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मखौल उड़ाते हुये सुविहित धर्म की ओर भव्यों को आकृष्ट करने का प्रयत्न किया है।
यह मूल ग्रंथ सुमिण-सतरी के नाम से सिरिपयरणसंदोह में प्रकाशित है। ९. द्वादशकुलकानि - कवि ने अपना जीवन केवल वैधानिकचर्चाओं और प्रौढ-साहित्यिक रचनाओं में ही नहीं बिताया है। वह धर्मप्रचार का लक्ष्य भी रखता है। इसीलिये उसने द्वादशकुलकों और धर्मशिक्षा प्रभृति औपदेशिक ग्रंथों का प्रणयन किया है। सर्वत्र स्थलों में स्वयं का विचरण असंभव है, स्वीकार कर अन्य प्रदेशों में उपदेशों के साथ-साथ वैधानिक सुविहित-पथ का भी प्रचार हो इस दृष्टि को लक्ष्य में रख कर, गणदेव नामक उपासक को साहित्यक-प्रचारक बना कर, प्रस्तुत ग्रंथनिर्माण कर, बागड देश में प्रचारार्थ भेजा। श्रावक गणदेव ने भी स्थानस्थान पर जाकर द्वादशकुलकों का खूब प्रचार किया और सामान्य जनता को धर्म के प्रति आकृष्ट किया। इसका फल इनके पट्टधर आचार्यों जिनदत्तसूरि आदि को विशिष्ट रूप से प्राप्त हुआ।
इस ग्रंथ में कुल १२ कुलक हैं और ये सभी कुलक परस्पर सम्बद्ध होते हुए भी मौलिक काव्य की तरह स्वतंत्र भी हैं। इसीलिये कवि ने इस ग्रंथ का नाम भी द्वादशकुलकानि रखा है। प्रस्तुत ग्रंथ औपदेशिक होने पर भी कवि ने अपनी स्वाभाविक प्रतिभा से, लाक्षणिक दृष्टि से लिख कर इसे प्रासाद एवं माधुर्य गुणमय काव्य का रूप प्रदान कर दिया है। इसका पठन करने पर पाठकों को उपदेश के साथ-साथ काव्य-गरिमा का आस्वादन भी होता है। यह ग्रंथ जिनपालोपाध्याय कृत टीका सहित श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत से प्रकाशित है। १०. धर्म-शिक्षा-प्रकरण - कवि ने इस काव्य की सृष्टि भव्यजीवोपकारार्थ ही की है। यह श्लोक संख्या की अपेक्षा तो अत्यंत ही लघु काव्य है किन्तु प्रसाद और ओज संयुक्त होने से इसकी कोमल-कान्त
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