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________________ उपस्थित करते हुए विधिपक्ष के व्यावहारिक आचार का विवेचन किया है। संघ (विधिपक्ष) का पट्टक (विधानशास्त्र) होने से कवि ने इसका नाम भी संघपट्टक किया है। इस काव्य में ४० पद्य हैं। इस लघु काव्यात्मक वैधानिक एवं चार्चिक ग्रंथ में भी गणिजी ने निदर्शना, अप्रस्तुत-प्रशंसा, अर्थान्तरन्यास, तुल्ययोगिता, रूपक, उपमा, अनुप्रासादि अलंकारों तथा स्रग्धरा आदि ८ प्रकार के छन्दों के प्रयोग द्वारा अपनी बहुमुखी प्रतिभा का सुन्दर परिचय दिया है। समग्र काव्य ओज गुण से परिपूर्ण होने के कारण पाठक के हृदय को पुलकित करता है। यह ग्रंथ श्री जिनपतिसूरि कृत बृहद टीका सहित श्री जेठालाल दलसुख, अहमदाबाद द्वारा एवं साधुकीर्तिगणि, श्री लक्ष्मीसेन और हर्षराजोपाध्याय रचित तीन टीकाओं के साथ श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत से प्रकाशित है। १२. शृङ्गारशतकाव्यम् - कवि की साहित्यिक कृतियों में श्रृंगार शतक का विशेष स्थान है। कवि की यह रचना आचार्य अभयदेव के पास उपसम्पदा ग्रहण करने के पूर्व की है। 'तत्काव्यदीक्षागुरुं' वाक्योल्लेख से स्पष्ट है कि कूर्चपुरीय आचार्य जिनेश्वर की ओर इनका संकेत है। उ० जिनपाल और सुमति गणि ने भी स्वीकार किया है कि व्याकरण, साहित्य, अलंकार, छंद, न्याय, दर्शन, आदि का अध्ययन और दीक्षा आचार्य जिनेश्वर से ही कवि ने प्राप्त की थी और जैनागमों का अभ्यास तथा उपसम्पदा आचार्य अभयदेव से ग्रहण की थी। कवि ने भरत का नाट्यशास्त्र और कामतन्त्र का अध्ययन कर इस शतक की रचना की है। इस शतक में कुल १२१ पद्य हैं। वियोगिनी, अनुष्टप्, वसन्ततिलका, मालिनी, मन्दाक्रान्ता, हरिणी, शिखरिणी, पृथ्वी, शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा आदि छन्दों का प्रयोग कवि ने स्वतंत्रता से किया है। इस शतक की विशेषता और काव्यत्व के सम्बन्ध में मैंने वल्लभ भारती प्रथम खण्ड पृ० १२८ से १३३ तक चर्चा की है, वह द्रष्टव्य है। यह ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है। इसकी वि०सं० १५०७ की लिखित एक मात्र प्रति ५० वर्ष पहले श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञान भण्डार, प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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