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नवकार-स्तोत्रम्
(४) पनरभेय जे सिद्ध बीय पय जे आराहइ, राता विद्दुम तणइ धन्नि सिरि सोहग साह इ । राती धोवति पहिरि जपइ सिद्धह पुव्वह दिसि, सयल लोय तिह नरह होइ तत्तक्खिण सवि वसि ॥ मूलमंत्र वसिकरण हुय, अवर सहू जगि धंध। मणि मूली ओषध करइ, बुद्धिहीण जाचंध ॥ ४॥
दक्षिणि दिसि पंखुडिय जपि नमो आयरियाणं, सोवन्न वन्नह सीस सहित सिरि उपरि भाणं । पहिरिय पीला वत्थ ते य मन वंछित पावहि, रिद्धि सिद्धि कारणहि लाभ जे ऊपरि ध्यावइ॥ इणि झाणहि नवनिधि हुवइ, रोग कदहि नवि होइ। गज रथ हयवर पालखी, चमर छत्र सिरि जोइ ॥ ५॥
(६) नीलवन उवझाय सीस पाढं ता पच्छिम, आराहिज्जइ अंगपुव्व धारंति मणोरम। पच्छि मदिसि पंखुडिय कमल ऊपरि जे झाणं, पहिरवि नीला वत्थ तेह गुरु-वयण पमाणं ।। गुरु लहु लख हित जे विदुर, तिह नर बहु फल हुंति। मन सुद्धि विहूणा जे जपइ, तह नर सिद्धि न हुंति ॥ ६॥
(७) सर्व साधु उत्तर विभाग सामला बइट्ठा, जिणधर्म लोयपयासयंतु चारितगुणजिट्ठा। मण वयणहि काएह जपइ जे एकहिं ठाणइं, पंचवन्ना विह झाण जाण गुरु एह प्रमाणइं॥
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