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का जीवन-चरित परवर्ती कई लेखकों ने लिखा है । श्रीसुमतिगणि के गुरुभ्राता श्री जिनपालोपाध्याय ने 'खरतरगच्छालङ्कार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' में जिनवल्लभसूरि का जो जीवन-चरित लिखा है, वह लगभग अक्षरशः सुमतिगण द्वारा दिए हुए चरित से मिलता है । अन्तर है तो केवल इतना ही कि सुमतिगणि की भाषा अलङ्कारिक वर्णनों से परिपूर्ण है तो, उपाध्यायजी की भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण है । इसलिये इसी वृत्ति को आधार मानकर मैं उनका संक्षेप में जीवन चरित दे रहा हूँ ।
परिचय
जिनवल्लभ का बाल्यावस्था का परिचय प्राप्त नहीं है। इतना ही ज्ञात होता है कि ये आसिका ( हांसी) के निवासी थे और कूर्चपुरीय चैत्यवासी जिनेश्वराचार्य के शिष्य थे। जिनेश्वराचार्य के पास शिक्षा प्राप्त करते थे । हस्तलिखित स्फुट पत्रों से सर्पाकर्षिणी और सर्पमोचिनी विद्या का प्रत्यक्ष अनुभव किया । जिनेश्वराचार्य ने इनको मेधासम्पन्न जानकर अपना शिष्य बनाया और बड़े मनोयोग से तर्क, अलंकार, व्याकरण, कोश आदि अनेक शास्त्रों का अध्ययन भी करवाया । आचार्य की अनुपस्थिति में एक सिद्धान्त पुस्तक उनके देखने में आई और चैत्यवास - परम्परा को सिद्धान्त-विरुद्ध देखकर वे विरक्त हो गये ।
जिनेश्वराचार्य उस समय के प्रौढ़ विद्वान् थे । जिनपालोपाध्याय के कथनानुसार उन्होंने जिनवल्लभ को पाणिनीय आदि आठों व्याकरण, मेघदूतादि काव्य, रुद्रट-उद्भट-दण्डी - वामन और भामह आदि के अलङ्कार ग्रंथ, ८४ नाटक, जयदेव आदि के छन्द: शास्त्र, भरतनाट्य और कामसूत्र, अनेकान्तजयपताकादि जैन न्यायग्रंथ तथा तर्ककंदली, किरणावली, न्यायसूत्र तथा कमलशीलादि जैनेतर दार्शनिक ग्रंथ पढाये थे ।
जिनेश्वराचार्य ने शिक्षोपरान्त यह सोचा कि जिनवल्लभ को मैंने समस्त शास्त्रों का पारगामी बना दिया किन्तु जैन दर्शन के सैद्धान्तिक ग्रंथों का अध्ययन नहीं करवा पाया । यह विद्या सुविहित परम्परा में जिनेश्वरसूरि
प्रस्तावना
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