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________________ के शिष्य और जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर अभयदेवसूरि के पास ही है अतः उनके पास भेज कर जिनवल्लभ को आगमिक ज्ञान का भी पारंगत बना दिया जाए। यह सोच कर उन्होंने जिनवल्लभ को गणि पद प्रदान कर जिनशेखर के साथ पाटण भेजा। अभयदेवसूरि के हृदय में भी 'चैत्यवासी शिष्य को आगमवाचना दे या नहीं?' प्रश्न उठा, किन्तु जिनवल्लभ के हृदय में सिद्धान्तवाचना के लिए उत्कट अभिलाषा और योग्य पात्रता देखकर उन्होंने आगमवाचना देना प्रारम्भ किया। थोड़े समय में ही जिनवल्लभ ने आचार्य अभयदेव के पास सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन पूर्ण कर लिया। जिनवल्लभगणि की प्रखर बुद्धि, ज्ञानपिपासा को देख कर उन्हें एक प्रसिद्ध ज्योतिर्विद के पास भेजा गया और उसके पास भी उन्होंने ज्योतिषशास्त्र का गहन अध्ययन कर लिया। अध्ययन के पश्चात् वे पुनः अपने पूर्व-गुरु के पास जाने लगे, उस समय आचार्य अभयदेव ने कहा - 'वत्स! सिद्धान्त के अनुसार जो साधुओं का आचार व्रत है वह सब तुम समझ चुके, अतः उसके अनुसार आचरण करने का प्रयत्न करना।' अभयदेवसूरि के ये वचन जिनवल्लभ के अन्तरात्मा की पुकार थी। उन्होंने अभयदेव आचार्य के चरणों में गिर कर कहा - 'गुरुदेव! आपकी जो आज्ञा है, वैसा ही निश्चित रूप से करूँगा।' वहाँ से प्रयाण कर मरुकोट में ही उन्होंने देवगृह की स्थापना की और सुविहित परम्परा का पालन प्रारम्भ कर दिया। आशिका से चार कोस पूर्व ही अपने पूर्व-गुरु जिनेश्वराचार्य को वहाँ आने का अनुरोध किया चैत्यवासी गुरु आचार्य जिनेश्वर वहाँ आए। शिष्य के आचार-सम्पन्न विचार सुनकर उन्होंने कहा - 'वत्स! मैं स्वयं चैत्यवास के क्रिया-कलाप से असन्तुष्ट था और चाहता था कि तुम्हे यहाँ का अधिपति बना कर मैं स्वयं अभयदेवसूरि के पास सुविहित आचार को स्वीकार कर लूँ किन्तु मैं अभी तक पूर्ण रूप से निर्मोही नहीं बना कि इस सम्पदा का छोड़कर अभयदेवसूरि का शिष्यत्व स्वीकार कर लूं। मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि श्री अभयदेवसूरि के सम्पर्क से तुम नि:संग होकर शुद्ध साध्वाचार का पालन करना चाहते हो। इस युग में सुविहित आचार-सम्पन्न और आगमविज्ञ दूसरा कोई महापुरुष नहीं है। अतः तुम्हें अनुमति प्रदान करता हूँ कि तुम अपने निर्णयानुसार अभयदेवसूरि प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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