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३१. क्षुद्रोपद्रवहर-पार्श्वजिनस्तोत्रम्
नमिरसुरासुरविलसिर-सिरिमणिमयमउडघडियपयपीढं। वंदियदियभवपासं, पासं तं चिय थुणामि अहं ॥ १ ॥ जाणामि सामि बहुभवभमणेण जमन्नया कयाइ तुमं। नाहं नाहं पत्तो, कत्तो पुणरुब्भवो इहरा॥ २॥ तासं पइ पइदिवसं, भवसंभवकरसियं सयं सुजस!। तुह पयकमलं विमलं, पणयं मणयं ममं पिच्छ॥ ३॥ हयदुरियदाह माहप्प-पसर निच्चविय भवियसंदोहं । परमामयरसविरसं, व सुपहु तुह दंसणं जमिह ॥ ४॥ हे पास! पसियदंत - पंति - कंतिप्पयासियदियंत!। भयवंतभयंत पसंत कंतदंतिंदिय जिणिंद!॥ ५॥ फारफुल्लंत तुह उवरि, फणिफणासत्तयं फुरंतं मे। कयसत्ततत्तसंखा, वक्खाणखणंव पडिहाइ ॥ ६ ॥ उवरिपरिफुरिय फणवई, चूडामणिकिरणरइयसुरचावं । अइमीसणभवदवतविय-भवियवणपसमणसमत्थं ॥ ७॥ कयकुनयकमलमलणं वयणजलं जणियभुवणयलहरिसं। विकिरंतं भवजलहर-सरिसं तं पास पणमामि ॥ ८॥ जे खरजरजज्जरिया खयखीणा सूलसल्लिया मणुया। दढकुट्ठनट्ठनंकुठ-नहमुहा चक्खुपरिहीणा॥ ९॥ ते वि तुह सरणसुंदर-रसायणंकाओ माउरसुविज्जा। सुरसुंदरनयणाणंदि देहसोहा लहुं हुंति ॥ १० ॥ गुरुकोवफारफुक्कारभासुरो फणिवई विफुल्लफणो। चित्तंमि तुमं जेसिं, तेसिं कीडुव्व दोइफुडं ॥ ११ ॥
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