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४५. नवकार-स्तोत्रम्
(१)
किं कप्पत्तरु रे अयाण चिंतइ मणब्भिंतरि, किं चिंतामणि कामधेनु आराहइ बहुपरि । चित्रावेली काज किसउ देसंतर लंघइ, रयणरासि कारणिहि किसउ सायर उल्लंघइ ॥ चवदह पूरव सार जगे, लद्ध एह नवकार। सयलकाजि महियलि सरइ, दुत्तर तरइ संसार ॥ १॥
(२) केवलिभासिय रीति जिके नवकार आराहइ, भोगवि सुक्ख अनंत अंति परमप्पह साहइ। इणि झाणहि सुररिद्धि पुत्त सुह विलसइ बहुपरि, इणि झाणहि सुरलोक, इंद्र पद पायइ सुंदरि ॥ एह मंत्र सासतउ जगि, अचिंत चिंतामणि एह । समरणि पाप सवे टलइ, रिद्धि सिद्धि नव गेहि ॥ २॥
नियसिरि उप्परि झाण मज्झि चिंतवइ कमलनर, कंचणमइ अठदलसहित तिह मांहि कनकवर । तिहिं बइठां अरिहंत देव परमासणि फिटकमणि, सेयवत्थ पहिरेवि पढमपय चिंतवइ निय मणि ।। निव्वारिय चउगइ गमण, पामिय सासय सुक्ख। अरिहंत झाणहि जे मिलउ, तुह अजरामर मुक्ख ॥ ३॥
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