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ऐसे प्रकृष्ट गीतार्थ जिनेश्वरसूरि के शिष्य श्रुतज्ञान रूपी ऐश्वर्य से अंधकार रूपी स्मर को नाश करने में महेश्वर के समान श्री अभयदेवसूरि हुये। जिन्होंने स्वगुरूपदेश और स्वयं की विशद प्रज्ञा से श्रमण भगवान महावीर के वंशज गणधरों द्वारा ग्रथित स्थानाङ्ग सूत्र से विपाक सूत्र पर्यन्त नवाङ्गों - जिनका गम्भीरार्थ उस समय तक अनुद्घाटित था - पर श्री संघ के तोष के लिए टीकाओं की रचना की।
आचार्य अभयदेव का यश सौरभ तो विश्वव्यापी था ही, और उनके प्रमुख शिष्यों - प्रसन्नचन्द्रसूरि, वर्द्धमानसूरि, हरिभद्रसूरि, एवं देवभद्रसूरि आदि की वैदुष्य कीर्ति से आज भी दिग्दिगन्त स्तम्भित है।
ऐसे सुविहित शिरोमणि और श्रेष्ठगीतार्थ श्री अभयदेवसूरि से लोकों में अर्च्य कूर्चपुरगच्छीय श्री जिनेश्वरसूरि का शिष्य, गणि पदधारक जिनवल्लभ (मैं) ने उपसम्पदा और सिद्धान्त-ज्ञान प्राप्त किया।
यहाँ ग्रंथकार स्वयं के लिये कहता है कि - विद्या को योग्य स्थान न मिलने से विश्व में भ्रमण करती हुई पीडित हो गई थी, मुझे योग्य पात्र समझ कर सूक्ष्म शरीर द्वारा मेरे में समाविष्ट हो गई और भूरिकाल से प्रीति की तरह वृद्धि को प्राप्त होती गई।
कदाचित् मैं विहार (भ्रमण) करता हुआ चित्तौड़ आया। वहाँ के समुदाय ने मुझे सद्गुरु के रूप में स्वीकार किया। उस समय अम्बक, केहिल और वर्द्धमानदेव आदि प्रमुख व्यापारियों का समुदाय चित्तौड़ में रहता था और शुद्ध देव एवं सद्गुरु की उपासना करता रहता था। चित्तौड़ में उस समय पंक्ति बद्ध जैन-मन्दिर थे।
मेरे उपदेश से चित्तौड़ के निवासियों ने शास्त्र-सम्मत विधिपक्ष, विधि-चैत्य और सुविहित साधुओं का स्वरूप समझ कर, चैत्यवासियों की मान्यता और प्ररूपणा का त्याग कर सुविहित पक्ष के अनुयायी बने। उस समय वहाँ का समुदाय अपने को ऐसा मानने लगा, मानो इस क्रूर भस्मग्रह के काल में भी हमें नवीन अर्हच्छासन प्राप्त हुआ है और इसी श्रद्धा से वे कुपथ से विमुख होकर धर्म-कर्म करने लगे।
प्रस्तावना
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