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जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि
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९. नवमं कुलकम्
इह कुणयभुयंगे जम्ममच्चूतरंगे, दुहजलपडहत्थे नोकसाऊरुमच्छे। परिभमिरकसाउग्गाढगाहे अगाहे, महइ भवसमुद्दे मोहआवत्तरुद्दे ॥ १॥ चिरचियनियकम्मुद्दामसज्जो विवागु-ब्भडफुडरयवेलामज्जिरुम्मज्जिराणं। पुढविजलसमीरग्गीसु लोए असंखे, तरुसु पुणरणंतेऽणंतसो संठियाणं॥ २॥ चउगइकुलकोडीजोणिलक्खेसु भूयो, भमिय गुणियकम्मीभूयदुक्खद्दियाणं। अहह!! गहिरपारावारविक्खित्तमुत्ता-रयणमिव जियाणं दुल्हं माणुसत्तं ॥ ३॥ कहवि तुडिवसेणं तं पि लद्धं सुखित्तुत्तमकुलसुहजाईरूवमारुग्गमाउं। असुलभमवि राहावेहणाएण लद्धं', जइ तह वि हु बुद्धी दुल्लहा सुद्धधम्मे ॥ ४॥ अह कहमवि जाया कागतालीयनाया, जिणमयसुइबुद्धी तो वि से पच्चवाया। भयकुमयकसायालस्सविक्खेववन्ना-रमणकिवणयाहीसोगमोहप्पमाया॥ ५॥ अह कहवि किलेसा तस्सभावत्तकाल-परिणइक्सपत्तापुव्वपुण्णोदएणं। जुगसमिलपवेसन्नायओ मुक्खमूलं, सुणिय जिणवरुत्तं भाविणं च चित्ते॥ ६॥ तह वि हु बहुलाए चंडपासंडियाणं, जिणसमयविरोहा भासरासिग्गहस्स। बहुकुपहपरूढातुच्छमिच्छत्तपित्त-ज्जरविहुरियबोहा हा!! न तं सद्दहंति॥ ७॥ इइ बहुसुहलंभं पाविउं धम्मसद्धं, उवलहिय दुलंभं धम्मसामग्गियं च। खरपवणपणुल्लूत्तालतूलं व लोलं, मुणिय भवसरूवं सुत्तवुत्तं करेह ॥ ८॥ पडिहणियकसाए सिद्धिबद्धाणुराए, विहिअहिगयसुत्ते तस्स आणाइ जुत्ते। फुडपयडियतत्ते साहुणो निम्ममत्ते, सुहगुरुपरतंते पज्जुवासेह दंते ॥ ९॥ विणयनयपहाणा वत्थुवीमंसमेसिं, पयपउमसमीवे सव्वकालं करेह। गयभयमयमायामच्छरा तत्तकंखी, नियविसयविभागे तं सया संठवेह॥ १० ॥ अमयमिव मुणंता ताण वुत्तं कुणंता, दलह सबहुमाणं तेसि भत्तीऍ दाणं। धरह अकयहीलं सोचियं चारु सीलं, भयह तवविहाणं भावणं भावणाणं॥ ११ ॥
१. 'लढुं' इति अ०।
२. 'इह' इति अ०।
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