद्राचीर्णकुबोधकुग्रहहते स्वं धार्मिकं तन्वति, द्विष्टानिष्टनिकृष्टधृष्टमनसि क्लिष्टे जने भूयसि। तादृग्लोकपरिग्रहेण निविडद्वेषोग्ररागग्रह. ग्रस्तैस्तद्गुरुसात्कृतेषु च जिनावासेषु भूम्नाधुना॥ ६६ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ चित्रकूटीय वीरचैत्य-प्रशस्तिः तत्त्वद्वेषविशेष एष यदसन्मार्गे प्रवृत्तिः सदा, सेयं धर्मविरोधबोधविधुतिर्यत्सत्पथे साम्यधीः । तस्मात्सत्पथमुद्विभावयिषुभिः कृत्यं कृतं स्यादिति, श्रीवीरास्पदमाप्तसम्मतमिदं ते कारयांचक्रिरे॥ ६७ ॥ तेने तेनेह कीर्तिः शशि[रुचि]रुचिराऽदारि दारिद्रमुद्रा, चक्रे चक्रेश्वरत्वं स्ववशमुपचयं प्रापि पापप्रपञ्चः। सत्यङ्कारः सुरेन्द्रश्रियमुपदददे पत्रलाऽ लेखि मोक्षे, कामं कल्याणभाजा विधिजिनसदनं कारितं येन भक्त्या ॥ ६८ ॥ इति सुजनसमाजैः साञ्जसैनंद्यमाना, द्विजवरनृपलोकैः सम्यगुत्साह्यमानाः। शिवपथरथरूपं साधयामासुरेते, जिनगृहमिदमेतत् कीर्तिकूटोत्कटश्रि॥ ६९॥ प्रारम्भादपि चात्र विस्तृतशिलासंघट्टपिष्टा इव, क्लेशा नेशरमन्दवाद्यनिनदोद्विग्नेन भग्ना विपत् । भव्यानां शिखराग्रचञ्चल[चल]द्वातक्वणत्किङ्किणी क्वाणेन ध्वजतर्जनीचलनतश्चागाद्विभीतेव भीः॥ ७० ।। अस्मिन्नस्मरवैरबन्धुरभवत्कल्याणकाद्युत्सव प्रोद्भूतोद्धरधूपधूमविसरव्याजेन भव्याङ्गिनाम्। भक्ति[व्यक्ति?]विविक्तसत्कृतततिस्तोमावरुद्धान्तर___श्चित्तेभ्यश्चिरसञ्चिताशुभचयो नश्यन्निवालक्ष्यते॥ ७१ ॥ अत्रस्तत्र पवित्र भगवद्यात्रासु कालागुरु प्रोत्सर्पच्चितभूमधूमपटलीमीलदृशेवाश्रिया। भक्त्या भव्यजनो मनोहरजनस्फाराक्षवक्त्रेक्षण क्षिप्ताक्षो न कदापि कोऽपि कथमप्यालोकितुं शक्यते ।। ७२ ॥ प्रतिरविसंक्रान्ति ददौ पारुत्थद्वितयमिह जिनार्चार्थम्। श्रीचित्रकूटपिण्ठामार्गादायान्नृवर्मनृपः॥ ७३ ॥ इह न खलु निषेधः कस्यचिद्वन्दनादौ, श्रुतविधिबहुमानी त्वत्र सर्वाधिकारी। त्रिचतुरजनदृष्ट्या चात्र चैत्यार्थवृद्धि-र्व्ययविनिमयरक्षा चैत्यकृत्यादि कार्यम्॥ ७४ ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १४९ अत्रोत्सूत्रजनक्रमो न च न च स्नात्रं रजन्यां सदा, साधूनां ममताश्रयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि। जातिज्ञातिकदाग्रहो न च न च श्राद्धेषु ताम्बूलमि त्याज्ञाऽत्रेयमनिश्रिते विधिकृते श्रीवीरचैत्यालये॥ ७५ ॥ ततश्च विभ्राणेन मतिं जिनेषु बलवल्लग्नेन जैन क्रमे, सत्सर्वज्ञमतेन पूतवचसा भद्रावलीमिच्छुना।। हित्वा चर्च्यपदावहेऽत्र वचने गहाँ प्रमादं दरं, रन्तव्यं विधिना सदा स्वहितदे मेधाविना सादरम्॥ ७६॥ 'जिनवल्लभगणेर्वचनमिदं' नामाङ्कचक्रम् । त्रैलोक्यं पट्टिकेयं कुमतिरिह मषीलेखनीकाललीला तत्स्वं(?) भा पञ्चसौधेन्द्रवरसकलशः सम्मृतिर्लेखशाला। लेखाचार्यः स्वकर्मेत्यशुभशुभफलं लिख्यते जन्तुशिष्यै वित्तावन्नमस्यजननिनद इनः प्रोच्चरन् खं रुणद्ध ॥ ७७ ॥ चक्रे श्रीजिनवल्लभेन गणिना संविग्नगीतव्रति ग्रामण्या सुकविप्रमोदसदनायेयं प्रशस्तिः किल। शाके वर्षगृणे वसुद्विदशके(१०२८)तां रामदेवः सुधीः, सुव्यक्तां जसदेवसूनुरुदकारीत् सूत्रधाराग्रणीः॥ ७८ ॥ प्रशस्तिर्जिनवल्लभीति। छ। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. चित्रकूटीय पार्श्वचैत्य - प्रशस्तिः (कमलदलगर्भम्) १. [ निर्व्वाणार्थी विधत्ते ] वरद सुरुचिरावस्थितस्थानगामिन्सर्व्वे [पी]२. [ह स्तव ते] निहतवृजिन हे मानवेन्द्रादिनम्य (1) संसारक्लेशदाह [ स्त्व] - ३. [य] च विनयिनां नश्यति श्रावकानां देव ध्यायामि चित्ते तदहमृषि ४. [वर] त्वां सदा वच्मि वाचा [ ॥ ] -१ ॥ नन्दन्ति प्रोल्लसन्तः सततमपि हठ [क्षि]५. [प्तचि] तोत्थमल्लं प्रेक्ष्य त्वां पावन श्री भवनशमितसंमोहरोहत्कुत६. [र्का: । ] भूत्यै भक्तयाप्तपार्श्व समसमुदितयोनिभ्रमे मोहवाद्ध ७. [स्वा]मिन्पोतस्त्वमुद्यत्कुनयजलयुजि स्याः सदा विश्ववं (बं)धो (॥)२॥ ८. नवनं पार्श्वाय जिनवल्लभमुनिविरचितमिह इति नामांकं च[क्रे । ] ९. [स]त्सौभाग्यनिधे भवद्गुणकथां सख्या मिथः प्रस्तुतामुत्क्षिप्तैकत१०. संभ्रमरसादाकर्णयन्त्याः क्षणात् । गंडाभोगमलंकरोति विश (दं) ११. [स्वे]दांवु(बु)सेकादिव प्रोद्गच्छन्पुलकच्छलेन सुतनोः शृंगारकन्दांकु१२. [रः] ॥ १ ॥ पुरस्तादाकर्णप्रततधनुषं प्रेक्ष्य मृगयुं चलत्तारां चा [रु प्रि]१३. [य]सहचरी पाशपतितां (ताम्) । भयप्रेमाकूताकुल- तरलचक्षुर्मुहु१४. [र] हो कुरङ्गः सर्व्वागं जिगमिषति तिष्ठासति पुनः ॥ २ सद्वृत्त [र] - १५. [म्यप]दया मत्तमातङ्गगामिनी । दोषालकमुखी तन्वी तथा१६. [पि] रतये नृणां (णाम् ) ॥ ३ क्षीरनीरधिकल्लोल-लोललोचनया१७. नया । क्षा (ल) यित्वेव लोकानां स्थैर्यं धैर्यं च नीयते ॥ ८ ॥ इति पार्श्वचैत्यप्रशस्तिः Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. आदिनाथचरितम् नमिय जिणमुसभमुभयंसदेसविलसंतकसिणकेसचयं । मुहससिजुण्हातण्हा-रसभमिरचकोरजुयलं व॥ १॥ असुरिंदसुरिंदनरिंदविंदवंदियथुयस्स तस्सेव।। थोयारहियकरं किर, सुचरियकणकित्तणं काहं ।। २॥ धणभवमुणिदाणफलेण भविय उत्तरकुरूसु मिहुणनरो। सोहम्मसुरो तो इह, महाबलोऽवरविदेहे तं॥ ३ ॥ संबुज्झिय ईसाणे, ललियंगसुरो सिरिप्पहविमाणे। संजाओऽसि तओ पुण, पुव्वविदेहे वयरजंघो॥ ४॥ उत्तरकुरुमिहुणनरो, सोहम्मसुरो हं बारसमविजए। विज्जसुओ चक्किसिरिं, साहुतिगिच्छाए संचिणिय॥ ५ ॥ जाओ तमच्चुयसुरो, अट्ठमविजए य भविय चक्कहरो। बीसं ठाणे सेविय, निबंधिउं तित्थयरनामं ॥ ६॥ सव्वढे सुरवरसिरिं, तित्तीसयरेऽणुभविय अवयरिओ। इक्खागभूमीएँ तुममासाढे पढमचउत्थीएँ ॥ ७ ॥ मरुदेविनाभिनंदण, तिनाणलोयणमिहागयं सहसा। चउदसवरसुमिणुत्तं पि तं' निवेइंसु सयलिंदा ॥ ८॥ वसहंककणयवन्नो, कासवगुत्तो कयतिहुयणुजोओ। कसिणट्ठमीऍ चित्ते, धणुम्मि रासिम्मि तं जाओ॥ ९॥ १. 'तिन्निवेयंसु' इति वि०। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आदिनाथचरितम् अह चलियासणछप्पन्नदिसिकुमारिकयसूइकायव्वो। तुमममरगिरिम्मि सोहम्मसामिणा लहु सयं नीओ॥ १० ॥ तो भत्तिब्भरनिब्भरमब्भुयभूओभवतभावेहि। सव्वड्ढि वड्डियायरमहि सित्तोऽखिलसुरिंदेहिं ॥ ११॥ सक्क करकलियमिक्खुं, बालत्ते दट्ठ मभिलसंतेण। इक्खागुवंसबीयं, जए पणीयं तए चेव॥ १२॥ वीसं कुमार भावे, रज्जे तेवट्ठि पुव्वलक्खे तं । सुरविहियाहारविही अच्छिय दरिसियकलासिप्पो॥ १३ ॥ जीयंति य लोयंतिय-विबोहिओ वरिसदिन्नवरदाणो। सिबिया सुदंसणाए, छटेण देवदूसधरो॥ १४॥ सिद्धत्थवणे तमसोग-तरुअहे चउहिं निवसहस्सेहिं। सह चित्ते बहुलऽट्ठमी, अवरण्हे जिण! विणिक्खंतो॥ १५॥ सेयंसेण गयउरे, इक्खुरसेण वरिसे तुमं पढमं । पाराविय खावियमिह, महाफलं सुमुणिवरदाणं ॥ १६॥ पंचधणुसयपमाणो, चउनाणो तुममसंगमोणेण। बहुदेसेसु विहरिओ, वाससहस्सं निरुवसग्गं॥ १७ ॥ तुह पुरिमतालपुरि सगडमुहवणे अट्ठमेण वडहिटे। फग्गुणकसिणिक्कारसिपुव्वण्हे केवलं जायं ॥ १८ ॥ अह चुलसीइसहस्से, साहूणं साहूणीण लक्खतिगं। तं सिवमग्गमकासी, चुलसीइ गणे गणहरे य॥ १९॥ पंचसहस्सऽब्भहियं, लक्खतिगं भावसावयाण तुमं। चउपन्नसहस्सजुया, लक्खा पंचेव सड्ढीणं ॥ २० ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १५३ चउदसपुव्वि सहस्सा, पउणा पंच नव ओहिनाणीणं। केवलिजिणाण वीसं, ते छसयजुया विउव्वीणं ॥ २१॥ बारससहसा छसया, सद्धा वाई य विउलमइणो य। बावीससहस्साणुत्तरोववाई नव सया य॥ २२ ॥ सामन्नं पालिय पुव्वलक्खमक्खिय महव्वए पंच। चक्कहरभरहवंदिय, चउकल्लाणुत्तरासाढा ॥ २३ ॥ पज्जंकठिओ' अट्ठावए समं दसहिं साहुसहसेहिं । तं माहकिण्हतेरसि-पुव्वण्हे ऽभीइरिक्खम्मि॥ २४ ॥ चउदसमेण सिवसुहं, संपत्तोऽसि जिण! वल्लह मुणीणं। मह कुरु दयं हर भयं, देहि मई नेहि परमपयं ॥ २५ ॥ इति आदिनाथचस्तिम् १. 'पल्लंकठिओ' इति मु०। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. शान्तिनाथचरितम् अप्पडिहयधम्मचक्केण फारफुडफुरियनाणरयणेण । जेण सयलंपि भरहं, पसाहियं साहियं च इमं॥ १॥ तं पणमिय सोलसमं, तित्थयरं पंचमं च चक्कहरं। तस्सेव किंचि सुचरियकण-थुणणं किल करिस्सामि॥ २॥ इह भरहे रयणपुरे, राया तुममासि देव सिरिसेणो। तो इह कुरूसु मणुओ, सुयवसणविरागओ जाओ॥ ३॥ होउं सोहम्मसुरो, वेयड्डे तं अहेसि खयरिंदो। अमियगुण-अमियतेऊ, रहनेउरचक्कवालपुरे ॥ ४॥ छव्वीस दिणे आउं, जाणिय पव्वइय पाणयसुरढिं। बीसयरे भुंजिय जंबुदीवरमणिज्जविजयम्मि ॥ ५ ॥ पुरी' सुभाए अपराजिओत्ति तं हलहरो जिण! अहेसि। पडिवज्जिय पव्वजा, तो पत्तो अच्चुइंदत्तं ॥ ६॥ चविउमिह मंगलावइविजए तं रयणसंचयपुरम्मि। खेमंकरनिवइसुओ, अहेसि वज्जाउहो राया॥ ७॥ इंदथुय! चरिय चरणं, चिरमुप्पन्नोसि नवमगेविजे। अह जंबुद्दीवअट्ठम विजए पुंडरिगिणिपुरीए॥ ८॥ घणरहतित्थयरसुओ, मेहरहनिवो भवित्तु पिउपासे। पाविय चरणं संचिणिय तित्थयरचक्कहरलच्छिं॥ ९॥ उप्पन्नो परमाऊ, सव्वढे तदणु हत्थिनागपुरे । सिरिवीससेणपणइणि-अइरादेवीएँ कुच्छिंसि॥ १० ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १५५ चउदससुमिणपिसुणिओ, मेसे भरणिकयपंचकल्लाण। भद्दवयकसिणसत्तमिनिसाए तं नाह! अवइन्नो॥ ११॥ अवयरिए तइं पियरो, समिच्च इंदेण सलहिया महिया। मायाऽसि गूढगब्भा, गिहं च फुडबहुविहनिहाणं ॥ १२ ।। तो जेट्टकसिणतेरसिरत्तीए कणयवण्ण हरिणंको। कासवगुत्ते जाओ, चालीसधणूसियसरीर!॥ १३ ॥ अह झत्ति जगुज्जोए, जाए चलियासणा करे महिमं। छप्पन्नदिसिकुमारी तदणु चउसट्ठिसुरवइणो॥ १४॥ गब्भगए चेव तए, असिवोवसमो जओ जए जाओ। सुमरणमित्तेणऽवि कुणसि संतिमिय नाम ते संती ॥ १५ ॥ पणवीसवाससहसा, कुमरत्ते मंडलित्त चक्कित्ते । समणत्ते य तुह गया, पत्ते पुण चक्कट्टिपए ॥ १६ ॥ जाया ते नवनिहिणो, चक्कट्ठ प्रइट्ठजोयणाट्ट च्चा। बारसनवजोयणदीहवित्थडा निहिसनामसुरा॥ १७ ॥ जक्खसहस्सा सोलस, तदुगुणा मउडबद्धनरवइणो। तदुगुणा रमणीओ, आणाणुगया तुह अहेसि ॥ १८॥ छन्नउई कडीओ पाइक्काण तह पवर गामाण। हयगयरहाण लक्खा, पत्तेयं तुज्झ चुलसीई॥ १९ ॥ बत्तीसबद्धनाडय, बत्तीससहस्स अभिणइजंतो। तावइयजणवयपहू, अकासि नासियभयं भरहं ॥ २० ॥ कमसो चउदस सोलस, बीसा बावत्तरी य नवनवई। संबाह-खेड-गागर-पुरवर-दोणमुह-सहसा ते॥ २१॥ आसी तुह पत्तेयं, मडंब-कब्बड-सहस्स चउवीसा। दुगुणाणि पट्टणाणि य, चउदसरयणेसर! जिणेस!॥ २२ ॥ छप्पन्नमंतरोदग-कुग्गाम-मेगूणवनमन्नं च। बहुवित्थडं छड्डिय, चक्किसिरि निवसहस्सजुओ ॥ २३ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ चरमवए जिट्ठासिय, चउदसि अवरहि तंसि निक्खंतो । सहसंबबणे छट्टेण लट्ठ - सव्वट्ठसिबियाए ॥ २४ ॥ सज्जो संजायचउत्थनाण तुह मंदिरे पुरे भमओ । बीयदिणे परमन्नं, पारणमासी सुमित्तघरे ॥ २५ ॥ वरिसे गयम्मि छद्वेण तुज्झ पोससियनवमिपुव्वण्हे । सहसंबवणे केवलमुप्पन्नं नंदिरुक्खतले ॥ २६ ॥ तक्खणखुभियाखिलसुरनिकायकयपढमसमवसरणठिओ । छत्तीसगुणधरे गणहरे य गणेऽकासि छत्तीसं ॥ २७॥ साहुसहस्सा बिसट्ठी चउसयहीणा य साहुणीणं ते । समणोवासग लक्खा, दुच्चिय' नवई सहस्सजुया ॥ २८ ॥ तिनवइ - सहस्स सहिया, लक्खा तिन्नेव देव! सड्ढीणं । चउदसपुव्वीण सयाणि अट्ठ वाईण तिगुणाणि ॥ २९ ॥ मणनाणिसहस चउरो, ते तिसयजुया य केवलिजिणाणं । ओहिन्नाणि सहस्सा, तिन्नि विउव्वीण ते दुगुणा ॥ ३० ॥ तु तिथे विग्घहरा, गरुडो जक्खो सुरो य कंदप्पो' । चउजामधम्मदेसग !, अमरिंदनरिंदविंदनय ! ॥ ३१ ॥ सव्वाउ वासलक्खं, पालिय खालिय समत्थकम्ममलं । मासियभत्तेण सएहिं, नवहिं साहूण परियरिओ ॥ ३२ ॥ बहुलाए तेरसीए, जिट्ठे सम्मेयपव्वए सामि ! | सासयसुक्खं मुक्खं गय! जिणवल्लह ! पयं देसु ॥ ३३ ॥ इति शान्तिनाथचरितम् १. 'दुन्निय' इति ह० । ३. 'साहूहि' इति अ० । शान्तिनाथचरितम् २. 'निव्वाणी' इति ह० । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. नेमिनाथचरितम् मयनाहिं सरिसविलसिरदेहपहाकयदिसामुहविभूसं । नेमिजिणं पणमिय, चरियलवमिमस्सेव कित्तेमि ॥ १ ॥ तित्तीसयरे अवराइयम्मि आसित्तु इत्थ अवयरिओ । सोरियपुरम्मि कत्तियबहुल दुवालसि निसिम्मि तुमं ॥ २ ॥ गोयमगुत्ते जाओ, सावणसियपंचमीए संखंको । कण्णा सिम्मि सिवा - समुद्दविजयाण कुलकेऊ ॥ ३ ॥ दसधणुड्ढतणू ठिओ, तं कुमारभावेण तिन्नि वरिससए । रायसिरिं रायमई, च गाढपणयंपि अगणितो ॥ ४ ॥ अह वरिसदिन्नदाणो, लोगंतियबोहिओ य जीयंति । उत्तरकुरुसिबियाए, तं रायसहस्सपरियरिंओ ॥ ५ ॥ रेवयगिरिम्मि सह संबवणगयासोगतरुतले भयवं । छद्वेण विणिक्खंतो, सावणि सियछट्टि पुव्वण्हे ॥ ६ ॥ तक्खणमणनाणजुयस्स तुह भमंतस्स बारवइनयरे । वरदिन्नदिन्नपरमन्त्र - पारणं आसि बीयदिणे ॥ ७ ॥ अह चउपन्नदिणंते, आसोयअमावसाऍ पुव्वण्हे । वेडसतरुहिट्ठे अठ्ठमेण तुह केवलं जायं ॥ ८ ॥ तो समणाणऽट्ठारस, चालीसं संजईण य सहस्सा । एगूणसत्तरं लक्ख - मक्खयगुणड्ढ सड्ढाणं ॥ ९ ॥ छत्तीससह स्सजुयं, लक्खतिगं गुरुगुणड्ढि सड्डीणं । इय परमपयासंघो, संघो तुह चउविहो जाओ ॥ १० ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ नेमिनाथचरितम् कोहंडी खंडियतित्थदुत्थय! गयतिण्ह! कण्हपणयपओ। सामन्नमसामन्नं, वाससए सत्त कासि तुमं ॥ ११ ॥ मणनाणिसहस्समणुत्तरोववाईण सोलस सयाणि। चउदसपुव्वीण सया, चउरो दुगुणा य वाईणं ॥ १२ ॥ पन्नरससया वेउव्वि, ओहिकेवलिजिणाण पत्तेयं । परिवारो तुह तं पन्नवेसि धम्मं चउज्जामं ॥ १३ ॥ छत्तीसुत्तर पंचसय-साहुसहिओ सहस्सवरिसाऊ। कल्लाणगपणगच्चिय, चित्तानक्खत्त नेसज्जी॥ १४॥ मासियभत्तेण तुमं, आसाढसियअट्ठमीइ रयणीए। उजिंते जिण! वल्लह, सिद्धिसुह पत्त कुणसु सिवं॥ १५ ॥ इति नेमिनाथचरितम् Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. पार्श्वनाथचरितम् गुणमणिनिहिणो जस्सुवरि फणिफणा रक्खगा इव फुरंति । तं पासजिणं पणमिय, तस्सेव थुणामि चरियलवं ॥ १ ॥ पाणयकप्पे अच्छिय, वीसं अयरोवमे इहोइन्नो । वाणारसीए तं जिण!, कसिणचउत्थीए चित्तम्मि ॥ २ ॥ पोसासियदसमीए, कासवगुत्तो तुलम्मि रासिम्मि । वम्माससेणमणपिय!, पियंगुवन्नो समुप्पनो ॥ ३ ॥ वितिमिरतिनाणनयणो, नवहत्थपसत्थलक्खणसरीरो । वसिओऽसि तीसबरिसे, कुमरत्ते रज्जसुहविमुँहो ॥ ४ ॥ मुणिय नियनाण जावई कुपहमहणाय सयलज्ञणपुरओ । कमठं धरिसित्तु फुडं, होसि तुमं परमकारुणिओ ॥ ५ ॥ सिबियाए विसालाए, आसमपयवणअसोगतरुमूले । पोसे बहुलिक्कारसि, पुव्वण्हे अट्ठमतवेण ॥ ६॥ निवतिसयजुओ पढमे, वयंमि पव्वइय एगदूसेण । चुलसीइदिणे चउनाणसंजुओ विहरिओ तंसि ॥ ७ ॥ पव्वज्जा - बीयदीणे, कोयगडपुरम्मि पायसेण तुमं । पाराविंतस्स फुडं, जायं धन्नस्स धन्नत्तं॥ ८॥ अट्टमभत्तंते, पुव्वण्हे किण्हचित्तचउथीए । अह उप्पन्नं धायइतरुतलम्मि तुह केवलं नाणं ॥ ९॥ तो साहूण सहस्से, सोलसए साहुणीण अडतीसं । सम्मवयड्डाण सड्ढाण ॥ १० ॥ चउसट्ठिमेगलक्खं, Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० पार्श्वनाथचरितम् जिणमयभावियसावियलक्खतिगं सत्तवीससहसजुयं । तुममिय चउविहतित्थं, अकासि भवजलहिबोहित्थं ॥ ११ ॥ अद्भुट्ठ सया चउदसपुव्वीणं चउगुणोहि नाणीणं । वाईण छस्सयाणुत्तरोववाईण ते दुगुणा ॥ १२ ॥ केवलिजिणाण दस विउलमइजिणाणं तु सत्त सड्ढाणि। वेउव्वीणेक्कारस, सयाणि तुह सुमुणि! परिवारो॥ १३ ॥ रायपसेणयपणमिय, विसाहरिक्खभवपंचकल्लाण!। वरिससयाऊ तित्तीसमुणिजुओ दिवसपुव्वण्हे ॥ १४॥ वाघारियपाणिय! मासिएण सावणसियअट्ठमीए तुमं । सम्मेयपव्वए जिणवल्लह सिवसुखपत्त! जय ॥ १५ ॥ इति पार्श्वनाथचरितम् Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. महावीरचरितम् दुरियरयसमीरं मोहपंकोहनीरं, पणमिय जिणवीरं निज्जियाणंगवीरं । भवभडपडिकूलं तस्स मुक्खाणुकूलं, चरियमिह समूलं किंचि कित्तेमि थूलं॥ १॥ किर गामचिंतगभवे, सम्मत्तं लहिय रहिय सोहम्मे। चविउं भविउं मिरिई, लइउं चइउं च चरणभरं ॥ २॥ उस्सुत्तलेसदेसण, कयसागरकोडकोडिभवभमणो। तह पढमवासुदेवो, भविय तिविट्ठ जिणुद्दिट्ठो॥ ३ ॥ संसरिय भवे जाओ, अवरविदेहम्मि मूयनयरीए। धारणि-धणंजय-सुओ, पियमित्तो नाम चक्कहरो॥ ४ ॥ तुडियंगाऊ पालिय, पव्वजं वासकोडिमुववन्नो। महसुक्के परमाऊ, सव्वटे वरविमाणम्मि ॥ ५॥ तो जंबूदीवभरहे, भद्दाजियसत्तुरायअंगरुहो । छत्तग्गाराएँ, पुरीए अहेसि तं नंदणो राया॥ ६॥ चउवीस वासलक्खे, वसियगिहे सुगुरुपुट्टिलसमीवे। निक्खमिय वासलक्खं, खविय सया मासखमणेहिं॥ ७॥ असयं सेविय वीसं, ठाणे अज्जणिय तित्थयरनाम। वीसयराऊ जाओ, पाणयपुप्फुत्तरे देवो ॥ ८॥ छम्मासवसेसाऊ, पुण्णखए मोहमिंति इयरेउ । आसन्नपुनपुंजा, तित्थयरसुरा उ दिप्पंति ॥ ९॥ १. 'इयरसुरा' इति अ० बी० ह०। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरचरितम् माहणकुंडग्गामे, अवयरिओ सिय असाढछट्ठीए। विप्पोसहदत्तगिहे, देवाणंदाइ उदरम्मि॥ १० ॥ अह बासीइदिणंते, चउदससुमिणेहिं इंतजंतेहिं । हत्थुत्तरकयकल्लाणापणगअच्छरियचरिय तओ ॥ ११ ॥ जणनायनायखत्तिय-पसिद्धसिद्धत्थपत्थिवपियाए। चेडगनिव भगिणीए, तिसलादेवीएँ कुच्छीए ॥ १२॥ सक्कभणिएण हरिणेगमेसिणा गब्भविणिमयं काउं। आसोयकसिणतेरसि-निसाए तं नाह! साहरिओ॥ १३ ॥ खत्तियकुंडग्गामे, जाओ चित्तसियतेरसिनिसद्धे । कासवगुत्ते' कणगाभ!, कन्नरासीइ सीहंको ॥ १४॥ जेण-चिंतामणि तुमए, अवइन्ने रयणजणधणकणेहिं । वड्डित्ता नायकुलंति वड्डमाणुत्ति तोऽसि फुडं ॥ १५॥ तं जम्ममजणखणम्मि सक्ककुवियप्पसंकमुक्खणिउं । जेण महंतमवि गिरिमीरित्थ तओ महावीरो॥ १६॥ पियरमरणेवि तं जिट्ठभाऊवयणेण ठासि वासदुगं। गिहिवासिच्चिय निरवजवित्तिणा निच्छय मुणिव्व ॥ १७ ॥ सत्तकरदेह गेहम्मि अच्छिउं तीस वच्छरे कुमरो। लोगंतियतारविओ, संवच्छरमिच्छियं दाउं ॥ १८॥ सुरनरवइकयबहुविह-जलण्हवणो सुरविलेवणविलित्तो। रुइरालंकार धरो, चउदेवनिकायसमणुगओ ॥ १९ ॥ चंदप्पहसिवियाए, मग्गसिरे कसिणदसमिअवरण्हे । पढमवए पव्वइओ, छटे णं नायसंडवणे ॥ २० ॥ कुम्मारगामबाहिं, वयपढमनिसाइ एइ किर सक्को। वारइ गोवं वागरइ, निरुवसग्गं करे भंते ! ॥ २१ ॥ १. कासवगुत्तो इति ह। २. निच्छिय इति ह०। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १६३ तमणिच्छिय तुह निच्छिय-मइणो विहरंत कुल्लयग्गामे। 'बहुलभवणे बीयदिणे पारणयं पायसेणासि ॥ २२ ॥ सुरकयविलेवणाइवि, साहियचउमासमासि ते दुहयं । भमराइकयत्थणतरुणपत्थणत्थीजणत्थणओ ॥ २३॥ पडिकूलसूलपाणिं, चंडक्कियचंडकोसियमहिं च। अगणिय नियतणुपीडं, पडिबोहियवं तुमं भयवं!॥ २४॥ एगरयणीइ वीसं, छहिं मासेहिं विविहउवसग्गे। तुह करिय हरियसुरसग्ग-संगमो संगमो जाओ॥ २५ ॥ कन्नेसु कडसलागा-पवेसगे अभिनिवेसगे गोवे। खरगे य तदुद्धरगे, तुह तुल्ला चेव मणवित्ती॥ २६॥ छचउतिदुगेगमासे एगनव दुछक्कबारस अकासी। अड्ढदिवड्ढड्डाइय-मासे बावत्तरी दो दो ॥ २७ ॥ दु-चउ-दसदिणा पडिमा, भद्द-महाभद्द-सव्वओभद्दा। कासि अच्छिन्ना तह, बारसेगराई तिदेवसिया॥ २८॥ पंचदिणूणछमासिय-खमणं कोसंबिए तुममकासि। दुन्नि सए गुणतीसे, अकासि तं छट्ठखमणाणं ॥ २९ ॥ दिवसूणझुट्ठ सया, पारणया पढमवयदिणं चेगं । इय तेरसपक्खाहिय, बारसवरिसावसाणे ते ॥ ३०॥ जंभियबहि उजुवालिय, तीसविसाहसियदसमिपहरतिगे। छटेणुक्कडुयट्ठियस्स, केवलं आसि सालतले ॥ ३१॥ सुरकयओसरणे ठाउमीसि कप्पुत्तिकाउ धम्मकहं । धुवमच्छरियं जाणिय, वरचरणअभव्वियं परिसं॥ ३२॥ बहु तियसकोडिसहिओ, निसि बारसजोयणेहिं पावपुरि। गंतुं महसेणवणे, चउविहतित्थं पयट्टित्था ॥ ३३ ॥ १. बलभवणे इति अ० बी० ह०। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ महावीरचरितम् साहुसहस्सा चउदस, छत्तीसं साहुणी सहस्साणि। सेगूणट्ठिसहस्सं, लक्खं सड्ढा, दुगुण सड्डी ॥ ३४ ॥ चउदसपुव्वी वाई, मणपज्जविणो य तिचउपंचसया। सत्तसया केवलिणो, विउव्विणो तत्तिया तुज्झ ॥ ३५ ॥ पंचजमधम्मदेसग, इक्कारस गणहरा नव गणा ते। तेरस ओहिजिणसया, अट्ठसयाणुत्तरगईणं ॥ ३६॥ पंचंतरायहासाइ-छक्क मिच्छत्तमविर इमनाणं । अट्ठारस दोसा रागदोस निद्दा य मयणो य॥ ३७॥ इय नट्ठठ्ठारसदोसदाह चउतीस अइसयसणाह। पणतीसबुद्धवयणाइसेस अच्छाह जयनाह!॥ ३८॥ नत्थि भवियव्वनासो, जं गोसालो तुमंपि तिजयपहुं। अक्कोसीय हहा!! तुह, पुरो महेसी दहेसी य॥ ३९ ॥ जत्थ निवसंति संतो, खणंपि तं किर कुणंति सुकयत्थं । इय नूणमुसभदत्तं, देवाणंदं च नेसि सिवं ॥ ४० ॥ सेणियनिव-सिद्धाइयदेवी-मायंगजक्खकयसेव!। नवतत्तसत्तभंगिं, पयडसि देसूण तीस समा॥ ४१ ॥ मज्झिमपावाए हत्थिवाल भूवालसुंक सालाए। पजंकठिओ पासाओ, वासदुसय गए सड्डे ॥ ४२ ।। कत्तियअमावसाए, गोसे छ?ण साइनक्खत्ते। एगुच्चिय बावत्तरि-वरिसाऊ तं सिवं पत्तो ॥ ४३ ।। एवं वीरजिणे दिणेसर ! तुमं मोहंधविद्धंसणं, भव्वम्भोरुह बोह सोह जणयं दो सायरुच्छे यणं । थोउं जं कुसलाणुबंधि कुसलं पत्तोऽम्हि किंची तओ, जाइज्जा जिणवल्लहो मह सया पायप्पणामो तुह॥ ४४ ॥ इति महावीरदेवचरितम् * * * Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. वीरचरितम् जय भववणनिक्कंदण! सिद्धत्थनरिंदनंदणजिणिंद ! | दुक्खियजणकरुणायर ! रयणायरवरगुणमुणीण ! ॥ १ ॥ विणयनयदेवदाणव-माणवपहु पयडपरममाहप्पं । तिजयपहुत्ते जुत्तं, इय जिणवर देव! तुह चेव ॥ २ ॥ दसमसुरलोगओ ओइन्नो तिन्नाणो, तुम-मासाढवलक्खपक्खछट्ठीए । देवाणंदोदरे तत्थ ॥ ३ ॥ बासीइं दिवसे वसिय, असियअसोयते र सिनिसाए । हरिणेगमेसिदेसिय, तिसलागब्भम्मि संकंते॥ ४॥ ससिकरपरिपंथी तुह जसुव्व सव्वत्थ - इत्थ - वित्थरओ । उज्जोओ तुह जम्मे, चित्ते सियतेरसिनिसद्धे ॥ ५ ॥ तो झत्ति दिसाकुमरी - छप्पन्नं सुरवई य चउसट्ठी । कयभुवणचमुक्कारं, करिंसु ते जम्मसक्कारं ॥ ६॥ तीसं वरिसे वसिउं, गुरूवरोहेण चेव गिहिवासे । कसिणदसमीऍ तमकासि मग्गसिरमासिपव्वज्जं ॥ ७॥ अहह!! सयलं न पावा, विहि तेह पन्नवणमणुमविदुरंतं । जं मिरिय भव तदज्जिय, दुक्कअवसेस लेसवसा ॥ ८ ॥ सुरथुइगुणो वि तित्थेसरो वि तिहुयणअरुल्लमल्लो वि । गोवाईहि वि बहुहा, कयत्थिओ तिजयपहुत्तंसि ॥ ९ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ वीरचरितम् थी-गो-बंभण-भूणंतगा वि केवि पुण दढपहाराई। बहुपावा वि पसिद्धा, सिद्धा किर तम्मि चेव भवो।। १० ।। मासद्धसद्धबारसवरिस वसहित्तु विविहउवसग्गे। तं पत्तो नाणवरं, सियाय दसमीऍ वइसाहो ॥ ११॥ सबभूवत्थुपयासय! सासयविलसंतके वलालोय!। सुरनरमुणिवयवंदिय! आणंदियभव्वजियलोय! ॥ १२ ॥ विविह जिणाण जिणेसर, जुगवं पि वयणकिरणेहिं । हिययगुहागूढं पि हु, मोहतमो हंतु मं हरसि ॥ १३ ॥ जय कुनयमयपणासय! सासणपायडियवत्थुपरमत्थ!। भवअवड पडं तअणंतजंतु तुत्तारणसमत्थ !॥ १४ ॥ कत्रियमासअमावस-निसावसाणम्मि नागकरणम्मि। जिणवल्हं सिवपयं, संपत्त पसीय तिजयनय!॥ १५ ॥ इति वीरचरितम् Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. चतुर्विंशति-जिनस्तुतयः १. ऋषभजिनस्तुतिः मरुदेविनाभितणयं, वसहंकं पंचधणुसयपमाणं । सव्वट्ठचुयं पणमह, उत्तरसाढाहिं उसभजिणं॥ १॥ मउलियपरमयकमला, सयलुज्जोइय जया कयाणंदा। जिणचंदा दलियतमा, मेणकुमयं महवि बोहंतु ॥ २॥ सव्वसभासापरिणय-मसरसगुणभूमिगयघणरसं व। समसमयं संसयसय विहाडणं जयइ जिणवयणं ॥ ३ ॥ वियसियसरसिरुहठिया करंधरियव सत्थपुत्थयंबुरुहा। सरयससिसमसरीरा, सरस्सई दिसउ मे सुमई॥ ४॥ २. अजितजिनस्तुतिः विजयाजियसत्तुसुयं, विजयविमाणाउ रोहिणीहिचयं । गयचिंध सद्धपंचम-धणुसयमाणं नमह अजियं॥ १॥ निन्नासियतमपसरा, पडिबोहियभवियतामरसविसरा। जिण दिणनाह निद्दलिय-सयलदोसादि संतु सिवं ॥ २॥ सब्भूय-पसूय भवंत-भावि-भूयत्थ-वीसणसमत्थं । जयइ सया जिणवयणं, अणंतपज्जायगुणकलियं ॥ ३॥ नवकुंदचंदधवला, करकलिय-सरक्ख-संख-कोयंडा। वरसुरहिसंठिया मे, हरउ दुहं रोहिणी देवी॥ ४॥ ३. सम्भवजिनस्तुतिः चउधणुस-उच्च सत्तमगेविज्जा मिगसरे चुय हयंक। सेणाजियारिसंभव, संभव भव भवहरो मुज्झ ॥ १॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ चतुर्विंशति-जिनस्तुतयः सव्वजगबंधवाणं, पहाण सिवपुर पहाण सुगणाणं । भदं सदसण-सम्मं नाण-चरणा णव जिणाण ॥ २॥ जेण अणेगे जीवा, तारंसु तरिहिं तितह तरिति लहुँ। भीमभवजलहितोयं, जिणमयपोयं तमल्लियह ॥ ३॥ वरकमलकंतिकाया सत्तिकरा मोरवाहणा तुरियं । पन्नत्ती कुणउ सुहं, जिणिंद भत्ताण सन्नाणं ॥ ४॥ ४. अभिनंदनजिनस्तुतिः अद्भुट्ठ धणुसयतिय, कविलंछण पुणवसुंमि नक्खत्ते। सिद्धत्था-संवर-सुय, अभिनंदण जय जयंतचुय ॥ १ ॥ निम्महिय-महामोहंधयार-पसराण निच्च जलियाणं । विगयमलाण जिणाणं, जगप्पईवाण पणमामि॥ २॥ कंदप्प-संप्प-दप्पप्प-सम-विसप्पंत-पयड-माहप्पं । जिण-सुद्धतसमं तं सइ सुमरह सुगुरु सीसं तं ॥ ३॥ तत्ततवणिज्जवन्ना, कमलनिसन्नां देवनर मन्नां । धिय-वज-संकलाउ हरउ दुरियाई..." ॥ ४॥ ५. सुमतिजिनस्तुतिः धणुसयपमाण कुंथुकतणुधरं मेह-मंगला-तणयं । सुमइजिणंद वंदे, चुयं जयंताउ महरिक्खे ॥ १॥ करि-मयर-संख-चक्कं, करिदुमासणपहुल्लसंतजना। सुरमहिया संतावं, हरंतु जिणचलणजलनिहिणो ॥ २॥ निचिदुक्कड़-मोह-तमोह-छन्न जय पयडणुब्भडपयावं । लोयपसिद्धं सिद्धं, सिद्धंतरविं माणे कुणसु॥ ३॥ अकलंककणयकाया, कक्कसकुलिसंकुसंकियकरग्गा। सियकरिवरमारुढा, करेऊ वजंकुसी कुसलां ॥ ४॥ ६. पद्मप्रभजिनस्तुतिः नमह सुसीमा-धर-सुयमड्ढाइयधणुस उच्च कमलंकं । पउमप्पहमवयरियं, चित्तासुं नवम · गेविज्जा॥ १॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १६९ देविंदविंदवंदिय-पयारविंदं जिणंद संदोहं। वंदे वंदंताणं, दिंतु ममंदत्तमाणंदं॥ २॥ विप्फुरियफुडपमाणं, अपमाणं पवरगुणगणनिहाणं। सिवपुरवरसोवाणं, सुयनाणं होउ भवियाणं ॥ ३ ॥ अप्पडिचक्का तवणिज-पुंज-पिंजर-तणू गरुडगमणा । विहडउ विवरकचकं, चक्कंकिय करचउक्का मे॥ ४॥ ७. सुपार्श्वजिनस्तुतिः पुहई-पइट्ठ-पुत्तं, सत्थियजुत्तं दुधणुस उच्चत्तं । छट्ठय गेविज्ज चुयं, नमह सुपासं विसाहासु॥ १॥ रागद्दोसाइ विवक्ख-पक्ख-विक्खेव-दक्ख माहप्पा। तेल्लुक्ककयपणामा, जहत्थ नामा जयंति जिणा ॥ २॥ जिणवरमुहकमलाओ, गणहरभमरेहिं पाउमुत्तुरियं । जं तं जिणवयणमहुं, महुरं परिणमइ सुहं पियह ॥ ३॥ असि-फरय-करा कण उज्जला ठिया नवघणिव्व महसीए। विज्जुव्व पुरिसदत्ता, सत्ताण सया सुहं दिसठ॥ ४॥ ८. चन्द्रप्रभजिनस्तुतिः । लक्खणमहसेणसुयं, चुयमणुराहासु वेजयंताओ। चंदंक सद्धधणुसय, कायं चंदप्पहं वंदे ॥ १॥ पणयसुरासुरसिरिमउड-कोडिघणघडणमसिणियपयग्गा। मुसुमूरियकामा विहु, पूरिय कामा हवंतु जिणा ॥ २ ॥ जाण्हव्वविबोहिय भविय-कुमुय संकोडियन्नमय कमला। दोसंधयारमवहरउ, जिणमहं दुग्गया वाणी ॥ ३॥ जयइ ठिया अरविंदे, अमंद-मयरंद-बिंदु-निस्संदे। भमरावलि-संकासा, गयक्खलक्खियकरा काली॥ ४॥ ९. सुविधिजिनस्तुतिः रामा-सुग्गीव-सुयं, मूले चुयमाणयाउ मयरंकं । ससिगोरमेगधणुसय-माणं सुविहिं नमसामि ॥ १॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० चतुर्विंशति-जिनस्तुतयः विसम-कसाय-परीसह-रागदोसेहिं उवसग्गरिऊं। हणिउं पत्त जहत्थिय, नामा नंदंतु अरिहंता ॥ २॥ सिवलच्छिवसीय रणो कम्मरिउच्चाडणो य डरहरो। सिद्धंतसिद्धमंतो, मह फुरउ समत्थसिद्धिकरो॥ ३॥ दढयवि सुघोसघंटा, फलक्ख-लक्खिय-करा नरारूढा। मह विदलउ खलजालं, तमालकाली महाकाली ॥ ४॥ १०. शीतलजिनस्तुतिः नंदा-दढरह-तणयं, पुव्वासाढाहिं पाणयाउ चुयं । नवय धणुच्चं सिरिवच्छ-लंछणं सीयलं नमिमो॥ १॥ अवयरण-जम्म-निक्खमण-केवलुप्पत्ति-मुत्तिगय समए। तित्थयरा सुरवइ-कय-महा-महा मह पसीयंतु ॥ २॥ जोणेगंतचवेडा-वमढिय परतित्थि-सत्थ-हत्थिगणे। सुयसीहो. स जयइ, फुरियसुतवदढदाढदुद्धरिसो॥ ३॥ गुरुगोहाकयसोहा, नेहे णवकमलकरियकरकमला। विमल-कलहोय-गोरी, गोरी मह हरउ तमतिमिरं ॥ ४॥ ११. श्रेयांसजिनस्तुतिः सिज्जंसजिणं पणमह, मंडयमंडियमसीइधणुमाणं । सवणंमि अच्चुय चुयं, विण्हूए विण्हुणाजायं॥ १॥ जिणसीहाण कररुहा, वक्खाणखणे फुरंत अरुणपहा। मयणकरिकुंभनिब्भेय-लग्गरुहिरुद्ध विजयंति ॥ २॥ कोहानलपसमणसजलजलहरं कुलहरं सिवसिरीए। वंदारुकयाणंदं जिणिंदचंदागमं वंदे ॥ ३ ॥ दढकुलिसमुसलहत्था, गंधारी कमलकयपाया। कुणउ कीरसरिच्छच्छायमणिच्छियं निच्छियं हत्थं ॥ ४ ॥ १२. वासुपूज्यजिनस्तुतिः सत्तरि धणुमाण सयभिसासु पाणयचुयं महियरा विधं । वसुपुज्ज-जयाजायं, नमामि सिरिवासुपुज्जजिणं ॥ १ ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १७१ जेहिं सिरसंठिएहिं, वि न रूसियं च तेलुक्कं । ते फुडतिहुयणगुरुणो कुणंतु कुसलं थुणंताणं ॥ २॥ उप्पाय-व्वय-धुवया मयपयडियसव्ववत्थुपरमत्थं । वइसाहसिएक्कारसि पुव्वण्हे जयइ जिणभणियं ॥ ३॥ पवरवरालयगमणा वियसियनवकुंदसुंदरसरीरा। सव्वत्थ महाजाला, विहेउ सव्वत्थ सिद्धं मे॥ ४॥ १३. विमलजिनस्तुतिः सद्धिधणुमाणमुत्तर-भद्दवयासुं चुयं सहस्सारा। सामा-कयवम्म-सुयं वंदे विमलं वराहकं ॥ १॥ निम्महिय-महामोहा, अट्ठ महापाडिहे रकयसोहा। निज्जियदुजयलोहा, जिणमुहं दिंतु हयकोहा॥ २॥ तन्नामह बार संगं, दव्वट्ठि य-पज्जवट्ठि यमएण। जं निच्चानिच्च अत्थं, सुत्तरूवेण सुपसिद्धं ॥ ३ ॥ करयलकलियतरुवरा, पणय नरा सजलजालहरंसरिच्छा। कमलालया नियाणं, संमाणं माणवी कुणउ ॥ ४॥ १४. अनन्तजिनस्तुतिः पन्नास-धणुच्चं पाणयाओ रेवइ चुयं पणिवयामि। सेणंकं सुयसा-सीहसेणसूणुं अणंतजिणं ॥ १ ॥ चिर........."घणकम्मगंठि-निद्दलण पच्चला तुरियं । भवजलनिहिपारगया, पारगया मे दिसंतु सिवं ॥ २॥ पंचिंदिय हयदमलं, छज्जीवहियं विलुत्तसत्तभवं । दुट्ठट्ठकम्ममहणं, नवतत्तजुयं नमामि सयं ॥ ३॥ उप्फुल्लफारफणफणिगमणाकर फुरिय फरयकरवाला। जयइ फणिरायजाया नवकुवलयकोमलच्छाया॥ ४॥ १५. धर्मजिनस्तुतिः पुरेस-विजयाउ चुयं, धम्मजिणं भाणु-सुव्वयंगरुहं । पणयालीस धणुच्चं, पणमह पविलंछणं सिरसा ॥ १॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ चतुर्विंशति-जिनस्तुतयः अजवनिज्जियदंभा, मद्दवदंभोलिरुहेव गयथंभा। कयतिहुयणवीसंभा, हुंतु जिणा मे हियारंभा ॥ २ ॥ भग्गंतरंगरिउवग्ग, भग्ग-कुगाहकलंकपंकजलं । सग्गापवग्गमयं, सम्मं पणमामि सम्मसुयं ॥ ३ ॥ रंगंत"......"गयारिचडय, धणुपालखग्गवग्गकरा। वंछियमच्छुत्तावो, विजुज्जो उज्जला......... ॥ ४॥ १६. शान्तिजिनस्तुतिः भरणिहि सव्वट्ठचुओ, चालीस धणूसिओ हरिणचिंधो। संतिजिणो अइरा-वीससेण-तणओ दिसउ संति ॥ १॥ पणमहु जिणाण कमकमल-भमरकमलेसु बंधुबुद्धीए। भमरउलं कलयलच्छल-कयसद्देसुं व निवसंतं ॥ २॥ अन्नुन्नमभिमाणं, वरवीराणं व कम्मजीवाणं । भेयकरी सुहमित्तेण, जयइ हंसिव्व जिणवाणी ॥ ३॥ भवियाण माणसी दुक्ख-गुरुगिरि-हंसवाहणा हण। धरिय निरवज्ज-वज्जा, वजग्गिफुलिंग पिंगंगी॥ ४॥ १७. कुन्थुजिनस्तुतिः सिरि-सूरसुयं सव्वट्ठओ, चुयं कित्तियाहिं छगलंको। पणतीस धणुच्चं चत्त-चक्किभोगं नमह कुंथु ॥ १॥ चउतीसाइसयनिही निहीणदोसे जिणे जणियतोसे। पणतीससुद्धवयणाइसयकलिए नमसामि ॥ २॥ बहुभंग-संगय-मुदार रयणसयपूर दूरवित्थरियं । बहुविबुहनिवहमहियं, जणियसुहं नमह सुयजलहिं॥ ३॥ तडिपुंजपिंजरतणू कुणउ महामाणसी ठिया सीहे। सुखाइं खग्ग-खेडय-मणि-कुंडिय मंडियकरग्गा ॥ ४॥ १८. अरजिनस्तुतिः देवी-सुदंसण-सुओ, सव्वट्ठवराउ रेवइय चुउ। नंदावत्तंको तीस धणु-तणू अरजिणो जयउ॥ १॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि कप्पूरपूरसिंदूर कणय - कुवलय पियंगुसमवन्ने । दो दो सोलस दो दोय नमह चउवीस जिणनाहो ॥ २ ॥ निवडंतरियं पि अ वंदिअंपि दूरट्ठिपि सुहुमंपि । सयलंपि जेण नज्जइ, करगयमिव जयइ तं नाणं ॥ ३॥ हरहसियसिया विमलक्खमालिया कमलकुंडिया हत्था । कमलत्था भवियाणं, संतिकरी होउ संति सुरा ॥ ४ ॥ १९. मल्लिजिनस्तुतिः मल्लिजिणो कलसंको, पभावई - कुंभ-संभवो जयओ । पणुवीस धणुच्चो अस्सिणीहिं जाओ जयंताओ ॥ १ ॥ सिद्धि बहुसामुक्कंठियाणमवि चरणलच्छि संताण । सव्वंगसंगि केवल सिरीण भद्दं जिणंदाणं ॥ २ ॥ अजरामरपयहेडं, नरिंदसयसंथुयं धुयकिलेसं । सव्वन्नुदेसियं सुय - रसायणं कुणउ सिद्धत्थं ॥ ३ ॥ वियडजडाजूडो पयड दंड- कुंडिय - कणकणय-कंती । कुणउ सिरि बंभसंती, संति जिणमया न्नाणा ॥ ४॥ २०. मुनिसुव्रतजिनस्तुतिः सवणेव राइय चुयं, सुमित्त - पउमावई - सुयं नमय । वीस धणूसिय कुमुयंक, कालतणु सुव्वयजिणिंदं ॥ १॥ तिहुयणपहुणो तियसिंद - वंदिए तिविह देसिय पयत्थे । तिजयवरे तिगुणधरे, तिविहेण नमामि तित्थयरे ॥ २ ॥ बहु माणसंगया ललियपयपयारयरायहं सपिया । पडसियपक्खवाया विलसउ हंसिव्व जिणवाया ॥ ३ ॥ सियसीहगया समुया तडिच्छडा सत्थहत्थ वीहरउ । लंबं च लुंबिचुंबिय हत्था डिंबाइवो अंबा ॥ ४ ॥ २१. नमिजिनस्तुतिः वप्पा - विजयंगरुहं, पाणयचुय मस्सिणीहिं कणयनिहिं । पन्नरस धणु पमाणुप्पलंककायं नमिं नमिमो ॥ १ ॥ १७३ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ चतुर्विंशति-जिनस्तुतयः गयगव्वे नमियव्वे, सव्वे सव्वन्नुणो पणिवयामि । भुवणपसिद्ध सिद्धे बुद्धे सुद्धेण भावेण ॥ २ ॥ इक्किक्कय-नय-मय-दूसियंपि सव्वनयमयसमूहनयं । मिच्छत्त ...."य रुवंपि सिवपहं जिणमयं नमह॥ ३॥ सव्वे जे देवगणा, सम्मत्तजुया सुयाणुरत्तमणा। ते ................संतिकरा हुंतु संघस्स ॥ ४ ॥ २२. नेमिजिनस्तुतिः चित्तासु चयं अवराइयाउ संखंक दस धणुट्ठयतणुं। नेमिं पणमामि सिवा-समुद्दविजयंगरुहरुहं॥ १॥ जाणमणंतगुणाणं, असरिसगुणदोसदेसणे ते वि। पहुप्पं तिव्व जिणे, नमामि तेवनसारिच्छो॥ २ ॥ सुत्तत्थगहिरनीरो, फुरंतदिटुंतहे उनयरयणो। दुग्गमगमभंगतरंग-भंगुरो जयइ सुयजलही॥ ३॥ सुयजुयकलिउच्चूगा कणयपिसंगा मियारिकयसंगा। डिंबा-डिंबर-मंबा करधरियं वा हरउ सव्वं ॥ ४॥ २३. पार्श्वजिनस्तुतिः वम्माससेण-नंदण, पाणयकप्पाउ चुय विसाहासु। फणिचिंध नवकरु सिय पियंगुसंकास जय पास!॥ १॥ सिद्धिवहुविहियरागा, रागाइविणासगावि जे होउं । उवसग्गवग्गसुग्गं न गणंति जयंति ते अरुहा ॥ २॥ सुगुरुपरंपरमालं, सुनयदलं हेउकेसरकरालं। सुयकमलं मुनिभमराण देउ वर चरणमयरंदं॥ ३॥ सियसिंदुवार अरविंद-कंद-नवकंद-चंद समदित्ती। वियसियकमलनिसन्ना, सन्नाणं सरस्सई दिसउ॥ ४॥ २४. महावीरजिनस्तुतिः तिसला-सिद्धत्थ-सुयं सीहंकिय सत्त हत्थयसरीरं । जिणवीरं पणमह, पाणयाउ हत्थुत्तराहिं चुयं ॥ १ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १७५ धम्मकहाइ चउमुहं, अच्चयगुणमसमलोयणं नमह । भवठिइपलय समुत्थं, जिण विसरंति पुरिसमयं वा॥ २॥ तिपयमयं तियसमयं तिलोकमयं विस्सुयं सुयं नाणं। तिगुणं तिकाल-विसयं, नमहं तिसंझंपि तिविहेण ॥ ३ ॥ गयवाहणो गयगई, कुवलयकालोवि न कुवलयकालो। कयनयरक्खो जक्खो, धणुओ लहु होउ मुहधणओ॥ ४॥ सम्मत्ताओ चउवीस-तित्थयर-थुईओ। गाथा॥ ९६॥ कृतिः श्रीजिनवल्लभसूरीणां॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. चतुर्विंशति - जिनस्तोत्राणि १. ऋषभजिनस्तोत्रम् भीमभवसंभमुब्भंत जंतुसंताणताणदाणखमं । उसभं जिणवसभमहं', थुणामि भावेण भुवणगुरुं ॥ १ ॥ चविउं सव्वट्ठाओ, कसिणचउत्थीए तुममसाढस्स । ओइन्नो उद्धरिउं, जयमिव इक्खागभूमी ॥ २ ॥ चित्तबहुलट्ठमीए, धणुम्मि रासिम्मि कणयगोरंगो । जाओसि तुमं जयगुरु, जणमाणो तिहुयणपमोयं ॥ ३॥ चउहिं सहस्सेहि समं, सामंताणं तणं व चइयसिरिं । चित्तबहुलट्ठमीए, छट्ठेण तुमं विणिक्खंतो॥ ४॥ फग्गुणबहुले एक्कारसीए तं देव! पुरिमतालम्मि । वाससह स्सस्संते, संपत्तो केवलालोयं ॥ ५॥ चुलसीइपुव्वलक्खे, सव्वाउं धरिय माह किण्हाए । तं तेरसीए निव्वुय! जिण जय अट्ठावयगिरिम्मि ॥ ६ ॥ २. अजितजिनस्तोत्रम् ३ हरिसभरनिब्भरुब्भिन्नपुलयसुररायनमियकमकमलं । पबलंतरारिअजियं, थुणिमो भत्तीऍ जिणमजियं ॥ १ ॥ विजयविमाणं उज्झिय, अउज्झनयरीय देव ! वइसाहे । सुद्धाए तेरसीए, उवचियपुन्नो तमोइन्नो ॥ २ ॥ विसरासिम्मि असम्मोह ! माहधवलाऍ अट्ठमीऍ तुमं । जच्चतवणिज्जवन्नो' सूरो इव जिण! पसूओसि ॥ ३ ॥ १. जिणवरवसभं इति जे० । २. तिणं इति का०छा० । ३. उप्पन्नं केवलं नाणं इति म० ४. पयकमलं इति म० । ५. पुंजो इति म० । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १७७ नरवइसहस्ससहिओ सुरवइमहिओ सियाए माहस्स। नवमीए छटेणं, विरइं तं नाह! पडिवन्नो ॥ ४॥ बारसवरिसनिसंते, पोससियइक्कार सीए' सूरव्व । सहसंबवणे तं२ पत्त-केवलो पयडसि तिलोयं ॥ ५॥ विगसयरि पुव्वलक्खे, सव्वाउं पालइत्तु सम्मेए। चित्तसियपंचमीए, निव्वुयजिण! निव्वुई देसु ॥ ६॥ ३. संभवजिनस्तोत्रम् संसारो यहि निवडंत - जंतुजाणायमाणचरणजुयं । गयभवसंभवमसुभक्खयाय जिणसंभवं वंदे ॥ १॥ फग्गुणसियट्ठमीए, सावत्थीए तुमंसिरे अवयरिओ। उवरिमहिट्ठिमगेविजमुज्झिउं मोक्खकंखि व्व ॥ २॥ कणयंबुरुहच्छाओ, जिण! उप्पन्नोसि सह सुहसएहिं । सुद्धाए चउद्दसीए, मग्गसिरे मिहुणरासिम्मि ॥ ३ ॥ मग्गसिर पुन्निमाए, छटे ण नरिंदसहस्सपरियरिओ। गिहपंजराउ विहउव्व, झत्ति तं देव! नीहरिओ॥ ४॥ सहसंबवणे कत्तिय-कण्हाए पंचमी' नाणसिरी। वरिसचउद्दसगंते, तिहुयणपहु! पाविया तुमए ॥ ५॥ चित्तसिय पंचमीए, सव्वाउय सट्ठिपुव्वलक्खंते। सम्मेयंम्मि सिवं गय, तं जिण! मह दुहहरो होउ॥ ६॥ ४. अभिनंदनजिनस्तोत्रम् नमिरसुरमउडमाणिक्ककिरणविच्छुरियचरणसरसिरुहं । अभिनंदियभुवणजणं, नमामि अभिनंदणजिणिंदं ॥ १॥ देव! जयंताओ चुओ, ओइन्नो' विणीयरायहाणीए । जयसि तुमं वइसाहे, सुद्धचउत्थीए तित्थयर!॥ २॥ १. पोसम्मि एक्कारसीए, जे०। २. संपत्तकेवलो, का०छा० । ३. तुमंमि इति जे०का०छा० । ४. उप्पन्नो इति प्र० म०। ५. जयइ इति जे०। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ चतुर्विंशतिजिनस्तोत्राणि रयमहणमिहुणरासिम्मि तमिह माहस्स सुद्धबीयाए। जाओऽसि कंचणंबुरुहगब्भदलसच्छ हच्छाओ ॥ ३ ॥ माहसियबारसीए, छटेण महीवईसहस्सजुओ। जह तं जिण! निक्खंतो, तह को अन्नो विणिक्खमइ॥ ४॥ पोससियचउद्दसीए, सहसंबवणम्मि केवलालोयं । तं पत्तोऽसि अणंतं, अट्ठारसवरिसचरिमम्मि ॥ ५ ॥ अपुणागमं गई गय! वइसाहसिय? मीए सम्मेए। पन्नासपुव्वलक्खे, सव्वाउय देव! कुणसु सुहं ॥ ६॥ ५. सुमतिजिनस्तोत्रम् सुरगिरिमिलियामरविसरविहियजम्माभिसेयपरममहं। पायडियपंचमगई सुमइं२ सुमइं पणिवयामि॥ १॥ गुणरयणावण! सावणसियबीयाए तुमं जयंताओ। निप्पडिमकलाकोसल! कोसलनयरम्मि अवइन्नो ॥ २॥ तं पुरिससीह ! सीहे, रासिम्मि अट्ठमीए वइसाहे। सुद्धाए धोतकलहोय सच्छहो देव! जाओऽसि ॥ ३॥ वइसाहसुद्धनवमीऍ निच्चभत्तेण भुवणपणयपओ। अणगारियं पवन्नोऽसि, देव! निवदससयसमेओ॥ ४॥ चित्तस्स सुद्धएक्कारसीएँ सहसंबवणगयस्स तुहं । केवलनाणमणंतं, जायं जिण! वीसवरिसंते ॥ ५ ॥ सम्मेयम्मि सिवं गय, इह ठाउं पुव्वलक्खचालीसं। चित्ते सियनवमीए, सुमइमहं सुमइसुह णेहि ॥ ६ ॥ ६. पद्मप्रभजिनस्तोत्रम् भत्तिभरबंधुरामर - भमरावलिलीयमाणपयपउमं । पउमप्पहं महापहमप्पहियत्थं थुणिस्सामि॥ १॥ १. विरमम्मि इति जे०। ३. अवयरिओ इति प्र०म० । २. जिणिंद इति का०छा० । ४. पाविय इति का०छा० । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १७९ तं नाह माह छट्ठीए नवमगेविजगाउ कसिणाए । अवयरिए ससिरीया, अहेसि सुहकोस! कोसंबी ॥ २॥ तुहऽबालपवालप्पह! जाए जम्मम्मि कन्नरासिम्मि। कत्तियदुवालसीए, किण्हाए चिरं जयंति जयं ॥ ३॥ सा कत्तियस्स कसिणा, वि तेरसी कह न होइ जयपयडा?। जीए तुमं पव्वइओ, कय छट्ठो निवसहस्सजुओ ॥ ४॥ चित्तस्स पुन्निमाए, सहसंबवणम्मि झाणपडिवनो। तं केवलि त्ति महिओ, छण्हं मासाणमवसाणे॥ ५॥ तं तीस पुव्वलक्खे, अक्खंडे जीविऊण सम्मेए । मग्गसिरबहुलएक्कारसीएँ सिद्धिगयं देसु सिवं ॥ ६॥ ७. सुपार्श्वजिनस्तोत्रम् निद्धणियभवावासं, वासवनमियं मियंकबिंबसमं । समणगणसरियपासं, सुपासतित्थंकरं थुणिमो ॥ १॥ उज्झिय मज्झिमउवरिमगेविजं नाह! तं समोइन्नो। भद्दवयमासबहुलट्ठमीएँ वाणारसिपुरीए ॥ २॥ असरिसगुणेहिं अतुलो, तुलाए रासिम्मिजिट्ठमासस्स। सियबारसीए कंचणसमप्पहो तं पसूओऽसि ॥ ३ ॥ जय जिट्ठ जिट्ठ सियतेरसीए नरवइसहस्सपरिकिन्नो। कयछट्ट किट्ठतव' संजमसेलं तमारूढो॥ ४॥ नवमासे छउमत्थो, अच्छिय छट्ठीए फग्गुणे किण्हे। सहसंबवणे तं देव! केवलालोयमणुपत्तो ॥ ५॥ फग्गुणकसिणाए सत्तमीए सम्मेयरम्मसेलम्मि। सिवगईंगय! जिणवर! वीसपुव्वलक्खाउय पसीय॥ ६॥ ८. चन्द्रप्रभजिनस्तोत्रम् जसुच्छलंतनिम्मलकिरणावरणा सुसहइ नहपंती। चिंतामणिमाला इव, तं चंदप्पहपहुं नमिमो॥ १॥ १. तवो इति जे०का०छा० । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० चतुर्विंशतिजिनस्तोत्राणि चित्तस्स बहुलपंचमि-दिणम्मि चविऊण वेजयंताओ। तं चंदाणण! चंदाणणाएँ नयरीएँ अवयरिओ ॥ २ ॥ पूरियजणमणवंछिय! विच्छियरासिम्मि पोसबहुलाए। तं बारसीए पत्तो, जम्ममहं छणससिच्छाओ॥ ३ ॥ तं गयपओस! पोसे, बहुलाए तेरसीए छटेणं । नरवरदससयसहिओ, सुसाहुचरियं पवन्नोऽसि ॥ ४॥ मासतिगंते सहसंबवणगओ फग्गु फग्गुणे हणिउं । कम्मं किण्हाए सत्तमीए तं केवली जाओ॥ ५ ॥ दसपुव्वलक्खसव्वाउए गए निव्वुओ सि भद्दवय!। भद्दवय सत्तमीए, सामाइ गिरिम्मि सम्मेए ॥ ६॥ ९. सुविधिजिनस्तोत्रम् सुरविरइयकणयंबुरुहनिम्मियनिम्मलपयं पयावनिहिं । सुविहयसुविहियहिय!' निव्वुईपहं पणमिमो सुविहिं॥ १॥ कायंदीइ जिणपाणय पाणयसुरलोयमुज्झिऊण तुमं । ओइन्नोसि महायस! फग्गुणनवमीएँ कसिणाए॥ २॥ पयडियसिवपुरमग्गो, मग्गसिरे किण्हपंचमीए तुमं । गयबंधण! धणुरासीए सीयकरधवल! जाओऽसि॥ ३॥ मग्गसिरे किण्हाए, छट्ठीए विहियलट्ठछट्ठतवो। राईण सहस्सेणं, समं तुमं नाह! निक्खंतो॥ ४॥ कत्तियसियतइयाए, सहसंबवणम्मि मासचउविगमे। हणिऊण घाइकम्मं, केवलमुप्पाडियं तुमए ॥ ५ ॥ दो३ पुव्वलक्खसव्वाउओ तुमं गिरिवरम्मि सम्मेए। भद्दवयसुद्धनवमीए सिद्धिगय दुरियमवहरउ॥ ६॥ २. आणय इति जे०का०छा० । १. हिय इति नास्ति का०छा० । ३. पण इति प्र०। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १०. शीतलजिनस्तोत्रम् गठिमुक्कट्ठदंसणचरित्तं । निट्ठ वियदुट्ठ कम्मट्ठ सरयससिसीयलेसं, थुणामि जिणसीयलं सम्मं ॥ १ ॥ वइसाहबहुलछट्ठीए देव! चविऊण पाणयाउ तुमं । भुवणकयभद्द ! भद्दिलपुरीए गब्भम्मि संकंतो' ॥ २ ॥ तं माहकसिणबारसि - तिहीए जंबूणयप्पहो णाह ! | निव्वाणसुहनिबंधण ! धणुरासीए पसूओऽसि ॥ ३ ॥ माहे बहुलाए बारसीए छट्ठेण परिहरियरज्जं । पव्वज्जं पडिवन्नो, तं जिण! भूवइसहस्सजुओ॥ ४ ॥ मासतिगंते तुह पहु ! सहसंबवणे ठियस्स किण्हाए । पोसे चउद्दसीए, जायं नाणं निरावरणं ॥ ५॥ सव्वाउ पुव्वलक्खे, गयम्मि वइसाहबहुलबीयाए । सम्मेयपव्वए सिद्धिपत्तजिण! दिस मह समाहिं ॥ ६ ॥ ११. श्रेयांसजिनस्तोत्रम् मिच्छत्ततमभरं तरियतत्तपयडणपयंडमायंडं । भव्वजणजणियसेयं, सेयंसजिणेसरं थुणिमो ॥ जिट्ठस्स कसिण छट्ठीए अच्चुयाओ चवित्तु सीहउरे । संकंतो गब्भं भोरुहम्मि हंसोव्व देव! तुमं ॥ २ ॥ फग्गुणकसिणाए बारसीए गोरंग मगर रासिम्मि । जम्ममहो तुज्झ कओ, छप्पन्नदिसाकुमारीहिं ॥ ३ ॥ कयछट्टो फग्गुणकिण्हतेरसीए सहस्सनिवसहिओ । पडिवज्जियपव्वजं, निरवज्जं विहरिओ तंसि ॥ ४ ॥ माहस्सऽमावसाए काऊणं घाइकम्मनिम्महणं । जाओऽसि केवली तं सहसंबवणे दुवरिसंते ॥ ५ ॥ , १. संभूओ इति जे० । १८१ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૨ चतुर्विंशतिजिनस्तोत्राणि चुलसीइवासलक्खे, सुसावणे देव! बहुलतइयाए। सम्मेए मोक्खं गय! कुणसु ममं भवभयविणासं॥ ६ ॥ १२. वासुपूज्यजिनस्तोत्रम् भवभमणरीणसव्वंगिवग्गवीसामथाममप्पडिमं । सुरअसुरविहियपुजं, पयओ पणमामि वसुपुजं ॥ १॥ पाणयकप्पं मोत्तूण, नाह! जिट्ठस्स सुद्धनवमीए। चंपापुरी' गब्भे, संभूओ तंसि जयबंधो !॥ २ ॥ बंधूयवण्ण! फग्गुणकिण्हाए चउद्दसीए तं जाओ। मयमोहकोहवम्मह-निसुंभ! कुंभम्मि रासिम्मि॥ ३॥ फग्गुणअमावसाए, समं नरिंदाण छहि सएहि तुमं । काउं चउत्थभत्तं, जयगुरु! गेहाउ नीहरिओ॥ ४॥ माहस्स सेयबीयाए वच्छरंते विहारगेहम्मि। उप्पन्नदिव्वनाणो, तं महिओ तियसनिवहेण ॥ ५ ॥ आसाढचउद्दसीए, सुद्धाए सिद्धिपत्त! चंपाए। बाहत्तरिवच्छरलक्खाउय जिण खवसु मे पावं ॥ ६॥ १३. विमलजिनस्तोत्रम् । निप्पडिमरूवसुंदर! धीरिमापमुहगुणगणाधारं । विमलीकयपणयजणं, वंदेहं विमलजिणनाहं ॥ १॥ वइसाहम्मी सियबारसीए तं छड्डिउं सहस्सारं । सारं कंपिल्लपुरं, परमेसर समवइन्नोऽसि ॥ २॥ जाओऽसि जायरूवप्पहो तुमं माहसुद्धतइयाए। रेहंतचरणतललीणमीण! मीणम्मि रासिम्मि ॥ ३ ॥ नरवइसहस्ससहिओ, हियट्ठया सयलजीवलोयस्स। कयछट्ठो पव्वइओ, तं माहे सियचउत्थीए ॥ ४॥ दोण्ह वरिसाणमुवरिं, सहसंबवणम्मि पोसछट्ठीए। सुद्धाए तुज्झ जयगुरु! जायं वरकेवलिस्सरियं ॥ ५ ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १८३ सट्ठीए वासलक्खेसु, अइगएसुं गिरिम्मि सम्मेए। आसाढसत्तमीए, किण्हाए सिद्धिगय! जय तं ॥ ६॥ १४. अनन्तजिनस्तोत्रम् कप्पदुमकंदलीउव्व जस्स चलणंगुलीउ रायंति। हणियाणंतभवोहं, तमणंतजिणं सरामि सया॥ १॥ भवभाववियाणय! पाणयाउ नयरीए तं अओज्झाए। अवयरिओ सावणसत्तमीए किण्हाए गयतण्ह!॥ २॥ सोवनवन! वाणीजियवीणसमीण मीणरासीए। वइसाह तेरसीए, किण्हाए तुमं समुप्पन्नो ॥ ३ ॥ पुरिससहस्सेण समं', वइसाह चउद्दसीएँ कसिणाए। कयछट्टेण तए जिण! जइधम्मो सम्ममाइन्नो ॥ ४॥ तिण्ह वरिसाण अंते, वइसाहे कसिण चउद्दसीएँ तए। सहसंबवणे भव्वा, विबोहिया केवलधरेण ॥ ५॥ चित्तसियपंचमीए, सव्वाउयतीसवरिसलक्खं ते। सम्मेयम्मि सिवंगय! जिणवर मह हणसु भववाहिं॥ ६॥ १५. धर्मजिनस्तोत्रम् सयलजगजगडणुब्भडकंदप्पविसप्पदप्पनिद्दलणं। पयडियजइगिहिधम्म, धम्म सम्म पणिवयामि॥ १ ॥ रयणपुरे ओइन्नो वइसाहे सत्तमीए सुद्धाए। विजयविमाणाउ चुयं, धम्मं पणमामि तित्थयरं ॥ २॥ कणयपहं कुसमयदमणकक्खडं कक्कडम्मि रासिम्मि। माहे सियतइयाए, जायं धम्मं नमंसामि॥ ३ ॥ सह निवइसहस्सेणं, माहे सियतेरसीए छटेणं। कयसव्वसंगचागं, धम्मं सुमरामि गयरागं ॥ ४॥ १. तुमं इति का छा। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ चतुर्विंशतिजिनस्तोत्राणि पोसस्स पुन्निमाए, नयरीए वप्पगाए वरिसदुगे। समइक्वंते संपत्त-केवलं पणमिमो धम्मं ॥ ५ ॥ जिट्ठसियपंचमीए, सव्वाउयवासलक्खदसगं ते। सम्मेए सिद्धिगयं, धम्म वंदामि तित्थयरं ॥ ६॥ १६. शान्तिजिनस्तोत्रम् हरिकरिरहुक्कडं चक्किलच्छिमुज्झिय पवनचरणसिरिं । भुवणत्तयकयसंतिं, संतिजिणिंदं थुणामि अहं ॥ १॥ देव! तुमं भद्दवए, कसिणाए सत्तमीए सव्वटुं । मोत्तुं गयरय! गयउरनयरे गब्भम्मि संकंतो ॥ २ ॥ जिट्ठस्स तेरसीए, किण्हाए देव! तं कणयवन्नो। भत्तिनमंतसुहम्मेस! मेसरासिम्मि जाओऽसि ॥ ३ ॥ पत्थिवदससयजुत्तो, बहुलाए चउद्दसीए तं जितु । कयछट्टो सामन्नं, नीसामन्नं पवन्नोऽसि ॥ ४॥ छउमत्थो वरिसं विहरिऊण पोसस्स सुद्धनवमीए। पाविय सहसंबवणं, जयपहु पत्तोऽसि नाणधणं ॥ ५॥ जिट्ठबहुलम्मि सम्मेयपव्वए तेरसीए वरिसाणं । सव्वाउं लक्खं पालिऊण जिण! निव्वुय नमो ते ॥ ६॥ १७. कुन्थुजिनस्तोत्रम् नहकिरणपरागं अंगुलीदलं सहइ जस्स पयकमलं । सिवपंथसत्थवाहं, थुणामि तं कुंथुतित्थयरं ॥ १॥ ओइन्नो सव्वट्ठाउ देव! तं गयउरे महानयरे । सिवपुरपहदरिसावण! सावणनवमीए कसिणाए ॥ २॥ विमलकलहोयसप्पह! तं धम्मावसह वसहरासिम्मि । वइसाहकिण्हचउद्दसिसंभूय पभूयगुण! जयसु ॥ ३ ॥ १. चरिमाए इति का०छा० । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १८५ बहुलाए पंचमीए, वइसाहे सह नरिंदसहसेण। छटेणं पव्वइओ, चक्कहरसिरिं परिच्चइय॥ ४॥ छउमत्थो सोलसवच्छराइं अच्छित्तु चित्ततइयाए। धवलाए केवली तं सहसंबवणम्मि जाओऽसि ॥ ५ ॥ वइसाहपडिवयाए, बहुलाए वाससहसपणनउई। सव्वाउयमणुपालिय, सम्मेए सिद्ध! तं जयसु॥ ६॥ १८. अरजिनस्तोत्रम् संजमपुरपागारं, करुणामयवारिविलसिरासारं । विहुणियमोहवियारं, पाविय भवजलहिपरपारं ॥ १॥ फग्गुणसियबीयाए, अवयरियं हत्थिणागपुरनयरे । सव्वट्ठविमाणचुयं, निच्छिन्नाणंतभवपासं ॥ २॥ मग्गसिरसुद्धदसमीए धोयकलहोयमणहरसरीरं । जायं मीणेण समं, जोगं पत्ते निसानाहे ॥ ३॥ छटेणं मग्गसिरे, सियाए एक्कारसीए प्रव्वइयं । रायसहस्सेण समं, वोसिरिउं चक्कवट्टिसिरिं ॥ ४॥ वरिसतिगंम्मि गयम्मि य, कत्तियसियबारसीएँ उज्जाणे। सहसंबवणे उप्पन्नऽणंतवरकेवलालोयं ॥ ५॥ सम्मेए चउरासीवरिससहस्साणि जीविउं सुद्धे । मग्गसिरे दसमीए, सिद्धं वंदे अरजिणिंदं॥ ६॥ १९. मल्लिजिनस्तोत्रम् कंकिल्लपमुहलट्ठट्ठपाडिहेरेहिं पायडिस्सरियं । कम्मभडभंगमल्लं, मल्लिजिणं' संथुणिस्सामि॥ १॥ फग्गुणसुद्धचउत्थी, मिहिला य पुरीपवित्तिया तुमए। अवयरिएण जयंताओ तियसपणएण जयणाह!॥ २॥ १. मल्लिजिणिंदं थुणिस्सामि इति म०। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ चतुर्विंशतिजिनस्तोत्राणि मग्गसिरसुद्धएक्कारसीए भुवणेस! मेसरासिम्मि। जाए तुमम्मि को को, न हरसिओ नवपियंगुनिभ!॥ ३॥ अट्ठमभत्तेण तुमं, तिहिं भूमीवइसएहिं सह नाह!। मग्गसिरधवलइक्कारसीए चरणग्गमारुढो ॥ ४॥ सहसंबवणे एक्कारसीए सुद्धाएँ देव! मग्गसिरे । विरइदिणपच्छिमण्हे, तुह जायं सव्वगं नाणं ॥ ५॥ पणपन्नवाससह साणि आउयं पालिऊण सम्मेए। फग्गुणसियबारसि पत्तमोक्ख! जिण कुणसु सिवसोक्खं॥६॥ २०. मुनिसुव्रतजिनस्तोत्रम् परिहयरयणियरं पि हु, कुवलयकोसियपवड्डियाणंदं । मुणिसुव्वयजिणनाहं अपुव्वसूरं सया सरह ॥ १॥ अवराइयाउ रायग्गिहंम्मि जो पुन्निमाए ओइण्णो । मासम्मि सावणम्मी, देउ सिवं सुव्वओ सो मे ॥ २॥ जिट्ठ बहुल? मीए, विसिट्ठरिट्ठच्छ वी विहि यजम्मो । मयरे रासिम्मि उ मज्झ सुव्वओ देउ निव्वाणं ॥ ३॥ सुद्धाए बारसीए, फग्गुणमासम्मि विहियछट्ठतवो। भूवइसहस्ससहिओ, निक्खंतो सुव्वओ जयइ॥ ४॥ एक्कारसमासंतम्मि फग्गुणे किण्हबारसीदिवसे । नीलगुहाए उल्लसिय-केवलं सुव्वयं वंदे ॥ ५॥ तीसं वाससहस्से, सव्वाउं धरिय जिट्ट नवमीए। बहुलाए सम्मेए निव्वुय! सुव्वय! नमो तुज्झ॥ ६॥ २१. नमिजिनस्तोत्रम् तेलुक्कभूसणमणिं, नमंतहरिसुल्लसंतसुरसेणिं। धम्मवर चक्कनेमिं, नमिं नमसामि जगसामिं ॥ १॥ १. चरणं समारूढो इति म०। ३. सोमो इति जे०का०छा० । २. सुहं इति जे०। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि आसोयपुण्णिमाए, पाणयकप्पं विहाय ओइण्णो । मिहिलाए नयरीए, कल्लाणं वो नमी कुणउ ॥ २ ॥ तवणिज्जपुंजवन्नो, सावणबहुलट्ठमीए उववन्नो । मेसे रासिम्मि नमी, निहणउ वो विग्घसंघायं ॥ ३ ॥ बहुलाए नवमीए, आसाढे निवसहस्ससंजुत्तो । छट्टेणं पव्वइओ, देउ नमी संजमम्मि मई ॥ ४ ॥ मग्गसिरसुद्धएक्कारसीए अइएसु नवसु मासेसु । सहसंबवणे संजायके वली? सं नमी देउ ॥ ५ ॥ वाससहस्से दस जीविऊण वइसाह किण्हदसमीए । सम्मेए सिद्धिगओ, नमी समाहिं महं दिसउ ॥ ६ ॥ २२. नेमिजिनस्तोत्रम् निविडपडिबंधबंधुरबंधवरायमइचायदुल्ललियं । जायवकुलनहयलसरयससहरं नमह नेमिजिणं ॥ १ ॥ कत्तियकिण्हाए बारसीए अवराइयाओ अवयरणं । सोरियपुरम्मि नेमिस्स वंच्छियत्थं पयच्छउ मे ॥ २ ॥ कन्नोवगे ससंके, सावणसियपंचमीए घणवन्नो । जम्मम्मि हविज्जंतो, नेमी निन्नासउ भवोहं ॥ ३ ॥ सावणसियछट्टीए, छट्ठेण सहस्सभूवइसमेओ । गहियवओ उज्जिंते, नेमी धन्नेहिं पणिवइओ ॥ ४ ॥ अच्छिय चउपन्नदिणे, छउमत्थोऽमावसाए आसोए । उज्जितपव्वए पत्तकेवलो जयइ ३ नेमिजिणो ॥ ५ ॥ वाससहस्सं एगं सव्वाउं पालिऊण उज्जिते । सिद्धं आसाढसियट्ठमीऍ नेमिं सया वंदे ॥ ६॥ १. संजायकेवलो इति जे०का०छा० । २. वन्नेहिं इति प्र० । ३. जयउ इति प्र० । १८७ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ चतुर्विंशतिजिनस्तोत्राणि २३. पार्श्वजिनस्तोत्रम् सढकमठदप्पचमढणविढत्तसरयब्भविब्भमजसोहं । सयलभुवणप्पयासं, पासजिणिंदं पणिवयामि ॥ १॥ चित्ते किण्हचउत्थीए पाणयाओ चइत्तु ओइन्नो। तुट्टभववासपासो, पुरीए वाणारसीए जो॥ २ ॥ बहुलदसमीए पोसे तुलम्मि रासिम्मि कुवलयपहस्स। तिहुयणविइन्नसम्मो, जम्मो जस्सासि मुणिपहुणो॥ ३॥ पोसम्मि बहुलएक्कारसीए कयअट्ठमेण पव्वजा। तिहि रायसएहिं समं सम्मं गहिया सयं जेण॥ ४॥ चुलसीइदिणंतेऽणंतवत्थुवित्थारदीवयं नाणं। जस्सासि आसमपए, चित्तचउत्थीएँ किण्हाए ॥ ५॥ सो वाससयाऊ सावणस्स सुद्धट्ठमीए सम्मेए। संपत्तनिव्वुइसुहो' सुहदाई होउ पासजिणो ॥ ६॥ . २४. महावीरजिनस्तोत्रम् चलणंगुलिचालियकणयसेलडोल्लियमहल्लमहि गोलं । जस्सासि बाललीलाइयं पि थोसामि तं वीरं ॥ १॥ कुंडग्गामम्मि पुरे, पाणयपुप्फुत्तराउ ओइन्नो। तं चरमतित्थनायग! आसाढे सुद्धछट्ठीए॥ २ ॥ चामीकरसमवण्णो, कण्णारासिम्मि पाविओ जम्मं । सियतेरसीए चित्ते, तुमममरनरिंदनयचलण!॥ ३॥ मग्गसिरबहुलदसमीए देव! छटेणं तं विणिक्खंतो। एगोच्चिय छड्डियरायलच्छिविच्छड्ड मुद्दामं ॥ ४॥ वइसाहसियदसमीऍ देव तं उजुवालियानईतीरे। पक्खहियसड्ढबारसवरिसंते केवली जाओ॥ ५॥ १. संपत्तनिव्वुइसुहे इति प्र०। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १८९ कत्तियअमावसाए, बाहत्तरिवरिसजीविय! जिणिंद!। नयरीए पावाए, नेव्वाणं पत्त तुज्झ नमो ॥ ६॥ इय चवणपभिइपनरसपयत्थपयडणथुईएँ संथुणिओ। वंछियपयं पयच्छउ, वीरो सेसा वि तित्थयरा॥ ७॥ इति श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तोत्राणि * * * Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. नन्दीश्वरचैत्यस्तवः वंदिय नंदियलोयं, जिणविसरं विमलकेवलालोयं । नंदीसरचेइयसंथवेण थोसामि तं चेव ॥ १॥ जोयणकोडिसय-तिसटि-चउरसीलक्खवलयविक्खंभो। अट्ठमदीवो नंदीसरुत्ति सयविलसियसुरोहो ॥ २॥ तब्बहुमज्झे चउरो, दिसासु अंजणगिरी गवलवन्ना। जोयण सहस्स-चुलसीइमूसिया सहसमोगाढा ॥ ३ ॥ भूमितले दससहसा, चउणवइसया य सहसमुवरितले। पिहुला अडवीसं सत्तिगं दसंसोय खयवुड्डी ॥ ४॥ पुव्वदिसि देवरमणो, निच्चुज्जोओ य दाहिणदिसाए। अवरदिसाए सयंपभ, रमणिज्जो उत्तरदिसाए ॥ ५॥ त्रिभिः कुलकम् अंजणनगाण चउदिसि, जोयणलक्खंमि लक्खविक्खंभा। पुक्खरिणीउ सहस्सोव्वेहा निम्मच्छ-सुच्छ-जला॥ ६॥ नंदिसेणा अमोहा य, गोथूभा य सुदंसणा। नंदुत्तरा य आनंदा, सुनंदा नंदिवद्धणा॥ ७॥ भद्दा विसाला कुमुया, बारसी पुंडरीगिणी। विजया य वेजयंती, जयंती अपराजिया ॥ ८॥ पुव्वाइकमा नामा, पुक्खरिणीणं तओ य पंचसए । गंतूण लक्खदीहा वणसंडा पंचसयपिहुला ॥ ९ ॥ १. उत्तरे पासे इति प्र०। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १९१ पुव्वेण असोगवणं, दाहिणओ ताण सत्तवनवणं । चंपगवणमवरेणुत्तरेण सव्वाण चूयवणं ॥ १०॥ पल्लसमा जोयणदससहस्सपिहला सहस्समोगाढा। चउसट्ठिसहस्सुच्चा, फलिहमया पुक्खरिणिमझे ॥ ११ ॥ सोलस दहिमुहगिरिणो, अंजणदहिमुहनगोवरितलेसु । जोयणसयदीहतयद्धवित्थडा दुगसयरिमुच्चा ॥ १२ ॥ बहुविविहरूवरूवगविचित्तविच्छित्तिभत्तिसयकलिया। पत्तेयं जिणभवण-तोरण-झय मंगलाइजुया ॥ १३॥ देवासुरनागसुवननामगा नामसम सुरारक्खा । दारा सोलठ्ठठ्ठच्च पिहुलपवेसो य चउरोसिं ॥ १४ ॥ पइदारं कलसाई, मुहमंडव पिच्छमंडवक्खाडा। मणिपीढथूभपडिमा, चिइयतरु झयपुक्खरिणिओ य॥ १५ ॥ अट्ठच्चसोलसाययपिहला मणिपीढिया जिणहरंतो। तदुवरि देवच्छंदा, रयणमया साहियपमाणा ॥ १६॥ तत्थुसह-वद्धमाण-चंदाणण-वारिसे णनामाणं । सासयजिणपडिमाणं, पलियंकनिसन्नमट्ठसयं ॥ १७॥ पइपडिमपुरो दो दो, नागपडिमजक्खभूयकुंडधरा। दुहओ दो चमरधरा, पिढे छत्तधरपडिमेगा॥ १८॥ तह घंटा-चंदण-घड-भिंगारायरिसपाइसुपइट्ठा। पुप्फायणेगचंगेरिपडलछत्तासणाइ इह ॥ १९ ॥ इय सुत्तवुत्तमाएसओ दु पुक्खरणि अंतरे दो दो। रइकरनागा बत्तीस एसु पुव्वं च जिणभवणा ॥ २०॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ नन्दीश्वरचैत्यस्तवः वंदंत-नमंत-अभिथुणंत-पूइंत-इंतजंतेहिं । खयरसुरेहिं अरहिया पुण्णतिहि महामहिकरेहिं ॥ २१ ॥ तह जोयणसयमुच्चा, विक्खंभायाम सम दससहस्सा। झल्लरिनिभा रइकरा, रयणमया विदिसि दीवंतो॥ २२ ।। तेसिं चउण्हदिसासुं, जोयणलक्खंमि जंबुदीवसमा। अट्ठट्ठ रायहाणी, सक्कीसाणग्गिमहिसीणं ॥ २३ ॥ विमलमणिसालवलयाण ताणमझे पुढो जिणाययणा। जिणपडिमा पुवमिवेह अणुवमा परमपभणिज्जा ॥ २४ ॥ इय वीसं बावन्नं, च जिणहरे गिरिसिरेसु संथुणिमो। इंदाणिरायहाणिसु बत्तीसं सोलस य वंदे॥ २५ ॥ इति नन्दीश्वरचैत्यस्तवः। कृतिरियं प्रभुश्रीजिनवल्लभसूरिभिः * * * Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. सर्वजिनपञ्चकल्याणकस्तोत्रम् सम्मं नमिऊण जिणे, चउवीसं तेसि चेव पत्तेयं । वुच्छं चुइजम्मणदिक्खनाणनिव्वाणकल्लाणे॥ १॥ कत्तियबहुले पंचमि, संभवनाणं १ दुवालसीए उ। नेमिचुइ २ पउमजम्मो ३, तेरसि पउमप्पहे दिक्खा ४॥ २॥ पनरसि मुक्खो वीरे ५, सियबारसि तइय-अर-सुविहिनाणं ६-८ । मग्गसिर कसिणपंचमि, जम्मो सुविहिस्स ९ छट्ठि वयं १०॥ ३॥ दसमीइ वीरदिक्खा ११, इक्कारसि पउमनाहनिव्वाणं १२ । सियदसमिजम्म १३ मुक्खो १४, अरस्स इक्कारसीइ पुणो॥ ४॥ अरदिक्खा १५ नमिनाणं १६, मल्लिजिणे जम्म-दिक्ख-नाणाणि १७-१८-१९ । चउदसि जम्मो २० पुन्निम, निक्खमणं २१ संभवृजिणस्स॥ ५ ॥ पोसाइदसमिगारसि, पासे २२-२३ बारसी तेरसी ससिणो २४-२५ । जहसंखं जम्मवया, सीयलनाणं चउदसीए २६॥ ६॥ सुद्धे छट्ठी विमले २७, नवमी संतिस्स २८ गारसी अजिए २९ । अभिनंदणे चउद्दसि ३०, पुन्निम धम्मे य ३१ नाणाइं॥ ७॥ माहाइ छट्ठि पउम चुइ ३२ बारसी सीयलस्स जम्मवया ३३-३४ । तेरसि मुक्खो उसभे ३५, सिज्जंसेऽमावसा नाणं ३६॥ ८ ॥ सियबीय नाणजम्मा, वसुपुज्जऽभिनंदणाण ३७-३८ अह जम्मो। तइयाइ विमलधम्माण ३९-४० चउत्थि दिक्खा य विमलस्स ४१ ॥ ९॥ अट्ठमि जम्मो अजिए ४२, नवमी-बारसी-तेरसीसु वयं। अजियऽभिनंदणधम्माण फग्गुणे ४३-४५, कसिणछट्ठीए॥ १० ॥ १. 'नाणाई' इति मु०। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजिनपञ्चकल्याणकस्तोत्रम् नाण सुपासे ४६ सत्तमि, सुपास मुक्खो ४७ ससिस्स नाणं च ४८ । सुविहिचुई नवमीए ४९, इक्कारसि नाणमुसभस्स ५० ॥ ११ ॥ सिज्जंस जम्मु ५१ सुव्वयं नाणं बारसिंहिं ५२ दिक्ख सेयंसे । तेरसि ५३ चउदसि जम्मो ५४, पनरसि दिक्खा ५५ उ वसुपुज्जे ॥ १२ ॥ सियबीय चउत्थि अट्ठमि चवणं अर-मल्लि - संभवजिणाणं ५६-५८। बारसि मुक्खो मल्लिस्स ५९ जयइ मुणिसुव्वय-वयं च ६०॥ १३॥ चित्ताइचउथि पासे, चवणं ६१ नाणं च ६२ पंचमी चवणं । ससिणो ६३ उसमे अट्ठमि, जम्म ६४ वया ६५ सुद्धतइयाए ॥ १४॥ कुंथू नाणं ६६ पंचमि, सिद्धी संभव - अनंत - अजियाणं ६७-६९ । नवमिहि मुक्खो सुमइस्स ७० नाणमिक्कारसीए उ ७१ ॥ १५॥ तेरसि जम्मो बीरे ७२, पुन्निम पउमस्स नाणमह ७३ बहुले । वइसाहपडिवबीया, कुंथू तह सीयले मुक्खो ७४-७५ ॥ १६ ॥ पंचमिहि कुंथु दिक्खा ७६, सीयल चुइ छट्टि ७७ दसमि नमिमुक्खो ७८ । तेरसि जम्मो ७९ चउदसि, दिक्खा ८० नाणा ८१ अणंतस्स ॥ १७॥ चउदसि जाओ कुंथू ८२, सिय चउथि चुओऽभिनंदणो ८३ जय | सत्तमि धम्मोवि चुओ ८४, अट्ठमि अभिनंदणो सिद्धो ८५ ॥ १८ ॥ जम्मट्ठमि ८६ नवमि वयं ८७, सुमइजिणे दसमि केवलं वीरे ८८ । बारसि तेरसि चुइ विमल - अजिय ८९ - ९० अह जिट्ठबहुलम्मि॥ १९॥ छट्टि चुई सेयंसे ९१, सुव्वय जम्मट्ठमी ९२ नवमि मुक्खो ९३ । जम्मो ९४ मुक्खो ९५ तेरसि, चउदसि दिक्खा य संतिस्स ९६ ॥ २० ॥ सिय पंचमीऍ मुक्खो धम्मे ९७ नवमीइ वासुपूज्जचुई ९८ । बारसि सुपासजम्मा ९९, तेरसि दिक्खा सुपासस्स १०० ॥ २१ ॥ आसाढाइ चउत्थी, उसभचुई १०१ सत्तमी विमलमुक्खो १०२ । नमि दिक्खा नवमीए १०३, सिय छट्ठिहि वीरजिणचवणं १०४ ॥ २२ ॥ १. 'सुमई' इति मु० । २. 'इ' इति 'य' इति अ० । १९४ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २३॥ अट्ठमि सिद्धो नेमी १०५, वसुपुज्जो निव्वुओ चउदसीए १०६ । सावणबहुले तइया, सिद्धिगओ जयइ सेयंसो १०७ ॥ सत्तमि चवणमणंते १०८, अट्ठमि नमि जम्मु १०९ नवमि कुंथु चुई ११० । सिय बीयचुओ सुमई १११, पंचमि छठि नेमिजम्मवया ११२ ॥ २४ ॥ पासस्सट्ठिमि मुक्खो ११३, सुव्वई चुइ पुन्निमाऍ ११४ भद्दवए । संति ससि चवण मुक्खा, सत्तमि ११५ - ६ अमि सुपास चुई ११७ ॥ २५ ॥ सिय नवमी सुविहि मुक्खो ११८ नेमिस्सासोयमावसा नाणं ११९ । पुन्निम चुइ नमि १२० जिणवल्लहं पयं देसु पणयाणं ॥ २६॥ इति सर्वजिनपञ्चकल्याणक - स्तोत्रम् १. 'सुविहि' इति अ० । २. 'मुक्खो' इति मु० | १९५ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. सर्वजिनपञ्चकल्याणकस्तोत्रम् (मदनावतार-छन्दः) पणयसुरविसरसिरमउडमसिणियकमे, नमिय भत्तीय सव्वेवि जिणसत्तमे। ताण कित्तेमि चुइजम्मदिक्खावही, नाणनिव्वाणकल्लाणए सुहतिही॥ १॥ जणणि सच्चवियचउदसमहासुविणयं, सयलहरिकहिय तित्थयरे अवयरणयं । अमइवइवयणगिहनिहियनिहिपहयरं, हवउ जिणचवणकल्लाणमिह सुहयरं॥ २ ॥ फुरियजससरिसउज्जॉयफुडतिहुयणं, मिलियछप्पन्नदिसिकुमरिकयनियखणं। तियसबहुविहि य सुरसिहरिसिरिमजणं, कुणउ जिणजम्मणं कम्मरयमज्जणं ॥ ३॥ नमिरसंथुणिरपरिभमिरनच्चिरसुरं, तेण देविंदपुरसरिसदरसियपुरं। वरवरियपुव्वदिजंतवरदाणयं, जयउ जिणचरणपडिवत्तकल्लाणयं ॥ ४॥ अमरवरविसरकयसमवसरणक्कमं, केवलुजोयसमजयपयासुग्गमं । भत्तिभरतरलसुरअसुरपूरियनहं, नमह भावेण जिणकेवलत्थवमहं ॥ ५॥ बहललोयंधयारोहसंथुडजयं, विहुरसंकदणक्कंदसद्दोदयं। उद्दसिरसिद्धिबहुगाढकंठग्गहं, मुक्खकल्लाणयं कुणउ दुहनिग्गहं॥ ६॥ पंच इय सयलतित्थयरकल्लाणए, थुणह जियलोयकयसयलकल्लाणए। एसिमेरवइभरहेसु मासा तिही, सासया नयविदेहेसु दावियतिही॥ ७॥ इय विदेहेरवइभरहतियपंचए, निखिलकल्लाणए इह भवपवंचए। संभरइ थुणइ भत्तीइ"जो अंचए, स जिणवल्लहइ लहु सिद्धिसुहसंचए ॥ ८॥ इति सर्वजिनपञ्चकल्याणस्तवनम् Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका लोयालोयविलोयण, वरकेवलनाणनायनायव्वं । जिणचंदं वंदिय विनवेमि तं चेव तिजयगुरुं ॥ १ ॥ तुह जिण! अणंत! अणुवम!, गुणथुणणे जउमई असत्तोहं'। किंतु दुहत्तो किर तक्खयाय नियदुक्कयं कहिमो॥ २ ॥ तं जेण देव! परमो, विज्जो बंधू सुही दयालू य। तुह पुरउ कीरइ तेण, सव्वसब्भावनिज्झरणं ॥ ३ ॥ विविहदुहावयसावयभीमे इह भववणम्मि निस्सीमे । मुद्धहरिणोव्व भमिओ, विसयतिसा तरलिओ सुइई॥ ४॥ तहियं बहूण बहुहा, असमंजसमसमबद्धवेराण। भावरिऊणवसेहं, पडिओ नडिओ य तेहि बहु॥ ५॥ न य तं सरामि सामिय!, सम्मं तइया इयाणि पुण किंपि। तह भव्वत्तस्स विचित्तयाए फुरियं विवेयत्तं ॥ ६ ॥ मुणिमो भावरिउकयं, विडंबणमणप्पमप्पणो पयडं। ण य तव्विमोक्खणखमं, मण्णे अण्णं तुमाहिंतो॥ ७॥ ता देव! केवलामललोयण! जयजंतुरक्खणक्खणिय। पसिय कहेसु मए कह, कया तुमं कत्थ दीसिहिसि ॥ ८॥ परमकरुणापरेण वि, भुवणुद्धरणक्खमेण वि तएहं । किमु वेहिओ दुहत्तो, भवगहणे एत्तियं कालं ॥ ९॥ तुममच्छीहि न वीससिर, नाराहिजसि पभूयपयाहिं। किंतु गुरुभत्तिरागेण, वयणपरिपालणेणं च॥ १० ॥ १. 'अहमसत्तो' इति अ०। २. 'च चेयण्णं' इति अ०। ३. 'दीससि' इति अ०। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका केवलमभावि भदाण', दीहसंसारियाण जीवाणं। तुह वयणं दुन्नेयं, दुरणुढेयं दुसद्धेयं ॥ ११ ॥ तुहणुग्गहं विणा पहु, पभूयघणकम्मबंधणं जणियं । तत्तो अ सप्पवित्ती, तुहणुग्गहं जोगया ण तओ॥ १२॥ इय पुणरुत्तमणंतं, दुरंतभवचक्कगो किलिस्संतो। लोए पइक्खपएसुं, जाओ य मओ य बहुसोऽहं ॥ १३ ।। ओसप्पिणी असंखा, लोगा य गया जलग्गिभूपवणे। निवसंतस्स तरुभुय-तेणंतगुणा मह अईया॥ १४॥ बितिचउपणिंदियत्तं, सुरनइनरयत्तणं च भवकूवे। बहुसो पाविय पुणरवि, अरहट्टघडिव्वभमिरोहं ॥ १५ ॥ कत्थइ कुप्पवयण-बोहिवासिउ नासिओ सढगुरुहिं । तुह मय भवमन्निय, देव! भीमभवसंकडे पडिओ॥ १६ ॥ तुह • पवयणं पि पाविय, संभावियसाहु सावगत्तंपि। कुग्गह-कुगुरुहओ पुण, अणंतखुत्तो दुहं पत्तो॥ १७ ॥ कत्थवि समत्थकुतित्थि-सत्थमत्थयमणिव्व भविय अहं । बहुलोयमुप्पहि पाडिऊण भमिओ भवकडिल्ले॥ १८॥ तत्थ य जम्मण-जर-मरण-रोग-सोग-प्पओगवसगस्स। किं किं ण दुहं का का, ण आवया आसि मे बहुसो॥ १९ ॥ धुव मे चिरं निरंतर-मोह तमोहं धलोयणेण मए । तिहुयणपयडो वि तुमं, नाह! न दिट्ठो न य गविट्ठो॥ २० ॥ संपइ पुण संभावेमि अप्पणो तुम्हं दंसणं देव!। नियहिययभंतरफुडफुरंत तुह भत्तिराएण ॥ २१॥ मन्नामिय अहमहुणा, दढमवगूढो व्व तिहुयणसिरीए । सिद्धिपुरं धीए कडखिउव्व खित्तोव्व अमियदहे ॥ २२ ॥ १. 'सद्दाण' इति अ०। ३. 'वयं' इति अ०। २. 'भमिगेहं' इति अ०। ४. 'तु सुदंसणं' इति अ०। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि १९९ नवरं अजोग्गयाए, निययाए न वीससामि सामि! अहं। तुह दंसणं सुरयणं, व जं न सुलहं अहन्नाणं ॥ २३ ॥ तुह दंसणे' मणेण वि, गुणरंगे' सम्ममणुमवि खणंपि। भवभयहरं निसामिय, सामिकयत्थुव्व तू सामि!॥ २४॥ पुण सव्वजियाणमणंतसो वि गेविजगे सुरुप्पत्तिं । तहवि न सम्मइंसणमित्तस्स वि सुणिय संपत्ति ॥ २५ ॥ संपुण्णसाहुकिरिया-करणमबीयंति कय अणासासो। देवविसयपिसाएण, वाउलिज्जामि अणुसमयं ॥ २६ ॥ भावविसपरममंते, तुह सिद्धते वि संभरिजंते। भावविसे विलसंते, अहमवि किच्छोव्व खिज्जामि ॥ २७॥ मह पहु! सुह वयणामयरसपाणुल्लासुरे हरिसियस्सावि। ओसरइ न विसयतिसा, हिययाओ पिया पण इणिव्व ॥ २८॥ अज्जवि अकज्जसजो, लज्जा-मज्जायवज्जिओ णज्जो। कहियपि नाह! न सहो, तुह पुरओ रागदुच्चरियं ॥ २९ ॥ नियदोसदुव्विलसियं, फुडंपि भणिउं तरामि किं बहुणा। रागद्दोसुक्कलिया, तरलियमइसुयविवेगस्स ॥ ३० ॥ अव्वो किमपत्तगुणो, किमभव्वो किं च दूरभव्वोहं । इय चिंता तवइ मणं, अणुचियचरियस्स मेऽणुखणं ॥ ३१ ॥ किं च अणाइपरुढो, सढो तए च मढिओ हठेण इमो। तेण तुह सेवयं देव! मं कयत्थइ दढं मोहो ॥ ३२ ॥ तुह दंसणं निवारइ, कारइ सव्वत्थवत्थुवच्चासं। चरणकरणम्मि सद्धिं, विद्धंसइ दंसइ कुमग्गं ॥ ३३ ॥ १. 'पवयणे' इति अ०।। ३. 'सि' इति अ०। ५. 'बहु' इति अ०। २. 'रागं' इति अ०। ४. 'वि पुरो' इति अ०। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૦ ईसा -विसाय-मच्छर - हरिसा - मरिसाइविविहरूवेहिं । फुडमिंदजालिओ इव, वामोह इमं जिणिंद ! तओ ॥ ३४ ॥ मोहमहारिपरवसं, जयबंधव! रक्ख मं खमाविजओ । पिच्छंता' न हु पहुणो, भिच्चमुवेहं तिवसणगयं ॥ ३५ ॥ भावरिउणो तये चिय, हणियव्वा मह चिरेण वि परेण । ता कीस गजनिमीलं, कुणसि ? मुणंतो समत्थो वि इच्चाइ वुच्चइ ? किमेत्थ समत्थवत्थुवित्थारसव्वपरमत्थविउस्स सब्भावगब्भभणिएहि पसीय देहि, दिट्ठि सया सुहकरं जिणवल्लहं मे ॥ ३७ ॥ ॥ तुज्झ । १. 'पेच्छतं ' इति अ० । महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका इति महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका * २. 'सुहकरी' इति अ० । ३६ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. प्रथमजिनस्तवनम् (बहुविधजातियुक्तम्) सयलभुवणिक्कबंधव-मसुरिंदसुरिंदविंदपणयपयं। पणमामि पढमपयडिय-परमपयपहं जिणं पढमं॥ १॥ [आर्या] तुह गुणथुय पहु पारि न सक्कइ, गंतुममिय गुण सक्कु जु सक्कइ। तत्थ वि जडमइ जु न ओसक्कइ, फुडु सु आलाइ पएहिं परिसक्कइ ॥ २ ॥ [पद्धतिका] इय जाणंतु विभत्तिभर तरलिउ किं पि भणामि। दुक्करु सुकरु निरुत्तमण, जेण वियारिहि सामि॥ ३॥ [दोहा] किंचिइ कुवि किंचिइ कुवि तुह नमोक्कारु किर, भाविण जे करहि कय समग्ग मंगल्ल सुंदर । ते भीमवरदुहजलहि लहु-तरंति लीलाइं। गइदर... .॥ ४॥ [द्विपदी] पउमन्निवि तुह मुणिपवरेसर!, सरभसविणय नमंति नरेसर!। जउबुद्धि वि भत्तीइ गुणायर!, गुणगणकण वि थुणवि करुणायर!॥ ५ ॥ [पद्धतिका] जय बहुविहदुहसंसाररण, रयरीणदीणजणपरमसरण। जय गहिरनिरयकूवाविलंब, निवडंतजंतुहत्थावलंब ॥ ६॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ | जय मोहतिमिरहयसिद्धिसरणि, पायडणपयडतरतरुणतरणि । जय समयमयणकरिवियडगंड- पाडणपंचाणण अइपयंड ॥ ७ ॥ जय निविडनियडिलयपरसुसरिस, अमरिसविसनिरसणअमयविरस । जइ रुद्धविरुद्धविलासहेल, सुहबुद्धिसिन्धुहिमवन्तसेल ॥ ८॥ जय संजमसलिलसयंभुरमण-चलकरणतुरंगमपसरदमण । जय अखिलियसुलक्खणकलियदेह, केवलसिरिनिरुवमवासगेह ॥ ९॥ पुन्ननिम्माण निहयअवमाण प्रथमजिनस्तवनम् [६-९ पादाकुलक] सुररइयसम्माण, पंचधणुसयपमाण ॥ दालिद्दविद्दवण, जय जय जय पणयजंतु गण जय चिंतियत्थसंपायणसमत्थ[वण] ॥ १०॥ जय सग्ग- अपवग्ग-संसग्ग- वरमग्ग, जय भग्गदोहग्ग, सयलग्गसोहग्ग ॥ जय भवभवणपरिचुक्क । सत्तभयमुक्क जय दंत सुपसंत, जय कंत भयवंत ॥ ११॥ भीसणभवदवतवियभवियवणसमणजलहर, गहिर महामुणिमणसमुद्दनंदणछणससहर । निम्मलजच्चसुवन्नवन्न पडिहयमयविसहर, हासुज्जलजस जिस दुरियई मह अवहर ॥ १२ ॥ लोहसुजोहमडप्फरु भंजणु, कुसुमयसयरयपलयपहंजणु । जणियसयलजपजणमणरंजणु, जयइ जुयाइजिणिंदु निरंजणु ॥ १३ ॥ उक्कडकोहकंदनिक्कंदणु, सिवपुरगमणपउणवरसंदणु । नाभिनरिंदनयणआणंदणु, वंदहु निरु मरुदेविहि नंदणु ॥ १४ ॥ [ वस्तुवदन काव्य] [१३-१४ पद्धतिका ] Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૦૩ तिजयपहुत्तणं व तिक्कालिय-नाणसिरि वसाहिउं। तिपयमयं.. ........। ववुत्तुमरिबलं पि हु वत्थ तुहोवरिट्ठियं, निम्मलपुन्नचंदपं तित्थ वि छत्तत्तयमुदारयं ॥ १५ ॥ [द्विपदी] कुनयकुमुयसिरिखंडण भूयलमंडण। पडिहयदोसायर पसरियतेयभर ॥ १६ ॥ धम्म दसविहु धम्मु दसविहु तत्तनव, अट्ठमुणिमायर सत्तनय दव्वछच्च पंचय महव्वय, चउ-तिनि-दो-मुक्ख पहु केवल्लिक्कदीवेण अवगय। सयलजइक्कपिय मेहिण लोयहपयडिय जेण, सो परमेसरु पणमियइ, तिक्कालु वि तिविहेण ॥ १७॥ [पंचपदी] तिपयनाणसियवायकन्नियं, नयदलं हेउकेसरनियं। जिणरवितइयसमा निसिअंते, सुयपंकयं वियासिय अंते॥ १८॥ [पादाकुलक] विणयनर-अमरवर-विसर-नरकिन्नरुल्लसिर-सिरिमउडमणिमसिणपयपंकयं । सयलजियसगिरपरिणमिरवयणावलीदलियसमसमयबहुविविहजणसंसयं ॥ १९॥ [मदनावतार] विगयजरमरणथिरपरमपयकारियं, नाणसम्मत्तवरचरणगुणसायरं। धम्ममिय भव्वसत्ताणदेसंतयं, समभिवंदामि नंदामि तं संपयं॥ २०॥ . [मदनावतार] Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ भत्तभव्वनिव्वाणपावयं, कम्मदारुदहणोरुपावयं । पणयलोयवरकप्पपायवं, नमह तं भवच्छ्रयआयवं ॥ २१ ॥ प्रथमजिनस्तवनम् दुरियरिउदारणं, कुनयतरुवारणं । सिद्धिसुहकारणं, थुणह दुहतारणं ॥ २२ ॥ मोहतमोहपणासणसूरं, कलिमलहरणविमलजलपूरं । रोगभुयंगमदमणसुमंतं, सुमरह तं नंदिय असुमंतं ॥ २३ ॥ सोंडीरया विजिय- मत्तगयं, गभीरया कयसमुद्दजयं । गुत्तिंदियत्त जियकुम्मुमहं, वंदे निरासयतयाइ नहं ॥ २४ ॥ [पादाकुलक] अणुवम-अइसय-मणेगणरोहणकय, जय बोहणसव्वलोय - उवयाररय । जय दीहर- दुग्गइ पह पत्थिय असुह कइत्थिय बहुजियहिय [य] सिवमग्गदय ॥ , पसममंतहयदोसपिसायं परमसंतरसरुद्धविसायं । डमरमारिदरहारविहारं, नमह सिद्धरमणीउरहारं ॥ २५ ॥ [ एकावली ] [ पद्धतिका ] [पादाकुलक] [ पद्धतिका ] २६॥ तह, दुइ माहह । बहुलासाढचउत्थि बहुलचित्तट्ठमि इक्कारसि फग्गुणह बहुल सा तेरसि तुह चुइ- जम्मण - दिक्ख-नाण- निव्वाण - जाय जहिं, तच्चिय दिण जिण नियजसेण कालवि महिधवलिहिं ॥ २७ ॥ [क्रीडनक] [द्विपदी] Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि. विविहु-वसग्ग-समग्गल-घण-विहडण पवणसयलविरोहनिरोहपवणपयरेणुकण। पंच महव्वइ भव्वह तइं जिण जियपयडिय, तप्फुडु पंच अणंतजि तुह करयलि चडिय॥ २८॥ [वस्तुवदन] संवच्छरमच्छिन्नदिन्नजणवंछियदाणिण, सव्वसंगसावज्जकज्जकयपच्चक्खाणिण । माणिंवरिस सहस्सुवरिसु निरसणिण गमाविउ, तई जिणवरइ हरिवत्ति धम्मुबीउ विफुडुवाविउ॥ २९ ।। [वस्तुवदन] अन्नाणंधारय गुरुभववारय मज्झविसयपासिहिं जमिउ, हउं निहउं पमाइहिं नडिउं कसाइहिं मोहकवाडनिरुद्धठिउ। संपइ पइं दिट्ठई गयइ अणि?ई मज्झ सयलकल्लाणकर, पुण भवदुहतत्थउ विणमियमत्थउ इच्च हिएउ विनवउ पर ।। उब्भडभवभडपडिमल्लह, तुह जिणवल्लह, सिवसुंदरिविरसंगमह । संथवणिण पुन्नजु, पत्तउ तिअणु रत्तउ, तुह पवयणि मणु हुन्ज मह॥ ३० ॥ [हक्का षट्पदी] इति बहुविधजातिविरचितं श्रीप्रथमजिनस्तवनं समाप्तम् ___ कृतिरियं श्रीमज्जिनवल्लभसूरीणाम् Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. लघुअजितशान्तिस्तवनम् उल्लासिक्कमणक्खनिग्गयपहादंडच्छलेणंऽगिणं, वंदारूण दिसंत इव्व पयडं निव्वाणमग्गावलिं । कुंदिंदुज्जलदंतकंतिमिसओ नीहंत नाणं कुरु क्रे दोवि दुइज्जसोलसजिणे थोसामि खेमंकरे ॥ १ ॥ [शार्दूलविक्रीडितछन्दः] चरमजलहिनीरं जो मिणिज्जंऽजलीहिं, खयसमयसमीरं जो जिणिज्जा गईए । सयलनहयलं वा लंघए जो पएहिं, अजियमहव संतिं सो समत्थो थुणेउं ॥ २॥ तहवि हु बहुमाणुल्लासिभत्तिब्भरेण, गुणकणमवि कित्तेहामि चिंतामणिव्व । अलमहव अचिंताणंतसामत्थओ सिं, फलिहइ लहु सव्वं वंछियं णिच्छियं मे ॥ ३ ॥ सयलजयहियाणं नाममित्तेण जाणं, विहडइ लहु दुट्ठाणिट्ठदोघट्टथट्टं । नमिरसुरकिरीडुग्घिट्टपायारविंदे, सययमजियसंती ते जिणिंदेऽभिवंदे ॥ ४ ॥ पसरइ वरकित्ती वड्डए देहदित्ती, विलसइ भुवि मित्ती जायए सुप्पवित्ती । फुरइ परमतित्ती होइ संसारछित्ती, जिणजुयपयभत्ती ही अचिंतोरुसत्ती ॥ ५ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૦૭ ललियपयपयारं भूरिदिव्वंगहारं, फुडघणरसभावोदारसिंगारसारं। अणिमिसरमणीजइंसणच्छेयभीया, इव पणमणमंदा कासि नट्टोवहारं ॥ ६॥ थुणह अजियसंती ते कयासेससंती, कणयरयपिसंगा छज्जए जाण मुत्ती। सरभसपरिरंभारंभिनिव्वाणलच्छीघणथणघुसिणंकुप्पंकपिंगीकयव्व ॥ ७॥ बहुविहणयभंगं वत्थु णिच्चं अणिच्चं, सदसदणभिलप्पालप्पमेगं अगं। इय कुनयविरुद्धं सुप्पसिद्धं च जेसिं, वयणमवयणिज्जं ते जिणे संभरामि ॥ ८॥ पसरइ तियलोए ताव मोहंऽधयारं, भमइ जयमसन्नं ताव मिच्छत्तछन्नं । फुरइ फुडफलंताणतणाणंसुपूरो, पयडमजियसंती झाणसूरो न जाव॥ ९॥ अरिकरिहरितिण्हुण्हंबुचोराहिवाहीसमरडमरमारीरुद्दखुद्दोवसग्गा। पलयमजियसंतीकित्तणे झत्ति जंती, निबिडतरतमोहा भक्खरालुंखियव्व ॥ १०॥ निचियदुरियदारुद्दित्तझाणग्गिजालापरिगयमिव गोरं चिंतियं जाण रूवं। कणयनिहसरेहाकंतिचोरं करिजा, चिरथिरमिह लच्छिं गाढसंथंभियव्व ॥ ११॥ अडविनिवडियाणं पत्थिवुत्तासियाणं, जलहिलहरिहीरंताण गुत्तिट्ठियाणं । जलियजलणजालालिंगियाणं च झाणं, जणयइ लहु संतिं संतिनाहाजियाणं ॥ १२॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ हरिकरिपरिकिन्नं पक्कपाइक्कपुत्रं, सयलपुहविरज्जं छड्डिडं आणसज्जं । तणमिव पडिलग्गं जे जिणा मुत्तिमग्गं, चरणमणुपवन्ना हुंतु ते मे पसन्ना ॥ १३ ॥ अरिसकिडिभकुट्ठग्गंठिकासाइसारक्खयजरवणलूआसाससोसोदराणि । नहमुहदसणच्छीकुच्छिकन्नाइरोगे, छणससिवयणाहिं फुल्लनीलुप्पलाहिं, थणभरनमिरीहिं मुट्ठिगिज्झोदरीहिं । ललियभुयलयाहिं पीणसोणित्थलीहिं, सय सुररमणीहिं वंदिया जेसि पाया ॥ १४ ॥ मह जिणजुयपाया सुप्पसाया हरंतु ॥ १५ ॥ लघु अजित शान्तिस्तवनम् इयं गुरुदुहतासे पक्खिए चाउमासे, जिणवरदुगथुत्तं वच्छरे वा पवित्तं । पढह सुणह सज्झाएह झाएह चित्ते, कुह मुणह विग्घं जेण घाएह सिग्घं ॥ १६॥ [२ - १६ मालिनीछन्दः] इय विजयाजियसत्तुपुत्त ! सिरिअजियजिणेसर !, तह अइराविससेणतणय ! पंचमचक्कीसर ! | तित्थंकर ! सोलसम संतिजिण! वल्लह ! संथुअ, कुरु मंगलमवहरसु दुरियमखिलं पि थुणंतह ॥ १७ ॥ [द्विपदीछन्दः] इति लघुअजितशान्तिस्तवनम् Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. स्तम्भनपार्श्वजिनस्तोत्रम् सिरिभवणथंभणपुरे, सुरेहि महियं हियम्मि निउलयणस्स। उरकड्डियमयणपासं, पासं पलमिज्झ? कइयाऽहं ॥ १॥ कुवलयदलसिरिवच्छं, सच्छसच्छंदकुनयमयदलणं। पासं सुहपडिहत्थं, हत्थं पिच्छिज? कइयाऽहं ॥ २॥ सवलंजलीहि सिरिजिण!, हरिसवसुल्लसिय पुलयकंचुइओ। तुह गिरममयसरिच्छं, कया जहिच्छं पिबिस्समहं? ॥ ३॥ मिउमहुरसुललियपया-सालंकारा सलक्खणसरिसा। महु पहु! तुह गुणधुणणो, कया सुवाया पिया हुज्जा? ॥ ४॥ तुह गुरुभत्तिरसवसा, नेहमुरयलाहिअंगुलियदलिलं । करकमलमउलिमिलियं, मह नाह! [कया] अलंकरिही॥५॥ सठकमठदप्पखंडण!, मंडणवरसयलभुवणभवणस्स। मह मणहरे मणोहरे, वसीहसि? कइया तुमं पास!॥ ६॥ बहुसुहकम्मसमुल्लसिय-जीवविरइओ जहुत्तगुणजुत्तो। तुह सुहसंदोहकरं, वयणं सम्मं कया काहं? ॥ ७॥ विहिसमयगयसुहत्थी, संविग्गो सुविहियविहारी [होउं] । कइयाऽहं वंदिस्सामि?, [पासं] तं थंभणयनयरे ॥ ८॥ इय विमलकेवलालोय-लोयपायडियपहु [प]उण सिवमग्गो। निद्दलियदरियसयलं - ऽतरंगरागाइरिउवग्गो ॥ ९॥ संभवणमित्तनासिय - दुरंतसव्वाहिवाहियसंघे ह!। जहुत्तगुणुक्कित्तण - पडिहयसमग्गसंखोह !॥ १० ॥ सिरिपास! पसिय बहुरोग-सोगदोहग्गभग्गसुहजोगं । कुणसु ममं जिणवल्लह-संपत्तीय सुकयत्थं ॥ ११ ॥ इति स्तम्भनपार्श्वजिनस्तोत्रम् Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. क्षुद्रोपद्रवहर-पार्श्वजिनस्तोत्रम् नमिरसुरासुरविलसिर-सिरिमणिमयमउडघडियपयपीढं। वंदियदियभवपासं, पासं तं चिय थुणामि अहं ॥ १ ॥ जाणामि सामि बहुभवभमणेण जमन्नया कयाइ तुमं। नाहं नाहं पत्तो, कत्तो पुणरुब्भवो इहरा॥ २॥ तासं पइ पइदिवसं, भवसंभवकरसियं सयं सुजस!। तुह पयकमलं विमलं, पणयं मणयं ममं पिच्छ॥ ३॥ हयदुरियदाह माहप्प-पसर निच्चविय भवियसंदोहं । परमामयरसविरसं, व सुपहु तुह दंसणं जमिह ॥ ४॥ हे पास! पसियदंत - पंति - कंतिप्पयासियदियंत!। भयवंतभयंत पसंत कंतदंतिंदिय जिणिंद!॥ ५॥ फारफुल्लंत तुह उवरि, फणिफणासत्तयं फुरंतं मे। कयसत्ततत्तसंखा, वक्खाणखणंव पडिहाइ ॥ ६ ॥ उवरिपरिफुरिय फणवई, चूडामणिकिरणरइयसुरचावं । अइमीसणभवदवतविय-भवियवणपसमणसमत्थं ॥ ७॥ कयकुनयकमलमलणं वयणजलं जणियभुवणयलहरिसं। विकिरंतं भवजलहर-सरिसं तं पास पणमामि ॥ ८॥ जे खरजरजज्जरिया खयखीणा सूलसल्लिया मणुया। दढकुट्ठनट्ठनंकुठ-नहमुहा चक्खुपरिहीणा॥ ९॥ ते वि तुह सरणसुंदर-रसायणंकाओ माउरसुविज्जा। सुरसुंदरनयणाणंदि देहसोहा लहुं हुंति ॥ १० ॥ गुरुकोवफारफुक्कारभासुरो फणिवई विफुल्लफणो। चित्तंमि तुमं जेसिं, तेसिं कीडुव्व दोइफुडं ॥ ११ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २११ कयविकयरूवभीसण-पभूयभूएहिं जेभिभूयप्पा । गद्दब्भसद्दसंदब्भ-निब्भरुब्भरियभुवणयला ॥ १२ ॥ तुह नाम भद्दमुद्दा, मुद्दियदेहा जिणिंद! ते वि दुयं । संपत्तनियसरूवा, हवंति बहुलोयकयपूया ॥ १३ ॥ जे वि गयरिक्ख-रक्खस्स-खुद्दासुर-जक्ख-खित्तवालाई। ते वि तुह गुत्तकित्तण-मित्तेणं झत्ति नासंति॥ १४ ॥ दुग्गे मग्गे भिल्लुक्कभीसगे रुद्ददप्पबहु सप्पे । तुह नाम सिद्धमंतेण जंतुणो जंति विगयभया॥ १५ ॥ निंदूपयारविंदं वंदंती तुम्ह थिरपया होइ। वंझा तं झायंती, झत्ति सुपुत्ते लहइ महिला॥ १६॥ उग्गोवसग्गवग्गा, कुग्गहविग्गहउवग्गहाईया। पसमंति समग्गा तेसु जेसु तं रमसि देसेसु॥ १७ ॥ हयकाससासववगयविलास धुयतास दसदिसिपयास!। नयपूरिआस कुवलयनिकास सढकमढमयनास!॥ १८॥ सयलाहिवाहिविसहर - गुहगुरुभीयजणकयासास। सासयपयकयआवास पास मं पास पयपणयं॥ १९ ॥ बहुभवरीणादीणा-सिरिहीणा पासजिण समल्लीणा। मणुया नंदंति दुयं, तुह सुहसत्थाहपायजुअं॥ २०॥ इय सव्वभव्ववंछियकारय तारय दुहोइजलहीओ। भीओ भवभमणाओ, इमं तुमं विन्नवेमि अहं ॥ २१ ।। खुद्दोवद्दवविद्दव - दच्छ मविच्छिन्नदिनजणवंछं । पास! जिणवल्हं मे, पुणो वि तुह दंसणं होज्जा ॥ २२ ॥ इति श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् श्री जिनवल्लभसूरिकृतम् Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. महावीर-विज्ञप्तिका सुरनरवइकयवंदण!, भवदुहसंतत्तचंदण! जिणिंद!। वीर! तुह चलणजुयलं, थुणामि भत्तीइ भावेण ॥ १॥ हीणमईवि पवत्तो, नाह! अहं गुणसमुद्द! तं थोउं । जो कोइ थुणइ रंको, राइं ता किं न पावेइ॥ २॥ तइं नाहे गुणनिलए, अमंदआणंदपरमपयपत्ती। भरहे पंचमकाले, कम्मवसा अम्ह उप्पत्ती ॥ ३॥ कहमति बहुसुकएणं, पत्ता तुह नाह! धम्मसामग्गी। मुणिधम्मो गिहिधम्मो, सुणिउं संविग्गपक्खो वि॥ ४॥ धन्ना ते मुणिवसहा, पव्वजं जे धरंति निरवजं । अम्हाण नत्थि सत्ती, मुणिधम्मं जेण पालेमो॥ ५ ॥ वित्ती न होइ सुद्धा, गिहिधम्मं कह करेमि जिणनाह!। सड्ढाणं पढमगुणे, अक्खुद्दो जेण भणियं च॥ ६॥ सामि! तुम चिय देवो, गुरुणो जे तुज्झ सुद्धमग्गम्मि। धम्मो तुह पन्नत्तो, होउ थिरो तुह पसाएणं ॥ ७ ॥ कुसुराणं परिहारो, कुगुरूणं सव्वहा तहा मज्झ। मण-वाया-काएणं, कुधम्मीणं च परिहारो॥ ८॥ अन्नं न सरामि मणे, अन्नं वायाइ नेय भासेमो। अन्नं न हु काएणं, पूएमि विणा तुमं नाह!॥ ९॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि तुह पयभत्तीऍ जसो, तुह पयभत्तीए रिद्धिवित्थारं । तुह पयभत्ती विणा, न हु लब्भइ किंपि रमणिज्जं ॥ १० ॥ जं लब्भइ इंदत्तं, जं लब्भइ इत्थ चक्कवट्टित्तं । जं लब्भइ सिवसुक्खं, तं तुह भत्तीय माहप्पं ॥ ११ ॥ तुह आणारत्तेणं, सिरिजिणवल्लहमुणिंददत्तेणं । विन्नत्तो य महायस!, वंछियफलदायगो होही ॥ १२ ॥ इति श्रीमहावीर - विज्ञप्ति: २१३ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. महावीरस्वामि-स्तोत्रम् अपरनाम भावारिवारण-स्तोत्रम् भावारिवारणनिवारणदारुणोरुकण्ठीरवं मलयमन्दरसारधीरम्। वीरं नुवामि कलिकालकलङ्कपङ्कसंभारसंहरणतुङ्गतरङ्गतोयम्॥ १॥ बाँढं विसारिगरिमा महिमा तवेह, बुद्धो न देवगुरुणा न पुरंदरेण। तं कोऽवगन्तुमखिलं जडिमालयोऽह मुञ्छामि' किंतु तव देव! गुणाणुमेव ॥ २॥ सन्तो गुणा गुणिगुरो तव हासहंसनीहारहारधवला बहुलीभवन्ति । ते सोमसूरहरि-हीरविरञ्चिबुद्धमायाविदेवनिवहे न मलीमसा वा॥ ३॥ देवं भवन्तमवहाय दुरन्तमोहसंच्छन्नबुद्धिमिहिरा इह भूरिकालम् । संसारनीरनिलये बहु संसरन्तो, विन्दन्ति जन्तुनिवहा न हि सिद्धभावम्॥ ४॥ १. मिच्छामि इति मु० २. हर० इति मु० हा० Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि सासूयसङ्गमसुरोरुसमूढ' - दम्भ - संरम्भसंतमससञ्चयचण्डभासम् । हिंसासरोरुहतमीरमणं चिरोढा हङ्कारकन्दलदलीकरणासिदण्डम् ॥ ५॥ वन्देऽहमिन्दुदल भालममन्दभन्दसंदोहमन्दिरवरं दरकन्दकोलम् । उद्दामकामभरभङ्गुरमङ्गभङ्गसंसङ्गबन्धुरमुरोरुह भारखिन्नम् । देहं सलीलपरिरिङ्खणमञ्जुशिञ्जिमञ्जीरचारुचरणं सरसं वहन्ती ॥ ७ ॥ १. सगूढ ० इति का०चा० ३. गण्डा० इति अ० गम्भीरसंभवजरामरणोरुनीरसंसारसागरतरीकरणिं च वीरम् ॥ ६ ॥ हेलाविलोलमणिकुण्डललीढगल्लारे, कङ्केल्लिपल्लवकरा वरकम्बुकण्ठी । केलीललामरमणी रमणीयहावा, नालं निहन्तुमिह ते विमलाभिसन्धिम् ॥ ९ ॥ त्रिभिर्कुलकम् सङ्गेयताललयचञ्चरचार'चारीसञ्चारिणी करणबन्धकलासु सज्जा । उन्नालनीलरुहकोमलबाहुवल्ली, भल्लीव विद्धबहुकामिकुरङ्गसंघा॥ ८॥ - २. चारु० इति चा० ४. कङ्किल्लि० इति का० २१५ युग्मम् Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ श्रीमहावीरस्वामि-स्तोत्रम् सञ्चारिकिन्नरगणारववेणुवीणासंरावभिन्नकलगेयरवाभिरामा । आकालभाविकुगुरूहकुधोकुदेव सम्बन्धबुद्धिहरणी तव देव! वाणी ॥ १०॥ संदेहदावजलवाहमजीवजीवभावावभासतरणिं भवसिन्धुनावम्। आगामिकेवलरमातरुणीविवाहा, देवागमं तव नरा विरला महन्ति ॥ ११ ॥ देवा महापरिमलं तरलालिजालझङ्कारहारि तव वीर! सभासु भूरि । फुल्लारविन्दनवसुन्दरसिन्दुवार मन्दारकुन्दकबरं कुसुमं किरन्ति ॥ १२ ॥ निःसीमभीमभवसम्भवरुढगूढसम्मोहभूवलयदारणसारसीरम्। वीरं कुवासमलहारिसुवारिपूरमुत्तुङ्ग मारकरिकेसरिणं नमामि ॥ १३ ॥ भिन्दन्तमन्तरणकारणमन्तरायं, संरुद्धरोगसमवायमलोभमायम् । उच्छिन्नमोहतिमिरावरणावसायं, वीरं नमामि नवहेमसमिद्धकायम्॥ १४ ॥ वन्दारुवासवसुरासुरभासुरालङ्कारामलच्छविपरागसमुद्धराणि । सेवामि ते चरणवारिरुहाणि भूरिसंदेहरेणुहरणोरुसमीर! वीर!॥ १५ ॥ १. मुत्तङ्ग० इति का० चा० Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨99 अञ्चामि ते चरणतामरसालिलीला, संधायि' पञ्चममहागणधारिवाणी। सम्बन्ध-बुद्धि-करुणालयलिङ्गसिद्ध सङ्घावलीदमिगणं चरणं चरन्तम्॥ १६ ॥ उच्चण्डधारकरवालकरारिवारविच्छिन्नकुम्भगलनाल-करालनागे। कुन्तासितोमरविभिन्नपरासुदेहे, कङ्कालसङ्कलभयावहभूमिभागे॥ १७॥ सावेगहुङ्करणडामरमुण्डरुण्डकीलाललालसविहङ्गकुलावरुद्ध। आबद्धबाणविसरे सहसा नुवन्तो, वीरं नरा रणभरेऽरिबलं जयन्ति ॥ १८॥ युगलकम् आसन्नसिद्धिकमलापरिरम्भलम्भदम्भोलिपाणिमिव मोहगिरि किरन्तम्। सम्पत्तिकारणममङ्गलमूलकीलं, सेवन्ति के न भगवन्तमघं हरन्तम्॥ १९॥ आयासभङ्गडमरामयसम्परायचोरारिमारिविरहेण चिराय देव!। भूमण्डले सनगरानिगमा विहार चारेण ते परममुद्धवमावहन्ति ॥ २० ॥ निस्संग! नि:समर! निःसम! निःसहाय!, नीराग! नीरमण! नीरस! नीरिरंस!। हे वीर! धीरिमनिवासनिरुद्धघोरसंसारचार! जय जीवसमूहबन्धो!॥ २१ ॥ १. संधारि० इति चा० २. सम्बुद्ध० इति दा० का० ३. बुद्ध० इति अ० चा० Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ इच्छामहासलिलकामगुणालवालं, चिन्तादलं समलचित्तमहीसमुत्थम् । सम्भोगफुल्लमिह मोहतरुं लसन्तं, हे वीरसिन्धुर ! समुद्धर मे समूलम्॥ २३॥ उल्लासितारतरलामलहारिहारा'नारीगणा बहुविलासरसालसा मे । संसारसंसरणसम्भवभीनिमित्तं, चित्तं हरन्ति भण किं करवाणि देव ! ॥ २२ ॥ हे देव! किङ्करमिमं परिभावयेह, मज्जन्तमुद्धरजवे भवसिन्धुपूरे । उत्तारणाय कुरु वीर ! करावलम्बं, भूयोऽसमञ्जसनिरन्तरचारिणो मे ॥ २५ ॥ श्रीमहावीरस्वामि-स्तोत्रम् सम्पन्नसिद्धिपुरसङ्गममङ्गलाय, मायोरुवारिरुहिणीवरकुञ्जराय । वीराय ते चरमकेवलिपुङ्गवाय, कामं नमोऽसमदयादमसत्तमाय ॥ २४॥ कुसमयतरुमाला भङ्ग संहारवायो, कुनयकुवलयालीचूरणे मत्तनाय ! | तव गुणकणगुम्फे मे परीणाममित्थं, विमलमपरिहीणं हे महावीर ! पाहि ॥ २६ ॥ अनयनिविडे पीडागाढे भयावहदुःसहे, विरहविरसे लज्जापुञ्जे रमे भवपञ्जरे । निरयकुहरंगामी हाहं न सिद्धिमहापुरीसरलसरणिं सेवे मूढो गिरं तव वीर हे ! ॥ २७ ॥ १. हारा० इति का० Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २१९ निरीहं गन्तारं परमभुवि मन्तारमखिलं, निहन्तारं हेलाकलिकलहकेलीहसरसम्। भवन्त नन्तारो न हि खलु निमज्जन्ति भवभी महापारावारे मरणभयकल्लोलकलिले॥ २८॥ एवं सेवापरहरिहयालोलचूलामणीद्धच्छायालीढं खरकिरणभाभिन्नमम्भोरुहं वा। चित्तागारे चरणकमलं ते चिरं धारिणो मे, सिद्धावासं बहुभवभयारम्भरीणाय देहि॥ २९॥ इत्थं ते समसंस्कृतस्तवमहं प्रस्तावयामासिवानाशंसे जिनवीर! नेन्द्रपदवीं न प्राज्यराज्यश्रियम्। लीलाभाञ्जि न वल्लभप्रणयिनी -वृन्दानि किं त्वर्थये, नाथेदं प्रथय प्रसादविशदां दृष्टिं दयालो! मयि ॥ ३० ॥ इति भावारिवारणस्तोत्रम् १. प्रणयिनी इति चा० Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. सर्वजिनेश्वरस्तोत्रम् [ वसन्ततिलकावृत्तम् ] प्रीतिप्रसन्नमुखकौशिकनन्द्यमाना, दोषान्धकारनिकरं परितः किरन्तः । नालीकप्रक्रमघनाः कुमुदं दधानाः, प्रीणन्तु संतत ( ? ) सदा जिनचन्द्रपादः ॥ १॥ तान्यक्षराण्यपि न वेद्मि न ता गिरोऽपि मद्गोचरे न मम धीरपि तादृगस्ति । वाचस्पतिप्रभृतिवर्ण्यगुणं यतस्त्वं, संस्तौमि भक्तिविवशस्तदपीश ! वच्मि ॥ २ ॥ स्वामिन्नियच्चिरमिह - भ्रमता भवाब्धौ सञ्जातपातकचयेन कदाचनापि । न त्वं स्तुतो न च नुतो न विलोकितो न, ध्यातोऽन्यथा कथमियं विपदां ततिर्मे ॥ ३ ॥ दुर्वासनान्धतमसोच्चयचण्डभानो !, भस्मीकृतप्रसृतमोहलतावितान ! । रागज्वलज्ज्वलनसं शमनाम्बुवाहं, क्वाहं सभक्ति न वितास्मि गतास्मि तत्त्वाम्॥ ४॥ नाथ ! त्वदंघ्रि नमनादरताडितोर्वी- पीठोपजातकिणलक्ष्मललाटपट्टम् । वक्ष्यामि कर्हि जगदीश्वरदत्तसान्द्र - कस्तूरिकास्तबकपञ्चमिवास्मि हृष्टः ॥ ५॥ स्फीतोपनीतसुखमस्तसमस्ततापं यैस्तर्षतस्तव वचोऽमलहारहारि । प्रोद्यत्कपोलपुलकोपवितैः पयोवत्, पीतं श्रवोऽञ्जलिपुटैर्जिन ! तेऽत्र धन्याः ॥ ६॥ व्यासर्पिकेवलबलक्षतविश्वविश्व-मिथ्यात्वविप्लवचयेऽपि शतन्वयीश । यत्केऽपि कुग्रहविधूतधियस्तदेतन्नाश्चर्यमन्धदृश एव रवावलूकाः॥ ७॥ उद्भूतभक्तिभरबन्धुरकान्तिकाया, यं प्रातिहार्यविधिमादधिरे सुरेशा: । त्वं विश्वविस्मयकरं स्मरघस्मरस्य, स्मृत्वापि ते किमपि हर्षमहं वहामि ॥ ८ ॥ यस्तावकं चरणवारिरुहं न नन्ता, भावुक्तभाषितमलं मनसा न मन्ता । युष्मान्निदर्शितचरित्रविधौ निरन्ता, संसारनीरनिधिपारमसौ न गता ॥ ९॥ , > Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૨૧ हर्षप्रकर्षवशतः शमुदुच्चदञ्च, रोमाञ्चकञ्चकचिताङ्गसुराङ्गनाभिः। देवोदगीयत यशस्तव मेरुशृङ्ग-लीलालतागृहगतानुगसङ्गताभिः॥ १०॥ क्षुण्णक्षय क्षिपितमोक्षविपक्षलक्ष, क्षीणक्षदक्षुभितपक्ष्मिलदृक्कटाक्षैः। क्षान्तिक्षत क्षमजिताक्ष सदक्षमा, रक्ष क्षणं क्षतकमक्ष निरीक्षणान् माम् ॥ ११ ॥ त्वामीश! जन्ममहिमादिषु तुष्यदन्तः, पुष्यत् प्रमोदभरहृष्यदशेषगात्रः। त्वष्टावगीतर वधू हितदिव्यतूर्य-नादानुविद्धमधुरध्वनिरिन्द्रराजी॥ १२ ॥ त्वनाथ ! संस्मरणतोऽपि किलैककाल-मे कोऽपि दूरतरवर्त्यपि भूयसोऽपि । भव्यान् सदापि विविधार्थरुचीन् कृतार्थी, कुर्वनमेयमहिमामनुविश्रुतोऽसि ॥ १३ ॥ किं नु ग्रही किमु सदाग्रहवान् किमज्ञः, किं मत्सरी किमलसः किमुताऽऽत्मशत्रुः। लोकोयमुत्तमतमं मतदानदक्षं, साक्षाद्भवन्तमपि यन्न नमस्करोति ॥ १४॥ निस्सीमभीमभववारिधिरन्ध्रमध्य - मज़ज्जनव्रजसमुत्तरणैकसेतो!। वेलात् कुशास्त्रजडवृद्धकुबोधवल्ली-सञ्छेदनोग्रपरशो! भगवन्! प्रसीद ॥ १५॥ त्वं सर्ववित्परमकारुणिकस्त्वमेव, त्वं पश्यसि त्रिजगदप्यनिशं यथावत् । त्वन्मात्रमेकशरणं भवपङ्कमग्न-मुद्धर्तुमर्हसि समग्रजगच्छरण्य!॥ १६ ॥ यत्त्वामनन्ति गुणराशिमुदारवाच-स्तुत्वा किलास्मि विरमन्ति सुरेश्वराद्याः। तस्मिन्न शक्तिरथवा श्रम एव तेषां, हेतुर्न तृप्तिरवधिर्न च ते गुणानाम् ॥ १७॥ एकापि चाश्रयवशेन किलाश्रयन्ती, नानात्वमभ्रजलवद् युगपत्क्षणेन। सर्वाङ्गिनां सकलसंशयहत्रिलोक्यां, वागेवमुक्तजिनवैभवमुद्भवं ते॥ १८॥ सन्तु श्रियः कृतमुदारमुदारमण्या-मण्यादिभिर्भवतु किं गजवाजिराज्या। राज्यानुधिक्!! नुतिपदं भव तीर्थराज!, राजत्यदा मम गिरः परमा वसन्तु॥ १९॥ द्वेषद्विषि भ्रमपिषि प्रकषायकक्ष-सप्तार्चिषि स्मयमुषि श्री..........। ............., सम्पत्पुषि त्वयि यशोयुषि मेऽस्तु भक्तिः ॥ २० ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ सर्वजिनेश्वरस्तोत्रम् कल्पद्रुकल्प! नतकल्पितवस्तुदाने, सम्प्रापितप्रवरसौख्यचय! स्तुवाने । वक्तुं विभो! गुणगणं तव नास्मि जाने, भक्त्या परं मम यतः स्वभवार्त्तिहाने॥ २१ ॥ व्याधिं धुनीहि जिन! रागलतां लुनीहि, चेतः पुनीहि मयि शीलगुणान् सिनीहि । आधिं मथान मनसोऽभिमतं ग्रथान, द्वेषं मुषाण जिनपादनतिं पुषाण ॥ २२॥ दूरीभवद् वृजिनवल्लभसिद्धिबद्धाबद्धा तव स्तवमवापि शुभं मया यत्। धर्मद्रुमोऽपि च तयो(?) फलमात्मनां [स्राक्], सस्तं स्वहस्तगतमस्तु जिनेश्वर! द्राक् ॥ २३ ॥ इति श्रीसर्वजिनेश्वरस्तवनं कृतिरियं श्रीजिनवल्लभसूरीणाम्। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. पञ्चकल्याणकस्तोत्रम् [स्त्रग्धरावृत्तम्] प्रीतद्वात्रिंशदिन्द्रोदितविततगुणाधरपुत्रावतारं, प्रोत्सर्पत्सर्वदेशोत्सवमवपतितानल्पपुण्योपकारम् । स्फीतः श्रेयः श्रिगीतावृजिनजिनगुणं वीतविद्वेषिजैनं, गर्भाधानं धुनोत्तद्धरविधुरविधिं ध्यायतां वर्द्धितर्द्धिः॥ १॥ नानानाकिप्रचारत्रिदिवनिभभवद्भूतिसुस्वप्रपंक्तिव्यक्तव्याख्यातपुण्यप्रचयपरिचयानन्दनन्दज्जनानि । प्राज्यप्रोज्जृम्भमाणानि घनधननिधानानि सद्यो जिनानां, गर्भाधानानि भूयो भवभवनभिदे वो भवन्त्वद्भुतानि॥ २॥ सद्यो लोकप्रकाशत् प्रवणपरिलसज्ज्योतिरुद्योतिताशाऽऽकाशं द्राक् दिक्कुमारीविसरविरचिताशेषतत्कालकृत्यम्। पञ्चत्वं वृत्रशत्रोर्दिशदपि शिवदं वादितानन्दनादानादव्यापूर्णकर्णत्रिभुवनजनतं पातु वो जन्म जैनम् ॥ ३॥ आनीतस्फीतनानाह्रदजलधिनदीतीर्थमृद्वारिपूरं, प्रक्रीडन्नाकिलोकप्रकृतसरभसोल्लासलास्यादिलीलम्। मेरौ सोत्कर्षहर्षद्रुतमिलितसमस्तेन्द्रसर्वप्रकारप्रारब्धं पापतापं द्यतु जिनजनने मज्जनाडम्बरं वः॥ ४॥ तूर्णं स्वर्णं सृजास्मिरचयवयमिहोद्रस्मि सद्भूषणानां, रत्नानां कुर्वमुत्रोत्करमिह निकरोदारसारांशुकानि। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૪ पञ्चकल्याणकस्तोत्रम् यावद्धर्षं सहर्ष सततधनमहावर्षविच्छिन्नतर्ष, जैनं दीक्षासु हन्यादिति सुरविसरादेशनं क्लेशनं वः॥ ५ ॥ लीलायुषि प्रपुश्यज्जिनकृतसफलायूंषि हृष्यद्वपूंषि, प्रध्वस्तद्विंषि भूयोऽद्भुतसुरनिलयत्विंषि नीरागरंषि। दौस्थ्यद्रुप्लुषि रोगोड्डमरमरकभीमुंषि कल्याणयुषि, द्राग्दत्ताशिंषि वः स्युव्रतविधिदिवसान्यहां पापपिंषि ॥ ६॥ प्रीतस्वाराजि हृष्टभ्रमदमरभरभ्रांजि नम्रासुरस्त्रीविश्रस्तश्रञ्जि वीतप्रणतजनमनोरंजि कल्याणयुञ्जि। तुष्यद्भूभुञ्जि पुष्यत्सुखरसमयताभाञ्जि सर्वार्थमृञ्जि, प्रीयासुर्वो जिनानामनुपमविकसत्केवलश्रीमहांसि॥ ७॥ नन्दच्चेतांसि लीलारसरभसवशोल्लासि लास्याप्सरांसि, स्थेयः श्रेयांसि चञ्चन्वचरचितविहायांसि पुष्यन्महांसि। द्राक् तीर्थं तीर्थनाथ! प्रथय कथयतेऽतीवनान्दीरवेण, व्याप्ताव्योमानिशं वो ददतु जिनततेः केवलोत्पत्त्यहानि ॥ ८॥ सत्कारं यत्र देवा जिनवपुषि दधुर्वह्निवाताब्दनाथाः, शक्रः संक्रन्दनाख्यामभजदवितथां यत्र संक्रन्दनाच्च । पूजायै यत्र भक्त्या जिनहनुरदनानग्रहीषुः सुरेन्द्राः, तद्वः कल्याणकं स्ताच्चरममयविभोः सर्वकल्याणमूलम्॥९॥ बद्धा क्रन्दामि वोच्चैर्जिनपतिविरहादुद्भवद्भरिभेरीभाङ्कारस्फारतारप्रतिरवमिषतः कुर्वदाशु त्रिलोकीम्। मुक्तेराहूतियोगादवितथपदभृत्कल्पकल्याणकारिस्तादस्तादभ्रगर्भाधशिव शिवयुषामन्यकल्याणकं वः॥ १० ॥ इत्युद्यन्मुन्दि नन्दजगदनभिमतच्छिन्दि दौर्गत्यभिन्दि, व्यस्तस्यापंदि बन्दीकृतवरकविसंसंदि माद्यद्द्युसन्दि। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि सर्पत्संपन्दि नृत्यत्सुरपददलितादीन्द्रदीर्यदृषन्दि, प्रीतिस्फीतिं द्रुतं वो ददतु जिनमहापञ्चकल्याणकानि ॥ ११ ॥ एवं यत्पञ्चकल्याणकसमयमहेष्वद्यदुद्दामधामामन्दानन्दात्म जंज्ञे त्रिजगदपि जिनांस्तान् सदा ये स्तुवन्ति । तूर्णं ते सारसांसारिकसकलसुखप्राज्यमर्त्ताधिराज्यः, स्वः साम्राज्यादिभुक्त्वा जिनपदसहितं वल्लभं संल्लभन्ते ॥ १२ ॥ इति पञ्चकल्याणकस्तोत्रम् २२५ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. कल्याणक - स्तोत्रम् वर्द्धितर्द्धिमहोदयम्। पुरन्दरपुरस्पर्द्धि भूतलं तन्वतीमर्हत्पञ्चकल्याणिकीं स्तुमः ॥ १ ॥ सुस्वप्न सूचितं सद्यः, सुरेन्द्रादिष्टमिष्टकृत् । स्फुरन्निधानं भगव-गर्भाधानं धिनोतु नः ॥ २॥ संक्षुभ्यत्सर्वगीर्वाण सर्वर्द्धिकृतमज्जनम्। विश्वविश्वोद्यदुद्द्योतं, जन्म जैनं पुनातु नः ॥ ३॥ समस्तशस्तवस्तूनां, दानादानन्दितप्रजम् । स्फीतश्रि वीतविद्वेषि, व्रतपर्व स्तुवेऽर्हताम् ॥ ४॥ - सम्भ्रान्तशक्रं सोत्कर्ष हर्षचङ्क्रमदामरम् । समुद्भूताद्भुतानन्दं, जैनं ज्ञानमहोऽवतात् ॥ ५॥ - क्रदत्संक्रन्दनं सद्य, उद्यदुद्दामतामसम् । सम्भ्रान्तत्रैदशं दिश्या - दर्हदन्त्यदिनं शिवम् ॥ ६ ॥ एवं प्रमोदप्रोदञ्च-दुच्चरोमाञ्चकञ्चुकम् । त्रैलोक्यं किङ्करं कुर्वत्यव्यात् कल्यणिकावली ॥ ७ ॥ इति यः पञ्चकल्याणीं, कल्याणी कुरुते हृदि । कल्याणालीं स शुद्धात्मा, जिनवल्लभते लघु ॥ ८ ॥ इति कल्याणकस्तोत्रम् Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. पार्श्वनाथस्तोत्रम् (शिखरिणी-छन्दः) नमस्यद्गीर्वाणाधिपति-नृपति-स्तोम-विनमच्छि र :श्रेणिभ्रश्यत्कु सुमविसराभ्यर्चितपदम्। प्रणम्य श्रीपार्श्व कुवलयदलोत्पीलमह सं, स्तवं तस्यैवाहं किमपि करवै वीरितरुजः॥ १॥ यशो यौष्माकीणं भुवनवलयं भ्रान्यदनिशं, यदिन्द्रैः सर्वैरप्यखिलमिव गन्तुं न शकितम्। तदस्मादृक्कश्चिन्निविडजडिमा वक्ष्यति कुतो, यतो भ्राष्ट्र भक्तुं प्रभवति कदाचिन्न चणकः॥ २ ॥ तथापि स्त्वां स्तोतुं जिनवरपरायत्तहृदयो, भवद्भक्त्यावेशाज्जडमतिरपि प्रावृतमहम् । हहा! धिग्! मां यद्वा कृपणमविवेकं यत इह, त्वदीयानुध्यानाद्रुचितमखिलं सेत्स्यति मम॥ ३ ॥ गतोऽहं संसारे नर-नरक-तिर्यक् -सुरभवेष्वनेकेष्वेव श्रीजिनमलभमानः क्वचिदपि। इदानीं यौष्माकं चरणक मलं संश्रितवतो, द्विरेफस्येवाभून्मनसि परमा निर्वृतिरतः॥ ४॥ मयि स्वामिन्! सम्प्रत्यनवरतरोगार्त्तवपुषि, त्वदीयं पादाब्जं मनसि कृतवत्यादरवति । प्रसादं कुर्यास्त्वं दिशि दिशि लसत्कीर्त्तिकुसुम! प्रसन्नाः स्युः सन्तः प्रणमति यतः प्राणिनिवहे ॥ ५ ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ पार्श्वनाथ-स्तोत्रम् शरीरं ये कुष्ठ ज्वरकृशमतीसारमधुरं, प्रसर्पल्लूतारिच्युतरुचिचयं बिभ्रति ____ नराः। प्रपन्ना वा मौख्यं पदविर चनेप्याकु लधियो, लभन्ते तेप्याशु स्वमभिलषितं त्वत्स्मृतिवशात् ॥ ६॥ भवन्तं संसारद्रुमपरशुमेकान्तहितदं, विहायापद्भीताः शरणमपरं येऽभ्युपगताः। अहं तानाशङ्के शुचिरविकरोत्तप्तवपुषो, हिमभ्रान्त्यारब्धज्वलदनलसेवान् हतमतीन् ॥ ७॥ न यस्त्वामस्तावीन्न मनसि दधौ नापि शिरसा, व्यनंसीन्नाद्राक्षीन्न च जिन! समार्चीत् क्वचिदपि। कुतो रम्यस्त्रीणां मुखशशिनि बिम्बाधरदले, स्तनाभोगो चासौ जितकलभकुम्भे विलसति ॥ ८॥ (मालिनी-छन्दः) भवति भवति यस्यान्तर्गतो भक्तिभावस्ततभवतरुकन्दस्तेन पुंसोदखानि। रुचितपवनयुक्तं पोतमाश्रित्य यद्वा, न हि न भवति यातुः पारगो वारिराशेः॥ ९॥ तव चरणसरोजं ध्यायतां देहभाजा - मरिकरिहरिचौरव्याध्यहिद्वन्द्वबन्धैः। जलधिजलदभूतप्रेतरक्षोऽग्निरूपै - र्न भवति भयगन्धोप्यस्तु तावत्प्रणामः॥ १०॥ सदधरदलयुक्तं दन्तसत्केसराढ्यं, नयनमधुपशोभं वाङ्मधुभ्राजितं च। वदनसरसिजं ते ध्यायते यैस्त्रिसन्ध्यं, भवभवभयभेदी. पार्श्वनाथाशु भूयाः॥ ११ ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૨૨ सविनयसुरराजी कृप्तराजीवराजी, प्रवरयतिसमाजी दान्तरागोग्रवाजी। गदितनवपदार्थः प्रीणितप्राणिसार्थः, सकलदुरितमाथः सोऽस्तु नः पार्श्वनाथः॥ १२ ॥ गतिजितगजलीलं पालिताखण्डशीलं, मिलदलिकुलनीलं त्रोटितापत्करीलम्। नतजनमतमीलं प्रोद्धृतारातिकीलं, नमत कृतनतीलं पार्श्वमुद्भूतहीलम्॥ १३ ॥ त्रुटितमदननालं लूनलोभप्रवालं, प्रणमदवनिपालं देहिनां स्वामिशालम् । स्फुरदुरुगुणजालं पार्श्वनाथं त्रिकालं, स्मरत विपुलभालं छिन्नमायामृणालम्॥ १४॥ सुरभिमुखसमीरं प्राप्तसंसारतीरं, जलधिजलगभीरं शोकपङ्कौघनीरम्। जिनसुखदशरीरं मानभूल्लेखसीरं, नमत भवततीरं पार्श्वमद्रीन्द्रधीरम् ॥ १५ ॥ जय जिनवर! शुक्लध्यानदीप्ताग्निदग्धक्षरदखिलमलोद्यत्केवलादर्शबिम्ब!। प्रतिफलितसमस्तालोकलोकस्थवस्तु!, स्थिरयुगपदमीलद्बोधरूपान्यदृष्टे! ॥ १६ ॥ (वसन्ततिलका-छन्दः) त्रैलोक्यभर्तुरपि मृर्द्धनि वर्द्धितश्रीस्तिष्ठाम्यहं रविगुणश्च विभोर्विपुष्टः। नर्नर्ति तुष्ट इव भृङ्गरुतोरुगीतिः, कंकिल्लिरुल्लसितपल्लवपाणिरुच्चैः॥ १७ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० मार्णालसूत्रचयचारु तवेन्द्रहस्तोदस्तं ललाम शुचिचामरयोर्द्वयं तत् । संवृद्वयोरसमकीर्त्तितपः श्रियोस्ते, सौरभ्यलुभ्यदभिभृङ्गभराभिरुद्भिराब्भ्योऽतिषुर्वरदधर्मकथावनिं ते । आयोजनं तदनुसम्यगधःस्थवृन्तैः, सन्तस्तरुः सुरभिभिः कुसुमैः सुरौघाः ॥ १८ ॥ शोभांबभार भुवि यत् कचसञ्चयस्य ॥ १९॥ छत्रत्रयं यश इव त्रिगुणोत्थमुच्चै, रत्नध्वजस्त्रिजगदूर्जितकीर्त्तिकेतुः । सद्धर्मचक्रमपि सर्वजगद्विभुत्वं, व्याख्याति तैः सुरकराहतदुन्दुभिश्च ॥ २१ ॥ सिंहासने जिनवरो जिन ! तंत्र तिष्ठन्, यस्योल्लसद्भिरभितो मणिभाप्रतानैः । त्वद्भक्तिभूरिभविनां युगपच्छिवाप्तयै, तद्वर्त्मनां ततिरिव प्रथयाम्बभूवे ॥ २० ॥ पार्श्वनाथ स्तोत्रम् यद्वान्यदस्तु वितताग्निमहस्सपत्नं, मार्त्तण्डमण्डलविडम्बितचारुदेहम् । भामण्डलं किल न किं कलिलाकुलाक्षावीक्षां बभूवुरपि मोहहरं वराकाः ॥ २३ ॥ इत्यादि तेऽतिशयवृन्दमनन्यतुल्यमार्हन्त्यमाख्यदमरा रचयाम्बभूवुः । व्यक्तं त्विदं ददृशुषामपि न व्यपैति, मिथ्यात्वधीर हह ! कष्टतमो हि मोहः ॥ २२॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २३१ मा द्राक्षुरेव यदि केचिदुलूकगोत्राः, किं शुश्रुवुः श्रुतिसुधामपि तेन वाणीम्। सर्वाङ्गिसंशयभिदं यदमी त्वदुक्ते, मुक्तेः स्फुटेपि पथि संदिहते हताशाः॥ २४॥ (हरिणीवृत्तम्) दलितसकलापन्दिस्फीति कृताखिलसम्पदः, क्षणमपि विभो! यस्ते नामाक्षराणि जपेन्नरः। मुकुलनयना मीलत्पक्ष्मश्वसन्मुखकम्पिताधरदलजडस्विद्यद्गात्राः स्मरन्ति तमङ्गनाः॥ २५॥ विनमदमरश्रेणीचञ्चत्किरीटमणिप्रभानिचयरचितप्राज्यप्रेकच्छचीपतिकार्मुकम्। चरणनलिनं ये यौष्माकं स्मरन्ति कृतादरा, जिन! सुकृतिनां तेषां हस्तस्थिताः शिवसम्पदः॥ २६ ॥ दधति सफलं ते जन्मत्वं शशाङ्ककरद्युतिर्धमति भुवने तेषां कीर्तिस्त एव नतेः पदम्। किमथ बहुना तेषां सर्वं प्रसिद्ध्यति वाञ्छितं, वसति हृदये येषां शश्वद्भवच्चरणद्वयी ॥ २७॥ सुकुलविकलः क्रूरो भीरुः शठो निधनः खलुश्च्युतगुणलवो लोकद्वेष्यो जडः सरुजश्च यः। चरणयुगले त्वत्के नाथ! प्रसीदति सोऽपि ना, सुरपतिगणैरप्युद्गर्वैः सगौरवमीड्यते ॥ २८ ॥ कलुषमपहृदोषप्लोषिन्! कषायमृषाद्विषन्!, मुषितरुषितश्लिष्यद्दोषापकर्षविषौषधे!। हृषितवपुषां पुष्यत्तोषप्रकर्षयुषामृषे!, त्वमभिलषितान्येषां स्वामिन् ! पुषाण नुनूषताम् ॥ २५ ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩૨ पार्श्वनाथ-स्तोत्रम विवशवपुषं कामक्रोधाभिलाषमदभ्रमै मुखकुहरगं जन्मन्यापज्जरामृतिरक्षसाम्। परिगततर्नु दौर्भाग्येण द्रुतं परिरक्ष मां, जिनवर! भवत्पादद्वन्द्वं शरण्यमुपाश्रितम्॥ ३० ॥ न नृपपदवीं नार्थावाप्तिं न भोगसुखं न वा, सुरपतिपदं त्वां याचेऽहं न वा शिवसम्पदम्। अहनि निशि च स्वप्ने बोधे स्थिते चलिते वने, सदसि हृदये भक्त्यद्वैतं ममास्तु परं त्वयि॥ ३१॥ इति फणिफणारत्नस्फूर्जन्मयूखशिखामिषस्फुरितहृदयान्तःस्थज्ञानप्ररोह तथा कुरु। शिवपुरपदप्राप्तेः पन्था यथा जिनवल्लभो, भवति सततं त्वत्पादाब्जप्रणामरसोऽसमः॥ ३२॥ (शार्दूलविक्रीडितं छन्दः) । अज्ञानाद्भणिति स्थितेः प्रथमकाभ्यासात्कवित्वस्य यत्, किञ्चित्सम्भ्रमहर्षविस्मयवशाच्चायुक्तमुक्तं मया। तत्क्षन्तव्यमुदारनायकगुणांशाख्यानमेवात्र स - च्चेतोहारि-विचारिता कृतमिदं वान्यत्कवीनां पथः॥ ३३ ॥ इति श्रीपार्श्वस्तोत्रम् कृतिः परमपूज्यानां श्रीजिनवल्लभसूरिसुगुरूणाम् * * * Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. पार्श्वनाथस्तोत्रम् (स्रग्धरा-वृत्तम्) पायात्पार्श्वः पयोदद्युतिरुपरिफणिस्फारफुल्लत्फणालीं, बिभ्रद्विस्फूर्जदूर्जस्वलमणिकिरणासूत्रितेन्द्रायुधां वः । संरूढप्रौढकर्मद्रुमवनगहनप्लोषपुष्यद्विशुद्ध ध्यानाग्निज्वालमालानुकृतिमकृतया सप्तधा प्रोल्लसन्ती ॥ १ ॥ सद्भक्तिव्यक्ति युक्तित्रिदशपतिनमन्मौलिमन्दारदामश्च्योतत्किंजल्ककल्कव्यतिकरकवरोदारपादारविन्दः । दृष्ट्या पीयूषसृष्ट्या दधदखिलजनवातमातङ्कमुक्तं, भव्यानव्याजमव्याद् भवदवदवधून्मन्थनः पार्श्वनाथः ॥ २ ॥ सम्पत्पूर्णं न किन्नु प्रमदमयमथो निर्मितं शर्म्मणाहोरोहत्कल्याणवल्लिप्रचयनंतिभुवं नाकिलोकावतारम् । इत्थं सन्देहदोलां दधदधिकमभात् पञ्चकल्याणकेषु, त्रैलोक्यं यस्य शस्याज्जिनपतिरपतिः सर्वकल्याणकृद्वः॥ ३॥ श्रीमान् यः पापतापप्रशमहिमरुचिः सप्तभिः पन्नगेद्रस्फारोत्फुल्लस्फटाभिः स्फुटफलितमणिप्रांशुरश्मिच्छटाभिः । भाति भ्रान्तिच्छिदायै जगति सुनयसत्तत्त्वसत्सप्तभङ्गी, सङ्ख्याव्याख्यानिबद्धक्षण इव स जिनः श्रागनिष्टं पिनष्ट ॥ ४ ॥ भक्तिप्राग्भारनम्रामरविसरशिरःश्रेणिचञ्चत्किरीट स्पष्टोच्चैः कोटिकाषोज्ज्वलचलननखादर्शसंक्रान्तकायम् । सेवासज्जं यदग्रे त्रिजगदपि विभात्युग्र संसारशत्रुत्रासानिर्भीतदेशश्रितमिव सवितुर्न्यस्यतु व्यापदं वः॥ ५॥ G Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ उन्मीलल्लीलमुद्यल्ललितमुदयदस्तो कविब्बो कमुच्चैः, सा चिप्राञ्चत्टाक्षच्छटमधिक भवद्विभ्रमारेचितभ्रु । स्वः स्त्रीणां नाक्षिपद्यः स्मरपरवदितिव्यक्तशृङ्गारभावं, भव्याधिव्याधिबन्धं हरतु स भगवान् भग्नकन्दर्पदर्पः ॥ ६ ॥ दैन्यादन्यानुवृत्त्यानुकृतिपरतया त्रासतो हासतो वा, देव ! प्राहुर्नमस्ते इति पदमपि ये केऽपि तेऽपि क्रमेण । स्वः कान्तोन्मुक्तमुक्तावलिललितकटाक्षच्छटालक्षलक्ष्या, मंक्षु स्युर्मोक्षलक्ष्मीकुचकलशतटीतारहारप्रकाराः॥ ७॥ स्फूर्जन्मोहप्ररोहच्छिदुरपरशुना सद्य उद्दामधाम्ना, नाम्नाऽऽम्नातेन यस्य त्रिजगति निखिलोपद्रवा विद्रवन्ति । नन्द्याद् वंदारवृन्दारकनिकरनमन् मस्तकस्तोमशस्तस्रस्तास्तोकप्रसूनस्तबकितचरणोपान्त पार्श्वः सुपार्श्वः॥ ८॥ ( वसन्ततिलका-वृत्तम्) दृब्धं विमुग्धमतिना जिनवल्लभेन ये स्पष्टमष्टकमदः सुमदः पठन्ति । भूयोनुभूयभवसम्भवसम्पदं ते, मुक्तयङ्गनास्तनतटे सततं लुठन्ति ॥ ९ ॥ इति श्रीपार्श्वस्तोत्रम् पार्श्वनाथ-स्तोत्रम् Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. पार्श्वनाथस्तोत्रम् (शार्दूलविक्रीडित-वृत्तम् ) देवाधीशकृतानते! शुभगते! विध्वस्तरुक्संहते!, छिन्नाज्ञानतते! गुणैकवसते! नष्टारते! स्वायते!। दत्तप्राज्यमते! प्रदिष्टविरते! पार्श्व! प्रणुन्नक्षते!, लूनेतिव्रतते कृतार्थसुमते जीयास्त्रिलोकीपते!॥ १॥ प्रोद्गच्छत्फलिनीच्छविस्तुतमहामोहान्धकारे रविः, दृप्यत्कामगिरीन्द्रभेदनपविः सद्वस्तुवादे कविः। नम्रक्ष्मापतिमौलिचुम्ब्यचरणस्तृष्णालतावारणो, व्यापत्त्यभ्रसमीरणः क्षतरणः पार्थोऽस्तु रुग्दारणः॥ २॥ मूलोन्मूलितसंसृतिर्गतभवोपग्राहिकावृति ख़स्ताधिप्रसृतिर्निरस्तनिकृतिः कान्तप्रशान्ताकृतिः। पुष्यत्पुण्यकृतादृतिकृतिततिः कल्याणकारिस्मृतिः, पातोत्पादितलोकलोचनधृतिः पार्थो लसन्निर्वृतिः॥ ३॥ रागारिद्विषि पापसञ्चयमुषि प्रत्तप्रशस्ताशिषि, क्षीणाशेषरुषि प्रकृष्टवपुषि स्फारोल्लसच्चक्षुषि। फुल्लेन्दीवररोचिषि प्रविकसत्सत्केवलद्योतिषि। स्फीतानन्दजुषि त्वयि स्फुरतु मे प्रीतिः शिवे तस्थुषि॥ ४॥ भ्राम्यत्कीर्तिचयः प्रकाशितदयः सद्वन्द्यपादद्वयः, शुद्धज्ञानमयः क्षितस्मयरयः सम्प्राप्तसिद्धालयः। ध्वान्तद्वेषहयः प्रणीतसुनयः श्वेतातपत्रत्रयः, पुष्यत्पद्मशयः प्रणाशितभयः पार्थोऽवतादव्ययः॥ ५॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ वाचस्त्वगुणकीर्त्तने श्रुतियुगं त्वद्भाषिताकर्णने, चेतस्त्वत्कथितार्थचिन्तनविधौ चक्षुस्तवालोकने । त्वत्पादः प्रणतौ शिरः पदयुगं त्वत्सम्मुखाभ्यागमे, बध्नात्याग्रहमाभवं भवतु मे तत्त्वप्रशस्ताथवा ॥ ६॥ यस्त्वां ध्यायति पश्यति प्रणमति स्तौति स्मरत्यर्चयत्यन्तर्भक्तििलपि वक्ति मनुते धत्तेऽथवा यो हृदि । कीर्त्तिस्फूर्जति तस्य सीर्यति वपुच्छ्रीरेति धीर्वर्धते, वाञ्छा सिद्ध्यति दीर्यते भवभयं नश्यन्ति सर्वारुजः ॥ ७॥ कीत्र्त्या स्फायि भिया पलीय सुगुणैर्लिल्ये प्रशस्त्रे श्रिया, रोगादिव्यसनैरनाशि दुरितैर्दद्रे जजृम्भे धिया । रत्याभावि भवाश्मना विजघटे श्रेयोभिराशिश्रिये, यद् युष्मत्पदकल्पवृक्षलतिका वीक्षाम्बुभूवे मया ॥ ८॥ चिन्तातीतिवितीर्णसत्फलपदद्वन्द्वास्तु चिन्तामणे !, घोरापार भवाम्बुराशिनिपतज्जंतुव्रजोत्तारक ! । यत् किञ्चित्सुकृतं समर्जितमितस्त्वत्कीर्त्तनात्तेन मे, नित्यं स्ताज्जिनवल्लभो भवभयध्वंसी प्रणामस्तव ॥ ९ ॥ (स्त्रग्धरा-वृत्तम्) नेन्द्रत्वं नाधिराज्यं न सुरवरसुखं नार्थलाभं न कामा न्नो मुक्तिं नापि चान्यत् कृतकरमुकुलः प्रार्थये नाथ ! किन्तु । स्थाने यानेऽह्नि - रात्रौ सदसि पथिगृहे कानने स्वप्नबोधे, सौख्ये दौस्थ्ये हृदीश त्वयि शुचिमुदिताद्वैतमेवास्तु भक्तेः ॥ १० ॥ पार्श्वनाथ-स्तोत्रम् इति श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. स्तम्भन-पार्श्वनाथ-स्तोत्रम् (शिखरिणी-वृत्तम्) समुद्यन्तो यस्य क्रमनखमयूखा विदधिरे, नमन्नानानाकिप्रभुशिरसि चूडामणिरुचम्। स्तुवेऽहं तं पार्श्व निजतनुविभा नीलनलिनैः, ककुप्कान्तोत्तंसानिव विदधिवांसं सरभसम्॥ १॥ विभोः यौष्माकीणं स्तवति तनिषा यद्यपि भवेदशक्तेः शक्रादेरपि परिभवायैव तदपि। अनन्योपायत्वादभिमतफलातेरकरवं, मनोऽत्रार्थेऽत्यर्थी भवदरपरीतोऽतिकृपणः॥ २॥ प्रशान्तं सद्वृत्तं सपदि कुमुदाप्यायनपरं, सदा हृद्योद्दामद्युतिदलितदोषान्धतमसम्। बुधानन्दस्यन्दं धरणिमरणीरम्यतिलकं, मुखेन्दुं द्रक्ष्यामि क्षपितजलजातं तव कदा॥ ३॥ भवाम्भोधौ मग्नं प्रणयिजनमुत्तार्य बहुधा, विधायाधिव्याधिक्षयमिह जिन! त्वं शिवमगाः। इदानीं भावत्की प्रतिकृतिरपि स्तम्भनपुरे, निविष्टा शिष्टानां जनयति नतानामभिमतम् ॥ ४॥ नराः कासश्वासक्षयनयनरुक्कुष्ठकिटिभज्वरातीसारार्शः श्रुतिमुखरदव्याधिविधुराः। निरस्ताः सद्वैद्यैरपि सपदि सिद्धौषधिविधेस्तव ध्यानाद्देव! स्युरिह घटितोल्लाघवपुषः॥ ५ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ गुणैः पुष्टं जुष्टं चरणचलसत्साधुमधुपैग्रदिष्ठौष्ठ श्रेष्ठच्छदमिव कदन्तद्युतिमधुः । श्रियो रम्यं हर्म्यं भुवननदशोभाकरमरं कदास्मि द्रष्टास्मि स्मितकमलकान्तं तव मुखम् ॥ ६॥ धियाहीनो दीनः कुकृतशतलीनः सुकृपणो, गुणैर्वान्तस्तान्तस्तत भवमहावर्त्तपतितः । विलग्नो भग्नोऽहं तव पदयुगे तद्गुरुकृपाकृपाणी कृत्तान्त: करणशरणं त्वं मम परम् ॥ ७॥ न रुग्नाहिर्नाधिर्न दवदहनो नोन्मदकरी, न चौरी नैणारिर्न समरभरो नारिनिकरः । न रौद्रक्षौद्रोग्रग्रहडमरमारिप्रभृतयो, भयं कुर्वन्त्यन्तर्जिनवर ! भवन्नामजपताम् ॥ ८॥ स्तम्भन-पार्श्वनाथस्तोत्रम् अनुष्णं शुष्णं तं सुविमलविभामण्डलमलं, ग्रहग्रासापेतं विनिहतमहामोहतिमिरम् । समं लोकालोकप्रकटकमजस्रोदितमहं, विलोकिष्ये! कर्हि क्षततततमस्त्वापररविम् ॥ ९ ॥ मुदा नृत्यन्नुच्चैश्चलकिशलयोऽशोकविटपीरणद्भृङ्गोद्गीता सुरभिसुमनो वृष्टिरभितः । रुचारोदोरन्ध्रं पिदधदुरुरत्नासनवरं, विधत्तेदश्छत्रत्रितयमधिप त्वं त्रिजगताम् ॥ ११ ॥ नितान्तं यत्कान्तं प्रविततमनन्तं च सततं, प्रकाशं विश्वाशास्वऽशिशु शशिशोचिः शुभरुचिः । अजय्यं न क्षय्यं श्रुतमपि चमत्कारिमनसो, दधानन्तज्ञानं स्व यश इव वन्दे महिविभुम् ॥ १० ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि . महच्चक्रं रत्नध्वजसहिनमुच्चैर्हि विलसद्, विशालं सच्छालत्रयममलमाल्यादिरचितम् । सुराधीशोद्धृतं शुभि रुचिचलच्चामरयुगं, गदन्नादाद्वैतं सुरकरहतो दुन्दुभिरपि ॥ १२ ॥ इति प्रातीहार्यं जगदसममत्यद्भुततमं, तवैवार्हन्त्यार्हं जिन ! विरचयाञ्चक्रुरमराः । अशेषद्वेषादिक्षयभवगुणाश्च त्वयि यतस्त्वमेवातः सम्यक् सकलजगदीशोऽसि भगवन् ! ॥ १३ ॥ दृशाऽस्तैणं स्त्रैणं गुरुमदकलं हस्तिकमलं, सुजातं पादातं प्रवररथकन्यौष्ट्रकवती । स्वकीयं स्वश्रीयं विनयविनतं राजकमिति, प्रभो ! प्राज्यं राज्यं त्वदभिनुति लीलेति विदितम् ॥ १५ ॥ शयालुस्तन्द्रालुः कुगतिपतयालुब्रुवमहं, दयालोऽश्रद्धालुर्यदनुगृहयालोस्तव वचः । यतः प्रीत्या सम्यग्वरदरससिद्धोक्तिकरणे, नयाः शस्याश्छब्दाः स्युरिह सुनयास्तैश्च निखिलैयथावत्त्वत्प्रोक्तं वरद ! घटते वस्तुसकलम् । कुतीर्थ्यास्त्वेकैकं कुनयपथमास्थाय कुदृशो, हहा! व्यावक्रोशीं विदधति वृथान्धा इव गंजे ॥ १४ ॥ वचः स्तावं स्तावं तव भवभिदं सद्गुणगणं, शिरो नामं नाम तव पदयुगं द्वन्द्वभिदुरम् । २३९ दरिद्रो निद्रालुर्न खलु हृदयालुः किल भवेत् ॥ १६ ॥ मनः स्मारं स्मारं तव सुचरितं त्वन्मुखविधुं, दृशो दर्शं दर्शं क्व मम भवितारौ परमुदौ ॥ १७॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० स्तम्भन-पार्श्वनाथस्तोत्रम् सृतं साम्राज्येन त्रिजगति न कार्यं युवतिभिः, कृतं विद्यामन्त्रप्रभृतिभिरथास्तां घुपतिता। अलं चिन्तामण्यादिभिरपि परं श्रायन(?)सुख श्रियो हेतुर्मेऽन्तः स्फुरतु भगवद्भक्तिरनिशम्॥ १८॥ किमन्धाः किं मुग्धाः किमुत ठकिताः किं ग्रहवशाः, किमज्ञाः किं स्वात्मद्रुह इह जनाः किं विधिहताः। चतुस्त्रिंशत्तथ्यातिशयविशदं त्वां न यदमी, समाशे श्रीयन्ते गुणगुरुमरागादिकलुषम् ॥ १९॥ रुजां गेहं देहं प्रिययुवतयः क्लेशततयः, क्षणस्थेमप्रेमप्रथितनिधनं बह्वपि धनम्। गतत्राणाः प्राणाः सुखसमुदया नश्यदुदया स्त्वदुक्ते निर्मुक्ते परमिति मनो वेत्ति मम नो॥ २० ॥ त्वमम्बा त्वं बन्धुस्त्वमसि जनकस्त्वं प्रियसुहृत्, त्वमीशस्त्वं वैद्यस्त्वमसि गुरुस्त्वं शुभगतिः। त्वमक्षि त्वं रक्षा त्वमसव इति त्वं मम न किं, ततो मां त्रासीष्ठाः कठिनगदवृन्दार्दिततनुम् ॥ २१॥ कृताबोधे क्रोधे बहुविधमदे क्लेशशतदे, भवारम्भे दम्भे विषयतृषि पुण्याङ्करकृषि। धृताशोभे लोभे दुरितसदने दुष्टमदने, परिश्रान्तं स्वान्तं मम जिन! यथा स्यात् कुरु तथा॥ २२ ॥ भवोद्भूतेरेतद्विदितमिन! नानसिषमहं, क्वचित्त्वां प्राक्पार्श्व! क्षतभव! न चास्ताविषमिति । इदानीं वन्दारुर्विकरणमुपेतः शिवपदं, नवं दिष्ये स्तोष्ये न च तदिदमागः सह चतुः॥ २३ ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि - २४१ (शार्दूलविक्रीडित-वृत्तम् ) इत्थं तीर्थपतेः पितुस्त्रिजगतः श्रीआश्वसेनेः पुरः, प्राज्ञः सक्षुभदञ्जलिर्विलसदानन्दोल्लसल्लोचनः । प्राद्गच्छत्पुलकच्छलप्रविकसत्पुण्याङ्करो यः स्तुयाल्लीलाभाञ्जिनवल्लभो ननु वसेत्स्वः श्रीशिवश्री हृदि॥ २४॥ इति श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथस्तोत्रम् * * * Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. स्तम्भन-पार्श्वनाथ-स्तोत्रम् ( मालिनी-वृत्तम् ) विनयविनमदिन्द्रं मन्मनोऽम्भोधिचन्द्रं, हितकृतिगततन्द्रं प्राणिषु प्रीतिसान्द्रम् । वचसि जलदमन्द्रं संस्तुवे पार्श्वचन्द्रं, त्रिजगदवितथेन्द्रं धैर्यधूताचलेन्द्रम्॥ १॥ सुमुनिगणगरिष्ठं प्राप्तविज्ञानकाष्ठं, वरचरणवरिष्ठं स्तम्भने सुप्रतिष्ठम्। जगदवनपटिष्ठं कर्मनाशाल्लघिष्ठं, शमनिधिमतनिष्ठं पार्श्वमर्चाम्यनिष्ठम्॥ २॥ त्रिभुवनजनवन्द्यां सर्वलोकाभिनन्द्यां, प्रतिरवनिचितान्द्यां कुर्वतीमस्तमान्द्याम्। गिरमनुपमपद्यां चञ्चदुद्दामगद्यां, हृदि कुरु निरवद्यां पार्श्वनाथास्यविद्याम् ॥ ३॥ हृतविषयपिपासं सिद्धधामाधिवासं, गतसकलविलासं फुल्लनीलाब्जभासम्। धुतभयमपहासं त्वां नतं त्वत्कदासं कुरु सुभव जिहासं पार्श्व! मन्धीविकासम्॥ ४॥ मधुमधुरविरावं क्लेशकान्तारदावं, भवजलनिधिनावं सम्यगादिष्टभावम्। गुरुलसदनुभावं चण्डताकाण्डलावं, मदकरिहरिशावं पार्श्वमीडेऽस्तहावम्॥ ५ ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २४३ नलिननिहितपादं योजनव्यापिनाद, हतकुनयविवादं धर्मिणां सुप्रसादम्। परिमुषितविषादं नौमि मुक्त्वा प्रमाद, सुखमितमितसादं पार्श्वमुद्घप्रवादम्॥ ६॥ क्षतदुरितविकारं ध्वस्तबन्धप्रहारं, प्रहतडमरमारं नश्यदीतिप्रचारम्। कृतजगदुपकारं नाकलोकानुकारं, जिन! तव बहुवारं स्तौमि भूमीविहारम् ॥ ७॥ नतजनजनिताशं विश्वविश्वप्रकाशं, विशदगुणभृताशं हन्तदीप्त्यस्तकाशम्। दितपरिचयपाशं त्वां स्तुवेऽतः सदाशं, जिन! बृहदवकाशं यच्छ मे छिन्नपाशम् ॥ ८॥ नखरुचिमधुधारं स्वाङ्गलीपत्रभारं, श्रिय उचितमगारं विश्वभूषाप्रकारम्। क्रमकमलमुदारं ते स्वभाम्भ:प्रसारं, भ्रमर इव कदारं पार्श्व! लेढास्मि सारम्॥ ९॥ विधुरहरणदक्षं भव्यबोधैकलक्षं, विजितविलसदक्षं पुण्यभाजां समक्षम्। प्रणमदमरयक्षं दग्धदुष्कर्मकक्षं, प्लुतकुमतविपक्षं पार्श्वमार्त्तातिरक्षम् ॥ १०॥ सुकृतसमभिहारं मुक्त्युरस्तारहारं, गदगिरिसितधारं सिद्धिरामाभिसारम्। कृतकमठनिकारं कीर्णलोकापकारं, वरद! निरतिचारं त्वां नुमो निर्विकारम् ॥ ११॥ शिवगमनविमानं मुक्तिकान्तैकतानं गुणगणमसमानं बिभ्रतं भ्राजमानम्। अकलितमहिमानं वार्षिकोदारदानं, नमत सुगतियानं पार्श्वमस्ताभिमानम् ॥ १२॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ स्तम्भन-पार्श्वनाथ-स्तोत्रम् प्रथितपृथुकलापं नष्टदुष्टाभिशापं, मृदितकुसुमचापं भीतिहन्नामजापम्। जनकुमतिदुरापं त्वां प्रतीत्थं विलापं, विदधतमुरुतापं मां क्रियाः पूतपापम् ॥ १३ ॥ सकलकुशलपोषं क्षीणहिंसादिदोषं, कृतकलिमलमोषं क्लृप्तलोभाम्बुशोषम्। विहतविषमरोषं त्वां तमोब्जप्रदोषं, प्रणमत उरुतोषं पार्श्व! मे देहि जोषम् ॥ १४ ॥ त्रिभुवननदहंसं लोकलक्ष्मीवतंसं, विधुतरतरिरंसं प्राप्तविश्वप्रशंसम्। विपुलविलसदंसं त्वामघं जनिवांसं,..... प्रकुरु दहशिवांसं मां शिवं प्रेयिवांसम्॥ १५ ॥ जगति शिवसहायं क्षिप्तमिथ्यावसायं, स्तुवदसुरनिकायं नीरजो रोगकायम्। स्वतिशयसमुदायं त्वां स्तुवानं विमायं, जिन! निहतकषायं मां कृषीष्ठाः व्यपायम्॥ १६ ॥ (हरिणी-वृत्तम्) इति सकलदिक्कान्ताकर्णोत्पलीकृतविस्फुरत्, ___ फणिफणमणिद्योतं पार्वं जिनं य इह स्तुयात्। पदमपदवीगामी स्वामी सुराधिपसम्पदः, स खलु निखिलेन स्याल्लोकेश्वरा जिनवल्लभः॥ १७॥ इति श्रीस्तम्भन-पार्श्वनाथस्तोत्रम् Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. स्तम्भन-पार्श्वनाथस्तोत्रम् (चित्रकाव्यात्मकम्) शक्ति-शूलेषु-मुसल-हल-वज्रासि-चापिना। स्तुवे चक्रेण चित्रेण श्रीपार्श्व स्तम्भनस्थितम्॥ १॥ नमल्लोकतटे वे बंधो वृजिन वामन। नमस्ते भवभीदंभा-रंभाय नयनक्षम ॥ २॥ शक्तिः नरौघः स्थिरसंलाभ-कांक्षी जिन! जितश्रम!। मदनो नो दमस्थाद दद्यादस्तममस्तव॥ ३॥ शूलम् नश्यन्ति तत्क्षणादेव स्मृत्या तव ततस्तव। वधपापादपापास्तः सद्वो वचननिश्चितम्॥ ४॥ शरः नयनः पार्था भवभी संबाधाल्लघुशाश्वतम्। . तन्द्रालूनभवावासं भीमभक्त्याजिसाहस ॥ ५ ॥ मुसलम् न स पार्श्व! भवारातेः कृतेः क्षोभं स साध्वस। समेति यः करोत्यन्त-स्थां सत्कुल सुशीलज!॥ ६॥ हलम् नन्दन वचसाऽमास्तं ध्वस्तासुगगत व्रज। जगत्तवागमासारो - ब्रूतमज्जज्जनं जिन!॥ ७॥ वज्रम् नमस्कारस्तवाक्षोभ य नाभालि सन्तृ निन।। नमेन्द्रराजवाजय - त्यनल्पनयजल्पक!॥ ८॥ प्रावासहासिः नमन्त जिनभावेन शक्रालीमलनाशक। कल्याणेषु सदा सर्वा समुत्थे मान्यशासन ॥ ८॥ धनुः मदनमदस्तवदनं भक्त्या, सकलजगजनजनकसमान। जिनवल्लभगणिमव भवभीतेः, स्तम्भनकस्थितपार्श्ववर! जिन!॥ १० ॥ इति श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथस्तोत्रम् Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. स्तम्भन-पार्श्वनाथ - स्तोत्रम् (चक्राष्टकम् ) ( शार्दूलविक्रीडित वृत्तम्) चक्रे यस्य नतिः सदा किल सुरैः दृष्टा प्रभावं क्रमैरत्नांभी...मनुद्यमेन लघु यः शक्रालिरानर्च यम् । यद्वाल्लभ्यमकर्मशर्मलयदं बंधन्नृराजौ स्तुतं, तं भक्त्या बत वीरमक्षयरमामैत्रीं नयंतं नतम् ॥ १॥ भक्त्याकृष्ट-सदेवदानवनरा गर्य प्रवादोज्झिता, दिष्ट्यान्तस्मरभिन्नसम्भवदराणि प्रेक्ष्य भीजिनवा | लग्ना ज्जड्याः' प्रध्वस्तो मर्दितलो भवारिवसुधानाथाश्वसेनस्वज"पार्श्व लघु मे तायीस वामात्मजः॥ २॥ इत जिह्मदिनमलयोत्फुल्लत्कुवीवल्लरिं, विन्नेहं वचनक्रमोद्यमवतां लाभे शिवस्योद्यतम् । तद्वादेभ न वन्द्यमुक्तमसमज्ञानक्षमाचेतसां, संस्तौमि प्रयतो विभुं स्तुतमितैरिन्द्रैरमन्द्रैनसम् ॥ ३ ॥ विश्वाल्लभ्यकवर्ण्यमत्र न भुवि भ्राजिष्णुता वस्तु मे, शस्या भक्तिरकारणं जनततेर्वा नन्दिनी मित्रता । सुध्वस्तप्रसरद्विपद्धनपरो देवस्त्वमामन्त्रितः, "कृतो, त्वं मां शाधि जिनेश ! पार्श्व ! सुधियां मेधालतामध्यतः ॥ ४ ॥ त्वत्पादोमपि वज्रबन्धुरधियो रोग " भव्यानापुरमर्द्धमीयुरसमश्रीभक्तिरोचिष्णुताम् । कर्माणि प्रविजित्य चाजरपदे त्वत्तस्त्वतो रम्यतं, तंर्वि त्वरितो भवान्तकरणे तोषात्कृता हस्ततम् ॥ ५ ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ર૪૭ .........."कृत्य सदेवमानवसुरा गर्दा विषादोद्भवद्भक्त्या तद्भवसोल्लसद् दवदराणि क्लेशभाजि त्वसौ। यन्नामस्मरणं भजन्ति बहुधा नाथं तमे नस्त्यजं, जन्तूनां लघुमोक्षदं श्रय जिनं वामाश्वसेनाङ्गजम्॥ ६॥ सज्ज्ञानप्रसरप्रबोधितजनं स्वीमित्रलाभप्रदं, प्रज्ञावद्वरचित्रचर्चिततमोवादं कुधीविद्विषम् । शश्वल्लज्जिततत्त्वपण्डितमुनिभ्राजिष्णुपादासनद्, नन्धुल्लासकरं प्रयामि शरणं दम्भष्णुषं श्रीजिनम्॥ ७॥ भद्राणि प्रवियोजितान्यमुभवाल्लंग्नोस्म्यसारक्रमे, शब्दो नापि शुभो नवा तनुमुखं भक्तं स्वराज्यान्विताम् । दृष्टिं दो .....: "वदेवं मामनुततो गच्छस्वमेतत्पदे, देहे स्तम्भनकेश! पार्श्व! दृभ शं मे स्वे हितांतं वदे॥ ८॥ - जिनवल्लभगणिना इति चक्राष्टकेन श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथस्तवः Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. सरस्वतीस्तोत्रम् [हरिणी - छन्दः ] सरभसलसद्भक्तिप्रह्वीभवत्त्रिदशाङ्गनामुकुटविसरन्नानारत्नच्छविच्छुरितक्रमाम् । कविशतनुतां स्तोष्ये भक्त्या किलास्मि सरस्वतीं, त्रिभुवन जनस्फूर्जन्मोहप्ररोहकुठारिकाम् ॥ १ ॥ निपुणधिषणोनन्तान् कान्तान् गुणानविदस्तवस्तव कृतमतिस्तूष्णीकत्वं प्रयात्यपि वाक्पतिः। चरमजलधेर्यद्वा कः स्यात् कणान्पयसोऽखिलान्, गुणयितुमलं जन्तुर्वाग्मी पटुश्चिरजीव्यपि ॥ २ ॥ तदपि गुणसंदोहाद्देशप्रकीर्त्तनतोऽप्यहं, स्वमभिलषितुं लिप्सुर्बुद्धिं तव स्तवनेऽधरम् । गतमतिलवोऽप्यन्तः पुष्यन् मतार्थ- मनोरथास्स्खलितमनसो यद्वा किञ्चिन्नवे विदति क्वचित् ॥ ३ ॥ स्मरणजनितक्लेशावेशाद् ददत्यभिवाञ्छितं, कियदपि जडाश्चिन्तारत्नप्रकल्पलतादयः । तव पदयुगं चिन्तातीतं किमप्यतिबन्धुरं झटिति फलति ध्वस्तध्वान्तप्रवर्द्धितसम्मदे ! ॥ ४ ॥ सितकजकरा दिग्व्यासर्पिस्वकायसितप्रभापटलपयसि स्फारोत्फुल्लत्सिताम्बुरुहस्थिता । नतसुरनरैः क्षीराम्भोधिप्रकाशिजलोल्लसद्विमलकमलालीनालक्ष्मीरिव त्वमुदीक्ष्यसे ॥ ५ ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २४९ 'नतसुरनरस्त्रीसंघट्टच्युतश्रवणासितोत्पलमतिरसाद्यत्पादाब्जं त्वदीयमताडयत्। सततविकचं तन्नाश्चर्यं यतश्चिरभाविनी, मलिनतनवोऽन्यस्य द्रष्टं न सम्पदमीशते ॥ ६॥ स्वचरणयुगन्यासाद्देवि! प्रतीतमिलातले, कमलनिलयं यत्त्वं लक्ष्म्या निरुध्य किल स्थिता । अनुशयवती मन्ये तन्निष्क्रयाय कृतोद्यमा, क्षणमपि भवद्भक्तानां सा गृहाणि न मुंचति ॥ ७ ॥ स्फुरितकिरणा वंशाभोगे कपोलतलस्पृशौ शशधररुचे राजेते ते चलत्श्रुतिकुण्डलौ। सममुभयतः सूर्यश्चन्द्रौ लसद्युतिमण्डलौ, हिमगिरिशिरो दोलालीलाविलासपराविव ॥ ८॥ विशदवदनश्वेतो नीरां सिषैवि पुरीश्वरं,. समभिपतिता सर्वाप्येषा किमृक्षपरम्परा। त्रिभुवनजनस्तुत्यां देवी प्रसादयितुं गिरां, प्रणति विधयेऽभ्याजग्मुः किं नु चित्रशिखण्डिनः॥ ९॥ शिततनुलसल्लावणयाम्भः कणाः किमु पुञ्जिताः, विमलहृदयान्तस्थज्ञानाङ्करा नु विनिर्गताः। मुखशशिगलत्पीयूषाच्छच्छटा बत ते हृदि, स्फुरदुरुरुचिं हारं दृष्ट्वेति संदिहते जनः॥ १० ॥ करसरसिजस्योर्ध्वं वर्तेऽहमस्मि सरस्वती, मुखजितमपीत्याभाभाराद् विमुक्तमपीन्दुना। कुवलयरुचा जैतुश्चाक्ष्णः सखेति सुदेवते!, करतलगतं पद्मं शश्वद् विकस्वरमद्युतत् ॥ ११ ॥ १. नतिपरसुर० Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨90 सरस्वतीस्तोत्रम् दुरितमलभित्तापक्षेष्णुः सुरासुरसुन्दरीजतनतशिरोऽराजद्रनस्फुरन्मकरी सिता। सुविकचरुजा लावण्योद्यत्पयःप्लववाहिनी, मदऽनवगमोदन्यां हन्यात् त्वदघ्रियुगापगा॥ १२ ॥ विशदितदिशं विश्वाकाशां विकाशी विसृत्वरी, द्विरदवदनच्छेदोद्यच्छच्छुचिच्छविजित्वरीम् । रसवशलसच्चञ्चूचञ्चच्चकोररुचीजनस्तव मुखशशिज्योत्स्नां धन्यो दृगञ्जलिना पिबेत् ॥ १३ ॥ हृदिजविमविद्यान्ध्यध्वान्तप्रबन्धविजृम्भिणच्छिदुरतरणिं वन्दारूणां सरागपरागतम्। परमगरिमस्फूर्जजाड्यक्षितिध्रपरम्परा भिदुरभिदुरं यत्त्वन्नामामनन्ति मनीषिणः॥ १४॥ नृपतिसदसि द्यूते वादे विवादविचारणे, समदकविषु क्रीडाकाव्येऽथवा विषमे परे। स्मरति तव चेजन्तुर्दत्ताखिलेप्सितसम्पदः, प्रभवति तदा सर्वारम्भोल्लसद् विजयोज्ज्वलः ॥ १५॥ जगति विबुधास्त्वां कल्याणी शुभां विजयां जयां, सुमनसमिमां सिद्धिं वृद्धि जयन्त्यपराजिताम्। जगदुरभयां शान्तां भद्रां शिवामथ मङ्गलां, धृतिरतिमति-स्वस्ति-श्री-कीर्ति-तुष्टि-सुपुष्टिदाम्॥ १६॥ जगति नमतां बाल्याज्जाड्यस्खलद्वचनश्रुतिगलितसकलप्रज्ञालेशो गतप्रतिभोऽपि सन्। शरदिजशशिश्वेतं रूपं तवाम्ब! हृदि स्थितं, दधति रचयत्युद्यत्कीर्तिं तमप्यधिकं गिराम्॥ १७ ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ललितवलितैर्मुग्धस्निग्धैर्मिलत्पुटकुड्मलैर्मसृणमधुरैः स्मेरस्फारैर्विवर्तिततारकैः । मृगशिशु दृशैस्त्वान्नच्छिन्नं पिबन्ति विलोचनै– दधति सुधियो ये त्वच्चिन्ता वशीकरणं हृदि ॥ १८ ॥ रुचिररचनां चञ्चच्चार्वी चरत्पदबन्धुरं, स्फुटरसबहुच्छन्दो - भाषाभिरामलसद्युतिम् । विविधरुचिरालङ्कारार्चिस्समुच्छलितस्मृतिं तव विदधतां वाह्वी चञ्चत्प्रपञ्चवचश्चयः ॥ १९॥ तमसि रवयो भीतौ रक्षा घना मरुषु क्षयाः, रिपुषु निधयो दारिद्र्येषु भ्रमेषु सुबुद्धयः । अहिषु गरुडाः सूत्रे सार्थाः रुजासु महौषधं, विपदि सदयाश्चित्राकाराः प्रसादलवास्तव ॥ २० ॥ नयसि सुखदं धत्से कीर्तिं बिभर्षि गुणावलं, वितरसि मतिं दत्से कामान् प्रवर्द्धयसि श्रियः । दलयसि तमो यस्मान्मान्धं द्यसिष्यसि शात्रवं, त्वमिति वदतो दीनं मातः ! समेधय मे धियः ॥ २१ ॥ जय कविचमूः चेतोरङ्गच्छिरः कलहंसिके, गुणिजनमन:पाथोनाथक्षपाकरलेखिके। जिनविभुमुखाम्भोजोज्जृम्भोद्म्भ्रमद्भ्रमरीनिभे !, विनतजनता-हृत्पद्मालीविबोधरविद्युते ! ॥ २३ ॥ २५१ भुवनविजयिप्राज्यज्यायोगुणान्वयमीस्महे, न तव भणितुं ज्ञातुं चातः प्रसीद सरस्वती ! जननि ! तनुतात् तां मे वाचं त्वमेव पटीयसी, मलमहमपि स्यां ते वक्तुं यया गुणगौरवम् ॥ २२ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सरस्वतीस्तोत्रम् रुचिरपि न मे राज्ये नम्रा ( ? नो मे ) परा जिनवल्लभप्रमदमदनोद्दामे स्त्रैणे न चोन्मदि सम्पदि । परमविरतं याचेऽदस्त्वां शिरो रचिताञ्जलि र्जननि जनय! द्राग् वाग्देवि ! प्रसादमलं मयि ॥ २४ ॥ इति नुतिमिमां श्रीभारत्या विमूढधिया मया, विरचितपदां तस्या एवं प्रसर्पदनुग्रहात् । प्रणिहितमना श्रद्धावान् यः पठत्यशठः सदा, स भवति भुवि श्रीमान्धीमान्पुमान्सुकृती कृतिः ॥ २५॥ इति श्रीसरस्वतीस्तवः कृतिरियं श्रीजिनवल्लभसूरीणाम् * Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. नवकार-स्तोत्रम् (१) किं कप्पत्तरु रे अयाण चिंतइ मणब्भिंतरि, किं चिंतामणि कामधेनु आराहइ बहुपरि । चित्रावेली काज किसउ देसंतर लंघइ, रयणरासि कारणिहि किसउ सायर उल्लंघइ ॥ चवदह पूरव सार जगे, लद्ध एह नवकार। सयलकाजि महियलि सरइ, दुत्तर तरइ संसार ॥ १॥ (२) केवलिभासिय रीति जिके नवकार आराहइ, भोगवि सुक्ख अनंत अंति परमप्पह साहइ। इणि झाणहि सुररिद्धि पुत्त सुह विलसइ बहुपरि, इणि झाणहि सुरलोक, इंद्र पद पायइ सुंदरि ॥ एह मंत्र सासतउ जगि, अचिंत चिंतामणि एह । समरणि पाप सवे टलइ, रिद्धि सिद्धि नव गेहि ॥ २॥ नियसिरि उप्परि झाण मज्झि चिंतवइ कमलनर, कंचणमइ अठदलसहित तिह मांहि कनकवर । तिहिं बइठां अरिहंत देव परमासणि फिटकमणि, सेयवत्थ पहिरेवि पढमपय चिंतवइ निय मणि ।। निव्वारिय चउगइ गमण, पामिय सासय सुक्ख। अरिहंत झाणहि जे मिलउ, तुह अजरामर मुक्ख ॥ ३॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ नवकार-स्तोत्रम् (४) पनरभेय जे सिद्ध बीय पय जे आराहइ, राता विद्दुम तणइ धन्नि सिरि सोहग साह इ । राती धोवति पहिरि जपइ सिद्धह पुव्वह दिसि, सयल लोय तिह नरह होइ तत्तक्खिण सवि वसि ॥ मूलमंत्र वसिकरण हुय, अवर सहू जगि धंध। मणि मूली ओषध करइ, बुद्धिहीण जाचंध ॥ ४॥ दक्षिणि दिसि पंखुडिय जपि नमो आयरियाणं, सोवन्न वन्नह सीस सहित सिरि उपरि भाणं । पहिरिय पीला वत्थ ते य मन वंछित पावहि, रिद्धि सिद्धि कारणहि लाभ जे ऊपरि ध्यावइ॥ इणि झाणहि नवनिधि हुवइ, रोग कदहि नवि होइ। गज रथ हयवर पालखी, चमर छत्र सिरि जोइ ॥ ५॥ (६) नीलवन उवझाय सीस पाढं ता पच्छिम, आराहिज्जइ अंगपुव्व धारंति मणोरम। पच्छि मदिसि पंखुडिय कमल ऊपरि जे झाणं, पहिरवि नीला वत्थ तेह गुरु-वयण पमाणं ।। गुरु लहु लख हित जे विदुर, तिह नर बहु फल हुंति। मन सुद्धि विहूणा जे जपइ, तह नर सिद्धि न हुंति ॥ ६॥ (७) सर्व साधु उत्तर विभाग सामला बइट्ठा, जिणधर्म लोयपयासयंतु चारितगुणजिट्ठा। मण वयणहि काएह जपइ जे एकहिं ठाणइं, पंचवन्ना विह झाण जाण गुरु एह प्रमाणइं॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि . अनंत चउवीसी जगि हुइए, होस्यइ अवर अंनत। आदि कोइ जाणइ नही, एह नवकार महंत ॥ ७॥ - (८) एसो पंचनमुक्कारो पद दिसि अगनेई, सव्व पावप्पणासणो य पद जपइ नीरेई। वायवदिसि झाएहि मंगलाणं च सव्वेसिं, पढ मं हवइ मंगलं ईसाण विदेसिं ॥ चिहुं दिसि चिहुं विदिसइ मिलिय, अठ दल कमल ठवेइ। जो गुरु लघु जाणी जपइ, सो घण पाव खवेइ ॥ ८॥ इणि प्रभावि धरणिंद हू अउ पायालहि सामी, समली कुमर उप्पन्न भिल्ल सुरलोयह गामी। संबल कं बल बे बलद्द पहु ता देवह गति, सूली दीधउ चोर देव थउ नवकारहि जपि ॥ सिवकुमार मनि वंछि करे, जोगी लीध मसाणि। सोना पुरिसर सीधलउ, इणि नवकार प्रमाणि ॥ ९॥ (१०) छीकइ बइठउ चोर एक आगासइ गामी, अहि फुट्टवि हुई फुल्लमाल नवकारह नामी। बछरुआ चारंति बाल जल-नदीय प्रवाहइ, बींधिउ कंटिहि उवरि मंत्र जपिउ मन मांहि ।। चिंत्या काज सवे फलइए, ईरति परति विमासि। पालितसूरि तणी परइ, सीझइ विज्झ अगासि ॥ १०॥ (११) चोर धाडि संकट टलइ, राजा वसि होइ, तित्थंकर सो हवइ लक्ख गुण विधि संजोइ। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ पहवइ, साइणि डाइणि भूत प्रेत वेयाल न आधि व्याधि ग्रह गणह पीड ते किमइ न होइ ॥ कुट्ठ जलोदर रोग सवे, नासइ मयणासुंदरि तणी परि, नवपद झाण एणइ मंति। करंति ॥ ११॥ (१२) तणा गुण किता वखाणुं, एह गुण पार न जाणुं । तित्थ महिमा रायमंत्र - राजा उदवंतउ, जयवंतउ ॥ एक जीहए मंत्र नाणहीण छउमत्थ जिम सेतुंजइ - कप्प सयल मंत्र धुरि तित्थंकर गणहर पमुह, चवदह पूरव सार । एहनी आदि न को लहइ, गुण गरुअउ नवकार ॥ १२ ॥ (१३) अड ́ संपय नव पय सहित इकसठि लहु अक्खर, गुरु अक्खर सत्तेव एह जाणह परमक्खर गुरु जिणवल्लभसूरि भणइ सिव सुक्खह कारण, नरय तिरय गति रोग सोग बहु दुक्ख निवारण ॥ जल थलि महियलि वनि गहणि, समरणि होइ इक चित्तु । पंच परमेष्ठि मंत्रह तणी, सेवा करिज्यो नित्तु ॥ १३ ॥ इति श्रीनवकार - स्तोत्रम् नवकार-स्तोत्रम् * Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रथम परिशिष्ट छन्द नाम आर्या ग्रन्थावलिगतछन्दोनुक्रमणी ग्रन्थ नाम एवं पद्यांक [१] सूक्ष्मार्थविचारसार० १ - १५२; [२] आगमिकवस्तुविचारसार० १-८६; [३] सर्व जीवशरीरावगाहना० १-८; [४] पिण्डविशुद्धि० १-१०२; [५] श्रावकव्रत-कुलक १ - २८; [६] पौषधविधि० १-५; [७] प्रतिक्रमणस समाचारी १ - ४०; [८] स्वप्रसप्तति १ - ७२; [९] द्वादशकुलके द्वि०कु० १ - २०; तृ०कु० १६, च०कु० १-२५, पं०कु० १, २, ५११, १३-१६, १८-२३, २६-२८, ३१; ष०कु० १ - १०, स० कु० १-१५; अ० कु० १-३३; द्वा० कु० १ - १६; [१३] प्रश्नोत्तरैक० ३, ५, ७, ९, ११, १३, १६, १८, १९, २१, ३१, ३३, ३७, ४०, ४३, ४५, ४६, ४८-५०, ५२, ५६, ६४, ६७, ७०, ७२, ७६,७९, ८१, ८३, ८५, ८९, ९१, ९३, ९५, ९७, १०१, १०४, १०५, १०७, १११, ११२, ११६, ११७, १२०, १२१, १२३, १२८१३०, १३२, १३३, १३७, १४२, १४६, १४८, [१४] चित्रकूटीय - वीर चैत्य प्र०३, १६, २३, ३६, ३९, ७३; [१५] चित्रकूटीय पार्श्व चैत्य प्र० ५ [१६] आदिनाथ च० १ २५ [१७] शान्तिनाथ ० १ - ३३; [१८] नेमिनाथ० १ १५; [१९] पार्श्व० १ - १५; [२०] महावीर० २-४३; Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭૮ परिशिष्ट - १ छन्द नाम दोहा पद्धतिकापादाकुलक ग्रन्थ नाम एवं पद्यांक [२१] वीर० १-१५; [२२] चतुर्विं जिनस्तुतयः १-१९६; [२३] चतुर्विंशति-जिनस्तोत्राणि ११४५; [२४] नन्दीश्वर चैत्यस्तव १-२५; [२५] सर्वजिनपंचकल्याणक० १-२६; [२७] महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका १-३६; [२८] प्रथम जिनस्त० १; [३०] स्तंभन पार्श्व० स्तोत्र १-११; [३१] क्षुद्रोप० पार्श्व० स्तोत्र १-२२; [३२] महावीर-विज्ञप्तिका १-१२; [२८] प्रथमजिनस्त० ३, [२८] प्रथमजिनस्त० २, ५, १३, १४, २३, २५; [१३] प्रश्नोत्त० १५५; [२८] प्रथमजिनस्त० ६९, १८, २१, २४; [२६] सर्वजिनपंचकल्याणस्तोत्र (पणय०) १८; [२८] प्रथमजिनस्त० १९, २०; [२८] प्रथमजिनस्त० १०-१२, २८, २९; [२८] प्रथमजिनस्त० २२; [२८] प्रथमजिनस्तवन २६; [२८] प्रथमजिनस्त० १७; [१३] प्रश्नोत्तरैक० १५०; [६] पौषध० ३, [११] संघपट्टक १८, २०; [१३] प्रश्नोत्त० ३४; [२३] लघु अजित० १७; [२८] प्रथमजिनस्त० ४, १५, २७; [२८] प्रथमजिनस्त० ३०; [४५] नवकार स्तोत्र १-१३; [१३] प्रश्नोत्तरैक० ६८; मदनावतार वस्तुवदनएकावलीक्रीडनकपंचपदीस्कन्धकद्विपदीद्विपदी हक्का षट्पदीषट्पदीपुष्पिताग्रा Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि . २५९ छन्द नाम अनुष्टुप् रथोद्धताइन्द्रवज्रावंशस्थउपजाति ग्रन्थ नाम एवं पद्यांक [१३] प्रश्नोत्तरैक० १५, २३, २९, ३५, ६२,८७, ८९,९९, १००,१०२, ११०, ११४, ११९, १४४; [१२] शृंगार० १, ४, ९७; [१४] चित्रकूटीयवीरचैत्य प्र० ८, ५४, ५६, ५७; [१५] चित्रकूटीय-पार्श्वचैत्यप्र० ६; [३६] कल्याणकस्तोत्र (पुरंदर०) १-८; [४२] स्तं०पार्श्वनाथस्तोत्र (शक्ति०) १-८; [१२] श्रृंगार० ८८; [१३] प्रश्नोत्तरैक० २४, ६५; प्रश्नोत्त० १५२; [१४] चित्रकूटीय-वीरचैत्य प्र०१; [९] द्वादशकुलके प्र० कु० १-२०; [१३] प्रश्नोत्तरैक० २८, ८६, ९२; [१४] चित्रकूटीयवीरचैत्यप्र० २१, २५, ६१, ६२, ६३, ६४; [१३] प्रश्नोत्तरैक० ६०; [१३] प्रश्नोत्तरैक० ७४; [९] द्वादशकुलके पं० कु० १२; द० कु० ११०; [११] संघ० ८, [१२] शृंगार० ९, १२, १४, २०, २५, ३१, ४२, ४८, ५२, ७५; [१३] प्रश्नोत्त० २, २६, ३२, ४१, ४४, ५१, ५३, ६१, ७३,७५, ९०,१०६, १३४, १३५, १३९; [१४] चित्रकूटीय-वीरचैत्यप्र० ४, २९, ४०, ५२, ६५; [३३] महावीर० १-२५; [२७] महाभक्तिगर्भा० ३७; [३४] सर्वजिनेश्वर० (प्रीतिप्रसन्न०) १-२३; [३७] पार्श्वनाथस्तोत्र (नमस्यद्) १७-२४; [३८] पार्श्वनाथस्तोत्र (पायाद् पार्श्व०) ९; कुसुमविचित्राप्रहर्षिणीवसन्ततिलका Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬૦ परिशिष्ट - १ - - छन्द नाम मालिनी मन्दाक्रान्ता ग्रन्थ नाम एवं पद्यांक [६] पौषधविधि० २; [८] द्वादशकुलके प्र० कु० २१; द्वि० कु० २१; पं० कु० ४; नवम कु० १२६; एकादश० कु० १-७; [१०] धर्म० २१; [११] संघ० ३, ११, ३९, [१३] प्रश्नोत्तरैक० १, ८, १२, २७, ३९, ८०, १३१, १५६; [१२] श्रृंगार० ६६, ८१, १०४; [१४] चित्रकूटीयवीरचैत्यप्र० ६९, ७४; [२०] महावीरच० १; [२९] लघुअजितशान्ति० २-१६; [३३] महावीर-स्तो ० २६; [३७] पार्श्वनाथस्तोत्र (नमस्यद्) ९-१६; [४१] स्तं०, पार्श्वनाथस्तोत्र (विनय०) १-१६; [९] द्वादशकुलके पं० कु० १७; [११] संघ० ३४; [१२] श्रृंगार० ५६, ५७, ५९, ९८; [१३] प्रश्नोत्तरैक० ६९, १०३, १०८, ११३, १३८, १४१, १५३; [१४] चित्रकूटीय-वीरचैत्य प्र० ३१; [३३] महावीर स्तो० २९; [९] द्वादशकुलके पं० कु० २९; [१२] शृंगार० ३,२२, २९, ८४; [१३] प्रश्नोत्तरैक० १०, ५४, ७८,८२, १६१; [१४] चित्रकूटीय-वीरचैत्य प्र० ६, २७; [३३] महावीर स्तो० २७; [३७] पार्श्वनाथस्तोत्र (नमस्यद्) २५-३२; [४१] स्तं० पार्श्वनाथस्तो० (विनय०) १७; [४४] सरस्वतीस्तोत्र० १-२५; [९] द्वादशकुलके पं० कु० २४; [१०] धर्म० १७; [११] संघ० ३६; [१२] शृंगार० १८, २१, हरिणी शिखरिणी Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૬૧ छन्द नाम पृथ्वी शार्दूलविक्रीडित ग्रन्थ नाम एवं पद्यांक ३५, ६२, ११५; [१३] प्रश्नोत्तरैक० २५; [१४] चित्रकूटीय-वीरचैत्य प्र० ९; [१५] चित्रकूटीयपार्श्वचैत्य प्र० ४; [३३] महावीरस्तोत्र० २८; [३७] पार्श्वनाथस्तोत्र (नम०) १-८; [४०] स्तं० पार्श्वनाथस्तोत्र (समुद्यतो) १-२३; [१०] धर्म० ४; [११] संघ० १२, [१२] शृंगार० ५०, ५३, ९१, ९५; [१३] प्रश्रोत्तरैक० ९४; [१४] चित्रकूटीय-वीरचैत्य प्र० ३३-४५; [४] पिण्डवि० १०३; [९] द्वादशकुलके तृ० कु० १, ३-७, ९, ११, १३- १५; पं० कु० ३; दश० कु० ११; [१०] धर्म० १,६-८; १२-१५, १८, २९, ३१, ३४-३६,३८, ४०; [१३] संघ० २, ५, ६, १०, १३-१७; २२-२९; ३१-३३; ३८, ४०; [१२] श्रृंगार० २, ७, ८, १०, ११, १३, १६, १७, २३, २६-२८; ३०, ३२-३४; ३६, ३७, ३९-४१; ४३, ४५-४७; ५१, ५५, ५८, ६१, ६३-६५; ६७-६९; ७१, ७३, ७४, ७६, ७८, ८०, ८२, ८५, ८७, ८९, ९०, ९३, ९४,९६, ९९-१०३; १०५-१०७; १०९-११२; ११४, ११७, १२१; [१३] प्रश्नोत्तरैक० ४, १७, २०, २२, ३०, ३८, ५५, ५७, ८४, ८८, ९८, १०९, ११५, ११८, १२२, १२७, १३६, १४०, १४३, १४९, १५४, १५७-१६०; [१४] चित्रकूटीय-वीरचैत्य प्र० २, १०, ११, १३-१५, १७, १९, २०, २४, ३०, ३५, ४२-४४, ४८, Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ छन्द नाम स्रग्धरा परिशिष्ट - - ग्रन्थ नाम एवं पद्यांक ५०, ५५, ५८, ६०, ६६, ६७, ७०-७२, ७५, ७६, ७८ [१५] चित्रकूटीय पार्श्वचैत्य प्र० ३; [२०] महावीरचरि० ४४; [२९] लघु अजित० १ ; [३३] महावीर स्तो० ३०, [३७] पार्श्वनाथस्तोत्र ० (नमस्यद् ) ३३; [३९] पार्श्वनाथस्तोत्र ( देवाधीश ० ) १ - ९; [४०] स्तं० पार्श्वनाथस्तोत्र ( समुद्यन्तो) २४; [४३] स्तं० पार्श्वनाथ स्तोत्र (चक्रे०) १-८; [६] पौषध० १; [९] तृ० कु० २, ८, १० - १२; पं० कु० २५, ३०; एकादश कु० ८; [१०] धर्म० २, ३, ५ ९ - ११; १६, १९, २०, २२ - २८; ३०, ३२, ३३, ३७, ३९; [११] संघपट्टक० १, ४, ७, ९, २१, ३०, ३५, ३७; [१२] श्रृंगार० ५, ६, १५, २४, ३८, ४४, ४९, ५४, ६०, ७०, ७२, ७७, ७९, ८३, ८६, ९२, १०८, ११३, ११६; [१३] प्रश्नोत्त० ६, १४, ३६, ४२, ४७, ५८, ५९, ६३, ६६, ७१, ७७, ९६, ९८, १२४, १२५, १४५, १४७ [१४] चित्रकूटीय वीरचैत्य प्र० ५, ७, १२, १८, २२, २६, २८, ३२, ३४, ३७, ३८, ४१, ४६, ४७, ४९, ५१, ५३, ५५, ६८, ७७; [१५] चित्रकूटीय पार्श्वचैत्य प्र० १ २ [३५] पंचकल्याणकस्तोत्र ( प्रीतिर्द्वात्रिंश० ) १-१२ ; [३८] पार्श्वनाथस्तोत्र ( पायाद्) १-८; [३९] पार्श्वनाथस्तोत्र (देवाधीश ० ) १० ; , १ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ ७१ و سد سه م ३३ १६८ १६८ १२६ ११८ 2. द्वितीय परिशिष्ट - जिनवल्लभसूरिग्रन्थावलिगत-पद्यानुक्रमणीआदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क | आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क अइ दसमदुरंतच्छेरय २४ अट्टच्चसोलसायय० १६ अइपंडितो वि ११ अडविनिवडियाणं १२ २०७ अइसयविरहाओ १८ अड संपय नव पय १३ २५६ अंगारसधूमोवम० ९७ अणिसिट्ठमदि० ५१ २७ अंगोहलिया दुन्निय १४ अणुवम-अइसय० २६ २०४ अंजणनगाण चउदिसि ६ अत्थाणयस्समिय मे १६ अंतिम-चउफास० १२१ अत्रस्तत्र पवित्र ........ ७२ १४८ अंतो कोडाकोडी ७० अत्रोत्सूत्रजनक्रमो ७५ १४९ अकलंककणयकाया ४ अद्भुट्ठ धणुसयतिय १ अग्निज्वालादिसाम्याय ८७ अद्भुट्ठसया चउदसपु० १२ १६० अग्रे गम्येत केन? ३६ अनयनिविडे २७ २१८ अच्च्क्खुचक्खुओही १६ अनुष्णं शुष्णं तं ६ २३८ अच्वखुचक्खुदं० ७० अनेकविधनायकस्तु० ४५ अच्छिंदिय अन्नेसिं ५० अन्तःपृष्ठविनिष्ट० ११० ११० अच्छिय चउपन्नदिणे ५ १८७ अन्नं न सरामि मणे ९ अजरामरपयहेउं ३ १७३ अन्नाणतिगअभव्वे ४८ अजुयलिया अतुरंता * १ . ४१ अन्नाणंधारय गुरुभव० ३० अज्जवनिज्जियदंभा २ १७२ अन्नाणियमच्छर० अज्जवि अकजसज्जो २९ १९९ अन्नुन्नब्भाससमं १५० अञ्चामि ते चरणताम० १६ २१७ अन्नुन्नमभिनाणं ३ १७२ अज्ञानाद्भणिति स्थिते: ३३ २३२ अन्ने उदग्गकुग्गह १२ ७८ अट्ठमभत्तेण तुमं . ४ अन्ने दक्खिन्नेण अट्ठमि चउदसि० १७ अपमत्तंता ८० २० अट्ठमि जम्मो अजिए १० १९३ अपरिणयं ९० ३० अट्ठमि सिद्धो नेमी २३ १९५ अपरितिमिताः कण्ठे २७ अवि कम्माइं ७ २३ । अपुणागमं गई * एतच्चिह्नान्तर्गतगाथाः ग्रन्थकारोद्धताः १४५ २१२ १८ २०५ १८६ १७८ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आदि-प‍ - पद पद्याङ्क ११ अपुव्वपुव्वागमन० अप्पडिचक्का तवणिज्ज० ४ अप्पsिहयधम्मचक्केण १ अप्पयरपयडिबंधी ९९ अभिसारिकाह कांश्चि० २१ अमणुक्कोसाउ विरय० ८२ अमन्दानन्दं २१ अमयमिव ११ अमरवरविसरकय० १५ अमुणियगुणदो अयरंतकोडाकोडिउ ८१ अयि ! तरुणि ८१ अयि सुमुखि ! सुनेत्रे ! ८० अरदिक्खा नमिनाणं पृष्ठाङ्क ५७ १६९ १५४ ९ ११६ ७ ९७ ७३ १९६ ७४ ७ अरिकरिहरितिण्डु० १० अरिमरणपुरवहाई १८ अरिसकिडिभकुट्ठ० १५ २०८ ३३ ८४ अर्थे निःसीनि २६ अर्हच्छास्त्रनिशातशा० ५५ १४६ अवगणियनिजकज्जा ७ ७८ अवि जिणवयणं २७ अवियाणियपरमत्था ४१ अवणेइय तं मज्झे २४ १०६ १२५ १९३ २०७ अवयरण- जम्म० २ १७० अवयरिए तई पियरो १२ १५५ अवराइयाउ रायग्गिहं २ १८६ ६७ ५३ ५१ अवरे नियडिपहाणा ६ ७८ अव्वो किमपत्तगुणो ३१ १९९ असढेण समाइन्नं ५० आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क असणाइचउब्भेयं ९ २३ असमभयहासकेली० १५ ६६ ८ १६१ असयं सेविय वीसं असरिसगुणेहिं १७९ असि - फरय-करा ४ १६९ ४० असुरसुरं अचबचबं : २ असुरिंदसुरिंदनरि० २ १५१ ८ असुहाण संकिलेसेण ९० अस्खलितसुललित० १६ १४१ अस्मिन्नस्मरवैरबन्धु० ७१ १४८ अस्याः सद्यो ५९ १०३ अस्सन्नि आइ २५ १६ अह अट्ठमभत्तं १५९ अह उवविसित्तु ४७ अह कहमवि जाया अह कहवि अह कहवि किलेसा अह गिरिसरिओव० अह चउपन्नदिणंते अह चलियासणछ० अह चुलसीइसहस्से अह झत्ति जगुज्जोए अह पक्खियं अह पुन्नपुंज ० अह बासीइदिणंते अहमाहमेहिं नामा० अह वरिसदिन्नदाणो अहव न जिमेज्ज अहवा जंं तग्गाहिं परिशिष्ट १५ २ ६ ५ ८ १० १९ १४ ३४ २० ११ ४८ ५ ९९ ६ ७३ ६५ ७३ ६५ १५७ १५२ १५२ १५५ ४८ ६६ १६२ ५३ १५७ ३१ २३ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૬ पृष्ठाङ्क ६६ पृष्ठाङ्क २३ ६६ १६ ४७ ४७ mã avu ७३ १५४ ३२ १७४ २०० १४७ ५३ ३१ २१८ ४८ आदि-पद पद्याङ्क अह सद्दहंति अह सम्ममवणयंगो १४ अह सुयसमिद्धिहेउं २१ अहह !! असुहाण ९ अहह!! सयलं ८ अहासभासित्तमदीण० १३ अहिगारिणा खु धम्मो *१ अहिगूणखमासमणे * १ आइन्नं तुक्कोसं ४७ आक्रष्टं मुग्धमीना० २१ आः क्रूरः कामवैरी ५९ आचरणावि हु आणा ६ आ जिट्ठठिई ११६ आणाबज्झाणं पुण ४ आनीतस्फीतनानाह्रद० ४ आबद्धस्तनबिम्ब० ४१ आभिग्गहियं ७५ आयासभङ्गडमरामय० २० आसाढचउद्दसीए ६ आसाढाइ चउत्थी २२ आसन्नसिद्धिकमलाप० १९ आसायण मिच्छत्तं ४६ आसी तुह पत्तेयं २२ आसोयपुण्णिमाए २ आस्ते कौलीयमार्गे ९२ आस्यं दास्यदशातिदे० ३२ आहाएँ वियप्पेणं ५ आहाकम्मपरिणओ २५ आहाकम्मामंतण १८ आदि-पद पद्याङ्क आहाकम्मुद्देसिय ३ आहारगावि २१ आहारगेसु ३३ आहारदेहभूसा * इइ बहुसुहलंभं ८ इंदथुय! चरिय चरणं इक्कं खित्तं घर चारि ८ इक्किक्कय-नय-मय० ३ इगदुगअणुगाइ जा ९५ इच्चाइ वुच्चइ? ३७ इच्चाइ सुत्तमवमन्निऊ० ४७ इच्चेयं जिणवल्लहेण १०३ इच्छामहासलिलका० २३ इच्छामो अणुसलुि ति ३३. इच्छायत्तनिरंतर० १४ इणि प्रभावि धरणिंद ९ इति नुतिमितां २५ इति प्रातीहार्यं जगद० १३ इति फणिफणारत्न० ३२ इति यः पञ्चकल्याणी ८ इति सकलदिक्कान्ता० १७ इति सुजनसमाजैः ६९ इत्तियमित्तं १४१ इत्थक्खंडिय० इत्थं तीर्थपतेः पितु० २४ इत्थं ते समसंस्कृत० ३० इत्थं मिथ्या पथक० ३४ इत्थुग्गकुग्गहकु० १ इत्यादि तेऽतिशयवृ० २२ ६६ २० २१७ १८२ १९४ २१७ ५३ १५५ १८७ २५५ २५२ २३९ २३२ २२६ २४४ १४८ १२ ६० १०८ २४१ २१९ ९२ ७५ २३० Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રદ્દ परिशिष्ट - २ पृष्ठाङ्क | ८० पृष्ठाङ्क ७२ २०८ १९६ २०९ २२४ 03 १०५ ७० १९२ ५९ ७५ ६८ २०८ २२ 9 ७० आदि-पद पद्याङ्क इत्यादिप्रथितप्रभावम० ७ इत्याधुद्धतसोपहास० २५ इत्युद्यन्मुन्दि नन्दजग० ११ इन्दोर्नाम मुधा ६४ इन्दोरुद्यदखण्ड० ७४ इमिणा किलिस्सिऊणं २ इय असुभाण ११९ इय ओहिचक्खुकेव० ६० इय कम्मं ५३ इय कुपहपयारं २६ इय गणिजिणवल्लह० ३१ इय गुरुदुहतासे १६ इय चवणपभिइपनर ७ इय चिंतिय १५ इय जाणंतु विभत्तिभर ३ इय जिणवल्लहगणिणा ४० इय जियठाणा ६६ इय तिविहं संखेनं १३७ इय तिविहेसणदोसा १०० इय तेणवई संते १९ इय नट्ठठ्ठारसदोसदाह ३८ इय नाउमाउयं २५ इय पढमेहिं बीयं १३५ इय पवरमईणं २१ इय पुणरुत्तमणंतं १३ इय बहुविहअसमंज० १३ इय भावओ कुणंतेण* १ इय मच्छाइसु - ३ इय मणपरिणामुप्पन्न० २ आदि-पद पद्याङ्क इयरस्स उ ३१ इय विजयाजियसत्तु० १७ इय विदेहेरवइभरहति० ८ इय विमलकेवलालो० ९ इय विमलगुणाणं २१ इय वीसं बावन्नं २५ इय वुत्ता सुत्ताओ ७६ इय सच्छंदपरूवण० १५ इय सव्वभव्ववंछिय० २१ इय सुत्तवुत्तमाए० २० इय सुत्ताणुसारमवधा० ३ इय सुहुमबायर १ इय सुहुमवाउतेऊ० ६ इय सोलस सोलस ९३ इष्टावाप्ति तुष्ट० १८ इह किल कलिकाल० ३ इह कुणयभुयंगे इह के मृषाप्रषक्ता ५० इह चिंतिऊण २८ इह न खलु निषेधः ७४ इह भरहे रयणपुरे ३ इह भवकारागारे १ इह सामाइय उस्सग्ग० १७ इह सुहुमनिगोया १४ इह सुहुमबायरे० ३ इह हि खलु दुरंते इह हिंडंते जीवा १६ ईदृग्गुणाढ्यः खलु ६४ ईसा-विसाय-मच्छर० ३४ १२० ६७ १४८ १५४ १६४ ६४ ६५ ४७ ७४ १४ १९८ ७८ १४७ २०० Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क उक्कडकोहकंदनिक्कं० १४ २०२ उग्गतरंगरिउस० १८ ७१ २५ उग्गमकोडिकणेण ३२ उग्गोवसग्गग्गा १७ २११ १७ २१७ उच्चण्डधारकरवाल० उज्झिय मज्झिमउवरि० २ १७९ ४८ उट्ठिय करेइ विहिणा २६ उट्ठिय ठिओ सविणयं ९ उड्ढमहोभय ४९ उत्तरकुरुमिहुणनरो उत्सर्पद्दर्पसर्पत्सुभट० १० उदयखओव०. ५६ उदइयभावा पुग्गल० ५० उदउ धुवोदया ३६ उद्यत्केलिकलाहित ११९ उद्यद्दारिद्र्यरुंद्र० ३२ ४६ २७ १५१ १४० ४ ११२ ८५ उद्दामकामभरभङ्गु० ७ २१५ उद्देसियमोहविभा० २८ उद्भूतभक्तिभरबन्धु० ८ २२० २५ १०५ उद्भूतविभ्रम मनोज्ञ० ३१ ९८ उद्भूतोद्दामकामक्रम० ७७ उद्धवत्क्रोध० २७ उन्नालाम्बुजलोल० १०० १०९ उन्मीलल्लीलमुद्यल० ६ २३४ ८४ उप्पाय- व्वय- धुवया ३ १७१ उप्पन्नो परमाऊ उप्फुल्लफारफणफणि० ४ उरलं सु उरलविउव्विमणा ६७ 5 3 १० १५४ १७१ १४ १९ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क ३३ ३ उरले असंख उल्लासिक्कमणक्खनि० १ २०६ उल्लासितारतरलामल० २२ २१८ ५५ ७ २१० २० १२२ १६१ ५४ १०८ २२१ १७ उवगरणवत्थपत्ताइ ० ६७ उवरिपरिफुरिय उवसंतजिणा ८४ ५७ ३ ६२ ९१ १८ एक्कारस ३५ ६८ ५ एक्कारस अपमत्ते एक्कारसमासंतम्मि एक्केको उवसम एक्के तवगारविया गरणी वीसं २५ ५७ ६५ गाइ इगुणतीसूणयंपि ३० गाणिस्स दोसा १ १ ३७ एगुत्तरा अभव्वाणंत० ९७ एगूणवीसमेगूण ० एत्तेहिंतो एतो गइइंदिय एत्थ विस एमाइपदं सोउं उष्ट्रः पृछति किं उस्सुत्लेसदेसण ऊणगसयभागेणं ऋतुं सफलयाऽधुना एकापि चाश्रयवशेन एगिदिएसु एगिदिए ६ १९ १२ ९२ ५२ एमाइ परमपसमर० : ३ एयं च तुब्भेहिं ३ २६७ १९ १८६ J ५५ १६३ ४८ ४४ ६९ १७ ९ ६५ ५९ १५ ३० ५४ ४३ ५६ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ परिशिष्ट - २ पृष्ठाङ्क | ५९ ४७ ४८ १४६ २२५ ७८ १६४ १७३ ११४ आदि-पद पद्याङ्क एयंजुत्तेहिं १८ एवं खेत्तसुरीए २२ एवं चिय चउमासे एवं चिय ठिइठाणा एवं चिय सहलत्तं २० एवं ता देवसिय २५ एवं पि अम्ह एवं प्रमोदप्रोदञ्च० ७ एवं यत्पञ्चकल्याण० १२ एवं विसिट्ठकाला० १ एवंविहाण वि दढं ११ एवं वीरजिणे दिणेसर ४४ एवं सेवापरहरिहया० २९ एसेगिंदियजिट्ठो ७५ एसो पंचनमुक्कारो ८ ओइन्नो सव्वट्ठाउ २ ओसन्नोऽवि विहारे ५७ ओसप्पिणी असंखा १४ ओहट्टइ सम्मत्तं ६४ औषधं प्राह रोगाणां ३५ कंकिल्लपमुहलट्ठ १ कं कीदृक्षं स्पृहयति १५३ कंदप्पदप्पनिट्ठिवणाइ १९ कंदप्प-सप्प-दप्प० ३ कः स्यादम्भसि १५९ कणयपहं कुसमय० ३ कणयंबुरुहच्छाओ . ३ कत्तियअमावसाए ६ कत्तियअमावसाए ४३ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क कत्तियकिण्हाए २ १८७ कत्तियबहुले पंचमि २ १९३ कत्तियमासअमावस० १५ १६६ कत्तियसियतइयाए ५ १८० कत्थइ कुप्पवयण० १६ १९८ कत्थवि समत्थकुति० १८ १९८ कदाचित् विहरन् ५४ कन्नेसु कडसलागा० २६ १६३ कन्नोवगे ससंके ३ १८७ कपटपटुदेवतार्चा ११७ १३१ कप्पदुमकदलीउव्व १ १८३ कप्पूरपूरसिंदूर २ । कमभिसरति लक्ष्मी:? ८ कमसो चउदस २१ १५५ कमसो विउव्वि० ९६ कमसो विगल० कम्मग्गहणे १७ २४ कम्मियचुल्लिय० कम्मियवेसण कम्मुरलदुगं कम्मुरलविउ० ४१ १७ कम्रोन्नम्रास्यपद्मा कयकुनयकमलमलणं ८ २१० कयगहिरविरससद्दो १० कयछट्ठो फग्गुण० ४ १८१ कयविकयरूवभी० १२ २११ कयं मए किं करणि० १८ ५७ करि-मयर-संख-चक्कं २ १६८ करयलकलियतरुवरा ४ १७१ २५५ १८४ ५४ १९८ ११८ १८५ १३७ द ७१ १६८ १३८ १८३ १७७ १८९ १६४ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि आदि-पद करसरसिजस्योर्ध्वं पद्याङ्क पृष्ठाङ्क ११ २४९ ६८ ५५ २५ ५२ २९ २३१ कल्पद्रुकल्प ! नतक० २१ २२२ कल्याणाभिनिवेश० २ ८७ १०३ १२९ २९ ९१ ४ ६३ ४ २१२ ४ ७३ ६१ २८ १९ ४७ १ ३७ १६ ६४ का ओगिनपुंसक० २१ १५ का कीदृक्षा जगति १३८ १३४ काः कीदृशीः कुरु० १५१ १३७ का दुरिताद्दूषण ९५ १२८ कान्तं मानसमक्षि० ६३ १०३ कान्ता कान्तापि २५ ८४ १४६ १०८ ९७ कान्ताकुञ्चितकुन्तला० ५८ कान्ता कोपकषायिता० ९६ कान्तित्यक्ताश्च्युतार्था ७ १४० कान्तिभ्रमोन्नमित० २५ कान्ते ! कल्पितका० ११२ १११ कान्ते ! कान्ते कदाऽहं ८६ १०७ कान्ते! लोचनगोचरे० ८७ १०७ कामा: प्राहुरुमापते २२ ११६ कलहकरा डमरकरा कलसा य दुहा एगे कलुषमपहृद्दोष० कश्चिद्दैत्यो वदति कष्टं नष्टदृशां कहकहवि कहमवि बहुसुकएणं कहवि तुडिवसेणं कहिय मिहो संदेसं काउं उज्जोयगरं काऊण तक्खणं काऊण रागचागं आदि-पद कामप्पवासाइ पद्याङ्क पृष्ठाङ्क १६ ५७ कामालंकियकामिणी० ५ ६० कायंदीइ जिणपाणय २ १८० कारुण्णं दुक्ख सुं १२ ६१ कर्णाटीकिलकिञ्चित० १३ १४० कालबलोचियकिरि० १६ ५९ ४२ ७७ कालम्मि अणाईए २ कालस्स अहकिलट्ठत्त० १ १३ कालाइदोसओ कालाइदोसवसओ ७ कालुष्यं कचसञ्चया० २९ काले टलणपायं २६ काले नियगेहागय० २२ का स्त्री ताम्यति की ० १४० किं इतो कट्ठयरं २ किं कप्पत्तरु रे १ किं कुरुथः के की० १३७ किं कुरुषे कौ ११६ किं कुर्या: ? कीदृक्षौ ४८ किं कुर्यां हरिभक्ति० १३६ किंच अणाइपरुढो ३२ किंच उदाहरणाई ८ किं चक्रे रेणुभिः १२५ ४ किंचिइ कुवि किंचिइ किञ्चित्यस्तैकपार्श्व० ५४ किं तु भववासनास० २९ १७ किं दिङ्मोहमिताः किं नु ग्रही किमु किं प्राहुः परमार्थतः २० १४ २६९ ६३ ७६ ८४ ५२ ३३ १३५ ३९ २५३ १३४ १३१ १२० १३४ १९९ ५० १३२ २०१ १०२ ७२ ८९ २२१ ११६ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭૦ परिशिष्ट - २ ११७ १९४ ७४ १३६ ६४ ६८ ७७ १३६ १८ ७७ ... १२१ २०९ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क किं भूरिभेएण २० ५७ किं लोहाकरकारिणा० ३० किणणं कीयं ४३ किमकृत कुतोऽच० १२६ १३२ किमन्धाः किं मुग्धाः १९ २४० किमपि यदिहाश्लिष्टं १६१ १३८ किमभिदधौ करभोरं १४६ किमिष्टं चक्राणां २५ ११६ किमिह सुबहुवाया० ७ किर गामचिंतगभवे । २ १६१ किर बहुपहुपासे २५ किर मुणियजिणमया -२ कीदृक् पुष्पमलिव्रजो ४ .. ११३, कीदृक् सरः प्रसरद० ५३ कीदृक्षं लक्ष्मीपतिह० १४८ १३६ कीदृक्षः कथयत ७४ १२४ कीदृक्षः सन्निहपर० ११३ १३० कीदृक्षमन्तरिक्षं ११९ कीदृक्षा किं कुरुते १०७ कीदृक्षे कुत्र कान्ता ७७ कीदृक्षोऽहमिति ८८ १२७ कीदृगनिष्टमनिष्टं ६७ कीदृग्जलधरसमय० ६८ कीदृग्भवेत् करजक० ९० कीदृग्भाति नभो? ९८ कीदृग्मया सह रणे ४० ११९ कीदृग्वपुस्तनुभृतामथ २ ११३ कीरइ जिएण २ कीर्त्या स्फायि भिया ८ २३६ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क कीदृशः स्यादविश्वा० ६२ १२३ कीदृश्यो नाव १५ ११५ कुंडग्गामम्मि पुरे २ १८८ कुंथू नाणं पंचमि १५ कुगुरुवयणदूढा २३ ७४ कुगुरुसु दढभत्ता २२ ७४ कुग्गहकलंकर० १४ कुणसु य गुणिसु कुत्र प्रेम ममेति १४९ कुनयकुमुयसिरिखं० १६ २०३ कुमुदैः श्रीमान् कश्चि० ९१ १२७ कुम्मारगामबाहिं २१ १६२ कुलप्पसूयाण कुवलयदलसिरिवच्छं २ कुसमयतरुमाला० २६ २१८ कुसुराणं परिहारो ८ कृताबोधे क्रोधे बहु० २२ कृत्वा रागवदुद्धतं १११ कृषीबलः पृच्छति १५२ केइ अपुट्ठा पुट्ठो ४ केणइ कहणनिसेहो १८ केणइ रन्ना दिट्ठा ९ केन केषां प्रमोदः १०२ १२९ केनोद्वहन्ति दयितं ३२ के मूर्खन्ति कुतीर्थि० ४३ १४४ केवलजुयल० ५२ १८ केवलदुगहीणा केवलमभावि भदाण ११ १९८ केवलिजिणाण दस १३ १६० Mm १३७ ७७ १२३ १२३ १२७ ११८ १७ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૭૧ पृष्ठाङ्क १० १०३ * १३७ * * * * * * * * २८ ११३ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क केवलिभासिय रीति २ २५३ केवलियनाणदंसण० ४१ ४ के वाऽभ्रंकषकोटयः १५८ , १३८ केष्टा विष्णोर्निगदति १४१ १३५ कोऽयं दर्पकरूपदर्प० ७ ९५ को धर्मः स्मृतिवादि०१५७ कोपत्र्यस्त्रपरान्मुखा० ८९ १०७ कोहंडी खंडियतित्थ० ११ १५८ कोहानलपसमणस० ३ १७० कोहे घेवर० ७० कोहो माणो क्रन्दत्संक्रन्दनं सद्य ६ २२६ क्रमनखदशकोटी० १ क्रव्यादां केन १४ ११५ क्रूराकस्मिकभस्मक० ४२ क्षतदुरितविकारं ७ क्षीरनीरधिकल्लोल० ९७ १०८ क्षीरनीरधिकल्लोल ८ क्षुण्णक्षय क्षिपितमो० ११ २२१ क्षुत्क्षामः किल को० १५ क्षुद्राचीर्णकुबोधकु० ६६ खंडइ पीसइ ८६ खङ्गश्रियोर्यमब्रवीत् ८९ १२७ खणमवि न खमं ६१ खण्डेल्लवंश्योऽग्रज ६२ १४७ खत्तियकुंडग्गामे १४ १६२ खरपवणुत्तालतण० २ खविय ठिइसंतमेगा ७ खवियन्नत्थम० आदि-पद पद्याङ्क | खित्तं सुहुमं ११३ खिवसु सलागापल्ले १२९ खीणाइतिसु य खीरतरुसुहच्छाया १५ खुड्डभवा साहीया . ७९ खुद्दोवद्दवविद्दव० २२ गइ-जाइ-तणु० ७ गइयाइसु ५३ गइयाईण य कमसो गंभीरधीराण १९ गंभीरनीरनिहिन० ३ गणिजिणवल्लह ३३ गतिजितगजलीलं १३ गतोऽहं संसारे नर० ४ गब्भगए चेव तए १५ गयगव्वे नमियव्वे २ गय वानर तरु धंखे १० गयवाहणो गयगई ४ गरिहह कयणेगाण० ६ गहणसमए अ जीवो १२२ गहियदलियस्स १०० गाढान्तर्वासनातो० ८३ गायद्गन्धर्वनृत्य गारवतिगोवरुद्धा गिहिणा सपरग्गा० ४६ गुंजावायसमु० ४ गुणैः पुष्टं जुष्टं चर० ६ गुणअगुणविहत्तिं १२ गुणमणिनिहिणो १ ५७ ७५ ७२ २२९ २२७ १५५ १७४ १४४ २४३ ५० १५० १७५ ৩৩ ०० १४७ ३० १०६ G ५४ ६८ २६ ६० २३८ ७४ १५९ २९ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ आदि-पद गुणरयणावण गुणसेढी दलरयणा० १०४ गुरु: स्तम्भारम्भः ६२ गुरुकोवफारफुक्कार० ११ गुरुगोहाकयसोहा गुरुणाऽणुन्नायाणं + ४ पद्याङ्क पृष्ठाङ्क २ १७८ ९ १०३ २१० १७० ३६ ४८ १ २४ ४३ २ गुरुथुइ-गह गुरुदेवुग्गहभूमी गुरुपारतंत नाणं गुरुमवि गुणमगणंता गुरुमूले च्चिय निच्चं : १ गुरुरहमिह सर्वस्याग्र० ३९ ५ गुरुरोगजालसलिले गुरुसक्खिओ य धम्मो २ १३ गृही नियतगच्छभाग् १२ गोयमगुत्ते जाओ ३ ५३ ३६ ७८ ३७ ११९ ६६ ३७ ८८ १५७ ७१ १५४ ८ ७३ घडिउब्भडभउडी० ९ घणरहतित्थयरसुओ ९ घोसाइनिंबुवमो ९३ चउगकुलकोडी ० ३ चउगइ चउकसाया ५४ चउतणुमणवइपाण० १०७ ९ चउतीसाइसयनिही २ १७२ चउदसपुव्वि सहस्सा २१ १५३ ३५ १६४ चउदसव्वी वाई चउदसमेण सिवसुहं २५ १५३ चउदसरज्जू लोगो चउदससुमिणपिसु० ११ चउदसि जाओ कुंथू ११४ १० १५५ १८ १९४ आदि-पद चउधणुस-उच्च चउनाणऽन्नाणतिगं ५३ ७ चवीस वासलक्खे चउह गइ व्वणु० चउह परित्ता उहिं सहस्से हि चंदप्पहसिवियाए चक्खुजु चक्खुजुया परिशिष्ट चक्षुः क्षिप्तवलक्षप० चक्षुर्दिक्षु क्षिपन्ती चक्री चक्रं व धत्ते ? चक्रे तीर्थकरैः चक्रे यस्य नतिः चक्रे श्रीजिनवल्लभेन चञ्चन्ति चन्द्रकिरणाः चञ्चद्भिश्चन्द्ररोचिः चन्द्रः प्राह वियोग० चत्तारि देवनरएसु चरणपतितं चरमजलहिनीरं पद्याङ्क पृष्ठाङ्क १६७ ५ १६१ २ २२ १७६ १६२ १७ १४ १०० ८४ १८ ४ २० ४४ ४३ २८ ५८ २४६ १४९ १०५ १०१ ११८ १६ १०७ २०६ १९ ६४ १ १८८ ७८ ७५ ४९ ३८ २७ ८४ २ ६९ २३ चरमाइममण० चलइ बलं चलणंगुलिचालि० चलपासाएसु गया चविरं सव्वट्ठाओ २ २४ चरमवए जिट्ठासिय चविउमिह मंगलावइ० ७ चामीकरसमवण्णो १२२ ८० ११ ५० १७६ १५६ १५४ १८८ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि आदि-पद चिंतेयव्वं भवनि० चित्तं सङ्केतिततरविधौ ९८ चित्तबहुलट्ठमीए ३ चित्तसिय पंचमीए चित्तसिय पंचमीए चित्तस्स पुन्निमा चित्तस्स बहुलपंचमि० २ पद्याङ्क पृष्ठाङ्क ५८ १०९ १७६ १७७ चित्तस्स सुद्धएक्कार० चित्ताइचउथि पासे . १८३ १७९ १८० १७८ १९४ १७४ १८८ ८८ २३६ १०५ चिंतासंतानदृष्टं पुर ७२ चिरचियनियक० २ ७३ चिर 'घणकम्म० २ १७१ ३ ४२ चुलसीइजोणिल० : चुलसीइदिणंते १८८ ६ १७६ ६ १८२ चुल्लुक्खाइ ३९ २६ चेतः सन्निहिताऽपि ० ५८ १०२ चोर धाडि संकट ११ २५५ १८४ १८५ १६३ १९४ १८५ २०८ चित्रोत्सर्गापवादे चिन्तातीतिवितीर्ण० १४ चित्तासु चयं अवराइ० १ चित्ते किण्हचउत्थीए २ चुलसीइपुव्वलक्खे चुलसीइवासलक्खे ६ ९ 3 w छउमत्थो वरिसं ५ छउमत्थो सोलस० छचउतिदुगेगमासे २७ छट्टि चुई सेयंसे २० छणं मग्गसिरे छणससिवयणाहिं ४ १४ आदि-पद छत्तीससहस्सजुयं छत्तीसुत्तर पंचसय० छत्रत्रयं यश इव छद्धा संघयणं छन्नउई कडीओ छप्पन्नमंतरोदग० छम्मासवसेसाऊ छव्वीस दिणे आउं छीकइ बइठउ चोर १० छुहवियणावेयावच्च० ९८ जइणो चरण २० जइधम्मासयरूवं ३ पद्याङ्क १० १४ २१ १५ १९ २३ ९ जइ वि अपत्तेयव० ४५ जइवि न आहाकम्मं जइ विदुसमदोसा १६ जइवि हु बहुविहमय० ६ जउछगणाइवि० ४८ जंचेगजिओवि २२ जं जत्थ जया जेसिं ६ जंतू य दुक्खविमुहास ४ जं पढमं जावंतिय ३७ २ पुण पढ सु जंबूद्दीवपमाणा जंभियबहि उजुवा० १२५ ३१ जं लब्भइ इंदत्तं ११ जं लोऍ अपडिकुटुं २२ जं लोए न विरु० ९ ७१ ३२ जं सक्कइ जं कीरइ जं सक्कइ तं हियए २७३ पृष्ठाङ्क १५७ १५८ २३० १५५ १५५ १६१ १५४ २५५ ३१ २४ ३५ २२ ५३ ७४ ५८ २६ ६७ ६८ ७५ २६ ३९ ११ १६३ २१३ ६४ ६८ ५५ ४८ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૪ परिशिष्ट - २ पृष्ठाङ्क १२२ २५० ७२ २५० ११६ १७९ or o ३५ ४० १९६ १५१ १८२ ६३ ३१ ५४ १७४ २१० x १६९ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क | जक्खसहस्सा सोलस १८ १५५ जगति नमतां बाल्या० १७ जगति विबुधास्त्वां १६ । जगति शिवसहायं १६ २४४ जच्चाइधणाण ६३ २८ जणणिजणगाइ ७२ २८ जणनायनायखत्तिय० १२ जणणि सच्चवियचउ० २ जणियसमत्थ० ७ ७० जत्थ निवसंति संतो ४० १६४ जत्थ साहम्मिया बह० ६० जननीरहितनरो० १०४ जन्तुः कश्चन वक्ति १२२ । जम्मजरामरणजलो * १ जम्मट्ठमि नवमि १९ जम्हा थेवो वि हु ५ जम्हा समत्थस० ६ जयइ ठिया अरविंदे ४ १६९ जय कविचमूः २३ जय कुनयमयपणासय १४ जय जिनवर! शुक्ल० १६ २२९ जय जिट्ठ जिट्ठ ४ जय निविडनियडियल ८ २०२ जय पुन्ननिम्माण १० २०२ जय बहुविहदुहसंसार० ६ २०१ जय भववणनिक्कंदण १ जय मोहतिमिरहय० ७ २०२ जय संजमसलिलसयं० ९ २०२ जय सग्ग-अपवग्ग० ११ २०२ आदि-पद पद्याङ्क जलनिधिमध्ये गिरि० ६० जलबुब्बुय २१ जलस्य जारजातस्य २३ जसुच्छलंतनिम्मल० १ जस्सुद्धट्ठियमुल्लसिर० १ जह जोइसिओ कालं * १ जाओ तमच्चुयसुरो ६ जाओऽसि जायरूव० ३ जाइजरामरणजले १ जा जयमाणस्स भवे १०२ जा जस्स ठिई जा ५१ जाणमणंतगुणाणं २ जाणामि सामि बहुभ० २ जाण्हव्वविबोहिय ३ जा तंपि तेरसूणं ३१ जात्यतुरगाहितमति० १०१ जायमणंताणतं १४७ जाया ते नवनिहिणो १७ जावंतियजइपासं ५२ जावंतियमुद्देसं ३० जा सुहुमो ता. ८१ जिट्ठबहुलट्ठमीए ३ जिट्ठबहुलम्मि ६ जिट्ठसियपंचमीए ६ जिट्ठस्स कसिण छट्ठी० २ जिट्ठस्स तेरसीए ३ जिणपूजणदण० १७ जिणमयभावियसावि० ११ जिणवरमुहकमलाओ ३ १९४ ४८ १२९ uy १६६ १८६ १८४ १८४ १८१ १६५ १८४ ५९ १६० १६९ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૭૭ पृष्ठाङ्क | पृष्ठाङ्क २२ २८ १९० १३ . ६२ w १५२ ४३ आदि-पद पद्याङ्क जिणवल्लहगणि०८ जिणवल्लहगणि० १५२ जिणवल्लहवयण० १६ जिणवल्लहोवणीयं ८६ जिणसीहाण कररुहा २ जिणसु कसायपिसाए ९ जिनगृह-जैनबिम्बं २० जिनपतिमतदुर्गे ___३९ जिणपूयाइविहाणं ७ जिनमतविमुखविहि० १९ जीयंति य लोयंतिय० १४ जीवा अन्नाणंधा - १ जीवा चउग्गइगया २ जीवा भूरिभिदा जीवा सुहेसिणो जुगपवरागम० जुग्गमजुग्गं जे खरजरजजरिया ९ जेण अणेगे जीवा ३ जेणऽइबहु जेण-चिंतामणि तुमए १५ जे भावा तत्तो १३ जे वि गयरिक्ख० १४ जेहिं सिरसंठिएहिं २ जोगट्ठाणासेढी १११ जोगणुरूवं गेण्हिय ९८ जोगा छसु जोगिअपमत्तइयरे ८५ जोणेगंतचवेडा० ३ आदि-पद पद्याङ्क जो पिण्डाइनिमित्तं ६२ जोयणकोडिसय० २ जोयण दो उड्टुं तह १० ज्ञानादित्रयवाञ्जनो ८ ठवइ बलिं ८८ ठिइठाणे ठिइठाणे ११७ ठिइबंधज्झवसाया ११२ ठिइबंधज्झवसाया १४४ ठिइबंधे ठिइबंधे ८९ णेगंतेणं चिय तईए निसाइयारं २७ तइं नाहे गुणनिलए ३ तं गयपओस तं च चउदसि० - ५ तं चेव असंथरणे ५६ तं जम्ममजणखणम्मि १६ तं जेण देव! परमो ३ तं तीस पुव्वलक्खे ६ तं नमह बारसंगं ३ तं नाह माह छट्ठीए २ तं पणमिय पसमिय० २ तं पणमिय सोलसमं २ तं पि सुहाणुट्ठाणं २७ तं पुण जं जस्स ८ तं पुण जहण्णजुत्तं १३९ तं पुण सुजुत्तिजुत्तं २६ तं पुरिससीह ३ तं माहकसिणबारसि ३ तं विवरिय एक्कक्के १३८ २८ २७ १६२ १९७ १७९ १७१ २१० १६८ ३० ३५ २११ १७१ १० २३ २१ १७८ १८१ १२ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૬ परिशिष्ट - २ ७६ ه به سه & مر ६९ ه आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क | तक्खणखुभियाखिल० २७ १५६ तक्खणमणनाणजुयस्स ७ १५७ तडिपुंजपिंजरतणु ४ १७२ तणजलतरुपुन्नं १५६ १३७ तणुवइमणेसु ५० १८ तत्कालोन्मीलदन्त० २६ १४२ तत्ततवणिज्जवन्ना ४ १६८ तत्तो कीडगभक्खण० २० तत्थ नरत्तं तत्थ २ तत्थ पुण अहोरत्तं * २ तत्थ य चिंतइ संजम० २९ तत्थ य जम्मण० १९ १९८ तत्थ य धरेइ हियए ७ . ४६. तत्थ वि बहुसुह० ३ तत्थ वि य ८४ २९ तत्थुसह-वद्धमाण० १७ १९१ तत्त्वद्वेषविशेष एष ६७ १४८ तत्राम्बक-केहिल० ३६ १४४ तथापि स्त्वां स्तोतुं तथ्यताथागताम्राय० ५७ १४६ तथ्यापथ्यायथार्थ० १९ तदणुगउ च्चिय० १२ तदपि गुणसंदोहाद्देश० ३ २४८ तदेवं संसारातुल० २४ तद्गेहे प्रस्तुतस्तन्य० ५ ८० तन्वि! तन्विदमनाकुलं ८८ १०७ तन्वि! त्वं नेत्रतूणो० ६६ । तब्बहुमज्झे ३ तमणिच्छिय तुह नि० २२ १६३ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क तमवि सुकुलजाई० २ तमसि रवयो भीतौ २० २५१ तमालव्यालमलिने १४४ १३५ तम्हा खणमवि २४ तम्हा पमायमइरा० ८ ६३ तरुणेषु कीदृशं स्यात् ७२ १२४ तव चरणसरोजं १० तवणिजपुंजवन्नो ३ १८७ तवसुत्तविणयपूया ३६ ५२ तसचउ थिरछक्कं ११ तसचउ पणिंदिपर० ३२ तसदस चउवन्नाई ४५ ४ तसबायरपज्जत्तं तस्मिन्बुधोऽभवदस० ४० तस्स कड तस्स १० तस्सोवएसयाणं ४ तह उस्सरगुज्जोया ३९ ४९ तह कहवि संपयट्टो ४० ५३ तह घंटा-चंदण० १९ १९१ तह छक्काए ८७ तह जिणमयं. २९ ६७ तह जोयणसयमुच्चा २२ तह निययमणत्थ० २०७१ तह पुव्वकोडी ७२ तह विलसिरहुंडो० १७ तहवि हु बहुमाणुल्ला० ३ तह वि हु बहुलाए ७ ७३ तह संखगुणा ४ २२ तहियं बहूण बहुहा ५ १९७ ه ه २२७ له ५८ .७४ २०६ १२३ १९० Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૭૭ पृष्ठाङ्क | ६७ १७४ ६३ ७७ १९७ १६५ २२० १६१ ७८ ७६ १०१ आदि-पद पद्याङ्क ता आणाणुगयं जं २८ ता कइया तं सुदिणं * २ ता गहिरमहोदघि० ४ ता गीयत्थप्पवित्तिं ३० ताणऽण्णोण्णब्भासे १४६ ता तत्थसुगुरु० २८ __ ता दुल्लहमिमं ५ ता दूरं मुक्कसंकाविर० ८ ता देव! केवलामल० ८ ता धुवमधुवमसारं २४ तान्यक्षराण्यपि न २ ता भासरासिगह० १४ ता भूरिकुग्गह० १० तामद्याप्यहमर्ककर्क० ५१ ता लोयसन्नाविपरं० १० ता रागचागकुग्गह० ३२ ता विसमकसायपिसा० ४ तासं पइ पइदिवसं ३ ता संसारमसारं २५ ता संसारमसार० ७ ता सिद्धंतपसिद्धिओ ३ तिक्कालं चिइवंदण० ६ तिजयपहुत्तणं व १५ तिण्ह वरिसाण अंते ५ तित्तीसयरे अवराइयम्मि २ तित्थे सुत्तत्थाणं * १ तिदुगेगाण तिगतियं * १ तिनवइ-सहस्स सहि० २९ तिपयनाणसियवा० १८ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क तिपयमयं तियसमयं. ३ १७५ तिरिनिरयतिगुज्जोयाण २७ ३ तिर्यग्वर्तितनर्त्तिताल० ४० १०० तिसला-सिद्धत्थसुयं १ तिसु मिच्छत्तं ३८ ४ तिहुयणपहुणो १७३ तीऍ जुयं पत्तं ५४ २७ तीसं कोडाकोडी ६६६ तीसं वरिसे वसिउं तीसं वाससहस्से ६ १८६ तुडियंगाऊ पालिय तुब्भेहिं मोहवेला० २ तुममच्छीहि न वीस० १० १९७ तुहऽबालपवालप्पह ३ तुह आणारत्तेणं १२ तुह गुणथुय पहु २ तुह गुरुभत्तिरसवसा ५ २०९ तुह जिण! अणंत! २ १९७ तुहणुग्गहं विणा १२ १९८ तुह तित्थे विग्घहरा ३१ तुह दंसणं निवारइ ३३ १९९ तुह दंसणे मणेण २४ तुह नाम भद्दमुद्दा १३ तुह पयभत्तीएँ जसो १० २१३ तुह पवयणं पि पावि० १७ तुह पुरिमतालपुरि १८ १५२ तूर्णं स्वर्णं सृजास्मिन् ५ तृष्णाकृष्णाहिताक्षाः ३८ १४४ ते किंचि कहिंचि ३ ७७ २१३ २०१ १५६ २०३ १८३ १५७ १९८ २२३ ३७ १५६ २०३ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ आदि-पद ते किं समइवियप्पण० १४ ते कीदृशाः क्व कृति०१३३ तेण पुण पडिसला० १३४ तेणेव जो बीहइ नो ७ तेत्तीसुदही सुर ७१ तेने तेन सुधांशुधामध० ३४ तेने तेनेह कीर्तिः ६८ तेय असढं जयंता १६ ते य बलकालदेसाणु० १५ तेरसि जम्मो वीरे १६ १ २२ ते वि तुह सरणसुंदर० १० तेसिं घंडाओ पायं १६ तेसिं चउण्हदिसासुं २३ तेलुकभूसणमणिं तेऽवि य जण पद्याङ्क पृष्ठाङ्क ५९ १३३ १२ ५६ ६ ५३ तेसिन जुत्तं चरणं तो कप्पणाइ केणइ १२७ तो जंबूदीवभर ६ तो जेट्ठकसिणतेरसि० १३ तो झत्ति दिसाकुमरी ६ ७८ तो नाणंदसणावर० तो भत्तिब्भरनिब्भरम० ११ तो भवसागर० तो भवसुहविरयमणो ४ ९ तो माणुसत्तममलम्मि १२ तो समणाणऽद्वारस ९ तो सययतयब्भासा० : २ तो १० साहूण सहस्से तो सुत्तविमुहगड्डरि० ४९ ८५ १४८ ७८ ७८ १९४ १८६ ५१ २१० ५१ १९२ ५४ ११ १६१ १५५ १६५ २० १५२ ६५ ३५ ६६ १५७ ४३ १५९ ५३ आदि-पद त्रिभुवनजनवन्द्यां त्रिभुवननदहंसं त्रुटितमदननालं त्रैलोक्यं पट्टिकेयं ० त्रैलोक्यभर्तुरपि परिशिष्ट ૨ पद्याङ्क पृष्ठाङ्क ३ २४२ २४४ २२९ १४९ २२९ २२१ ८१ १५ १४ ७७ १७ त्वं सर्ववित्परमका० १६ त्वग्भेदच्छेदखेद० १० त्वत्पादोमपि वज्रबन्धु० ५ त्वन्नाथ ! संस्मरणतोपि १३ त्वमम्बा त्वं बन्धु० २१ त्वामीश ! जन्ममहि० १२ त्वयि नियतमिदानीं १०४ थंभाइ दोसरहियं थद्ध-पविद्ध-मणा० थावरदस चउजाई थावरसुहुमअपज्जं थी - गो-बंभण० थीणतिगं दुभगतिगं थीवेय अन्नाणो थुणे संबंधे १० ४६ १० १० २९ ३९ ७१ थुणह अजियसंती थूलाइ पाणिघायं थेरपहुपण्डवे० थोवं तिन पुट्ठ थोवा असंखगुणिया ५५ ६२ थोवा जहन्नजुत्ता० थोवाणुभागठाणा ११८ दंभपरो लहइ १४ दंसणचउ विग्घावरण ७३ ८५ २४ २४६ २२१ २४० 5 २२१ १०९ ४६ ४६ ४ १ १६६ ३ १७ ७ २०७ ४ ३२ 20 २८. 2 2 2 2 2 8 9 ३० २५ १८ १९ १० ७१ ७ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २७९ पृष्ठाङ्क १ ३४ , ६४ २५४ १७० १७० २३१ १३३ १४५ पृष्ठाङ्क १६३ ४७ ५० २५० १६१ २०४ ९१ mm आदि-पद पद्याङ्क दंसण-नाणावर० ३ दंसणमूलमणुव्वय० २७ दक्खिन्नमपेसुन्नं १७ दक्षिणि दिसि पंखुडिय ५ दढकुलिसमुसलहत्था ४ दढयवि सुघोसघंटा ४ दधति सफलं ते० २७ दम्पत्योः का कीदृक्के १३२ दर्पासेवाविशेषान् ४७ दलितसकलापन्दि० २५ दव्वे खित्ते काले १०६ दशविधयतिधर्म० २१ दस ओगाहिम पंच १५ दस दस सुक्किल० ६८ दसधणुड्डतणू ४ दसपुव्वलक्खसव्वाउए ६ दसमच्छेरयवसओ ४२ दसमसुरलोगाओ ३ दसमीइ वीरदिक्खा ४ दहिमाइलेवजुत्तं ९१ दाऊण वंदणं तो १६ दाक्षिण्यं निर्व्यपेक्षं ३७ दासस्तेऽस्मि परिश्रु० २८ दिक्कान्ताकर्णपूर० ५१ दिग्विस्तारि शिलां० १०३ दिवसूणझुट्ठसया ३० दीवे जत्थुदहिम्मि १२८ दुगजोगो सिद्धाणं दुग्गे मग्गे भिल्लुक्क० १५ आदि-पद पद्याङ्क दु-चउ-दसदिणा २८ दुपवेसमहाजायं १३ दुप्पसहंतं चरणं ३ दुरितमलभित्तापक्षेष्णुः १२ दुरियरयसमीरं १ दुरियरिउदारणं २२ दुरहीयकुनयलवमय० १ दुर्भेदस्फुरदुग्रकुग्रह० २७ दुर्लक्ष्योऽस्या विकारो ३८ दुर्वासनान्धतमसो० ४ दुल्लंभमाइम्मि २ दुव्वार तिव्वदुव्विसह० ३ दुव्विगंधमलस्सा वि ४४ दुष्प्रापा गुरुकर्म० . १४ दुहतरुतरुणलयाए ६ दूरीभवद् वृजिनवल्ल० २३ दूरे जाव जरा १४ दूसमहुंडवसप्पिणि ६३ देव! जयंताओ देव! तुमं भद्दवए २ देवं भवन्तमवहाय देवहरयम्मि देवा ३५ देवाधीशकृतानते! १ देवा महापरिमलं १२ देवार्थव्ययतो यथारु० २४ देवासुरनागसुवन्न० १४ देविंदविंदवंदिय० १ देविंदविंदविंदय० २ देवीं कमलासीना १०५ १८० OM १६५ १९३ ५४ १७७ १८४ ३० ४७ १४४ ९८ १४६ १६३ २३ २११ १२९ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૦ आदि-पद देवीयत्युरुदोषिणः देवी सुदंसणसुओ देसाणुचियं पद्याङ्क पृष्ठाङ्क ३२ ९२ १ १७२ २४ ७ २३४ दैन्यादन्यानुवृत्त्यानु० दोह वरिसाणमुवरि ५ १८२ दो पुव्वलक्खसव्वाउ० ६ १८० दो मासा अद्धद्धं दोर्दण्डचण्डिमवशी० २९ ७४ ७ १४३ ५४ ५४ ९ २३४ दोसेण जस्स अयसो दृब्धं विमुग्धमतिना दृशाऽस्तैणं स्त्रैणं दृश्योल्लासिशशप्लु० २६ ९७ १५ २३९ दृष्ट्वा कामनिकामके० ७३ १०५ दृष्ट्वाग्रत: किल ४१ ११९ ७ ११४ १०७ २२१ ५१ ३२ १५१ १६८ २१२ १७५ ३२ ६ दृष्ट्वा राहुमुखग्रस्य० दृष्टेऽभीष्टजने ततो द्वेषद्विषि भ्रमपिषि धंखा बावी तडे धणधन्नखित्तवत्थू धणभवमुणिदाण० २३ ९० २० १७ ६ ३ धणुसयपमाण धन्ना ते मुणिवसहा धम्मकहाइ चउमुहं धम्मत्थमन्नतित्थे २ धम्माधम्मनभा ६१ १७ धम्मु दसविहु धम्मु धर्मेण किं कुरुत काः ६१ धाई - दूइनिमित्ते धिइबलसंजमजोगा ५८ ९५ २०३ १२२ २७ ३० आदि-पद धियाहीनो दीन: धुव ते च्चिरं निरंतर० २० धुवबंधा भयकुच्छा० २४ २३ २५ ६५ १४५ १ ७ धुवबंधोदयसत्ता धृतासिरेकोऽपि ध्यात्वा विशेषत ध्वान्तं ब्रूतेऽर्हतां नंदा - दढरह- तणयं नंदिसेणा अमोहा नखरुचिमधुधारं नद्वाय ते न मुणिणा नतजनजनिताशं नतसुरनरस्त्रीसंघट्ट० परिशिष्ट ૨ न नृपपदवीं नार्था० नन्दन वचसाऽमास्तं ८ २६ ८ ६ न ताः काश्चिद्वाचः ११५ नत्थि भवियव्वनासो ३९ नत्वा भक्तिनता० १ ३१ पद्याङ्क पृष्ठाङ्क २३८ १९८ ७ ७ नन्दच्चेतांसि लीलारस० ८ नन्दन्ति प्रोल्लसन्तः २ न परं न कुणंति १० न प्रालेयजलानिलैर्न १०७ नमन्त जिनभावेन ३ ३ १४२ १४७ १३५ १७० १९० २४३ ७६ २५ २४३ २४९ १११ १६४ ७९ २३२ २४५ २२४ १५० ७८ ११० ९ २४५ २४५ नमल्लोकतटेर्भावे २ नमस्कारस्तवाक्षोभ ८ २४५ नमस्यद्गीर्वाणाधि० १ २२७ १ १६८ नमह सुसीमा-धर० नम्रानेकक्षितीशो १२ १४० Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૮9. पृष्ठाङ्क ९२ १८४ पृष्ठाङ्क १५१ १९६ १७७ २१० १ १९७ ३६ १९४ ५२ २४५ ६७ २५१ २२८ ५६ ११५ आदि-पद पद्याङ्क नमिय जिणमुसभ० १ नमिरसंथुणिरपरिभमिर० ४ नमिरसुरमउडमाणि १ नमिरसुरासुरविलसिर० १ नयणेयरोहिकेवल० ४ न य तं सरामि सामिय ६ न य दुक्करंपि अहि० ३१ नयनः पार्श्व भवभी ५ नयसि सुखदं धत्से २१ न यस्त्वामस्तावीन्न ८ न यावि तब्भासिय० ६ नयाः शस्याश्छब्दाः १४ नरगइपणिं० ३६ नरतिरिसुराउमुच्चं ४४ नर-नरय० नरयसुरसुहुमविगल० २६ नरयाउ नीयमस्साय ४७ नरवइसहस्ससहिओ ४ नरवइसहस्ससहिओ ४ न रुग्नाहि धिर्न दवद० ८ नराः कासश्वासक्षय० ५ नरौघः स्थिरसंलाभ ३ नलिननिहितपादं ६ नवकुंदचंदधवला ४ नवनं पार्वाय जिनवल्ल० ३ नवमासे छउमत्थो ५ नवरं अजोग्गयाए २३ नश्यन्ति तत्क्षणादेव ४ न स पार्श्व! भवारातः ६ आदि-पद पद्याङ्क न सावधाम्राया ३६ नहकिरणपरागं १ नाणंतराय-दंसण० ४८ नाणं पंचविहं ४२ नाणतिगदंसणतिगं ४७ नाणब्भुवगमजय० * १. नाण सुपासे सत्तमि ११ नाणाभवेसु २३ नाणावरणं मइसुअ० ५ नाथ! त्वदंघ्रिनमनादर० ५ नानानाकिप्रचारत्रिदि० २ नाभ्यम्भोजभुवः १७ नास्ते मालिन्यभीते० ६ निउणाण वि उप्पज्जंति ८ निंदूपयारविंदं १६ निंबुच्छरसाईणं ९४ निःसीमभीमभव० १३ निःस्वः प्राह लसद्वि० ५५ निचिदुक्कड़-मोह० ३ निचियदुरियदारु० ११ निच्चं विच्चम्मि १० निच्छिन्नमोहपासं निटिवियदुट्ठकम्मट्ठ० १ निट्ठीवणादकरणं ३४ नितान्तं यत्कान्तं० १० नित्यानन्ददशान्वितो १४ निद्रामुद्रां विनैव ११ निद्धणियभवावासं १ निन्नासियतमपसरा २ २१६ १२१ १६८ २०७ ६१ १८१ १८२ २३८ २३७ २४५ २४३ १६७ १५० १७९ १९९ २४५ २४५ २३८ १४१ ८१ १७९ १६७ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ परिशिष्ट - २ पृष्ठाङ्क २४८ १८२ १६८ पृष्ठाङ्क २३६ १३ ५८ १९१ १९६ १६४ १६४ ५६ १६३ १५२ १५० आदि-पद पद्याङ्क निपुणधिषणोनन्तान २ . निप्पडिमरूवसुंदर १ निम्महिय-महामोहं २ निम्महिय-महामोहा २ निम्मेणथिराथिर० ३५ नियगुरुकमरागेण० २० नियदोसदुव्विलसिय ३० नियमइकयसामाया० २१ नियसिरि उप्परि ३ निरयतिरिनरसुरगई १३ निरासवे पावकलंक० ४ निरीहं गन्तारं २८ निर्वाहार्थिनमुज्झितं १३ निर्वाणार्थी विधत्ते १ निवडंतरियं पि निवतिसयजुओ निविडपडिबंध० १ निःश्वासा करकेलि० २३ निसुणिज निस्संग! नि:समर! २१ निस्सीमभीमभववारि० १५ नीयागुत्तं गाढं १३ नीरन्ध्रान्ध्रपुरन्ध्रि० ११७ नीलकसिणं दुगंधं २२ नीलत्तालतमालपत्र० १७ नीलवन्न उवझाय ६ नृचकोरदयितमपमल० ३९ नृणां का कीदृगिष्टा ६३ नृपतिसदसि द्यूते वादे १५ आदि-पद पद्याङ्क नेन्द्रत्वं नाधिराज्यं १० नेयअइगहणयाए १५१ नो पिच्छामो सव्वन्नु० १० नयस्तं सारयुगं १०५ पइदारं कलसाई १५ पइपडिमपुरो दो १८ पउमन्निवि तुह ५ पउमागरा अपउमा २१ पंच इय सयलतित्थ० ७ पंचंतरायहासाइ० ३७ पंचजमधम्मदेसग ३६ पंचदिणूणछमासिय० २९ पंचधणुसयपमाणो १७ पंचमगम्मि य भावे ५५ पंचमिहि कुंथु दिक्खा १७ पंचविहं अट्ठविहं २६ पंचविहायारविसुद्धि० २ पंचसहस्सऽब्भहियं २० पंचाससहस्सदम्मा ७ पंचिंदिय हयदमलं ३ पगिट्टधम्मप्पडिबद्ध० १२ पज्जंकठिओ अट्० २४ पज्जतजहन्न० ५ पडिकूलसूलपाणिं २४ पडिसेवण १३ पडिहणियकसाए पडिहयनिम्मलबोहं ५ पढमचउनाण० ४६ पढमतितणूणुवंगा १४ १९४ १८७ ९७ ६७ ४६ १५२ ३२ १७१ ५७ २१७ २२ १४१ २४ २५४ १४४ १२३ २५० 98 24 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૮૩ पृष्ठाङ्क ७१ ७ ६८ 9 १९७ २३ "y on FM १८६ १०४ २७ १७ १११ आदि-पद पद्याङ्क पढमतिपल्लुद्धरिया १३६ पढमदुगुक्कोसो सिं ८६ पढमे दिणम्मि ३६ पणचउतिदुएगिंदी ५४ पणजिणकल्लाणदिणे २३ पणपन्नपन्नति०७७ पणपनवाससह०६ पणमहु जिणाण २ पणवीसवाससहसा १६ पणसट्ठिसहसपणस० ८० . पणयसुरविसरसिर० १ पणयसुरासुरसिरिमउड० २ पण्यस्त्रीपाण्डुगण्ड० ११६ पत्थिवदससयजुत्तो ४ पथि विषमे महति ७० पद्मस्तोमो वदति ६९ पनरभेय जे सिद्ध . ४ पनरसि मुक्खो ३ पन्नरससया वेउव्वि १३ पन्नवणिज्जं २० पन्नास-धणुच्चं १ पन्नास पत्तपुप्फल १३ पबलपवणप्पणुल्लिय० १ पमत्तलोयाण ५ पयडह बहुदुक्खत्तेसु ५ पयडियसिवपुरमग्गो ३ पयडीउ असंखेज्जा ११५ पयडीण सव्व० १०१ परदारं वज्जेमी . ५ पृष्ठाङ्क | आदि-पद पद्याङ्क परपरिभवमत्तु०१२ ८ परपरिवायं परमकरुणापरेण परिअट्टिए ४ परिवारपूयहेडं २० परिहयरयणियरं १८६ परिहर गृहमेतत् परिहरह पमायं परिहारसुहमे ४० पलियासंखंतमुहू . १०५ १९६ पल्लट्टिय जं ४५ १६९ पल्लाऽणवट्ठियसला० १२६ पल्लसमा जोयणदस० ११ १८४ पवयणमणपेहंतस्स ५५ १२४ पवरवरालयगमणा ४ १२४ पव्वज्जा-बीयदीणे ८ २५४ पव्वय-भूमी० ९२ १९३ पसममंतहयदोस० २५ पसरइ तियलोए ताव ९ पसरइ वरकित्ती ५ १७१ पाओयरणं पाके धातुरवाचि० १५८ पाणयकप्प मोत्तूण २ पाणयकप्पे अच्छिय २ पाणिवह-मुसावाए० ३ पाता वः कृतवानहं १२७ १० पापं पृच्छति विरतौ ३१ पायडकरणं ४२ ३२ | पायात्पावः पयोदधु० १ ५४ १७१ १५९ १५८ ६४ ८ २०४ २०७ २०६ २६ १३८ १८२ १५९ ३२ १३३ ११७ २६ २३३ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ पद्याङ्क ८ आदि-पद पाविय केइ पासस्सट्ठिमि मुक्खो २५ पिइमाइपइत्ताई ४ पिण्डट्ठा पिंडपयडत्ति चउदस पियरमरणेवि तं १७ पीतं पीतमथो सितं १७ १ पीणतणूवि हु दीणो : पीनकुचकुम्भलुभ्यन् १६ १२ पीनोन्नतस्तनतटे तव पुट्ठाणंतरमरणेण ११० पुढविदगअगणिपवणे - ८१ १०. १३३ १४९ २० ६५ ८ पुण केइ कम्मपरि० पुण तम्मिनिट्ठिए पुण तिक्खुत्तो पुण पणुवीसुस्सासं पुण वग्गिए १४५ पुण सव्वजियाणम० २५ पुण्णो सलायपल्लो पुरन्दरपुरस्पर्द्धि ० पुरस्तादाकर्णप्रतत पुरिससहस्सेण पुरिसेण भुत्तपुव्वं पुरिसेहिंतो १३ १९९ १३१ ११ २२६ १५० १८३ ४२ १८ ६ १५४ पुरीऍ सुभाए अपरा० पुरेस - विजयाउ १ १७१ पुव्वं व पुत्तिपेहण० २८ ४८ .१३२ ११ पुव्वकमनिट्ठिए पुव्वकयकम्मजणिओ १ ७० १ २ ४ २ पृष्ठाङ्क ६५ १९५ ४२ २८ १ १६२ ९६ ४० ५६ ११५ ९५ १० २९. ६५ १२ १३ ४७ आदि-पद पद्याङ्क पुव्वविहिणे व सव्वं ३७ पुव्वदिसि देवरमणो ५ पुव्वविहिणेव पेहिय २३ पुव्वाइकमा नामा ९ पुव्विं पच्छासंथव ५९ पुव्वेण असोगवणं १० १ ३ पुहई-पट्ठ- पुत्तं पूरियजणमणवंछिय पृच्छामि जलनिधिरहं ८१ पोसम्म बहुल एक्का. पोससियचउद्दसीए ४ पोसस्स पुत्रिमाए पोसाइदसमिगारसि ६. पोसासियदसमीए ३ प्रणतजनितरक्षं १३१ प्रणयिजनकल्पवृक्षो २३ प्रतिरविसंक्रान्ति ददौ ७३ प्रतिवादिद्विरदभिदे ११ प्रत्यक्षं किल ९४ प्रत्याहारविशेषा ७६ प्रत्येकं हरिधान्य० १६० प्रथितपृथुकलापं १३ प्रध्वस्तो इत जिह्म० प्रपञ्चवञ्चनचणं प्रभविष्णुविष्णु ० प्रभुमाश्रित्य श्रीद परिशिष्ट प्रवालमणिरुच्छल० प्रवीरवरशूद्रकं प्रव्रज्याप्रतिपन्थिनं ३ १०० १८ ३३ ९४ १० - ૨ पृष्ठाङ्क ४९ १९० ४७ १९० २७ १९१ १६९ १८० १२६ १८८ १७८ १८४ १९३ १५९ १३३ १४२ १४८ ११४ १०८ १२५ १३८ २४४ २४६ १२८ ११३ ११५ १४३ १२७ ८८ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि आदि-पद प्रशान्तं सद्वृत्तं सपदि प्राक्कोपादवधूय पद्याङ्क पृष्ठाङ्क ३ २३७. ५५ १०२ १०९ ११० १४७ १३६ प्रारब्धेऽधरबिम्ब० ११४ १११ प्रारम्भादपि चात्र ७० १४८ प्राह द्विजो गजपतेरु० २६ ११७ १२९ १३३ ३६ ८६ प्राह रविर्मद्विर प्राहुर्दाहकमेव प्रियोऽर्द्धमुकुलेक्षणः ९५ १०८ प्रीतद्वात्रिंशदिन्द्रोदि० १ २२३ ७ २२४ प्रीतस्वाराञ्जि प्रीतिप्रसन्नमुखकौशि० १ २२० प्रीत्या भीत्या च सर्वं २० ८३ ८३ ८७ प्रागुद्रम्य मुदा प्राधान्यं धान्यभेदे २३ प्रेङ्खत्खङ्गा० प्रोत्सर्प्यद्भस्मराशि० ४ प्रोत्सर्पद्दर्पसर्पन्मृति० १६ ८२ प्रोद्गच्छत्फलिनीच्छ० २ २३५ प्रोद्भूतेऽनन्तकालात् ३५ ९२ ३५ ८५ ४ १८२ प्रोल्लेसे गुणवल्लिभिः फग्गुण अमावसाए फग्गुणकसिणा ३ १८१ फगुणकसिणा ६ १७९ ५ १७६ फग्गुणबहुले फग्गुणसियमीए २ १७७ फग्गुणसियबीया २ १८५ फग्गुणसुद्धचउत्थी २ १८५ ६ २१० ५५ फारफुल्लं तुह फिट्टइ गुरुकुलवासो ६६ आदि-पद फुडमिह भव फुरियजससरिसउ० बंधंति न इगि० २५ बंधस्स मिच्छअविर० ७४ बंधूयवण्ण ! फग्गुण० ३ बत्तीसं विजयाइसु बत्तीसं सासाऽणंत बहुलाए तेरसीए बहुलाए नवमी बहुलाए पंचमीए बहुलासाढचउत्थि बहुलोएण पद्याङ्क १३ बहुवानरमज्जगया बहुविविहरूवरू बहुविनयभंगं बहुसुहंकम्मसमु० बाढं विसारिगरिमा ३ बत्तीसबद्धनाड बद्धा क्रन्दामि वोच्चै० बद्धाञ्जलिस्त्रिदशसंह० ४ ६ बभ्रुः प्रभूततुरगान् ५१ बहललोयंधयारोह० बहुगुणविहवेण ३० बहुजणपवित्तिमित्तिं २७ बहु तियसकोडिस० ३३ ३ बहुभंग - संगय-मुदार बहुभवरीणादीणा० २० बहुमाणसंगया बहुलदसमीए पोसे ३०. २८ २० १० ३ ३ ३३ ४ ४ २७ १० १३ १३ ८ ७ २८५ पृष्ठाङ्क ७४ १९६ ३ २० १८२ ३ ३ १५५ २२४ १३९ १२१ १९६ ५२ ५२ १६३ १७२ २११ १७३ १८८ १५६ १८७ १८५ २०४ ६९ ५१ १९१ २०७ २०९ २१४ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૬ परिशिष्ट - २ पृष्ठाङ्क २६ १६ १७७ २० १७२ आदि-पद पद्याङ्क बायरसुहुमुस्स० ४० बारस अचक्खु० ३१ बारसवरिसनिसंते बारसविहं विभागे ___ २९ बारसविहा ७६ बारससहसा छसया २२ बालस्स खीरमज्जण० ६० बाला बालिशदेश्य ३९ बासीइं दिवसे वसिय ४ बाहडमेरुं माणं १२ बिंति अपज्जत्ताण ७ बितिचउपणिंदियत्तं १५ बितिचउरिदिसु १९ . बिभ्युश्च भस्मकात्प्रा० ५६ बिभ्रज्जागरमादध० १९ बिभ्राजिष्णुमगर्व० ३८ बीएसु करिसगो कोइ २३ बीयं सलागपल्ले १३० ब्रवीत्यविद्वान् ६५ ब्रह्मास्त्रगर्वितमरि ७५ ब्रूते पुमान् मुरजिता ४४ ब्रूते पुमांस्तन्वि २४ ब्रूतो ब्रह्मस्मरौ के ६ भक्तिप्राग्भारनम्राम० ५ भक्तिश्चैत्येषु . ३ भक्तिव्यक्तिभरानता० २ भक्त्याकृष्ट-सदेवदा० २ भग्गंतरंगंरिउवग्ग ३ भण केन किं प्रचक्रे १४२ १५ १४६ १४१ १८२ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क भणियं च पंचमंगे २२ २४ भणिया उग्गमदोसा ५७ २७ भत्तभव्वनिव्वाणपा० २१ २०४ भत्तिभरबंधुरामर० १ १७८ भद्दा विसाला ८ १९० भद्राणि प्रवियोजिता० ८ २४७ भवदुक्खं जमणंतं ३२ ५२ भरणिहि सव्वट्ठचुओ १ भवति चतुर्वर्गस्य ३३ ११८ भवति नियतमत्रा० ११ ८८ भवति भवति यस्या० ९ २२८ भवन्तं संसारद्रुमपर० ७ २२८ भवभयहरं च २५ ७२ भवभवमणरीणसव्वं० १ भवभाववियाणय! २ १८३ भवाम्भोधौ मग्नं ४ २३७ भवियाण माणसी ४ १७२ भवोद्भूतेरेतद्विदित० २३ भव्व-अभव्वा १७ १५ भवसयसहस्समह० * १ ३९ भाद्रपदवारिबद्धः १११ १३० भानोः केष्येत पौ० ७१ १२४ भावरिउणो तये चिय ३६ २०० भावविसपरममंते २७ भावा छच्चोवस० ५१५ भावारिवारणनिवा० १ भावेयव्वं भव्वं ४ भिक्खासद्दो चेवं. १ भिन्दन्तमन्तरणकार० १४ २४० ११६ २३३ १९९ ७९ १३९ २४६ १७२ १३५ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૮૭ पृष्ठाङ्क १८७ १८५ १८० १६४ २४ १८ १५६ १३१ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क | भिन्नमुहुत्तमबाहा ७८ ७ भिषग्वरः क्षेमसरीय० ६१ १४७ भीमभवसंभमुब्भंत १ १७६ भीसणभवदवतविय० १२ २०२ भुंजइ आहाकम्मं १९ भुग्रभ्रस्फुटरक्त० ८५ १०७ भुवनविजयिप्राज्य० २२ भूदगतरूसु २८ भूमितले दससहसा ४ १९० भूमी कत्थ ठिया ११५ भूयोभिः सुकृतैः ११ ७६ भूरभिदधाति शरदि० ११२ १३० भूरापृच्छति किल ९ भूषा कस्मिन् सति? ४७ भृङ्गः प्राह नृपः ११८ भेदो विद्यत एव १२१ ११२ भेसज-वेजसूयण० ६६ भो भो भव्या भ्रमभ्रमरविभ्रमोद्भ० ५० भ्राम्यत्कीर्तिचयः ५ मइसुयओही मइसुयओहिदु० २२ मइसुयओहिदुगे २९ मउईएवि किरियाए २ मउलियपरमयकमला २ १६७ मंगलमूलीण्हवणाइ ७५ मग्गसिरपुनिमाए ४ . १७७ मग्गसिरबहुलदसमीए ४ १८८ मग्गसिरसुद्धएक्कारसीए ३ १८६ आदि-पद पद्याङ्क मग्गसिरसुद्धएक्कारसी० ५ मग्गसिरसुद्धदसमीए ३ मग्गसिरे किण्हाए ४ मज्झिमपावाए ४२ मणनाणचक्खुरहिया ४९ मणनाणिसहस चउरो ३० मणनाणिसहस्समणु० १२ मणपज्जव-केवल० २३ मणपज्जविणो ५७ मणरुट्ठदुट्ठतज्जिय ११ मणसा मिच्छादुक्क० * १ मणुयगईए ४३ मथितदवथौ सम्पूर्णांशे ६ मदनमदस्तवदनं. १० मधुमधुरविरावं मधुरिपुणा निहते ४३ मनसि निहितं २९ मन्नामिय अहमहुणा २२ मयनाहिसरिसविल० १ मय-मित्ती गारव० १२ मयि स्वामिन्! ५ मरुदेविनाभितणयं १ मरुदेविनाभिनंदण ८ मल्लिजिणो कलसंको महच्चक्रं रत्नध्वजस० १२ । मह पहु! सुह वय० २८ महु-मक्खण० ११ मा आयन्त्रह मा माइभवा ६४ २४५ २४२ ११९ ९८ ७९ १५७ ४७ २२७ १६७ १५१ १७३ २९ १९९ ३३ २८ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ परिशिष्ट - २ १०४ ८३ २३८ १८१ १६२ १७८ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क । माणिज्ज माणणिज्जे १९ ६४ मा द्राक्षुरेव यदि २४ २३१ मानं कुत्र? क्व भाण्डे १२४ १३२ मानः सम्मानविघ्नः २४ मानिन्याः कुटिलोत्क० १३ मायाएँ विविहरूवं ६९ . मायापरस्स १५ ७१ मार्णालसूत्रचयचारु १९ मासतिगंते तुह पहु ५ मासतिगंते सहसंबव० ५ १८० मासद्धसद्धबारसवरि० ११ । १६६ मासियभत्तेण तुमं १५ १५८ माहणकुंडग्गामे १० माहसियबारसीएं ४ माहस्सऽमावसाए ५ १८१ माहस्स सेयबीयाए ५ १८२ माहाइ छट्टि पदम ८ १९३ माहे बहुलाए बारसीए ४ १८१ मिउमहुरसुललियपया ४ . २०९ मिच्छत्तछन्नपडिक० ९ मिच्छत्ततमभरं० मिच्छत्तुक्कोसठिई ११ मिच्छे सव्वे ६५ मिच्छे सासणमीसे २६ मिथ्याज्ञानग्रहग्रस्तैः ११० मिथ्यात्वोदन्व० ३९ मीसे ते चिय ७१ मुक्ता मुक्तावलिरच० ५७ मुक्तौ गन्तरि मोहह० १५ । आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क मुञ्चत्युच्चकुचप्रकम्प० ६७ ।। मुणिमो भावरिउकयं ७ १९७ मुणिय नियनाण ५ १५९ मुदा नृत्यन्नुच्चैश्चल० ११ मुदा श्रयति कं ११४ १३१ मुग्धे! दुग्धैरिवाऽ० ७९ १०६ मुयह निहयसोहं ४ ७७ मुहपोत्ती वंदणयं ३५ मूढा अणाइमोहा ३७ मूलं धर्मद्रुमस्य ३७ मूलोन्मूलितसंसृति० ३ मूषकनिकरः कीदृक् २९ मृद्वङ्गीति तनूदरीति ३६ मोत्तुमकसाय हस्सा ६५ मोहतमोहपणासणसूरं २३ २०४ मोहमहारिपरवसं ३५ मोहस्सेवोवसमो ५९ मोहे कोडाकोडी ६४ यच्चित्रोत्पलपत्रकं ७१ यत्कान्तेऽवनतेप्यहं ४७ यत् किञ्चिद्वितथं २८ यत्तद् विलोकयतु० ५२ यत्त्वामनन्ति गुण० १७ यत्र स्वेदाम्बुधौते ११३ योन्दुद्युतिचौरपौर० ३० यत्रौद्देशिकभोजनं ५ यदेतत् तन्वड्या ३५ यद् यात्रासु प्रसर्पद्बह० २२ १४२ यद्वान्यदस्तु वितता० २३ ७द १८१ १३० ८ २३० Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૮૧ पृष्ठाङ्क १६० २५२ २५१ २४० १२ १५७ ९४ १४१ १४० १२७ १६९ १३३ २८ १०६ आदि-पद पद्याङ्क यन्नामस्मरणादपि २ यन्मिथ्या हसति १६ यत्सत्यं सुभग ६१ यत्सैन्यैरेव लुण्ठत्तुर० १८ यशो यौष्माकीणं २ यश्चकार कलिं यस्तावकं चरणवारिरुहं ९ यस्त्वां ध्यायति पश्यति ७ यस्मिन्मोहवनप्लुषि ४४ यस्य स्वप्नसमाग० ३४ याञ्चार्थविततपाणिं १२३ युज्यन्ते कुत्र मुक्ताः? ५९ यूयं किं कुरुत जनाः ४५ यैर्जातो न च १६ योग्यस्थानानवाप्तेः ५३ रंगत......"गयारिच० ४ रतये किमकुर्वातां ८३ रतये नृणां १६ रयणत्थिणुत्ति थोवा २९ रयणपुरे ओइन्नो २ रयमहणमिहुणरा० ३ रागद्दोसभुजंगे रागद्दीसविरहिया * १ रागद्दोसाइ विवक्ख० २ रागद्वेषप्रमादाऽरति० ३० रागारिद्विषि पापसञ्च० ४ रागोरगगरलभरो* १ राजन् ! कः समरभरे ७९ रामा-सुग्गीव-सुयं १ पृष्ठाङ्क | आदि-पद पद्याङ्क ९४ रायपसेणयपणमिय १४ ९६ रुचिरपि न मे राज्ये २४ १०३ रुचिररचनां चञ्चच्चा० १९ रुजां गेहं देहं २० २२७ रूवजुयं तं १४२ रेवयगिरिम्मि ६ २२० लक्ष्मीमुक्तोऽपि देवा० ५ २३६ लक्ष्मीर्वदति बलिजितं ९३ १४५ लक्खणमहसेणसुयं १ लंकेश्वरवैरिवैष्णवाः १२८ १३२ लद्धिपसंसुत्तुइओ ६८ लब्धव्या मणिमालि० ८२ १२० ललियपयपयारं ६ ललितवलितैर्मुग्ध० १८ लीलायुंषि प्रपुश्यज्जि० ६ १७२ लीलाविलोलनयनो० २० १२६ लेसा उ तिन्नि ५१ लेसा तिन्नि . ७३ लोकार्यकूर्चपुरग० ५२ लोके केन किलाऽ० १४३ लोगपएसोसप्पिणि० १०९ लोगस्स धम्मस्स १५ ४० लोगागासपएसा १४३ लोयालोयविलोयण १ लोहसुज़ोहमडप्फरु १३ २३५ वइसाहपडिवयाए ६ ४२ वइसाहबहुलछट्ठीए २ १२५ वइसाहम्मी सियबार० २ १६९ वइसाहसियदसमीऍ ५ २०७ २५१ २२४ १५० २० १८३ १७८ ६३ १६९ १९७ ८४ २०२ १८५ १८१ १८२ १८८ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० परिशिष्ट - २ पृष्ठाङ्क ११५ ६६ १८७ १८७ ३२ १३६ २०३ १५ १९० १७७ १७६ १२६ १६७ ६० आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क वइसाहसुद्धनवमीएँ ४ १७८ वंतुच्चारसुरागो० १६ २४ वंदंत-नमंत-अभिथु० २१ १९२ वंदित्तु चेइयाई वंदिय नंदियलोयं १ वक्त्रं गौराङ्गि! १०८ वचः स्तावं स्तावं १७ वत्थपडिग्गहमाई ११ वदति मुरजित् कुत्राता ५४ १२१ वदति विहगहन्ता कः २७ वदति हरिरम्भोधिं ८२ वन्दारुवासवसुरा० १५ २१६ वन्देऽहमिन्दुदल०६ २१५ वन्नाइगुणा बंधाइका० ६३६ वप्पा-विजयंगरुहं १ १७३ वम्माससेण-नंदण १ १७४ वरकमलकंतिकाया ४ १६८ वरिसतिगंम्मि ५ वरिसे गयम्मि छटेण २६ १५६ वर्णः कीर्णसुवर्ण० ११ वर्षाः शिखंडिकल० १३४ ववहारमंततंताइयम्मि ६९ वसुदेवेन मुररिपुर्यै० १९ वसहंककणयवन्नो ९ वह्निज्वालावलीढं वाघारियपाणिय! १५ वाचो वैदग्ध्यदिग्धाः १९ । वाचः काश्चिदधीत्य १२० ११२ वाचस्त्वद्गुणकीर्तने ६ २३६ आदि-पद पद्याङ्क वाजिबलीवर्दविनाश० १३ वारं वारं कुणय० १७ वाससहस्सं एगं ६ वाससहस्से दस ६ वाहिणी दासा दासी ९ विकरुण! भण केन १५० विगयजरमरणथिर० २० विगलतिअसन्निसन्नी २० विगसयरि पुव्वलक्खे ६ विजयविमाणं २ विजयाजियसत्तुसुयं १ विज्जातवप्पभावं ६७ विजुजोयचलं विणयनर-अमरवर० १९ विणयनयदेवदाणव० २ विणयनयपहाणा १० वितिमिरतिनाणनयणो ४ वित्ती न होइ सुद्धा ६ विद्याकन्दासिदण्डः २२ विद्वत्प्रेयसि सद्ग० ३१ विधत्से किं शत्रून् ९६ विधुन्तुदः प्राह रविं ८६ विधुरहरणदक्षं १० विनमदमरश्रेणी० २६ विनयविनमदिन्द्रं विनीतः कान्तो मे १८ विप्फुरियफुडपमाणं ३ विभंगिणो ५८ विभोः यौष्माकीणं २ २०३ १६५ ७३ १५९ २१२ ८३ १८५ ९५ १३४ १२६ ८७ १ विनमदिन्द्रं १६० १६९ १८ २३७ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ૨૨9. पृष्ठाङ्क ९५ ११८ १४ १४३ ११८ ७९ २२२ २२० २४५ १०६ १०९ १२२ २२८ आदि-पद पद्याङ्क विभ्राणेन मतिं जिनेषु ७६ विमलकलहोयसप्पह ३ विमलगुणपरिगयं ८ विमलमणिसाल० २४ वियडजडाजूडो ४ वियसियसरसिरुहठिया ४ विरलतरा केई जह १२ विरलाणमलेपणया १४ विलासलसदंशुक० ५३ विवशवपुषं काम० ३० विविह जिणाण १३ विविहदुहावयसावय० ४ विविहु-वसग्ग० २८ विशदवदनश्वेतो नीरां ९ विशदितदिशं विश्वा० १३ विश्वाल्लभ्यकवर्ण्यमत्र ४ विसम-कसाय० २ विसरासिम्मि असम्मोह ३ विहिणा पारिय १८ विहिसमयगयसुहत्थी ८ वीतस्मरः पृच्छति २८ वीरं नमिउं सम्मत्तमू० १ वीसं कमारभावे १३ वेउव्वाहारोरालियाण २१ वेउव्विकारससम्म० ३७ वेदाभ्यासजडं ११ वेयगखइगउवसमे ३२ वेरग्गभावणकसा० ६ वेषः किं विषति ७६ पृष्ठाङ्क | आदि-पद पद्याङ्क १४९ वैदग्ध्यबन्धुरमनु० ९ १८४ वैदिकविधिविशस्त० ३४ ७० वोच्छामि जीवमग्गण० २ १९२ व्यक्तं........."प्रतिर० ३१ १७३ व्यथितः किमाह ३७ १६७ व्यपोहति . ४ व्याधिं धुनीहि जिन! २२ ५१ व्यासर्पिकेवलबलक्षत० ७ १०२ शक्ति-शूलेषु-मुसल० १ २३२ शङ्कातङ्कविवर्जितं ७८ १६६ शङ्के सुभ्र! सुधारसै० १०१ १९७ शशिना प्रमदपरवशः ५६ २०५ शयालुस्तन्द्रालुः १६ २४९ शरीरं ये कुष्ठज्वर० ६ २५० शल्यत्यद्यापि तन्मे २४ २४६ शिक्षा भव्यनृणां ४० १७० शिततनुलसल्लावण्या० १० १७६ शिवगमनविमानं १२ ४७ शुभगोरसभूमीरभि ४९ २०९ शुभ्रादभ्रस्फुटाभ्रङ्क० ३४ ११७ शस्त्रोद्भिन्नमहेभ० २० ३२ शश्वद्देहार्द्ध[ भा] ३२ १५२ श्रद्धाबुद्धिविशुद्धब० ३५ श्रीचित्ते प्रियविप्र० १५४ श्रीपल्लिकाविश्रुतश० ६३ १४० श्रीमान् यः पापता० ४ श्रीमान् सोमिलको०. ६० ७५ श्रीराख्यदहं प्रियमभि ५२ १०५ । श्रीलीलासद्मपद्मं ५ ९७ ८६ २४९ २४३ १४३ १४१ १४३ १४३ १३७ १४७ २३३ १४७ १२१ १३९ १६ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ परिशिष्ट - २ पृष्ठाङ्क १४५ २०५ २४ ७५ ४५ ५६ ६८ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क | आदि-पद पद्याङ्क श्रीवीरान्वयवृद्धये ४८ - संवच्छरमच्छिन्न० २९ । श्रुतिसुखगीतगतमनाः १२० संवासो सहवासो १५ षटकायान् उपमृद्य ६ ८८ संविग्गसग्गुरुक० ५ संकियगहणे ७८ २९ संविग्गा सोवएसा १ संकियमक्खिय० ७७ संविग्गे कुग्गहु०८ संक्षुभ्यत्सर्वगीर्वाण० ३ संविग्गे गीयत्थे ९ संखडिभुत्तुव्वरियं ३१ संविग्नाः सोपदेशाः ३७ संखिज्जेगमसंखं १२३ संसत्तअचित्तेहिं ८० संखेजगं जहण्णं १२४ संसरिय भवे जाओ ४ संघयणे संठाणे ६७ संसारकज्जेसु सयंपि ९ संजइ-कविट्ठ-घण० ५ संसारचारकारण० १ संजमपुरपागारं संसारार्णवनौवि० ३८ संजलणनोकसाया ४३ संसारोयहिनिवडंत० १ संजोगमूलमिह २ सं.....वा....मृगदृशः ६९ संजोयणा ९४ सकलकुशलपोषं १४ संठाणा संघयणा० ४९ ५ सक्ककरकलियमिक्खं १२ संडासगे पमज्जिय ८ सक्कभणिएण हरि० १३ संतो कम्मि पर० १०९ सखि! गतिरियं २२ संतोससारत्तमल० १७ . सख्यं साप्तपदीनमु० १८ संथरणम्मि २१ २४ सख्यो मानधना ९३ संदेहदावजलवाहम० ११ २१६ सङ्गेयताललयचञ्चुर० ८ संपइ पुण संभावेमि २१ १९८ सङ्घत्राकृतचैत्यकूट० ३३ संपत्तदंसणाई - १ सचित्ताचित्तपिहिए ८२ सावजणवजाण १ सच्चं तह वि संपुण्णसाहुकिरिया २६ सच्चं मोसं ३४ संबुज्झिय ईसाणे ४ सच्चमघट्टिय० २१ संभवणमित्तनासिय० १० । २०९ सच्चित्ताचित्तम० ७९ संभवमोसहअवस २६ ३४ सच्छं मच्छरमोह० १३ संरम्भोद्भ्रमितभ्रुवा ८० १०६ | स जिनो-जीयादलि० ३ १०४ २४४ १५२ १६२ ५७ १९९ १६ ६४ १५१ ६२ १३९ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २९३ ३४ ९८ २४७ १५० ९४ २१ mi आदि-पद - पद्याङ्क सज्जो संजायचउत्थ० २५ सज्झायनियमकरणं ८ सज्झायसहस्सगं २४ सज्ज्ञानप्रसरप्रबोधित ७ सञ्चारिकिन्नरगणा० १० सठकमठदप्पखंडण ६ सट्ठाण परट्ठाणे ३८ सट्ठीए वासलक्खेसु ६ सढकमठदप्पचमढ० १ सतरस पयडी सत्कारं यत्र देवा ९ सत्त उ सासाणे २४ सत्तकरदेह गेहम्मि १८ सत्तट्ठ-अट्ठ० ११ सत्तट्ठछेगबंधा ७९ सत्तट्ठपमत्तंता ८२ सत्तण्हऽण्णयरेण उ १०८ सत्तमऽसंखं १४० सत्तमि चवणमणंते २४ सत्तरि धणुमाण १ सत्तर्कन्यायचर्चार्चित० ४९ सत्थग्गि-मुसल० २० सत्यक्षमातिहर आह ७३ सत्यं सख्यविकल्प० ३३ सत्सौभाग्यनिधे १ सदधरदलयुक्तं ११ सदाहिताग्नेः क्व विभा०९२ सद्गन्धे न च सद्रसे ५० सद्धिधणुमाणमुत्तर० १ पृष्ठाङ्क | आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क १५६ सद्भक्तिव्यक्तियुक्ति० २ २३३ ६९ सद्यः स्विद्यति सद्यः स्वेदपयः ३० सद्यो लोकप्रकाशत् ३ २१६ सद्वृत्तरम्यपदया. ३ २०९ सन्तु श्रियः कृतमुदा० १९ २२१ सन्तोऽसदपि १८३ सन्तो गुणा गुणिगुरो ३ १८८ सन्नि-अपजत्ते सन्नी थोवा ६४ १९ २२४ सभावओ चेव सब्भूय-पसूय ३ १६७ १६२ सब्भूवत्थुपयासय १२ १६६ १५ समचउरंसं निग्गोह० १६ समणट्ठा ४४ २० समत्तपवणजल ३ समयत्थपईवोवम० ७ समयभवसुहुम० १२० समयादंतमुहुन्तं ३४ समयादसंखकालं ३१ समस्तशस्तवस्तूनां ४ २२६ समुद्यन्तो यस्य क्रम० १ २३७ १२४ सम्पत्पूर्णं न किन्नु ३ सम्पन्नसिद्धिपुरसङ्ग० २४ १५० सम्प्रत्यप्रतिमे ४० २२८ सम्बोधयार्धमहि० १३५ ।। १२७ सम्भोगान्तनितान्त० ११८ सम्भ्रान्तशक्रं सोत्कर्ष० ५ २२६ १७१ सम्म नमिउं १ ४६ له १७० سه १४५ ३३ له ९८ مه १३४ १११ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ परिशिष्ट - २ पृष्ठाङ्क १४१ १७३ २०९ ० ० ० १६८ १५१ १६७ आदि-पद पद्याङ्क पृष्ठाङ्क सम्म नमिऊण जिणे १ १९३ सम्मचरणाणि ५२ ५ सम्मत्त-देस-संपुन्न १०२ सम्मत्तनाणचरणा० १५ सम्मत्तनाणदंसण० ४२ सम्मइंसणमूलयं ९ सम्माइचउसु तिगच० ६० सम्मेए चउरासीवरि० ६ सम्मेयम्मि सिवं ६ १७८ सम्यग्ज्ञानगरीयसां १४ ८१ सम्यग्मार्गपुषः ३१ सयमन्त्रेण च १४ २४ सययमिह जियाणं सयलंतरारिवीरं सयलकुसलहेडं ४ सयलजगजगडणु० १ १८३ सयलजयहियाणं ४ सयलभुवणिक्कबंधव० १ सयलवसणि० १७ सयला चिय १६ सयलाहिवाहिविस० १९ सरभसमभिपश्यन्ती ८५ सरभसलसद्भक्ति० १ सर्पत्कन्दर्पपांशुप्रकर० ३३ सर्वज्ञोक्तमिति १३ सर्वत्रास्थगिताश्रवाः २२ सर्व साधु उत्तर .. ७ सर्वारम्भपरिग्रहस्य २३ ९० सर्वैरुत्कटकालकूट० २६ ९१ __ आदि-पद पद्याङ्क सर्वो[v] पतिगर्व० १५ सवणेव राइय १ सवलंजलीहि सविनयसुरराजी १२ सव्याजवक्रितमनो० १४ सव्वगुणेसाहारं ४० सव्वजगबंधवाणं २ सव्वढे सुरवरसिरि ७ सव्वन्नुसव्वदंसीहिं सव्वभणियव्व० ४ सव्वसभासापरिणय० ३ सव्वाउ पुव्वलक्खे ६ सव्वाउ वासलक्खं ३२ सव्वाण वि पयडीणं ८३ सव्वाणुक्कोसठिई ८४ सव्वासवदाराई २५ सव्वे जे देवगणा ४ सव्वे वि अपज्जत्ता ८८ सव्वे सकज्जकंखी १४ सव्वे सन्निसु सव्वेसु कज्जेसु १४ सश्रीकं यः कुरुते ३, ससिकरपरिपंथी ५ स स्नातश्चन्द्रिकाभिः ९ सहजं चिय २३ सह निवइसहस्सेणं ४ सहसंबवणे एक्कार० ५ सहसंबवणे कत्तिय ५ सहसगुणेगिंदिठिई ७७ १७४ ८ १० १४ ५७ १२६ ११३ २४८ १६५ ८० (८२ २५४ १८६ १७७ २७७ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २९५ पृष्ठाङ्क २५६ १०४ १७९ पृष्ठाङ्क ५२ १६४ १५६ ४४ १०० १०९ १९४ ८८ १०३ १७० २४८ १५२ १०० १३४ १३ ७२ ४६ १५३ १७३ १७४ १३० १५९ १९५ १६ आदि-पद पद्याङ्क साइणि डाइणि भूत १२ साकं बाष्पकणाः ६५ सा कत्तियस्स ४ सा कुम्भसन्निभकुचा ४२ साकूतोत्कलिकाः १०२ साक्षाज्जिनैर्गणधरैश्च ८ सा चेद् वक्त्रेण ६० सा ते चित्तगता ४६ सान्त्वं निषेधयितु० १३९ सा पुण नेया ३० सा बंधुदए २० सामइय पुव्वमिच्छामि ४ सामन्नं पालिय० २३ सामाइयछेएसुं ३० सामाइय-पडिकमणे २१ सामाचार्यं च सत्यं ४१ सामि! तुम चिय ७ सावज्जणवज्जाणं. १ सावणसियछट्ठीए सावेगहुङ्करणडामर० १८ सासणउवसमिय० ६३ सासणभावे ७२ सासणमीसे मीसं ३९ सासूयसङ्गमसुरो० ५ सास्त्रं वामभुजेन ६८ साहणजुत्ता साहम्मियस्स १२ साहुगिहिभेयओ साहुनिमित्तं आदि-पद पद्याङ्क साहुपओसी खुड्डो ३३ साहुसहस्सा चउदस ३४ साहुसहस्सा बिसठ्ठी २८ । साहूण कप्पणिज्जं * १ सिजंस जम्मु सिज्जंसजिणं पणमह १ सितकजकरा दि० ५ सिद्धत्थवणे तमसोग० १५ सिद्धा निगोदजीवा १४८ सिद्धि बहुसामुक्कं० २ सिद्धिवहुविहियरागा २ सिन्धुः काचिद्वदति १०८ सिबियाए विसालाए ६ सिय नवमी सुविहि २६ सिय पंचमीऍ मुक्खो २१ सियबीय चउथि १३ सियबीय नाणजम्मा ९ सियसिंदुवार अरविंद ४ सियसीहगया ४ सिरिपास! पसिय ११ सिरिभवणथंभणपुरे १ सिरि-सूरसुयं सिवलच्छिवसीय ३ सिंहासने जिनवरो० २० सीत्काराः कण्टका० २८ सीयलविहारओ खलु ५९ सीरी पाणिं क्व धत्ते? ४२ सीलं सीलिज्ज १२ सीहो वणमझमी १९ १९४ ३३ १४४ २१२ ३९ १९४ १९३ १७४ १७३ २०९ २०९ १८७ २१७ १९ १७२ ४ २१५ १०४ १७० २३० १४२ २४ a w ५१ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ परिशिष्ट - २ पृष्ठाङ्क २३१ २४३ पृष्ठाङ्क १८० ९४ ७२ १९ २ २२६ ७० ६८ ५४ १७४ ६६ १९३ ४९ १७४ ३९ २० ६८ २४० १६४ १८६ आदि-पद पद्याङ्क सुकुलविकलः क्रूरो २८ सुकृतसमभिहारं ११ सुक्का पम्हा ६१ सुखी दुःखी रङ्को १७ सुगुरुपयपउम० सुगुरुपरंपरमालं ३ सुगुरुमवि १८ सुद्धे छट्ठी विभलि ७ सुत्तं अब्भुट्ठाणं ३६ सुत्तत्थगहिरनीरो सुत्ता अत्थे जत्तो* २ सुत्ते जं न १० सुत्तेण चोइओ जो ३८ सुद्धाए बारसीए ४ सुद्धे छठ्ठी विमले ७ सुभटोऽहं वच्मि रणे ४६ सुमुनिगणगरिष्ठं सुयजुयकलिउच्चूगा ४ सुयवज्झाचरणरया ३९ सुरकयओसरणे ३२ सुरकयविलेवणाइवि २३ सुरगिरमिलिया० सुरथुइगुणो वि सुरनरतिरिनरयगई १३ सुरनरवइकयबहु० १९ सुरनरवइकयवंदण १ सुरनिरए सन्नि० १८ सुरभिदुरभी रसा पुण १७ सुरभिमुखसमीरं १५ आदि-पद पद्याङ्क सुरविरइयकणयबुरुह० १ सुललितपदाः साल० ३ सुलहा य पिय० २२ सुस्वप्नसूचितं सुहसाहणमिह १३ सुहसीलतेण गहिए सुहिसंबंधो ११ सुहुमं कम्मियगंध० ३३ सुहुमनिगोयाइखणे ८५ सुहुमपरिहार ५९ सुहुमो छ पंच ८३ सृतं साम्राज्येन त्रिज० १८ सेणियनिव-सिद्धाइ० ४१ सेयंसेण गयउरे १६ सेसा विसोहिकोडी ५५ सैन्याधिभूरभिषि० १०६ सैषा हुण्डावसर्पिण्य० ३० सोंडीरया विजिय० २४ सोलसकसाय०६ सोलस दहिमुहगि० १२ सोहग्गदोहग्गकरा ७४ सो वत्तणाइलिंगो ६२ सोवन्नवन्न ! वाणीजिय० ३ सो वाससयाऊ ६ सोहिंतो य इमे तह १०१ सौत्सुक्यं भुजबन्ध ९९ सौम्यः पूर्णकलामयः २४ सौरभ्यलुभ्यदभि० १८ स्त्रीपुंसाः सखि ३७ १५२ १९३ २७ १२० १२९ २४२ १६३ १७८ १८३ १६२ १८८ ३१ १०९ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २९७ पृष्ठाङ्क | १०२ १३३ १४० पृष्ठाङ्क १८४ ११४ १७६ १०० २२१ १२५ १०० २२० ४९ १३७ २३४ १२ २१२ १३२ २४८ ६२ आदि-पद पद्याङ्क हरिकरिरहुक्कडं १ हरिरतिरमा यूयं १० हरिसभरनिब्भरु० १ हर्षप्रकर्षवशतः शमु० १० हर्षोत्कर्षोरुपुष्य० ४६ हासरइपुरिसउच्चे हिंडंतऽणंतकालं ७ हिमवत्पत्नी परिपृ० १५५ ही चवलं हीणमईवि पवत्तो २ हुण्डोसप्पिणि० १५ हतविषयपिपासं ४ हृदिजविमविद्यान्ध्य० १४ हे देव! किङ्करमिमं २५ हे नार्यः! किमकार्षु० ८४ हे पास! पसियदंत० ५ हेलाविलोलमणिकु० ९ हे सौभाग्यनिकेत २७ होउं भूजलतेउ० ३ होउं सोहम्मसुरो ४ होहिंति साहुणो वि य ७० ........"कृत्य सदे० ६ .........हिमानी ७० २४२ २५० ९५ १४२ आदि-पद पद्याङ्क स्थाने सख्यः परिच० ५६ स्थिरसुरभितया १३० स्थिराशोकः पृथ्वीतल० ९ स्निग्धं मुग्धमपाङ्ग० ४५ स्पृहयति जनः कस्मै ७८ स्फाराक्ष्युत्क्षिप्तपक्ष्मो० ४४ स्फीतोपनीतसुख० ६ स्फुरितकिरणा वंशा० ८२ स्फूर्जन्मोहप्ररोह० ८ स्मरगुहराधेयान् १२१ स्मरणजनितक्लेशावे० ४ स्मृत्वा पक्षिविशेषेण ९९ स्मेरस्फारविवृत्ततार० १० स्वकायकान्त्या जित० २१ स्वचरणयुगन्यासाद्देवि ७ स्वच्छस्वच्छविचा० १०६ स्वच्छोच्छलविपुल० ४८ स्वजनः पृच्छति ६४ स्वयम्भुवो १ स्वयम्भुवोऽक्षावलियाम १ स्वामिनियच्चिरमिह ३ हंहो शरीर कुर्याः ९७ हणिऊण कोहजोहं १८ हयकाससासववगय० १८ हयदुरियदाह माहप्प० ४ हयसोहं १९ हरति क इह १२ हरहसियसिया ४ हरिकरिपरिकिन्नं १३ २१८ २४९ १२६ ११० २१० १०१ १२३ ९४ ६५ १३९ २२० १५४ ५५ २४७ १०४ १२८ ६४ २११ 000 २१० ७१ ११४ १७३ २०८ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. तृतीय परिशिष्ट भावारिवारणान्त्यपादसमस्यापूर्तिमयं महावीरस्तोत्रम् उपाध्याय-पद्मराजगणि-सन्दृब्धम् वन्दे महोदयरमारमणीललामं, कामं महामहिमधामविलासधामम् । वीरं भवारिभयदावकरालकीलासम्भारसंहरणतुङ्गतरङ्गतोयम् ॥ १॥ देवा नरा विमलबुद्धिगुणा हि नावगच्छन्ति देव! निखिलं गुणसञ्चयं ते। मन्तुं न तं सममलं जडपुङ्गवोऽह मुञ्छामि किन्तु तव देव! गुणाणुमेव ।। २ ।। हे वीर! हीरसुरसिन्धुर! सिद्धसिन्धुडिण्डीरपिण्डधवला गुणधोरणी ते। गोविन्दवारिरुहसम्भववामदेवमायाविदेवनिवहे न मलीमसा वा ।। ३ ।। निस्सङ्गरङ्ग! तव सङ्गममन्तरेण, चिन्तामणी-सुरगवी-करणिं चिरेण । नारायणं च मिहिरं च हरं महन्तो, विन्दन्ति जन्तुनिवहा न हि सिद्धभावम्॥४॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २२९ छिन्नामयं परमसिद्धिपुरे वसन्तमुल्लासिवासरमणिं महसा हसन्तम् । मायातमोनिलयसङ्गममूढदेवाहङ्कारकन्दलदलीकरणासिदण्डम् ॥ ५॥ देवं दयाकमलकेलिमरालनालं, धीमन्दिरं सरसवाणिरमासालम्। चित्ते वहामि वरसिद्धिरसालकीरं, संसारसागरतरीकरणिं च वीरम्॥६॥ युगलकम् रम्भावभासिकरिणीकरपीवरोरुसंरम्भमुच्चकुचकुम्भभरेण मन्दम्। अङ्गं सरङ्ग-परिरम्भकलासु धीरं, मञ्जीरचारुचरणं सरसं वहन्ती॥७॥ लीलाविलासपरिहासतरङ्गवेणी, रोलम्बपुञ्जकलकज्जलमञ्जुवेणी। छायावहा कुसुमबाणपुलिंदपल्ली, भल्लीव विद्धबहुकामिकुरङ्गसङ्घा ॥ ८॥ पङ्केरुहारुणकरा कलकण्ठरामानामारवा तरुणचित्तकरेणुरेवा। नारी विभासुर! सुरासुरसुन्दरी वा, नाऽलं निहन्तुमिह ते विमलाभिसन्धिम्॥९॥ त्रिभिर्विशेषकम् Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० परिशिष्ट - ३ अंहोमयं निविडसंतमसं हरन्ती, संदेहकीलनिवहं सममुद्धरन्ती। हिंसानिबद्धसमयानयधीदुरूहसम्बन्धबुद्धिहरणी तव देव! वाणी ॥ १०॥ गम्भीरिमालय! महापरिमाणमङ्गसम्बद्धभङ्गलहरीबहुभङ्गिचङ्गम्। नीरालयं नयमणीकुलसंकुल वा, देवागमं तव नरा विरला महन्ति ॥ ११ ॥ भेरीरणं दिवि सुदायगिरं भणन्तो, देवा वहन्ति तव पारणदायिगेहे। धाराचयं वसुमयं च सचेलचालं, मन्दारकुन्दकबरं कुसुमं किरन्ति ॥ १२ ॥ उद्दण्डचण्डकरणोरुतुरङ्गवारमुद्दामतामसकरेणुबलं च वीरम्। सम्मोहभूरमणभूरिबलं दलन्त मुत्तुङ्गमारकरिकेसरिणं नमामि ॥ १३ ॥ वंदारुचारुसुरकिन्नरसन्निकार्य, विच्छिन्नभीमभयकारणसम्परायम् । निस्सीमकेवलकलाकमलासहायं, वीरं नमामि नवहेमसमिद्धकायम्॥ १४ ॥ आरामधामगिरिमन्दरकन्दरासु, गायन्ति भूमिवलये गुणमण्डलं ते। नारी नरा सुरवरा अमरा अमन्द ! संदेहरेणुहरणोरुसमीर! वीर! ॥ १५ ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ३०१ संसारिकामपरिपूरणकामकुम्भं, सञ्चारिहेमनवक परम्परासु। सेवामि ते चरमदेव! समन्तसेविसङ्घावलीदमिगणं चरणं चरन्तम् ॥ १६ ॥ सन्नद्धधीरवरवीरसवेगबाणछायानिरुद्धतरुणारुणचण्डबिम्बे। सम्पन्नघोरतुमुले गुरुभीरुकम्पे, कङ्कालसंकुलभयावहभूमिभागे। १७ ।। भल्लासिभिन्नहयवारणवारवाणसाडम्बरारिकरणावरणे दुरन्ते। चित्ते चिराय तव नाम वरं वहन्तो, वीरं नरा रणभरेऽरिचलं जयन्ति ।। १८ ॥ युगलकम् संवित्तिवित्तकरुणारसवारिकुण्डं, पीडाहरं गुणसमूहमणीकरण्डम्। संसारसिन्धुजलकुम्भभवं भवन्तं, सेवन्ति के न भगवन्तमघं हरन्तम् ॥ १९ ॥ सञ्चारभूचरणकेवलसिद्धिवाससंवासवासरवरा इह वीरदेव! देवासुरोरगकुमारसहेलभूमी चारेण ते परममुद्धवमावहन्ति ॥ २० ॥ हे वीर! मेरुगिरिधीर! वसुन्धरालङ्काराभतारवसुभूरिमयोरुसाल! आरोहिमङ्गलमहीरुहकन्द! भिन्नसंसारचारजय जीवसमूहबन्धो!॥ २१ ॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂ૦૨ परिशिष्ट - ३ धीरोहभूरुहचलीकरणे धुरीणा, दूरं तमोविसररेणुविसारिणो मे। बाला समीरणरया इव तूलपूलं, चित्तं हरन्ति भण किं करवाणि देव!॥ २२॥ इच्छाजले कलिमलाविलचित्तकच्छे, रूढं विरुद्धरसभावफलावलीढम्। आरम्भदम्भचिरसम्भववल्लिजालं, हे वीरसिन्धुर ! समुद्धर मे समूलम् ॥ २३ ॥ सेवापरायणनरामरतारचूडालङ्कारसारकरमञ्जरिपिञ्जराय। वीराय जङ्गमसुरागमसङ्गमाय, कामं नमोऽसमदयादमसत्तमाय ॥ २४॥ हे देव! ते चरणवारिरुहं तरण्डमारोहिणो दरभरं हर देहि देहि। पारं परं भवदुरुत्तरनीरपूरे, भूयोऽसमञ्जसनिरन्तरचारिणो मे ॥ २५ ।। अविलयमकलङ्क सिद्धिसम्पत्तिमूलं, भवजलरयकूलं केवलं धारिणोऽलम्। चरणकमलसेवालालसं किङ्करं ते, विमलमपरिहीणं हे महावीर! पाहि ॥ २६ ॥ तरुणतरणिं जीवाजीवावभासविसारणे, सबलकरिणो मायाकुजे दयारससारणिम्। चरणरमणीलीलागारं महोदयसङ्गमे, सरलसरणिं सेवे मूढो गिरं तव वीर हे! ॥ २७॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि गुञ्जापुञ्जारुणकररुहाऽऽयामसम्पन्नबाहो ! भन्दारामे कुसुमसमयं वीरदेवाविलम्बम् । गङ्गानीरामल ! गुणलवं ते समुच्चारिणे मे, सिद्धावासं बहुभवभयारम्भरीणाय देहि ॥ २९ ॥ लसन्तं संसारे सुरनरसमुल्लासकरणं, वहे वारं वारं तव गुणगणं देव! विमलम् । अपारं चित्ते वा बहुलसलिले बिन्दुनिवहं, महापारावारेऽमरणभय! कल्लोलकलिले ॥ २८ ॥ इति श्रीखरतरगच्छाधिराज श्रीजिनहंससूरिशिष्यमहोपाध्याय - श्रीपुण्यसागरशिष्येण वाचकपद्मराजगणिना कृतं भावारिवा रणान्त्यपादसमस्यामयं समसंस्कृतस्तवनम्। 000 ३०३ एवं श्रीजिनवल्लभप्रभुकृतस्तोत्रान्त्यपादग्रहात्, कृत्वा ते समसंस्कृतस्तवमहं पुण्यं यदापं मनाक् । संसेव्यक्रमपद्म! राजनिकरैः श्रीवीर ! तेनार्थये, नाथेदं प्रथय प्रसादविशदां दृष्टिं दयालो ! मयि ॥ ३० ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. चतुर्थ परिशिष्ट - युगप्रधान-जिनदत्तसूरि-रचित जिनवल्लभसूरि-गुणवर्णन सूरिपयं दिन्नमसोगचन्दसूरिहिं चत्तभूरिहिं । तेसिं पयं मह पहुणो दिन्नं जिणवल्लहस्स पुणो॥ ८४॥ जिनवल्लभसूरिः अत्थगिरिमुवगएसु जिणजुगपवरागमेसु कालवसा। सूरम्भिव दिट्ठिहरेण विलसियं मोहसंतमसा ॥ ८५ ॥ संसारचारगाओ निम्विन्नेहिं पि भव्वजीवेहिं । इच्छंतेहि वि मुक्खं दीसइ मुक्खारिहो न पहो ॥ ८६ ।। फुरियं नक्खत्तेहिं महागहेहिं तओ समुल्लसियं। वुड्डी रयणियरेणावि पाविया पत्तपसरेण ॥ ८७ ॥ पासत्थकोसियकुलं पयडीहोउण हंतुमारद्धं । काए काए य विघाए भावि भयं जं न तं गणइ ॥ ८८ ॥ जग्गंति जणा थोवा सपरेसिं निव्वुइं समिच्छंता। पर मत्थर क्खणत्थं सदं सद्दस्स मेलंता॥ ८९ ॥ नाणा सत्थाणि धरंति ते उ जेहिं वियारिऊण परं। मुसणत्थमागयं परिहरंति निजीवमिह काउं ॥ ९० ॥ अविणासियजीवं ते धरंति धम्मं सुवंसनिप्पन्न । मुक्खस्स कारणं भयनिवारणं पत्तनिव्वाणं ॥ ९१ ॥ धरियकिवाणा केई सपरे रक्खंति सुगुरुफरयजुया। पासत्थचोरविसरो वियार भीओ न ते मुसई ॥ ९२ ।। मग्गुम्मग्गा नजति नेय विरलो जणो त्थि मग्गन्नू। थोवा तदुत्तमग्गे लग्गंति न वीससंति घणा ॥ ९३ ॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ - जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि अन्ने अन्नत्थीहिं सम्मं सिवपहमपिच्छिरेहिं पि। सत्था सिवत्थिणो चालिया वि पडिया भवारण्णे ॥ ९४ ।। परमत्थसत्थरहिएसु भव्वसत्थेसु मोहनिदाए। सुत्तेसु मुसिजतेसु पोढपासत्थचोरेहिं ॥ ९५ ।। असमंजसमेयारिसमवलोइय जेण जायकरुणेण। एसा जिणाणामाणा सुमरिया सायरं तइया ॥ ९६ ॥ सुहसीलतेणगहिए भवपल्लिंतेण जगडियमणाहे। जो कुणइ कुवियत्तं सो वण्णं कुणई संघस्स ॥ ९७॥ तित्थयररायाणो आयरिया रक्खियव्व तेहिं कया। पासत्थपमुह चोरोवरुद्धघणभव्वसत्थाणं ॥ ९८ ॥ सिद्धपुरपत्थियाणं रक्खट्ठाऽऽयरियवयणउ सेसा। अहिसेयवायणायरिय-साहुणो रक्खगा तेसिं॥ ९९ ॥ ता तित्थयराणाए मए वि ते हुति रक्खणिज्जाओ। वीरवृत्तिः इय मुणिय वीरवित्तिं पडिवज्जिय गुरुसन्नाह ।। १०० ।। करिय खमाफलयं धरिउमक्खयं कयदुरुत्तसररक्खं । तिहुयणसिद्धं तं जं सिद्धंतमसिं समुक्खिविय ॥ १०१ ॥ निव्वाणठाणमणहं सगुणं सद्धम्ममविसमं विहिणा। परलोयसाहगं मुक्खकारगं धरिय विप्फुरियं ॥ १०२ ।। जेण तओ पासत्थाइतेणसेणा वि हक्किया सम्मं । सत्थेहिं महत्थेहिं वियारिऊणं च परिचत्ता ॥ १०३ ॥ आसन्नसिद्धिया भवसत्थिया सिवपहम्मि संठविया। निव्वुइमुविंति तह जे पडंति ना भीमभवरण्णे ॥ १०४॥ मुद्धाऽणाययणगया चुक्का मग्गाउ जायसंदेहा। बहुजणपुट्ठिविलग्गा दुहिणो हूया समाहूया ॥ १०५ ।। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ परिशिष्ट - ४ आयतनम्: दंसियमाययणं तेसिं जत्थ विहिणा समं हवइ मेलो। गुरुपारतंतओ समयसुत्तओ जस्स निप्फत्ती ॥ १०६ ॥ आयतनविधिः दीसई य वीयराओ तिलोयनाहो विरायसहिएहिं । सेविज्तो संतो हरइ हु संसार संतावं ॥ १०७ ।। वाइयमुवगीयं नट्टमवि सुयं दिट्ठमिट्ठमुत्तिकरं । कीरइ सुसावएहिं सपरहियं समुचियं जत्थ ।। १०८ ॥ रागोरगो वि नासइ सोउं सुगुरूवएसमंतपए। भव्वमणो सालूरं नासइ दोसो वि जत्थाही ॥ १०९ ।। नो जत्थुस्सुत्तजणक्कम त्थि पहाणं बली पइट्ठा य। जइ-जुवइपवेसो वि य न विजइ विज्जइविमुक्को ॥ ११० ॥ जिणजत्ता-हाणाई दोसाण जं खयाइ कीरंति। दोसोदयम्मि कह तेसिं संभवो भवहरो होज्जा ॥ १११ ॥ जा रत्ती जारत्थीणमिह रइं जणइ जिणवरगिहे वि। सा रयणी रयणियरस्स हेऊ कह नीरयाण मया ॥ ११२ ॥ साहू सयणासण-भोयणाइ आसायणं च कुणमाणो। देवह रएण लिप्पइ देवहरे जमिह निवसंतो॥ ११३॥ तंबोलो तं बोलइ जिणवसहिट्ठिएण सो खद्धो। खुद्धे भवदुक्खजले तरइ विणा नेय सुगुरुतरिं ॥ ११४॥ तेसिं सुविहियजइणो य दंसिया जेउ हुंति आययणं । सुगुरुजणपारतंतेण पाविया जेहिं नाणसिरी ॥ ११५ ॥ संदेहकारितिमिरेण तरलियं जेसिं दंसणं नेयं । निव्वुइपहं पलोयइ गुरु-विजुवएसओ सहओ॥ ११६ ॥ निप्पच्चवायचरणा कज्जं साहति जे उ मुत्तिकरं। मन्नंति कयं तं जं कयंतसिद्धं तु सपरहियं ॥ ११७ ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ३०७ पडिसोएण पयट्टा चत्ता अणुसोअगामिणी वत्ता। जणजत्ताए मुक्का मय-मच्छर-मोहओ चुक्का ॥ ११८॥ सिद्धं सिद्धंतकहं कहंति बीहंति नो परेहिंतो। वयणं वयंति जत्तो निव्वुइवयणं धुवं होइ॥ ११९ ॥ तव्विवरीआ अन्ने जइवेसधरा वि हुंति न हु पुज्जा। तदसणमवि मिच्छत्तमणुखणं जणइ जीवाणं ॥ १२० ॥ धम्मत्थीणं जेण विवेयरयणं विसेसओ ठवियं। चित्तउडे चित्तउडे ठियाण जं जणइ निव्वाणं ॥ १२१ ॥ असाहएणावि विही य साहिओ जो न सेससूरीणं। लोयणपहे वि वच्चइ वुच्चइ पुण जिणमयन्नूहिं ॥ १२२ ॥ धवलोपमा घणजणपवाहसरियाणुसोअपरिवत्तसंकडे पडिओ। पडिसोएणाणीओ धवलेण व सुद्धधम्मभरा ॥ १२३ ॥ मेघोपमा कयबहुविज्जुज्जोओ विसुद्धलद्धोदओ सुमेहु व्व। सुगुरुच्छाइयदो सायर पहो पह यसंतावो ॥ १२४ ॥ सव्वत्थ वि वित्थरिअ बुट्ठो कयसस्ससंपओ सम्मं । नेव वायहओ न चलो न गज्जिओ जो जए पयडो॥१२५ ॥ जलध्युपमा कहसुवमिज्जइ जलही तेण समं जो जडाण कयवुड्डी। तियसेहिं पि परेहिं मुयइ सिरिं पि हु महिज्जंतो॥ १२६ ॥ सूर्योपमा सूरेण व जेण समुग्गएण संहरिय मोहतिमिरेण । सद्दिट्ठीणं सम्मं पयडो निव्वुइपहो हूओ ।। १२७ ॥ वित्थरियममलपत्तं कमलं बहुकुमयकोसिया दुसिया। तेयस्सीण वि तेओ विगओ विलयं गया दोसा ।। १२८ ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ परिशिष्ट - ४ विमलगुणचक्कवाया विसव्वहा विहडिया विसंघडिया। भमिरेहिं भमरेहिं पि पाविओ सुमणसंजोगो॥ १२९ ॥ भव्वजणेण जग्गियमवग्गियं दुट्ठसावयगणेण। जड्डमवि खंडियं मंडियं य महिमंडलं सयलं ।। १३० ।। चन्द्रोपमा अत्थमई सकलंको सया संसको वि दंसियपओसो। दोसोदए पत्तपहो तेण समो सो कहं हुजा ।। १३१॥ विष्णूपमा संजणियविही संपत्तगुरुसिरी जो सया विसेसपयं। विण्हुव्व किवाणकरो सुरपणओ धम्मचक्कधरो॥ १३२॥ ब्रह्मोपमा दंसियवयणविसेसो परमप्पाणं य मुणइ जो सम्म। पयडविवेओ छंच्चरणसम्मओ चउमुहु व्व जए॥ १३३ ॥ शम्भूपमा धरइ न कवड्डयं पि हुकुणइ न बंध जडाणमवि कया वि। दोसायरं च चक्कं सिरम्मि न चडावए कह वि॥ १३४ ॥ संहरइ न जो सत्ते गोरीए अप्पए न नियमगं। सो कह तव्विवरीएण संभुणा सह लहिज्जुवमं ।। १३५ ।। विद्या साइसएसु सग्गं गएसु जुगपवरसूरिनियरे सु। सव्वाओ विज्जाओ भुवणं भमिऊणस्संताओ॥ १३६॥ तह वि न पत्तं जुगवं जव्वयणपंकए वासं। करिय परुप्परमच्चंतं पणयओ हुँति सुहियाओ॥ १३७॥ अन्नुन्नाविरह विहु रोहतत्तगत्ताओ तणुईओ। जायाओ पुण्णवसा सावासपयं पि जो पत्तो ॥ १३८ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ३०९ तं लहिय वियसियाओ ताओ तव्वयणसररुहगयाओ। तुट्ठाओ पुट्ठाओ समगं जायाओ जिट्ठाओ ॥ १३९ ।। अनुपमेयत्वम् जाया कइणो के के न सुमइणो परमिहोवमं ते वि। पावंति न जेण समं समंतओ सव्वकव्वेण ॥ १४० ॥ उवमिज्जंते संतो संतोसमुविंति जम्मि नो सम्म। असमाणगुणो जो होइ कह णु सो पावए उवमं ॥ १४१॥ जुगपवरगुरुजिणेसरसीसाणं अभयदेवसूरीणं। तित्थभरधरणधवलाणमंतिए जिणमयं विमयं ।। १४३ ॥ सविणयमिह जेण सुयं सप्पणयं तेहि जस्स परिकहियं। कहियाणु सारओ सव्वमुवगयं सुमइणा सम्मं ॥ १४४ ॥ निच्छम्मं भव्वाणं तं पुरओ पयडियं पयत्तेण। अकयसुकयंगिदुल्लह जिणवल्लहसूरिणा जेण ॥ १४५ ।। सो मह सुहविहिसद्धम्मदायगो तित्थनायगो य गुरू। तप्पयपउमं पाविय जाओ जायाणुजाओ हं।। १४६ ॥ तमणुदिणं दिन्नगुणं वंदे जिणवल्लहं पहुँ पयओ। -गणधरसार्द्धशतक गा० ८५-१४७ कयसावयसंतासो हरिव्व सारंगभग्गसंदेहो। गयसमयदप्पदलणो आसाइयपवरकव्वरसो ॥ १५ ॥ भीमभवकाणणम्मी दंसियगुरुवयणरयणसंदोहो। नीसेससत्तगरुओ सूरी जिणवल्लहो जयइ॥ १६ ॥ उवरिट्ठियसच्चरणो चउरणुओगप्पहाण सच्चरणो। असममयरायमहणो उड्डाहो सहइ जस्स करो ॥ १७ ॥ दंसियनिम्मलनिच्चलदंतगुणोऽगणियसावउत्थभओ। गुरुगिरिगरुओ सरहुव्व सूरि जिणवल्लहो होत्था॥ १८ ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जुगपवरागमपीडसपाणपीणियमणा कया भव्वा । जेण जिणवल्लहेणं गुरुणा तं सव्वहा वंदे ॥ १९॥ - सुगुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र गा० १५ - १९ नमिवि जिणेसरधम्मह तिहुयणसामियह, पायकमलु समिनिम्मलु सिवगयगामियह। करिमि जहट्ठियगुणथुइ सिरि जिणवल्लहह, जुगपवरागमसूरिहि गुणिगणदुल्लहह ॥ १॥ जो अपमाणु पमाणइ छद्दरिसण तण, परपरिवाइगइंदवियारणपंचमुहु, जाइ जिव नियनामुन तिण जिव कुवि घणइ । परिशिष्ट तसु गुणवन्नणु करण कु सक्कइ इक्कमुहु ? ॥ २ ॥ जो वायर वियाणइ सुहलक्खणनिलउ, " सद्दु असद्दु वियाणइ सुवियक्खणतिलउ । सुच्छंदिण वक्खाणइ छंदु जु सुजइमउ, गुरु लहु लहि पइठावर नरहिउ विजयमउ ॥ ३॥ कव्वु अउव्वु जु विरयइ नवरसभरसहिउ, लद्धपसिद्धिहिं सुकइहिं सायरु जो महिउ । सुकइ माहुति पसंसहिं जे तसु सुहगुरुहु, साहु न मुणहि अयाणुय मइजियसुरगुरुहु ॥ ४ ॥ कालिया कइ आसि जु लोइहिं वन्नियइ, ताव जाव जिणवल्लह कइ नाअन्नियइ | अप्पु चित्तु परियाणहि तं पि विसुद्धनय, ते वि चित्तकइराय भणिज्जहि मुद्धनय ॥ ५॥ सुकइविसेसियवयणु जु वप्पइराउकइ, सुविजिणवल्लहपुरउ न पावइ कित्ति कइ । अवरि अणेयविणेयहिं सुकइ पसंसियहिं, तक्कव्वामयलुद्धिहिं निच्चु नमंसियहिं ॥ ६॥ - ४ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि जिण कय नाणा चित्तई चित्तु हरंति लहु, तसुदंसणु विणु पुन्निहिं कउ लब्भइ दुलहु। सारई बहु थुइ-थुत्तई चित्तई जेण कय, तसु पयकमलु जि पणमहि ते जण कयसुकय॥७॥ जो सिद्धंतु वियाणइ जिणवयणुब्भविउ, तसु नामु वि सुणि तूसइ होइ जु इहु भविउ। पारतंतु जिणि पयडिउ विहिविसइहिं कलिउ, सहि! जसु जसु पसरंतु न केणइ पडिखलिउ॥८॥ इय निप्पुनह दुल्लह सिरिजिणवल्लहिण, तिविहु निवेइउ चेइउ सिवसिरिवल्लहिण। उस्सुत्तइ वारं तिण सुत्तु कहंतइण, इह नवं व जिणसासणु दंसिउ सुम्मइण ॥ ४० ॥ इक्कवयणु जिणवल्लह पहु वयणइ घणइं, किं व जंपिवि जणु सक्कइ सक्कु वि जइ मुणइ। तसु पयभत्तह सत्तह सत्तह भवभयह, होय अंतु सुनिरुत्तउ तव्वयणुज्जयह ॥ ४१ ॥ इक्ककालु जसु विज्ज असेस वि वयणि ठिय, मिच्छदिट्ठि वि वंदहिं किंकरभावट्ठिय। ठाणि ठाणि विहिपक्खु वि जिण अप्पडिखलिउ, फुडु पयडिउ निक्कवडिण परु अप्पउ कलिउ॥४२॥ तसु पयपंकयउ पुन्निहि पाविउ जण-भमरु, सुद्धनाण-महुपाणु करतंउ हुइ अमरु । सत्थु हुंतु सो जाणइ सत्थ पसत्थ सहि, कहि अणुवमु उवमिज्जइ केण समाणु सहि ॥४३॥ वद्धमाणसूरिसीसु जिणेसरसूरिवरु, तासु सीसु जिणचंदजईसरु जुगपवरु । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ अभयदेउमुणिनाहु नवंगह वित्तिकरु, तसु पयपंकय-भसलु सलक्खणुचरणकरु ॥ ४४॥ सिरिजिणवल्लहु दुलहु निप्पुन्नहं जणहं, हउं न अंतु परियाणउं अहु जण तग्गुणहं । सुद्धधम्म हउं ठाविउ जुगपवरागमिण, एउ वि मई परियाणिउ तग्गुणसंकमिण ॥ ४५ ॥ भमिउ भूरिभवसायरि तह वि न पत्तु मई, सुगुरुरयणु जिणवल्लहु दुल्लहु सुद्धमइ । पाविय तेण न निव्वुइ इह पारत्तियइ, परिभव पत्त बहुत्त न हुय पारतियइ ॥ ४६॥ इय जुगपवरह सूरिहि सिरिजिणवल्लहह, नायसमयपरमत्थह बहुजणदुल्लहह । तसु गुणथुइ बहुमाणिण सिरिजिणदत्तगुरु, करइ सुनिरुवमु पावइ पउ जिणदत्तगुरु ॥ ४७ ॥ - चर्चरी पद्य १-८; ४०-४७, सिरिजिणवल्लहसूरीहिं विरइयं जमिह तं वंदे ॥ २२ ॥ कलिकालकुमुइणीवणसंकोयणकारि सूरकिरणव्व । इह सुत्तासुत्तपया व भासणुल्लासिणो जेसिं ॥ २३ ॥ ठाणवाट्ठियमग्गनासि संदेहमोहतिमिरहरा । कुग्गहिवग्गकोसियकुलकवलियलोयणा लोया ॥ २४ ॥ तेहिं पभसियं जं तं विहडइ नेय घडइ जुत्तीए । वंदे सुत्तं सुत्ताणुसारि संसारिभयहरणं ॥ २५ ॥ गुरुगयणयलपसाहण पत्तपहो पयडिया समदि सोहो । हयसिवपह संदेहो कयभव्वम्भोरुहविबोहो ॥ २६ ॥ सूरुव्व सूरिजिणवल्लहो य जाउ जए जुगपवरो । - श्रुतस्तव गाथा २२-२७ परिशिष्ट Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. पञ्चम परिशिष्ट - नेमिचन्द्र भण्डारी विरचित जिनवल्लभसूरि-गुरुगुणवर्णन पणमवि सामिय वीरजिण, गणहर गोयम सामि। सुधर्मसामिअन लगि सरणि जुगप्रधान सिवगामि ॥ १॥ तित्थुधरणु सु मुणिरयण, जुगप्रधान क्रमि पत्तु । जिणवल्लहसूरि जुगपवरो, जसु निम्मलउं चरित्तु ॥ २॥ तसु सुहगुरु गुणकित्तणइ, सुरराउ वि असमत्थु । तो भत्तिब्भर तरलियउ, कह हंउ कहि सकयत्थो॥३॥ कह भवसायर दुहपवर,कह पत्तउ मणुयत्तु। , किह जिणवल्लहसूरिवयणु, जाणउ समय पवित्तु ॥ ४॥ कह सबोहि मणु उल्लसिउ, कह सुद्धउ सम्मत्तु। जुगसमला नाएण मई, पत्तउ जिणविह-तत्तु ॥ ५ ॥ जिणवल्लभसूरि सुहगुरह, बलि कि जिसु गुरराय। जसु वयणेण विजाणीयए, तुट्टइ कुमय-कसाय॥ ६॥ मूढा मिल्हहु मूढ पहु, लग्गहु सुद्धइ धम्मि। जो जिणवल्लहसूरि कहिउ, गच्छउ जिम सिवरम्मि ।। ७ ।। अथिर माइ पिय बंधवइ, अथिर रिद्धि गिहवासु। जिणवल्लहसूरि पय नमउं, तोडउ भवदुहपासु॥ ८॥ परमपणइ न के वि गुरु, निम्मल धम्मह हुंति। सव्वि ति सुहगुरु मनियहिं, जे जिणवयण मिलंति ॥९॥ 'गुरु गुरु' गायवि रंजियहि, मूढउ लोउ अयाणु। . न मुणइ जं जिण आण विणु, गुरु हुइ सत्तु समाणु ॥ १० ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जिम सरणाइय माणुसहं, कोइ करइ सिरछेउ । न मुणइ जं जिण - भासियउ, तिम कुगुरह संजोउ ॥ ११ ॥ हुंड-विसप्पिणि भसम गहु, दूसम कालु कलिड्डु । जिणवल्लहसूरि भडु नमहु, जिणिउ सत्तु निसि ॥ १२ ॥ जा जहि कुलगुरु आवियउ, ते तहि भत्ति करंत । विरला जोइवि जिणवयण, जहि गुण तहि रचंति ॥ १३ ॥ हा हा दूसमकाल बलु, खल वक्कत्तण जोइ । नामेणिय सुविहिय तणइ, मित्तु वि वयरीय होइ ॥ १४ ॥ तहि चेडाहिव हउं नमउं, सुमणिय परमत्थांह । हीयडइ जिणवर इक्कपर, अनु सुद्धउ गुरु जांह ॥ १५ ॥ जिणि जिणवर पहु हीलियइ, जणु रंजियइ सहासु । सो वि सुगुरु पणमंतयइ, फूटि न हिया हयासु ॥ १६ ॥ मिरियभवे जिउ वीर जिण, इक्क उसत्त लवेण । कोडाकोडि सागर भमिउ, किं न भणह मोहेण ॥ १७ ॥ तव संजम सुत्तेण सहु, सव्वु वि सहलउ होइ । सो वि उत्तलवेण सह भवदुह लक्खई देइ ॥ १८ ॥ माया मोह चएह जण, दुलहउ जिणविहधम्मु । जो जिणवल्लहसूरि कहिउ, सिग्घ देह सिव सम्मु ॥ १९ ॥ संसउ कोइ म करहु मुणि, संसइ होइ मिच्छत्तु । जिणवल्लहसूरि जुगपवर, नमहु सु तिजग पवित्तु ॥ २० ॥ जई जिणवल्लहसूरि गुरु, नह दिट्ठ नयणेहिं । जुगपहाण तर जाणीयइ, णिच्छइ गुण-चरिएहिं ॥ २१ ॥ ते धन्ना सुकयत्थ नर, ते संसारु तरंति । जे जिणवल्लहरि तणीए, आण सिरेण धरंति ॥ २२ ॥ तह न रोग दोहग्गु नह, तह मंगल कल्लाण । जे जिणवल्लह गुरु नमइ, तिन्नि संझ सुविहाण ॥ २३ ॥ परिशिष्ट - ५ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि सुविहिय मुणि- चूडारयण, जिणवल्लह बहुराउ । इक्क जीह किम संथुणउ, भोलउ भत्ति सहाउ ॥ २४ ॥ संपइ ते मन्नावि गुरु, उग्गइ उग्गइ सूरि । जो जिणवल्लह पहु कहइ, गमइ उमग्गु सुदूरि ॥ २५ ॥ इकि जिणवल्लह जाणीयइ, सव्वु मुणियइ धम्मु । अनु सुहगुरु सवि मंनियउ, तित्थु जि धरहिं सुहम्मुं ॥ २६ ॥ इय जिणवल्लह थुइ भणिय, सुणियइ करइ कल्लाणु । देउ बोहि चउवीस जिण, सासर सुखनिहाणु ॥ २७ ॥ जिणवल्लह क्रमि जाणियउ, हिव मइ तासु सुसीसु । जिणदत्तसूरि जुगपवरो, उद्धरियउ गुरुवंसो ॥ २८ ॥ तिणिनिय पइ पुण ठावियउ, बालउ सीहकिसोरु । परमइ-मइगल-बलदलणु, जिणचंदसूरि मुणि सारु ॥ २९ ॥ तसु सुपट्टि हिव गुरु जयउ, जिणपत्तिसूरि मुणिराउ । जिणमय - विहि-उज्जोयकरु, दिणवर जिम विक्खाउ ॥ ३० ॥ पारतंतु विहि विसयसुहु, वीरजिणेसर वयणु । जिणवसूरि गुरु हिव कहइ, निच्छइ अन्नु न कवणु ॥ ३१ ॥ धन्न ति पुरवर पट्टणई, धन्न ति देस विचित्त। जिहि विहरइ जिणवइ सुगुरु, देसण करइ पवित्त ॥ ३२ ॥ कवणु सु होस दिवसडउ, कवणु सु तिहि सुमुहुत्तु । जिहि वंदिसु जिणवइ सुगुरु, निसुणिसु धम्मह तत्तु ॥ ३३ ॥ सल्लुद्धारु करेसु हउ, पालिसु दिदु सम्मत्तु । नेमिचंदु इम वीनवइ, सुहगुरु- गुणगणरत्तु ॥ ३४॥ नंदउ विहि-जिणमंदिरई, नंदउ विहिसमुदाउ । नंदउ जिणपत्तिसूरि गुरु, विहि- जिणधम्म पसाउ ॥ ३५ ॥ / ३१५ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. षष्ठं परिशिष्ट - जिनवल्लभसूरि- स्तुत्यात्मक-पद्याः १. मुनिचन्द्रसूरि - [सं० ११७० ] कालोचियसमयपरसमयगंथगब्भेण जिणवल्लहगणिणा । - सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धरप्रकरण- चूर्णि अवतरणिका २. धनेश्वरसूरि - [सं० १९७१ ] सूक्ष्मपदार्थनिष्कनिष्कषणकषपट्टकसन्निभप्रतिभः श्रीजिनवल्लभाख्यः सूरिः । - सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरण- टीका अवतरणिका ३. कवि पल्ह - [ सं० १९७१ लगभग ] देवसूरि पहु नेमिचंदु बहुगुणिहिं पसिद्धउ, उज्जोय तह वद्धमाणु खरतरवर लद्धउ । सुगुरु जिणेसरसूरि नियमि जिणचंदु सुसंजमि, अभयदेउ सव्वंगुनाणी जिणवल्लहु आगमि ॥ ४. हरिभद्रसूरि - [सं० १९७२ ] जिनवल्लभगणिनामा सूत्रकारः । ५. श्रीचन्द्रसूरि - [ ११७८ ] - जिनदत्तसूरि-स्तुति. पद्य ४. - षडशीति- टीका अवतरणिका सूक्ष्मपदार्थनिष्कनिष्कषणपट्टकसन्निभप्रतिभजिनवल्लभाभिधानाचार्यः। ६. यशोभद्रसूरि - [ १२ वीं शती का अन्तिम चरण ] क्वासौ श्रीजिनवल्लभस्य रचना सूक्ष्मार्थचर्चाञ्चिता, क्वेयं मे मतिरग्रिमाप्रणयिनी गुग्धत्व पृथ्वीभुजः । पङ्गोस्तुङ्गनगाधिरोहणसुहृद्यत्नोयमार्यास्ततोऽसद्धयानव्यसनार्णवे निपततः स्वान्तस्य पोतोर्पितः ॥ - पिण्डविशुद्धि - टीका - षडशीति- टीका-मंगलाचरण प० २ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ३१७ इति विविधविलसदर्थसुविशुद्धाहारमहितसाधुजनम्। श्रीजिनवल्लभरचितं प्रकरणमेतन्न कस्य मुदे? ॥ मादृश हइ प्रकरणे महार्थपंक्तौ विवेश बालोऽपि। यदुवृत्त्यमुलिलग्नस्तं श्रयत गुरुं यशोदेवम्॥ ___-पिण्डविशुद्धि-दीपिका-प्रशस्तिः ७. अज्ञात-[जेसलमेर भाण्डागारीय ताडपत्रीय प्रति से, समय लगभग १३वीं शती] दूसमदमनीरहरु दुसहभसमग्गहमयहरु हुंडवसप्पिणिसप्पगरुड संजमसिरिकुलहरु। निव्ववाइमयमत्तदंतिदारणपंचाणणु, गुरु-सावय-समणेस समण-आसेवण-काणणु। जुगपवर-सूरि जिणवल्लह ह जो आणाकरु गणहरु । सो सरहु म गुरु संसउ करहु जो भवियह भवभूरिहरु॥१२॥ जसु सन्नाणु अमाणु मणह विप्फुरइ फुरंतउ, पर कवित्त सुकइत्तबंध विरयइ जु तुरंतउ। जो निम्मलचारियरयणसंचयरयणायरु, . मिच्छतिमिरतमहरणु तत्तपयडणदिवायरु। भावारिमहीरुहमत्तकरि करणचरणसंजम सहिउ। तहु वीरपदं पय अणुसरहु सगुण गणिहि जे अविरहिउ ॥ १३॥ -जिनदत्तसूरि स्तुति छप्पय १२-१३ ८. कवि पद्मानन्द-[१२वीं शती का अन्तिम चरण] सिक्तः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतैः, श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः। -वैराग्यशतक ९. श्रीमलयगिरि-[१३वीं शती] न चायमाचार्यो न शिष्टः। -षडशीति-टीका अवतरणिका १०. जिनपतिसूरि-[१३वीं शती का पूर्वार्द्ध] क्वेमाः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः सूक्ष्मार्थसारा गिरः, क्वाहं तद्विवृतौ क्षमः क्लमजुषां दुर्मेधसामग्रणीः। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ परिशिष्ट - ६ द्विड्वत्तद्विपदन्तभञ्जनभुजस्तम्भैर्जयश्रीः क्व नु. प्राप्या सङ्गरमूर्धनि व्यवसित: क्लीबः क्व तल्लिप्सया॥२॥ -सङ्घपट्टक-टीका-मंगलचारण सूरिः श्रीजिनवल्लभोऽजनि बुधश्चान्द्रे कुले तेजसा, सम्पूर्णोऽभयदेवसूरिचरणाम्भोजालिलीलायितः। चित्रं राजसभासु यस्य कृतिनां कर्णे सुधादुर्दिनं, तन्वाना विबुधैर्गुरोरपि कवेः कैर्न स्तुताः सूक्तयः? ॥ १॥ हित्वा वाङ्मयपारदृश्वतिलकं यं दीप्रलोकम्पृणं, प्रज्ञानामपि रञ्जयन्ति गुणिनां चित्राणि चेतांस्यहो। लुण्टाक्यश्च्युततन्द्रचन्द्रमहसामद्याप्यविद्यामुषः, कस्यान्यस्य मनोरमाः सकलदिक्कूलङ्कषाः कीर्तयः? ॥२॥ माधुर्यशार्करितशर्करया रयाद् यं, पीयूषवर्षमिव तर्कगिरा किरन्तम्। विद्यानुरक्तवनिताजनितास्यलास्यं, हित्वा परत्र न मनो विदुषामरंस्त ॥ ३ ॥ -सङ्घपट्टक-टीका-प्रशस्तिः तदनुसमभूच्छिष्यस्तस्य प्रभुर्जिनवल्लभो, जगति कवितागुम्फा यस्य द्रवद्रसमन्थराः। अनितरकविच्छायापत्या चमत्कृतिचुञ्चवो, न हृदि मधुरा लग्नाः कस्य स्मरस्य यथेषवः?॥८॥ -पञ्चलिङ्गीप्रकरण-टीका-प्रशस्तिः ११. जिनपालोपाध्याय-[१३वीं शती] चित्रं चित्रं वितन्वन्नवरसरुचिरं काव्यमन्यच्च भूयः, सर्वं निदोषमह्नोमुखमिव सगुणत्वेन पट्टांशुकश्रि। कान्तावत्कान्तवर्णं भरतनृपतिवच्चालङ्कारसारं, चक्रे माघादिसूक्तेष्वनभिमुखमहो धीमतां मानसं यः॥ १० ॥ -सनत्कुमारचक्रिचरितमहाकाव्य प्रशस्तिः ततोऽजनि श्रीजिनवल्लभाख्यः, सूरिः सुविद्यावनिताप्रियोऽसौ। अद्यापि सुस्था रमते नितान्तं यत्कीर्तिहंसी गुणिमानसेषु ।। ५ ॥ -धर्मशिक्षा-टीका-प्रशस्तिः Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ३१९ शिष्योऽथ स श्रीजिनवल्लभाख्यश्चैत्यासिनः सूरिजिनेश्वरस्य। प्राप्य प्रसन्नोऽभयदेवसूरिं ततोऽग्रहीज्ज्ञानचरित्रचर्याम्॥७॥ शुभगुरुपदसेवाऽवाप्तसिद्धान्तसारा वगतिगलितचैत्यावासमिथ्यात्वभावः। गृहिगृहवसतिं स स्वीचकारातिशुद्ध्या सुविहितपदवीवद्गाढसंवेगरङ्गः॥८॥ तथाऽस्य संविग्नशिरोमणेरभून्मनः प्रसन्नं सकलेषु जन्तुषु। जिनानुकृत्यां भुवनं विबोधयन्, यथा न शश्राम महामनाः स्वयम्॥९॥ धर्मोपदेशकुलकाङ्कितसारलेखैः, श्राद्धेन बन्धुरधिया गणदेवनामा। प्राबोधयत्सकलवाग्जडदेशलोकं, सूर्योऽरुणेन कमलं किरणैरिव स्वैः ।।१०।। तानि द्वादशविस्तृतानि कुलकान्यम्भोधिवद् दुर्गमा ___ न्यत्यन्तं च गभीरभूरिसुपदान्युनिद्रितार्याणि च। व्याख्यातुं य उपक्रमः कृशधियाऽप्याधीयते मादृशे, नारोढुं तदमर्त्यशैलशिखरं प्रागल्भ्यतः पङ्गुना ॥ ११ ॥ एवं श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोश्चारित्रचूडामणे भव्यप्राणिविबोधने रसिकतां वीक्ष्याद्भुतां शाश्वतीम्। आदेशाद् गुणविनवाङ्गविवृतिप्रस्तावकस्यादयत्, प्रादात् सूरिपदं मुदञ्चितवपुः श्रीदेवभद्रप्रभुः॥ १२ ॥ -द्वादशकुलक-टीका-मङ्गलाचरणम् जयन्ति सन्देहलतासिधाराः, श्रोत्रप्रमोदामृतवारिधाराः। सूरेर्गिरः श्रीजिनवल्लभस्य, प्रहीणपुण्याङ्गिसुदुर्लभस्य ॥ १ ॥ आसन्नत्र मुनीश्वराः सुबहवश्चारित्रलक्ष्म्यास्पदं, स्तोकाः श्रीजिनवल्लभेन सदृशा निर्भीकवाग्विस्तराः। संग्रामे गहनेऽपि भूरिसुभटश्रेण्या वरे भारते, तुल्याः श्रीसितवाजिना विजयिनो वीराः कियन्तोऽभवन्॥२॥ -द्वादशकुलक-टीका-प्रशस्तिः १२. नेमिचन्द्र भण्डारी-[१३वीं उत्तरार्ध ] अज्ज वि गुरुणो गुणिणो सुद्धा दीसंति तउयडा केइ। परं जिणवल्लह सरिसो, पुणो वि जिणवल्लहो चेव ॥ १०७॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० परिशिष्ट - ६ वयणे वि सुगुरु जिणवल्लहस्स केसिं न उल्लसइ सम्म। अह कह दिणमणितेयं उलूयाणं हरइ अंधत्ते ॥ १०८॥ दिठ्ठा वि के वि गुरुणो हियए न रमंति मुणिय तत्ताणं। के वि पुण अदिट्ठ च्चिय, रमंति जिणवल्लहो जेम॥ १२९ ॥ कप्रकरणम १३. अभयदेव सूरि-[सं० १२७८] तच्छिष्यो जिनवल्लभः प्रभुरभूद् विश्वम्भराभामिनीभास्वद्भालललामकोमलयश:स्तोमः शमारामभूः। यस्य श्रीनरवर्मभूपतिशिरःकोटीररत्नाकुरज्योतिर्जालजलैरपुष्यत सदा पादारविन्दद्वयी। काश्मीरानपहाय सन्ततहिमव्यासङ्गवैराग्यतः, प्रोन्मीलद् गुणसम्पदा परिचिते यस्यास्यपङ्केरुहे। सान्द्रामोदतरङ्गिता भगवती वाग्देवता तस्थुषी, धारालामलभव्यकाव्यरचनाव्याजादनृत्यच्चिरम्॥ -जयन्तविजय-काव्य-प्रशस्तिः १४. पूर्णभद्रगणि-[सं० १२८५] आकर्ष्याभयदेवसूरिसुगरोः सिद्धान्ततत्त्वामृतं, येनाज्ञायि न सङ्गतो जिनगृहे वासो यतीनामिति । तं त्यक्त्वा गृहमेधिगेहिवसतिर्निर्दूषणा शिश्रिये, सूरिः श्रीजिनवल्लभोऽभवदसौ विख्यातकीर्तिस्ततः। -धन्यशालिभद्रचरित्र-प्रशस्ति: १५. उदयसिंहसूरि-[सं० १२९५ ] सुविहितहितसुत्रधार जयति जिनवल्लभो गणिर्येन।। येन पिण्डविशुद्धिप्रकरणमकारि चारित्रभवनम्॥ -पिण्डविशुद्धिदीपिका-मंगलाचरण प० २. १६. चित्रकूट वास्तव्य सा० सल्हाक लिखित प्रति-[सं० १२९५] चारित्रचूडामणि श्रीजिनवल्लभसूरि. .............." १७. पूर्णकलशगणि-[सं० १३०७] Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि 39 तस्मिन् सोऽभयदेवसूरिरभवत् क्लृप्ताङ्गवृत्तिस्ततः, संविग्नो जिनवल्लभो युगवरो विद्यालिताराऽम्बरम्। -प्राकृतव्याश्रय-टीका प्रशस्तिः प० २ १८. अभयतिलकोपाध्याय-[सं० १३१२] तच्छिष्यो जिनवल्लभो गुरुरभाच्चारित्रपावित्र्यतः, सारोद्धरसमुच्चयो नु निखिलश्रीतीर्थसार्थस्य यः। सिद्धाकर्षणमन्त्रकोन्वखिलसद्विद्याभिरालिङ्गनात्, कीर्त्या सर्वगया प्रसाधितनभोयानाग्र्यविद्यो ध्रुवम्। -संस्कृत-द्वयाश्रय टीका-प्रशस्तिः प० ४ जज्ञे तदीयपदवीनलिनीमरालः, स्वेभ्यश्चरित्ररमया जिनवल्लभाख्यः। -न्यायालंकार-टीका-प्रशस्तिः १९. चन्द्रतिलकोपाध्याय-[सं० १३१२] श्रीजिनवल्लभसूरिस्तत्पट्टेऽभूद् विमुक्तबहुभूरिः। भव्यजनबोधकारी कल्मषहारी सदोद्यतविहारी॥ तर्क-ज्योतिरलंकृतिर्निजपरानेकागमाल्लक्षणं, . यो वेत्ति स्म सुनिश्चितं सुविहितश्चारित्रिचूडामणिः॥ नानावाग्जडमुख्यकान् जनपदान् श्रीचित्रकूटस्थितां, चामुण्डामपि देवतां गुणनिधिर्यो बोधयामासिवान्॥ -अभयकुमार-चरित्र-प्रशस्तिः प० १०-११ २०. लक्ष्मीतिलकोपाध्याय-[सं० १३१७] विद्वत्ताऽतिशयर्द्धि संयमरमात्रैमातुरः सर्वतो, वक्त्रो यस्य यश:कुमार उदितः श्रीतारकाधीश्वरम्। चित्रं न्यत्कृतवांस्त्रिलोकमपि च प्रासाधयल्लीलया, तीर्थं श्रीजिनवल्लभो गणपतिः शास्ति स्म सोऽयं ततः॥ -श्रावकधर्म-टीका-प्रशस्तिः प० ४ २१. प्रबोधचन्द्रगणि-[सं० १३२० ] विद्या मा भवताकुला जननि! वाग्देवि! त्वमाश्वासयैता धातस्त्वमिमां प्रबोधय गिरं ब्रह्मन्। स्वयं मा मुहः। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ परिशिष्ट - ६ आसीनोऽभयदेवसूरिमुनिराट-पट्टे जगद्वल्लभः, सूरिः श्रीजिनवल्लभः स्वरसतः सिद्धं तवैवेप्सितम्॥ -सदेहदोलावलि-टीका-प्रशस्तिः प०५ २२. धर्मतिलकगणि-[सं० १३२२] वर्णनातिक्रान्तानुपमभागधेयाः सुगृहीतनामधेयाः सकललोकसंध्यमहा_विमलगुणमणिश्रेणयः संविनमुनिजनवातचूडामणयः स्वप्रज्ञातिशयविशेषविनिर्जितामरसूरयः श्रीजिनवल्लभसूरयः।। -लघुजितशान्तिस्तव-टीका-अवतरणिका २३. सङ्घपुर जिनालयशिलालेख-[सं० १३२६] अपमलगुणग्रामोऽमुष्मादधीतजिनागमः, प्रवचनधुराधौरेयाऽभूद् गुरुर्जिनवल्लभः। सकलविलसद्विद्यावल्लीफलावलिविभ्रमं, प्रकरणगणो यस्यास्येन्दोः सुधा विभृतेतराम्॥ १०१॥ सम्यक्त्वबोधचरणैस्त्रिजगज्जनौघ-चेतोहरैर्वरगुणैः परिरब्धगात्रम्। यं वीक्ष्य निस्पृहशिखामणिमार्यलोकः सस्मार सप्रमदमार्यमहागिरीणाम् ॥ १०२ ।। __ -बीजापुर-वृत्तान्त पृ० ४ २४. जिनप्रबोधसूरि-[सं० १३२८] चान्द्रे कुलेऽजनि गुरुर्जिनवल्लभाख्यो। ऽर्हच्छासनप्रथयिताऽद्भुतकृच्चरित्रः। -कातन्त्रदुर्गपदप्रबोध २५. जगडु कवि-[सं० १२७८-१३३१] धन्नु सु जिणवल्लहु वक्खाणि, नाण-रयणकेरी छइ खाणि। बइतालीस सुद्ध पिण्डु विहरेइ, त्रिविधु मंदिरु जगि प्रगटु करेइ ।। . -सम्यक्त्वमाई चउपई गा० ४१ २६. प्रभानन्दाचार्य-[सं० १३३५] तस्मान्मुनीन्दुर्जिनवल्लभोऽथ, तथा प्रथामाप निजैर्गुणोधैः। विपश्चितां संयमितां गणे च, धुरीणता तस्य यथाऽधुनापि॥ -ऋषभपंचाशिका-टीका Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि २७. ठक्कुर फेरु-[सं० १३४७] नंदिन्हवणु-बलि-रहु-सुपइट्ठ, तालारासु जुवइ मुणिसिट्ठ। निसि जिणहरि जिणि वारिय अविहि, थुणहु सु जिणवल्लहसूरि सुविहि ॥१७॥ -युगप्रधान-चतुष्पदिका २८. जिनप्रभसूरि-[सं० १३५६] वंशे श्रीजिनवल्लभवतिपतैः शुभैर्यशोभिर्दिशः। -द्वयाश्रय-काव्य-प्रशस्तिः प० २ २९. सोमतिलकसूरि-[सं० १३९२] संविग्नचूडामणयो न केषाँ, स्युर्वल्लभाः श्रीजिनवल्लभास्ते। मूर्ताऽपि यद्गी विनाममूर्त-मात्मानमुत्तुङ्गगुणैः ससज्ज ॥ ३ ॥ -शीलतरङ्गिणी-प्रशस्तिः ३०. तरुणप्रभसूरि-[सं० १४११] तदीयपादद्वयपद्मसेवा-मधुव्रतः श्रीजिनवल्लभोऽभूत् । यदङ्गरङ्गे व्रतनर्तकेन, किं नृत्यतां कीर्तिधनं न लेभे ॥३॥ -षडावश्यक-बालावबोध-प्रशस्तिः ३१. भुवनहिताचार्य-[सं० १४१२ ] ............"जिनवल्लभ.........."शाङ्गनावल्लभो......"प्रियः। यदीयगुणगौरवं श्रुतिपुटेन सुधोपमं निपीय। शिरसोऽधुनापि कुरुते न कस्ताण्डवम्? ॥ २० ॥ -राजगृह-प्रशस्तिः , नाहर जेन लेख संग्रह प्रथम भाग ३२. सङ्घतिलकसूरि-[सं० १४२२] तत्पट्टपूर्वाचलचूलिकायां, भास्वानिव श्रीजिनवल्लभाख्यः । सच्चक्रसम्बोधनसावधान-बुद्धिः प्रसिद्धो गुरुमुख्य आसीत् ॥ ३॥ -सम्यक्त्वसप्तति-टीका-प्रशस्तिः ३३. देवेन्द्रसूरि-सं० १४२९] तदनु जिनवल्लभाख्यः प्रख्यात समयकनककषपट्टः। यत्प्रतिबोधनपटहोऽधुनापि दन्ध्वन्यते जगति॥५॥ -प्रश्नोत्तररत्नमाला-टीका-प्रशस्तिः Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ३४. वर्द्धमानसूरि - [सं० १४६८ ] श्राद्धप्रबोधप्रवणस्तत्पट्टे जिनवल्लभः । सूरिर्वल्लभतां भेजे त्रिदशानां नृणामपि॥ १४॥ - आचारदिनकर-प्रशस्तिः ३५. जेसलमेर सम्भवजिनालय - प्रशस्ति- शिलालेख - [सं० १४९७ ] ततः क्रमेण श्रीजिनचन्द्रसूरि नवाङ्गीवृत्तिकार - श्रीस्तम्भन पार्श्वनाथप्रकटीकार - श्री अभयदेवसूरि-श्रीपिण्डविशुद्ध्यादिप्रकरणकार - श्रीजिनवल्लभसूरि । ३६. गुणरत्नोपाध्याय -[ सं० १५०१ ] यः स्फुर्जत्कलिकालकुण्डलिकरालाऽऽस्यस्थिते: दुःस्थिते, लोकेस्मिन्नवधूयकुग्रहविषं सिद्धान्तमन्त्राक्षरैः । चक्रे तन्मुखमुद्रया वसुकृते सज्जं स्वमत्या वरं, ३७. जयसागरोपाध्याय - [सं० १५०३ ] श्रीवीरशासनाम्भोधिसमुल्लासनशीतगोः । सूरेभयदेवस्य नवाङ्गवृत्तिवेधसः ॥ पट्टालङ्कारसार श्री: सूरि : श्रीजिनवल्लभः ॥ स श्रीमान् जिनवल्लभोऽजनि गुरुस्तस्मान्महामन्त्रवित् ॥ ६ ॥ - षष्टिशतक- टीका-प्रशस्तिः ३८. महेश्वर कवि - [सं० १५०४] एतत्कुले श्रीजिनवल्लभाख्यो गुरुः ३९. लक्ष्मीसेन - [सं० १५१३ ] - पृथ्वीचन्द्रचरित्र - प्रशस्तिः प० २ - ३ परिशिष्ट क्व जिनवल्लभसूरि सरस्वती, क्व च शिशोर्मम वाग्विभवोदयः । - काव्यमनोहर सर्ग ७, प० ३५ ४०. साधुसोमोपाध्याय - [सं० १५१९ ] जिनवल्लभसूरीन्द्रसूक्तिमौक्तिकपंक्तयः । दर्शितार्थः सुदृष्टीनां सुखग्राह्या भवन्त्विति ॥ ६ ॥ - सङ्घपट्टक- टीका- मंगलाचरण प० १ - चरित्र - पञ्चकवृत्ति - प्रशस्तिः ६ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि રૂર ४१. कमलसंयमोपाध्याय-[सं० १५४४] विचारवद्वाङ्मयवारधाता, गुरुर्गरीयान् जिनवल्लभोऽभूत्। । सूत्रोक्तमार्गाचरणोपदेश-प्रावीण्यपात्रं न हि यादृशोऽन्यः॥४॥ -उत्तराध्ययनसूत्र ‘सर्वार्थसिद्धि' टीका-प्रशस्तिः ४२. पद्ममन्दिर गणि-[सं० १५५३ ] प्राप्तोपसम्पद्विभवस्तदन्ते, द्विधाऽपि सूरिर्जिनवल्लभोऽभूत्। जग्रन्थ यो गन्थमनर्थसार्थ-प्रमाथिनं तीव्रक्रियाकठोरः॥७॥ -ऋषिमण्डल-वृत्ति-प्रशस्तिः ४३. युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि-[सं० १६१७] तत्पट्टपद्मवनबोधनराजहंसाः, विश्वातिशायिचरणामलशीलहंसाः। चारित्रचारुमनसो विहितोपकाराः, सप्रातिहार्य-जिनवल्लभ-नामधाराः॥६॥ चामुण्डाप्रतिबोधका निजगुणैः श्रीचित्रकूटे स्फुटं, मूलोन्मूलितकुग्रहोग्रफलिनाः सत्साधुमार्गादराः। मिथ्यात्वान्धतमोनिरासरवयः प्रख्यातसत्कीर्तयः पूज्यश्रीजिनवल्लभाख्यगुरवस्ते सङ्घभद्रङ्कराः॥७॥ -पौषधविधिप्रकरण-टीका-प्रशस्तिः ४४. महोपाध्याय पुण्यसागर-[सं० १६४०] स जयताज्जगति जनवल्लभः, परहितैकपरो जिनवल्लभः। चतुरचेतसि यस्य चमत्कृति, रचयतीह चिरं रुचिरं वचः॥ २॥ -प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्य-टीका-मंगलाचरण ४५. अज्ञात-[लेखन सं० १६४०] विमलप्रज्ञाशालिबुधजनितानवद्यविद्याधरीसङ्गमोन्मुखप्रवृत्तेन तेनैव श्रुतमकरन्दस्वादलुब्ध यद् पदे नै वानवर तासेव्यमानचरणारविन्दः आसीजिनवल्लभाभिधानः सूरिः। -प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यावचूरि-अवतरणिका Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂર૬ परिशिष्ट - ६ ४६. समयसुन्दरोपाध्याय-[सं० १६४६] कृत्वा समीपेऽभयदेवसूरिं, येनोपसम्पद्ग्रहणं प्रमोदात् । पपौ रहस्यामृतमागमानां, सूरिस्ततः श्रीजिनवल्लभोऽभूत् ॥११॥ -अष्टलक्षार्थी-प्रशस्तिः ४७. जयसोमोपाध्याय-[सं० १६५०] श्रीजिनवल्लभसूरिस्ततोऽभवद् व्रतधुरैकधौरेयः। चण्डाऽपि हि चामुण्डा यत्सान्निध्यादचण्डाभूत् ॥ ५०८ ॥ __-कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तन-काव्य ४८. गुणविनयोपाध्याय-[सं० १६५१] सोऽभूदभयदेवाख्यः सूरिः श्रीजिनवल्लभः। ज्ञानदर्शनचारित्रपात्रं भेजे ततो भृशम् ॥ ७ ॥ येन चण्डापि चामुण्डा दर्शनं प्रापिता गुणैः। कर्ता पिण्डविशुद्ध्यादि-शास्त्राणां तत्त्वशालिनाम् ॥ ८॥ -सम्बोधसप्तति-टीका-प्रशस्तिः ४९. ज्ञानविमलोपाध्याय-[सं० १६५४] तत्पट्टे च विरेजुः कर्मग्रन्थादिशास्त्रकर्तारः। वैराग्यैकनिधानाः श्रीमज्जिनवल्लभाचार्याः ॥ ३॥ -शब्दभेदप्रकाश-टीका-प्रशस्तिः ५०. श्रीवल्लभोपाध्याय-[सं० १६५४] . तत्पट्टे जिनवल्लभसूरिवराः सर्वशास्त्रपारीणाः॥२॥ -हैमनाममालाशिलोञ्छ-टीका-प्रशस्तिः ५१. सुमतिवर्द्धनोपाध्याय-[सं० १८७४ ] सत्प्रज्ञा हि जिनादिवल्लभगणाधीशा जगद्विश्रुताश्चामुण्डाभिधदेवताऽर्चितपदा आशुर्जिताक्षव्रजाः॥५॥ -समरादित्यकेवलीचरित्र-प्रशस्तिः חחח Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय विनयसागर जन्मतिथि: 1 जुलाई, 1929 माता-पिता :स्व. श्री सुखलाल जी झाबक, स्व. श्रीमती पानी बाई गुरु : आचार्य स्व. श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज शैक्षणिक योग्यता: 1. साहित्य महोपाध्याय 2. साहित्याचार्य 3. जैन दर्शनशास्त्री 4. साहित्यरत्न (संस्कृत-हिन्दी) आदि सामाजिक उपाधियाँ: शास्त्रविशारद, उपाध्याय, महामनीषी, महोपाध्याय, विद्वद्रत्न सम्मानित: राजस्थान शासन शिक्षा विभाग, जयपुर नाहर सम्मान पुरस्कार, मुम्बई साहित्य वाचस्पति : हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की सर्वोच्च मानद उपाधि साहित्य सेवा: सन् 1948 से निरन्तर शोध, लेखन, अनुवाद, संशोधन/संपादन; वल्लभ-भारती, कल्पसूत्र आदि विविध विषयों के 51 ग्रन्थ प्रकाशित और प्राकृत भारती अकादमी के 171 प्रकाशनों का सम्पादन; शोधपूर्ण पचासों निबन्ध प्रकाशित। भाषा एवं लिपिज्ञान प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी भाषाओं एवं पुरालिपि का विशेष ज्ञान। कार्य क्षेत्र: सन् 1977 से प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर के निदेशक एवं संयुक्त सचिव पद पर कार्यरत।