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को निर्मल चित्तधारी श्रावक बनाकर स्वनिर्मित द्वादशकुलक रचना देकर वाग्जड़ (बागड़ ) प्रदेश में उसके द्वारा धर्म प्रचार और चित्तौड़ में ज्योतिर्विद् के साथ ज्योतिष का चमत्कार आदि प्रसिद्ध हैं ।
नागपुर के श्रावक धनदेव द्वारा निर्मित नेमिनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा भी की। धनदेव के पुत्र पद्मानंद द्वारा रचित वैराग्यशतक प्राप्त है। चित्तौड़, नरवर, नागौर, मरुकोट्ट आदि स्थानों के मन्दिरों की प्रतिष्ठा भी करवाई और उन मन्दिरों में विधिचैत्यों की मान्यता / मर्यादा सम्बन्धित शिलापट्ट भी लगवाए ।
आचार्यपद और स्वर्गवास
आचार्य अभयदेवसूरि अपने अन्तरंग प्रिय शिष्य जिनवल्लभगणि को अपना पट्टधर घोषित करना चाहते थे किन्तु तत्कालीन परिस्थितियों के वशीभूत होकर उन्होंने अपने शिष्य वर्धमानसूरि को घोषित किया और प्रसन्नचन्द्राचार्य को एकांत में कहा कि 'मैं अपनी अन्तरात्मा की पुकार के अनुसार जिनवल्लभ को पट्टधर घोषित न कर सका, अत: तुम इस कार्य को सम्पन्न करना।' अभयदेवसूरि का स्वर्गवास हो गया और कुछ ही समय में प्रसन्नचन्द्राचार्य भी देवलोक को प्रस्थान कर गये । प्रसन्नचन्द्राचार्य ने देवभद्राचार्य को आचार्य अभयदेवसूरि की इच्छा बतलाई और कहा 'मैं भी इस कार्य को सम्पन्न न कर सका, तुम आचार्य अभयदेव की इच्छा को अवश्य पूर्ण करना ।' समय बीतता गया। कई दशाब्दियाँ बीत गईं। इधर जिनवल्लभगणि की यशोगाथा और प्रभाव को देखकर देवभद्राचार्य ने जिनवल्लभगणि को नागौर से चित्तौड़ बुलाया और वहीं विधि-विधान पूर्वक वि०सं० ११६७ आषाढ़ सुदि ६ के दिन जिनवल्लभगणि को आचार्य अभयदेवसूरि के पट्ट पर स्थापित कर जिनवल्लभसूरि नाम प्रदान किया । संयोगवशात् सं० ११६७ कार्तिक अमावस्या दीपावली की मध्यरात्रि में वे इस नश्वर संसार को छोड़कर चतुर्थ देवलोक चले गये।
इनके पट्टधर अम्बिकादत्त युगप्रधान पदधारक, एक लाख तीस हजार नूतन जैन बनाकर ओसवंश की वृद्धि करने वाले और अनेक ग्रंथों
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