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जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि
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तं लहिय वियसियाओ ताओ तव्वयणसररुहगयाओ।
तुट्ठाओ पुट्ठाओ समगं जायाओ जिट्ठाओ ॥ १३९ ।। अनुपमेयत्वम्
जाया कइणो के के न सुमइणो परमिहोवमं ते वि। पावंति न जेण समं समंतओ सव्वकव्वेण ॥ १४० ॥ उवमिज्जंते संतो संतोसमुविंति जम्मि नो सम्म। असमाणगुणो जो होइ कह णु सो पावए उवमं ॥ १४१॥ जुगपवरगुरुजिणेसरसीसाणं अभयदेवसूरीणं। तित्थभरधरणधवलाणमंतिए जिणमयं विमयं ।। १४३ ॥ सविणयमिह जेण सुयं सप्पणयं तेहि जस्स परिकहियं। कहियाणु सारओ सव्वमुवगयं सुमइणा सम्मं ॥ १४४ ॥ निच्छम्मं भव्वाणं तं पुरओ पयडियं पयत्तेण। अकयसुकयंगिदुल्लह जिणवल्लहसूरिणा जेण ॥ १४५ ।। सो मह सुहविहिसद्धम्मदायगो तित्थनायगो य गुरू। तप्पयपउमं पाविय जाओ जायाणुजाओ हं।। १४६ ॥ तमणुदिणं दिन्नगुणं वंदे जिणवल्लहं पहुँ पयओ।
-गणधरसार्द्धशतक गा० ८५-१४७ कयसावयसंतासो हरिव्व सारंगभग्गसंदेहो। गयसमयदप्पदलणो आसाइयपवरकव्वरसो ॥ १५ ॥ भीमभवकाणणम्मी दंसियगुरुवयणरयणसंदोहो। नीसेससत्तगरुओ सूरी जिणवल्लहो जयइ॥ १६ ॥ उवरिट्ठियसच्चरणो चउरणुओगप्पहाण सच्चरणो। असममयरायमहणो उड्डाहो सहइ जस्स करो ॥ १७ ॥ दंसियनिम्मलनिच्चलदंतगुणोऽगणियसावउत्थभओ। गुरुगिरिगरुओ सरहुव्व सूरि जिणवल्लहो होत्था॥ १८ ॥
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