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७. प्रतिक्रमण-समाचारी - गणिजी का विधि-स्थापन के रूप में यह दूसरा लघुकायिक ग्रंथ है। इसमें साधु और श्रावकों को सर्वदा गुरु के साथ प्रतिक्रमण करने का सुविहित आचार्यों द्वारा स्वीकृत परम्परा के अनुसार विधान किया है। प्रतिक्रमण पाँच प्रकार के होते हैं - १. रात्रि, २. दैवसिक, ३. पाक्षिक, ४. चातुर्मासिक और ५. सांवत्सरिक। पद्य ३ से २४ तक कवि दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि का वर्णन करता है और पद्य २५-३३ में रात्रि प्रतिक्रमण का। पद्य ३५-३९ तक में अवशिष्ट तीनों प्रतिक्रमणों की विशिष्ट विधि का उल्लेख करता हुआ पद्य ४० में अपना नाम देकर उपसंहार करता है।
कवि ने दैवसिक प्रतिक्रमण का विधान 'देवसिय प्रायश्चित्त कायोत्सर्ग' तक ही दिया है तथा रात्रि-प्रतिक्रमण का अन्तिम देववन्दन तक। स्पष्ट है कि वार्तमानिकी विशेष क्रियायें गुरु-परम्परा मात्र की ही बोधक हैं। यह लघु ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित रहा है। ८. स्वप्न-सप्तति - इसका प्राकृत नाम सुमिण-सत्तरी है। आचार्य जिनवल्लभ ने सार्द्धशतक, षडशीति, अष्टसप्ततिका, प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकादि ग्रंथों के समान ही ७१ गाथा के इस ग्रंथ का नाम भी स्वप्नसप्तति या स्वप्नैकसप्तति रखा है।
जिनवल्लभ के प्रायः समस्त ग्रंथों में, प्रारम्भ में मंगलाचरणात्मक तीर्थंकरों को नमस्कार और ग्रंथान्त में स्वयं का नाम प्राप्त होता है, किन्तु स्वप्नसप्तति में इन दोनों का अभाव है।
भगवान् महावीर ने कहा है कि दुषमकाल के अन्तिम समय में, श्री दुप्पसहसूरि तक छेदोपस्थान चारित्र रहेगा, अतः इस दुषमकाल में उक्त चारित्र का अभाव मानना व्यामोह मात्र है। तीर्थंकरों की विद्यमानता में भी आज्ञाबाह्य एवं जिनवचन-विराधकों को उक्त चारित्र कदापि नहीं होता है। अतः भव्यों को चारित्र के प्रति यथाशक्य प्रयत्न करना चाहिये
और व्यामोहित गतानुगतिकमार्ग का त्याग कर, जिनाज्ञा एवं आगमसम्मत चारित्र धर्म का विचार, प्रमाणीकरण तथा उस पर स्थिरता करनी चाहिए।
प्रस्तावना
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