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________________ पदावली, चित्रकाव्य-गरिमा, अलंकारों का सम्मिश्रण तथा विविधतामयी छंद योजना इसको एक विशेष महत्त्व प्रदान करते हैं। प्रस्तुत काव्य में जीवन में आचरणीय १८ विषयों का प्रतिपादन बहुत ही मार्मिक शैली से किया गया है। प्रस्तुत अठारह विषयों में देव गुरु और धर्म तीनों की प्रमुखता बतलाते हुए इनकी आराधना-पद्धति, तज्जनित फल और सांसारिक पदार्थों की नश्वरता से उत्पन्न दुःख तथा उनके निवारण के हेतुओं का विवेचन बहुत ही सरल शब्दों में किया गया है। १८ विषय निम्नलिखित हैं: भक्ति श्चैत्येषु शक्तिस्तपसि गुणिजने सक्तिरर्थे विरक्तिः, प्रीतिस्तत्त्वे प्रतीतिः शुभगुरुषु भवाद् भीतिरुद्धात्मनीतिः। क्षान्तिः दान्तिः स्वशान्तिः स्वहतिरबलावान्तिरभ्रान्तिराप्ते, ज्ञीप्सा दित्सा विधित्सा श्रुत-धन-विनयेष्वस्तु धीः पुस्तके च ॥ उक्त प्रत्येक विषय का दो-दो पद्यों में प्रतिपादन किया गया है। प्रथम और अन्तिम पद्य चक्रबन्धकाव्यरूप में है जिसमें कवि ने अपना नाम 'जिनवल्लभगणिवचनमिदम्' और 'गणिजिनवल्लभवचनमदः' सूचित किया है। इस परिपाटी की रचना श्वेताम्बर जैन साहित्य में सम्भवतः सर्वप्रथम आचार्य जिनवल्लभ ने ही की है। इसके अनुकरण पर तो परवर्ती कवियों ने अनेक रचनायें की हैं जिनमें सोमप्रभाचार्य प्रणीत सिन्दूरप्रकर आदि मुख्य हैं। इस धर्म शिक्षा प्रकरण का मूल प्रकाशित है। श्री जिनपालोपाध्याय कृत टीका सहित ग्रंथ का मैं सम्पादन कर रहा हूँ, जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा। ११. सङ्घपट्टक - इस काव्य की रचना में गणिजी के जीवन का चरमोत्कर्ष निहित है। उपसम्पदा के पश्चात् आपने चैत्यवास का सक्रिय विरोध कर उसके आमूलोछेच्दन करने का प्रयत्न किया और इस प्रयत्न में इनको पूर्ण सफलता भी प्राप्त हुई। गणिजी ने इस लघु काव्य में तत्कालीन चैत्यवासी आचार्यों की शिथिलता, उनकी उन्मार्ग-प्ररूपणा और सुविहितपथप्रकाशक गुणिजनों के प्रति द्वेष इत्यादि विषयों का सुन्दर चित्र प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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