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________________ जिनवल्लभसूरि रचित उक्त साहित्य सूची से यह स्पष्ट है कि उनकी वर्तमान समय में ४५ रचनाएं प्राप्त है। इनमें से क्रमांक १, २, ४ कर्मसिद्धान्त, नं०३ आचारशास्त्र, ५ से ७ विधि शास्त्र, ८ से ९ औपदेशिक, १० खण्डनमण्डन, ११ स्वप्रशास्त्र, १२ से.१५ काव्य, १६ से २१ लघु चरित्र, २२ से ३३ प्राकृत भाषा में निबद्ध स्तोत्र साहित्य, ३३ सम-संस्कृत प्राकृत भाषा में रचित स्तोत्र, ३४ से ४४ तक संस्कृत भाषा में रचित स्तोत्र और ४५ अपभ्रंश में रचित स्तोत्र। भारतीय साहित्य में यह असाधारण घटना है कि किसी कवि/ लेखक की रचना पर उनके स्वर्गवास के एक वर्ष पश्चात् से ही टीकाएँ रची गई हों। वि० सं० ११७० से १८०० तक बृहद्गच्छीय, चन्द्रकुलीय, चन्द्रगच्छीय, राजगच्छीय, तपागच्छीय, खरतरगच्छीय, आप्त एवं धुरंधर आचार्यों/विद्वानों ने १४ ग्रंथों पर ७३ टीकाओं की रचना की। अज्ञात कर्तृक १४ संख्या कम करने पर भी मुनिचन्द्रसूरि, धनेश्वरसूरि, महेश्वराचार्य, चक्रेश्वराचार्य, मलयगिरि, यशोदेवसूरि, यशोभद्रसूरि, उदयसिंहसूरि, अजितदेवसूरि, जिनपतिसूरि, जिनपालोपाध्याय, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि, संवेगदेवगणि आदि साक्षर विद्वानों ने अपनी-अपनी टीकाओं में नवांगी टीकाकारक अभयदेवसूरि के शिष्य 'जिन' अर्थात जिनेश्वरों के 'वल्लभ' अर्थात् अत्यन्त प्रिय जिनवल्लभसूरि को सिद्धांतविद् एवं आप्त मानते हुए टीकाओं के माध्यम से अपनी भावांजली प्रस्तुत की है। जिनवल्लभसूरि का भाषा ज्ञान और शब्द कोश अक्षय था। वे प्राकृत और संस्कृत भाषा के उच्चकोटी के विद्वान् थे और इन भाषाओं पर उनका पूर्ण प्रभुत्व था। ग्रन्थों का सारांश एवं वैशिष्ट्य जिनवल्लभ गणि द्वारा प्रणीत ग्रंथों का परिचय मैंने वल्लभ-भारती प्रथम खण्ड के पृष्ठ ८७ से १२४ तक परिचय दिये हैं अतः पुनरावृत्ति न हो इसी कारण इन ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय ही प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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