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________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि . अनंत चउवीसी जगि हुइए, होस्यइ अवर अंनत। आदि कोइ जाणइ नही, एह नवकार महंत ॥ ७॥ - (८) एसो पंचनमुक्कारो पद दिसि अगनेई, सव्व पावप्पणासणो य पद जपइ नीरेई। वायवदिसि झाएहि मंगलाणं च सव्वेसिं, पढ मं हवइ मंगलं ईसाण विदेसिं ॥ चिहुं दिसि चिहुं विदिसइ मिलिय, अठ दल कमल ठवेइ। जो गुरु लघु जाणी जपइ, सो घण पाव खवेइ ॥ ८॥ इणि प्रभावि धरणिंद हू अउ पायालहि सामी, समली कुमर उप्पन्न भिल्ल सुरलोयह गामी। संबल कं बल बे बलद्द पहु ता देवह गति, सूली दीधउ चोर देव थउ नवकारहि जपि ॥ सिवकुमार मनि वंछि करे, जोगी लीध मसाणि। सोना पुरिसर सीधलउ, इणि नवकार प्रमाणि ॥ ९॥ (१०) छीकइ बइठउ चोर एक आगासइ गामी, अहि फुट्टवि हुई फुल्लमाल नवकारह नामी। बछरुआ चारंति बाल जल-नदीय प्रवाहइ, बींधिउ कंटिहि उवरि मंत्र जपिउ मन मांहि ।। चिंत्या काज सवे फलइए, ईरति परति विमासि। पालितसूरि तणी परइ, सीझइ विज्झ अगासि ॥ १०॥ (११) चोर धाडि संकट टलइ, राजा वसि होइ, तित्थंकर सो हवइ लक्ख गुण विधि संजोइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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