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जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि
अंगारसधूमोवम-चरणिंधणकरणभावओ जमिह । रत्तो दुट्ठो भुंजइ, तं अंगारं च धूमं च॥ ९७ ॥ छु हवियणावे यावच्चसंजमसुज्झाणपाणर क्खट्ठा । इरियं च विसोहेउं, भुंजइ न उ रूवरसहेउं ॥ ९८ ॥ अहव न जिमेज रोगे, मोहुदये सयणमाइउवसग्गे। पाणिदयातवहे उं, अंते तणुमोयणत्थं च॥ ९९ ॥ इय तिविहेसणदोसा, लेसेण जहागमं मएऽभिहिया । एसु गुरुलहुविसेसं, सेसं च मुणिज्ज सुत्ताओ॥ १०० ॥ सोहिंतो य इमे तह, जइज्ज सव्वत्थ पणगहाणीए। उस्सग्गऽववायविऊ, जह चरणगुणा न हायति ॥ १०१॥ जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। सा होइ निज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥ १०२॥ इच्चेयं जिणवल्लहेण गणिणा जं पिंडनिज्जुत्तिओ, किंची पिण्डविहाणजाणणकए भव्वाण सव्वाण वि। वुत्तं सुत्तनिउत्तमुद्धमइणा भत्तीइ सत्तीइ तं, सव्वं भव्वममच्छरा सुयहरा बोहिंतु सोहिंतु य॥ १०३॥
इति पिण्डविशुद्धिप्रकरणम्
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१. 'भणिया' इति पु० बी० ।
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