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________________ श्रावकव्रत- कुलक - प्राकृत भाषा में २८ आर्याओं में रचित इस कुलक को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि युगप्रवरागम श्री अभयदेवसूरि के पास उपसम्पदा ग्रहण करने के पश्चात् किसी भक्त श्रावक ने आपके पास सम्यक्त्व सहित बारह व्रत ग्रहण किये थे । प्रस्तुत कुलक में यह तो स्पष्ट नहीं है कि किस संवत् में और किस श्रावक ने आपके पास व्रत ग्रहण किये थे? किन्तु यह तो स्पष्ट है कि लेने वाला श्रावक बाहड़मेरु (मारवाड़) के आस-पास का निवासी था । इसका नाम अन्य प्रति में 'परिग्रहपरिमाण कुलक' भी लिखा मिलता है, किन्तु इसमें केवल एक परिग्रह का ही परिमाण नहीं है अपितु समग्रव्रतों का है । अतः उपर्युक्त नाम उपयुक्त ही प्रतीत होता है। इसमें कुलक 'के स्थान पर लेखक टिप्पणिका का नाम रखता तो अधिक उपयुक्त होता, क्योंकि इसमें त्याज्य और मर्यादित वस्तुओं का ही टिप्पन के रूप में लेखन किया है न कि वर्णन के रूप में । गाथा १२ में 'बाहड़मेरु माणं' शब्द से उस समय में प्रचलित वस्तु परिमाण - तौल सूचक का प्रयोग किया है । यह प्रयोग ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। संभव है उस समय राजस्थान प्रदेश में बाहड़मेरी मान का प्रचार होगा । यह कुलक अभी तक अप्रकाशित है। ६. पौषधविधि- प्रकरण विधि-पक्ष के अनुयायी श्रमण-वर्ग के लिये नूतन आचार-ग्रंथ की कोई आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि आचारग्रंथ के आगम मौजूद थे अतः उपासकों को लक्ष्य में रखकर पौषधविधि प्रकरण एवं प्रतिक्रमण - समाचारी नामक दोनों ग्रंथों की रचना की गई है। इसीलिये कवि को मंगलाचरण में यह वस्तु स्पष्ट करनी पड़ी है । कवि कहता है कि दसविध यतिधर्म का प्रकाशन करने वाले जिनेश्वर - देवों ने पौषधविधान की उपासकों के लिये प्ररूपणा की है। जो उपासक संसार से विरत होकर आत्मिक-सुख का अनुभव करना चाहता है तथा जो व्रत, प्रतिमा, सन्ध्याविधि, पूजा इत्यादि श्रावकीय धर्मकृत्यों द्वारा कल्याण पथ पर अग्रसर होना चाहता है उसे चतुर्दशी, अष्टमी, पर्युषणादि पर्व - दिवसों में साधु के पास अथवा प्रस्तावना Jain Education International 18 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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