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पिण्डविशुद्धिप्रकरणम्
कहिय मिहो संदेसं, पयडं छन्नं व सपरग्गामेसु। जं लहइ लिंगजीवी, स दूइपिण्डो अणत्थफलो॥ ६१ ॥ जो पिण्डाइनिमित्तं, कहइ निमित्तं तिकालविसयं पि। लाभालाभ-सुहासुह-जीवियमरणाइ सो पावो॥ ६२ ॥ जच्चाइधणाण पुरो, तग्गुणमप्पं पि कहिय जं लहइ। सो जाई-कुल-गण-कम्म-सिप्प-आजीवणापिण्डो॥६३ ॥ माइभवा विप्पाइ व, जाई उग्गाइ पिउभवं व कुलं । मल्लाइगणो किसिमाइ, कम्मं चित्ताइ सिपं तु ॥ ६४ ॥ पिण्डट्ठा समणातिहिमाहणकिविणसुणगाइभत्ताणं । अप्पाणं तब्भत्तं, दंसइ जो सो वणीमो त्ति ।। ६५ ।। भेसज्ज-वेजसूयण-मुवसामण-वमणमाइकिरियं वा। आहारकारणेण वि, दुविह तिगिच्छं' कुणइ मूढो ॥६६॥ विजातवप्पभावं, निवाइपूयं बलं व से नाउं । दट्ठण व कोहफलं, दिति भया कोहपिण्डो सो॥ ६७ ॥ लद्धिपसंसुत्तुइओ, परेण उच्छाहिओ अवमओ वा। गिहिणोऽभिमाणकारी, जं मग्गइ माणपिण्डो सो॥ ६८ ॥ मायाएँ विविहरूवं, रूवं आहारकारणे कुणइ। गिहिस्समिमं निद्धाइ तो बहु अडइ लोभेणं ॥ ६९ ॥ कोहे घेवर-खवगो, माणे सेवईयखुड्डुओ नायं । मायाएऽऽसाढभूई, लोभे केसरयसाहु त्ति ॥ ७० ॥ थुणणे संबंधे संथवो दुहा सो य पुव्व पच्छा वा। दायारं दाणाओ, पुव्वं पच्छा व जं' थुणइ ।। ७१ ॥ जणणिजणगाइ पुव्विं, पच्छा सासुससुराइ जं च जई। आयपरवयं नाउं, संबंधं कुणइ तदणुगुणं ॥ ७२ ।।
१. 'चिगिच्छं' इति पु० सी० ।
२. 'सं' इति पु०।
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