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________________ तक जिनवल्लभगणि प्रौढ़ावस्था में होंगे। इन सब अध्ययन को देखते हुए उस समय इनकी अवस्था कम से कम भी ३५ वर्ष की मानी जाए तो इनका जन्मकाल अनुमानतः वि०सं० १०९० के लगभग स्वीकार कर सकते है। जिनवल्लभ गणि क्रांतिकारी विचारक होने के कारण चैत्यवासपरम्परा की कटु आलोचना करते थे। कुछ दिन गुर्जर देश में रहने के पश्चात् जिनवल्लभगणि चित्रकूट (चित्तौड़) आए। चित्तौड़ भी चैत्यवासियों का प्रबल गढ़ था। इन्हें ठहरने का स्थान नहीं मिला। अन्ततः उन्होंने चण्डिका मठ (चामुण्डा के मन्दिर) में रात्रि निवास किया। चण्डिका देवी भी उनके ज्ञान ध्यान, अनुष्ठान और चारित्रिक शुद्धता को देखकर उनकी सिद्धिदात्री बन गई। उनके वैदुष्य और शुद्धाचार की धवल कीर्ति क्रमशः फैलती गई और जैनेतर समाज के अतिरिक्त जैन समाज के श्रावकगण भी चैत्यवासपरम्परा का त्याग कर उनके अनुयायी बनने लगे। जिनवल्लभ रचित अष्टसप्तति (वीर-चैत्य-प्रशस्ति) के अनुसार उनके उपासकों में साधारण, सडक, सुमति, पल्हक, वीरक, मानदेव, धंधक, सोमिलक, वीरदेव आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। चित्रकूट चैत्यवासियों का गढ़ होने के कारण वहाँ विधिचैत्य भी नहीं थे। उनके उपदेश से पार्श्वनाथ और महावीर के विधिचैत्यों का निर्माण हुआ। इन दोनों मंदिरों की प्रतिष्ठा भी जिनवल्लभ गणि ने करवाई। इन दोनों मंदिरों के ध्वंसावशेष भी आज प्राप्त नहीं है किन्तु वीर चैत्य प्रशस्ति (हस्तलिखित ग्रंथ) और पार्श्वचैत्य प्रशस्ति का पाषाण खण्ड आज भी प्राप्त है जिनमें इनका उल्लेख है। कहा जाता है कि इनके प्रभाव को क्षीण करने के लिए किन्हीं मुनिचन्द्राचार्य ने अपने दो शिष्यों को अध्ययन हेतु इनके पास भेजा। जिनवल्लभगणि ने उनको अध्ययन कराना भी प्रारम्भ किया किन्तु उनकी विघटनकारी प्रवृत्तियों को देखकर शास्त्राध्ययन के लिए अयोग्य मान कर विद्यादान देने में मुँह फेर लिया। प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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