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पौषधशाला या एकान्त गृहप्रदेश में पौषध अवश्य करना चाहिये। आप्त आचार्य श्री हरिभद्रसूरि आदि आचार्यों द्वारा यह परम्परा मान्य है किन्तु परवर्ती कुछ श्रमणों ने पाठों को मनोकल्पित प्रस्तुत कर परम्परा को दूषित किया है।
तदनन्तर पौषध की समग्र विधि का आद्योपान्त वर्णन किया गया है जो आज भी खरतरगच्छ समाज में प्रसिद्ध एवं प्रचलित है। इसलिये इसका वर्णन न कर इसमें विशिष्ट विवेचनीय विषयों का उल्लेख कर रहा हूँ। १. श्रावकों को साधुगण के साथ ही प्रतिक्रमण करना चाहिए। २. पौषधव्रतधारी गीतार्थ- श्रमण के अभाव में उपदेश दे सकता है किन्तु
सभा के सम्मुख प्रावचनिक पद्धति से नहीं। ३. चैत्य में मध्याह्न-काल का देववन्दन करने के पश्चात् यदि उपासक 'आहार पोसही' हो तो जो प्रत्याख्यान एकासन, निवी, अथवा आयम्बिल का किया हो, वह पूर्ण करे। लेखक ने पूर्व में लिखा है - "पादोन पौरुषी व्यतीत होने पर पडिलेहन करूं का आदेश लेकर, भण्डोपकरण अर्थात् थाली, कटोरा आदि पात्रों की प्रमार्जना करे।" उपधान-तप आदि बड़ी तपस्याओं में ही भोजन पात्र रखे जाते हैं, सामान्य एक दिवस के पौषध में नहीं। "जो पुण आहारपोसही देसओ" शब्द से स्पष्ट है। पौषधव्रती राग और द्वेष की परिणति से रहित होकर शास्त्रीय नियमानुसार अपने घर पर अथवा पूर्व निश्चित स्थान पर जाकर भोजन करे। भोजन के लिये एकादश प्रतिमाधारक व्यक्तियों को छोड़कर श्रमण की तरह भ्रमण न करे।
यह प्राकृत भाषा में गद्य और पद्य दोनों में संकलित है। इसमें प्रचुर परिमाण में आगमिक उदाहरण भी दिये गये है। यह पौषधविधि का मूल पाठ 'सिरिपयरणसंदोह' में प्रकाशित है।
प्रस्तावना
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