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________________ करते हुए लिखा है - देवेन्द्र स्तुत त्रिजगत्प्रभु तथा त्रिभुवन के अनन्यमल्ल होने पर भी आपको मरीचि के भव में उपार्जित पाप का लवलेश रहने के कारण गोपाल से अनेक प्रकार की कदर्थना सहन करनी पड़ी। आह ! कर्मगति विचित्र है कि स्त्री, गाय, ब्राह्मण तथा बालक की हत्या और महापाप करने वाले दृढप्रहारी आदि पुरुष तो उसी भव में सिद्ध हो गये किन्तु आपको १२ वर्ष ६ मास १ पक्ष तक कष्ट सहन करने के पश्चात् ही कैवल्य पद प्राप्त हुआ। उक्त पाँचों चरित्र मूल रूप में सिरिपयरणसंदोह में प्रकाशित हैं और छठा वीरचरित्र अप्रकाशित है। २२. चतुर्विंशति-जिन-स्तुतयः - स्तुति 'थुई' की परम्परानुसार प्रथम पद्य में नाम विशेष तीर्थंकर की, द्वितीय पद्य में सामान्य जिनेश्वरों के गुणों की, तृतीय पद्य में जिनागम-जिनवाणी की और चतुर्थ पद्य में श्रुतदेवता या तीर्थंकर के शासन देवता की स्तवना की जाती है। इस मान्यता के अनुसार स्तुति-साहित्य के सर्वप्रथम सर्जकों में संस्कृत भाषा में रचना करने वाले आ० बप्पभट्टि, महाकवि धनपाल के अनुज श्री शोभनमुनि और प्राकृत भाषा में गुम्फन करने वाले आचार्य जिनवल्लभ हैं। परवर्ती स्तुतिकार कवियों के प्रेरक ये आचार्य ही हैं। ___ ९६वें गाथा की 'चतुर्विंशति-जिन-स्तुतयः' नामक लघु कृति में ४-४ गाथाओं में प्रत्येक तीर्थंकर की स्तुति की गई है। इन २४ स्तुतियों में उक्त परम्परा का पालन तो किया ही गया है। साथ ही प्रत्येक स्तुति के प्रथम पद्य में तीर्थंकर-नाम के साथ, छह अन्य वर्ण्य-विषयों का भी समावेश किया गया है, जो इन स्तुतियों का वैशिष्ट्य है। ये ६ वर्ण्य-विषय निम्न है - १. तीर्थंकर की माता का नाम, २. पिता का नाम, ३. लक्षण ४. शरीर का देहमान, ५. जिस देवलोक से च्युत होकर माता के गर्भ में आये उस देवलोक का नाम और ६. जिस नक्षत्र में देवलोक से च्युत होकर माता के गर्भ में आये उस नक्षत्र का नाम। प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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