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________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि . भवसयसहस्समहणो, विबोहओ भवियपुंडरीयाणं। धम्मो जिणपण्णत्तो, पकप्पजइणा कहेयव्वो॥ १॥ पकप्पो-निसीहज्झयणं, जेण सावजणवजाणं, वयणाणं जो न जाणइ विसेसं। वुत्तुं पि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं काउं? ॥१॥ अन्नं च किं इत्तो कट्ठयरं, समं अणहिगयसमयसब्भावो। अण्णं कुदेसणाए, कट्ठयरागम्मि पाडेइ॥ २॥ एवंविहा य बहुअसुहकम्मसंचोइया, दुरहीयकुनयलवमयविमोहिया जिणमयं अयाणंता। जिणवयणमनहा भासिऊण अहरं गई जंति॥१॥ जं पुण पढइ सुणेइ, जणस्स धम्मं कहेइ इच्चाइ। तं पच्छाकडविसयं, तेणवि जइ तं पुराऽहीयं ॥ २॥, पयडं चेयं, अलं पसंगेण। गीयत्थसाहुसंभवे य सबहुमाणं तप्पज्जुवासणपरो अवस्सं सिद्धतसारसवणं विहिणा करेइ। भणियं च तित्थे सुत्तत्थाणं, गहणं विहिणा उ एत्थ तित्थमिणं। उभयन्नू चेव गुरू, विही उ विणयाइओ चित्तो॥१॥ तहा सुत्ता अत्थे जत्तो, अहिगयरो नवरि होइ कायव्वो। एत्तो उभयविसुद्धि त्ति सूयगं केवलं सुत्तं ॥ २॥ एवमेव य सावयपयत्थसत्थगत्तंपि। तहाहि संपत्तदंसणाई, पइदियहं जइजणा सुणेई य। सामायारिं परमं, जो खलु तं सावगं बिति॥ १॥ तओ पउणपोरिसीए खमासमणेणं संदिसाविय खमासमणपुव्वमेव पडिलेहणं करेमि त्ति भणिय मुहणंतगं पडिलेहित्ता संभवि भंडोवगरणं पडिलेहेइ। मज्झे सव्वत्थ सज्झाओ जाव कालवेला। तओ जइ चेइयहरे देववंदणं न कयं तो तं करेइ। चिइवंदणं हि जइ-गिहीहिं अहोरत्ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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