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________________ २८. प्रथमजिनस्तवनम् (बहुविधजातियुक्तम्) सयलभुवणिक्कबंधव-मसुरिंदसुरिंदविंदपणयपयं। पणमामि पढमपयडिय-परमपयपहं जिणं पढमं॥ १॥ [आर्या] तुह गुणथुय पहु पारि न सक्कइ, गंतुममिय गुण सक्कु जु सक्कइ। तत्थ वि जडमइ जु न ओसक्कइ, फुडु सु आलाइ पएहिं परिसक्कइ ॥ २ ॥ [पद्धतिका] इय जाणंतु विभत्तिभर तरलिउ किं पि भणामि। दुक्करु सुकरु निरुत्तमण, जेण वियारिहि सामि॥ ३॥ [दोहा] किंचिइ कुवि किंचिइ कुवि तुह नमोक्कारु किर, भाविण जे करहि कय समग्ग मंगल्ल सुंदर । ते भीमवरदुहजलहि लहु-तरंति लीलाइं। गइदर... .॥ ४॥ [द्विपदी] पउमन्निवि तुह मुणिपवरेसर!, सरभसविणय नमंति नरेसर!। जउबुद्धि वि भत्तीइ गुणायर!, गुणगणकण वि थुणवि करुणायर!॥ ५ ॥ [पद्धतिका] जय बहुविहदुहसंसाररण, रयरीणदीणजणपरमसरण। जय गहिरनिरयकूवाविलंब, निवडंतजंतुहत्थावलंब ॥ ६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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