________________
१. सूक्षमार्थविचारसारोद्धार-प्रकरण - इस ग्रंथ में कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि कर्म-सिद्धान्त के विविध ग्रंथों का आलोडन कर नवनीत की तरह संक्षेप में कर्म-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है, इसीलिये कवि ने इसका नाम सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार-प्रकरण रखा है। इसका अपरनाम सार्द्धशतक प्रकरण है जो इसकी १५२ पद्य-संख्या का सूचक है। इस लघुकायिक ग्रंथ में कर्म-प्रकृति के सिद्धान्त, मूल-उत्तरभेद, प्रकृति भेद, बन्ध, अल्पबहुत्व, स्थिति, योग, रस, उदय और गुणस्थान आदि का वैशिष्ट्य पूर्ण प्रतिपादन होने से सारोद्धार नाम सार्थक ही है जो कवि के सैद्धान्तिक ज्ञान की अगाधता और उक्ति-लाघव की ओर संकेत करता है।
१५२ आर्याओं में विवेचनीय अत्यधिक वस्तुओं का अति संक्षेप होने के कारण इसका प्रचार बहुत ही हुआ प्रतीत होता है। यही कारण है कि आज भी भंडारों में इसकी सैकड़ों की संख्या में प्रतियाँ प्राप्त हैं । तत्समय के धुरन्धर विद्वान् श्री धनेश्वरसूरि द्वारा सम्वत् ११७१ में रचित टीका के साथ यह ग्रंथ जैन धर्म प्रसारक सभा भावनगर से प्रकाशित हो चुका है। २. आगमिकवस्तुविचारसार-प्रकरण - इस ग्रंथ में कवि ने पूर्वर्षि प्रणीत आगमिक जीव, मार्गणा, गुणस्थान, उपयोग और लेश्या आदि विषयों का विवेचन होने से इसका यथानुरूप आगमिकवस्तुविचारसार नामकरण किया है। इसका एक अपरनाम भी है, वह है 'षडशीति'। इस नामकरण का रहस्य यह है कि उपर्युक्त समग्र वस्तुओं का विवेचन केवल ८६ आर्याओं में ही हुआ है। इसीलिये इस बृहन्नाम का लघु संस्करण हुआ है, जो विशेष प्रसिद्ध है। इसमें आदि से अन्त तक आर्यानामक वृत्त का ही अनुकरण हुआ है।
इस लघु-कायिक ग्रंथ की उपयोगिता इतनी अधिक सिद्ध हुई कि समग्र गच्छवालों ने इसे आदृत किया। केवल आदृत ही नहीं किन्तु पठनपाठन कर महत्ता सिद्ध की। यही कारण है कि आज भी इसकी सैकड़ों की संख्या में लिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं जो इसके प्रचार को प्रकट करती हैं। इसी षडशीति के अनुकरण पर तपागच्छीय श्री देवेन्द्रसूरि ने षडशीति नामक
प्रस्तावना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org