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जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि
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सुत्तेण चोइओ जो, अन्नं उद्दिसिय तं न पडिवजे। सो तंतवायवज्झो, न होइ धम्मम्मि अहिगारी ॥ ३८॥ सुयवज्झाचरणरया, पमाणयंता तहाविहं लोगं । भुवनगुरुणो वराया, पमाणयं नावगच्छन्ति ॥ ३९ ।। तह कहवि संपयट्टो, कालवसा जणवओ अमग्गम्मि। जह रायपहपयट्टाण आणए हंदि वयणिज्जं ॥ ४० ॥ अवियाणियपरमत्था, निक्कारणरुट्ठदुट्ठजणवयणं । तत्तंति मुणिय मूढा, लुणंति जीहाइ ही डब्भं ॥ ४१ ॥ दसमच्छे रयवसओ, मिच्छत्तच्छाइए बहुजणम्मि। उल्लसिरभासरासिग्गहविहुरे जिणवरमयम्मि॥ ४२॥ गुरुदेवुग्गहभूमीए जत्तओ चेव होइ परिभोगो। इट्ठफलसाहगो सइ, अणिट्ठफलसाहगो इहरा ॥ ४३॥ दुव्विगंधमलस्सा वि तणुरप्पेसऽण्हाणिया। उभओ वाउवहो चेव, तेण टुंति न चेइए॥ ४४ ॥ जइवि न आहाकम्मं, भत्तिकयं तहवि वज्जयंतेहिं । भत्ती खलु होइ कया, इहरा आसायणा परमा॥ ४५ ॥ आसायण मिच्छत्तं, आसायणवज्जणा उ सम्मत्तं । आसायणानिमित्तं, कुव्वइ दीहं च संसारं ॥ ४६॥ इच्चाइ सुत्तमवमन्निऊण अवगन्निऊण परलोयं । कूराभिग्गहियमहामिच्छादिट्ठीहि पावेहिं ॥ ४७ ॥ अहमाहमेहिं नामायरियउवज्झायसाहु लिंगीहिं । जिणघरमढआवासो, पकप्पिओ सायसीलेहिं॥ ४८ ।। तो सुत्तविमुहगड्डरिपवाहमित्ताणुसारिचरिएहिं । हिंगुसिवोदाहरणेण इय परं खाइमुवणीओ॥ ४९ ।। अन्नाणियमच्छरदूसिएहि परजीविएहि पावेहिं । गिहिसंजयवेसविडंबगेहिं मुद्धोवजीवीहिं॥ ५० ॥
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