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के पास उपसम्पदा प्राप्त कर श्रेयो मार्ग की ओर प्रस्थान करो।' और गुरु की अनुज्ञा प्राप्त कर, उन्हीं कदमों से जिनवल्लभगणि वापस अभयदेवसूरि के चरणकमलों में पाटण पहुँच गये। अपने अन्तरंग शिष्य को वापस आया देखकर अभयदेवसूरि हृदय में अत्यन्त प्रमुदित हुए और जिनवल्लभ को उपसम्पदा प्रदान कर अपना शिष्य घोषित किया तथा सर्वत्र विचरण करने की अनुमति प्रदान की ।
यही कारण है कि जिनवल्लभगणि ने स्वरचित 'प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक काव्य (पद्य १५९) में अपने दीक्षागुरु एवं विद्यागुरु कुर्चपुरगच्छीय जिनेश्वरसूरि को 'मद्गुरवः जिनेश्वरसूरयः' और अष्टसप्तति (पद्य ५२) में स्वयं को (जिनेश्वरसूरिशिष्यः) जिनेश्वरसूरि का शिष्य ही बतलाया है। नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के पास आगमिक विद्या / श्रुत सम्पदा और उप-सम्पदा ग्रहण कर अभयदेवसूरि को सद्गुरु के रूप में स्वीकार किया है। (प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक पद्य १५८) यही बात अष्टसप्तति पद्य ५२ में भी कवि ने स्वीकार की है । इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए बृहद्गच्छीय श्री धनेश्वराचार्य ने (वि०सं० ११७२ में) सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार प्रकरण की टीका करते हुए १५२ वें पद्य की व्याख्या में स्पष्ट लिखा है- "जिणवल्लहगणि' त्ति जिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थसङ्ग्राहिस्थानाङ्गाद्यङ्गोपाङ्गपञ्चाशकादिशास्त्रवृत्तिविधानावाप्तावदातकीर्तिसुधाधवलित धरामण्डलानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्येण 'लिखितं' कर्मप्रकृत्यादिगम्भीर - शास्त्रेभ्यः समुद्धृत्य दृब्धं जिनवल्लभगणिलिखितम्।” अर्थात् जिनवल्लभ के उपसम्पदादायक दीक्षागुरु अभयदेवसूरि ही हैं ।
इसी काल में जिनवल्लभगणि ने जिनेश्वरसूरि के शिष्य और पट्टधर जिनचन्द्रसूरि रचित संवेगरंगशाला का (वि०सं० ११२५ में ) संशोधन किया।
जिनवल्लभगणि की बाल्यावस्था, चैत्यवासी दीक्षा, चैत्यवासी गुरु जिनेश्वराचार्य से समस्त विद्याओं का अध्ययन, अभयदेवसूरि के पास समस्त आगम-शास्त्रों का अध्ययन, उनके पास उपसम्पदा ग्रहण कर संवेगरंगशाला का संशोधन वि०सं० ११२५ में किया। इससे स्पष्ट है कि वि०सं० ११२५
प्रस्तावना
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