SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरुकोट्ट में प्रवचन देते हुए धर्मदासगणि कृत उपदेशमाला के तीसरे पद्य की व्याख्या करते हुए अनेक दृष्टान्त, उदाहरण, सिद्धान्त-प्ररूपण आदि करते-करते छः महीने बीत गये। इससे ऐसा प्रतिभाषित होता है कि ये प्रवचन शक्ति में भी अनुपम प्रतिभा के धारक थे। समस्यापूर्ति में न केवल उनकी प्रतिभा, छन्दयोजना तथा प्रबन्धपटुता का परिचय मिलता है अपितु उनकी प्रत्युत्पन्नमति एवं उक्तिसौष्ठव का भी ज्ञान हमें होता है। किसी विद्वान् के 'कुरङ्गः किं भृङ्गो मरकतमणिः किं किमशनिः' की पूर्ति तत्काल ही उन्होंने इस प्रकार की थी - चिरं चित्तोद्याने चरसि च मुखाब्जं पिबसि च, क्षणादेणाक्षीणां विरहविषमोहं हरसि च। नृप! त्वं मानाद्रिं दलयसि च किं कौतुककरं, कुरङ्गः किं भृङ्गो मरकतमणिः किं किमशनिः॥ धारा नगरी के नरेश नरवर्मा की राज्यसभा में भी किसी विद्वान् ने समस्या रखी थी - 'कण्ठे कुठारः कमठे ठकारः' राज्यसभा के उद्भट विद्वानों द्वारा समस्या-पूर्ति करने पर भी न तो प्रस्तुतकर्ता विद्वान् ही संतुष्ट हो पाया और ना धारा नरेश। जिनवल्लभ की कीर्ति सुनकर धारा नरेश ने इसकी पूर्ति करने के लिए जिनवल्लभगणि के पास अपने अनुचरों को भेजा। जिनवल्लभगणि ने तत्काल ही इसकी इस प्रकार पूर्ति कर दी थी रे रे नृपाः श्रीनरवर्मभूप-प्रसादनाय क्रियतां नताङ्गैः । कण्ठे कुठारः कमठे ठकारश्चक्रे यदश्वोग्रखुराग्रघातैः ॥ इस समस्या-पूर्ति से प्रसन्न होकर धारा नरेश भी जिनवल्लभगणि के परम भक्त बन गये थे। नरवर्म नृपति ने चित्तौड़ के इन दोनों मंदिरों के लिए कुछ भेंट भी प्रदान की थी। इनके कई चमत्कार भी प्रसिद्ध हैं। साधारण श्रावक के परिग्रह परिमाण व्रत धारण के समय गणिजी का भविष्य ज्ञान, स्वर्णलोभी गणदेव प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy