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आ० जिनवल्लभ ने स्वप्रतिबोधित विधिपथानुयायी श्रेष्ठियों के कतिपय नाम इस प्रकार दिये हैं
धर्कटवंशीय सोमिलक, वर्द्धमान का पुत्र वीरक, पल्लिकापुरी (पाली) में प्रख्यात प्रद्युम्रवंशीय माणिक्य का पुत्र सुमति, क्षेमसरीय (संभवत: खींवसर निवासी) भिषग्वर सर्वदेव और उसके तीनों पुत्र रासल, धन्धक एवं वीरक, खण्डेलवंशीय मानदेव और पद्मप्रभ का पुत्र प्रह्लक, पल्लिका में विश्रुत शालिभद्र का पुत्र साधारण और पल्लिका में चन्द्र समान ऋषभ का पुत्र सड्ढक आदि ।
इन श्रेष्ठियों ने चित्तौड़ में धर्माराधन हेतु विधि - चैत्य का अभाव महसूस कर नवीन चैत्य - निर्माण का संकल्प किया । चैत्यवासियों के गढ़ में विधि-चैत्यों का निर्माण वेषधारियों के लिये कदापि सह्य नहीं था । उन्होंने निर्माण कार्य का ध्वंस करने के लिये भरपूर प्रयत्न किये, किन्तु उनके सारे प्रयत्न असफल रहे और अन्त में साधारण आदि उपरोक्त श्रेष्ठियों के प्रयत्नों से निर्माण कार्य पूरा हुआ । इस विशाल महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा (वि०सं० १९६३) में बड़े महोत्सव से सम्पन्न हुई ।
कल्याणक आदि पर्व दिवसों में अब धार्मिक समुदाय बड़े भक्तिभाव और आडम्बर से उत्सव मनाता है तथा अर्चन-पूजन करता हुआ कल्याणकारी मार्ग की ओर अग्रसर हो रहा है ।
इस चैत्य की अर्चा निमित्त प्रत्येक सूर्य संक्रान्ति पर दो पारुत्थ चित्तौड़ के धर्मदाय विभाग से देने का महाराजा श्री नरवर्मा ने आदेश दिया है ।
जिनवल्लभसूरि के इस अन्तरङ्ग प्रमाणभूत संक्षिप्त आत्मकथा के अतिरिक्त उनके योग्य शिष्य युगप्रधान दादोपनामधारक श्री जिनदत्तसूरि ने गणधर सार्द्धशतक में ६९ पद्यों में अपने गुरु की जो स्तुति की है उसकी टीका करते हुए उन्हीं के प्रशिष्य श्रीसुमति गणि ने आचार्य जिनवल्लभसूरि का विस्तार से जीवन-वृत्त दे दिया है । इसी का आधार ले कर आचार्य
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