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________________ के निर्माता प्रथम दादा जिनदत्तसूरि हुए। इनकी यह परम्परा आज भी प्रसिद्ध परम्परा के रूप में विद्यमान है। विधि पक्ष - चैत्यवास का समूलोच्छेदन की परम्परा प्रारम्भ करने वाले आचार्य जिनेश्वरसूरि को अणहिलपुर में महाराजा दुर्लभराज ने 'तमे खरा छो' खरतर विरुद दिया। आचार्य की यह परम्परा सुविहित परम्परा कहलाई। इसी का उल्लेख जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि और देवभद्राचार्य ने किया। जिनेश्वराचार्य ने मुख्यतः निषेध पक्ष को ही प्रधानता दी किन्तु जिनवल्लभगणि निषेध के साथ विधि को भी प्रधानता देते हुए प्रबल वेग के साथ चैत्यवास के विरोध में मैदान में कूद पड़े थे। विधि पक्ष पर अधिक जोर देने के कारण उनके समय में सुविहित पक्ष भी विधि पक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ और क्रमशः सुविहित पक्ष/विधि पक्ष और भविष्य में खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आरोप १७वीं शताब्दी में कुछ कदाग्रही विद्वानों ने जिनवल्लभसूरि को लेकर कतिपय प्रश्न खड़े किये और उन पर आरोप भी लगाए। उनमें उपसम्पदा, भगवान महावीर के षट्कल्याणक, संघबहिष्कृत, उत्सूत्रप्ररूपक और पिण्डविशुद्धिकार कौन है? इत्यादि। इन समस्त आरोपों का अन्तरंग और बहिरंग प्रमाणों के आधार पर मैंने (महोपाध्याय विनयसागर) ने वल्लभभारती प्रथम खण्ड अध्याय ३ पृष्ठ ६२ से ८४ तक खण्डन किया है, वह द्रष्टव्य है। साहित्य-सर्जना जिनवल्लभसूरि का अलंकारशास्त्र, छन्दशास्त्र, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष, नाट्यशास्त्र, कामतन्त्र और सैद्धान्तिक विषयों पर एकाधिपत्य था। प्राकृत और संस्कृत भाषा पर भी उनका पूर्णाधिकार था। इन्होंने अपने जीवनकाल में विविध विषयों पर सैकड़ों ग्रंथों की रचना की थी जिसका उल्लेख सुमतिगणि गणधरसार्द्धशतक की वृत्ति में इस प्रकार करते हैं: प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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