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(प्रस्तावना
बारहवीं शताब्दी के ज्योतिर्धर और धुरंधर आचार्यों में नवांगीटीकाकार अभयदेवसूरि, संवेगरंगशालाकार जिनचन्द्रसूरि, सुरसुन्दरीचरितकार धनेश्वरसूरि, जिनवल्लभसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, चंद्रकुलीय धनेश्वरसूरि, मलधारी अभयदेवसूरि, मलधारी हेमचन्द्रसूरि, वादी देवसूरि, कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि और आप्त-टीकाकार विश्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न आचार्य श्री मलयगिरिसूरि आदि हुए है। इनमें भी कर्मप्रकृति आदि विविध विषयों व विधाओं में साहित्यसृजन की दृष्टि से और इनके द्वारा सर्जित ग्रंथों की संख्या की दृष्टि से तथा उन पर १२वीं शताब्दी से लेकर १८वीं शताब्दी तक ६० दिग्गज विद्वानों द्वारा टीकाएँ लिखने से जिनवल्लभसूरि को शीर्षपंक्ति में रखा जा सकता है।
श्री जिनवल्लभूसरि सुविहित मार्ग के संस्थापक श्री वर्धमानसूरिजी के पट्टधर श्री जिनेश्वरसूरि की पट्टधर परम्परा में संवेगरंगशालाकार श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर नवांगी टीकाकार स्तम्भन पार्श्वनाथ तीर्थ के उद्भावक श्री अभयदेवसूरि के पट्टधर हुए हैं। श्री जिनवल्लभसूरि ने अपनी आत्मकथा के रूप में आलेखित अष्टसप्तति/चित्रकूटीय वीरचैत्य प्रशस्ति में अपना परिचय देते हुए लिखा है जिसका सारांश निम्न है -
निर्मल 'चन्द्रकुल' में श्री वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि हुये जो सिद्धान्तसम्मत साध्वाचार का उग्रता से पालन करने वाले तथा प्रगाढ और प्रतिभा सम्पन्न आगमप्रज्ञ थे। उन्होंने राज्य सभा में सिद्धान्त-विरुद्ध आचरण वाले आचार्यों की प्ररूपणा और मान्यताओं को शास्त्र-विरुद्ध ठहराकर गुर्जर प्रदेश (गुजरात) में संविग्न साधुओं (सुविहितों) के विहार मार्ग को सर्वदा के लिये प्रशस्त किया था।
प्रस्तावना
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