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________________ चतुर्थ कर्मग्रंथ की रचना की है। यह ग्रंथ श्री धनेश्वरसूरि और हरिभद्रसूरि सहित टीकाओं के साथ 'सटीकाश्चत्वारः कर्मग्रंथाः' के नाम से आत्मानंद जैन सभा, भावनगर से प्रकाशित है। ३. सर्वजीवशरीरावगाहना स्तव - भगवतीसूत्र (विवाह प्रज्ञप्ति) के २५वें शतक के तृतीय उद्देशक का आधार लेकर प्राकृत भाषा में ८ आर्याओं में इसकी रचना की गई है। इसका वर्ण्य विषय है - सूक्ष्म, बादर, अपर्याप्त, पर्याप्त, ज्येष्ठ, इतर के देह भेद, तथा पाँचों ही निगोद, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय देह की अवगाहना तथा इनका क्रमशः अल्प-बहुत्व का शास्त्रीय दृष्टि से विवेचन । गणिजी ने इस सैद्धान्तिक एवं मार्मिक विषय को भी सरलता से प्रतिपादन करने में सफलता प्राप्त की है। ४. पिण्डविशुद्धि-प्रकरण - आत्म-साधना की दृष्टि से पिण्ड/भोजन की शुद्धि होना अत्यावश्यक है, अन्यथा जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन' की उक्ति के अनुसार मानसिक शुद्धि नहीं हो सकती। इसीलिये श्रमण-संस्कृति एवं श्रमण-परम्परा में संयमी मुनियों के लिये शुद्ध अन्न का ग्रहण परमावश्यक समझा गया है। पूर्व में श्रुतधर श्रीशयम्भवसूरि ने दशवैकालिक सूत्र में और आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने पिण्डनियुक्ति में इस विषय का बहुत ही विस्तृत और सुन्दर प्रतिपादन किया है। परन्तु वह विस्तृत होने के कारण कंठस्थ करने में अल्पबुद्धिवालों की असमर्थता देखकर आचार्य जिनवल्लभ ने पिण्डविशुद्धि नाम से इस प्रकरण की रचना की। उक्त प्रकरण में प्ररूपित ४७ दोष निम्नलिखित हैं- गवेषणा के १६, एषणा १६, ग्रहणैषणा के १० और ग्रासैषणा के पाँच, इस प्रकार कुल ४७ होते हैं। उक्त भोजन-शुद्धि के ४७ दोषों का अनेकों भांगों सहित विवेचन १०३ श्लोक के छोटे से प्रकरण में, वह भी आर्या जैसे लघु मात्रिक छन्द में ग्रथित करना गणिजी का उक्तिलाघव और छन्दयोजना का चातुर्य प्रकट करता है। यह ग्रंथ श्रीचन्द्रसूरि कृत टीका सहित विजयदानसूरि ग्रंथमाला, सूरत और यशोदेवसूरि कृत लघुवृत्ति और उदयसिंहसूरि रचित दीपिका सहित जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, बम्बई से प्रकाशित है। प्रस्तावना रचना का। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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