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जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि
अन्ने अन्नत्थीहिं सम्मं सिवपहमपिच्छिरेहिं पि। सत्था सिवत्थिणो चालिया वि पडिया भवारण्णे ॥ ९४ ।। परमत्थसत्थरहिएसु भव्वसत्थेसु मोहनिदाए। सुत्तेसु मुसिजतेसु पोढपासत्थचोरेहिं ॥ ९५ ।। असमंजसमेयारिसमवलोइय जेण जायकरुणेण। एसा जिणाणामाणा सुमरिया सायरं तइया ॥ ९६ ॥ सुहसीलतेणगहिए भवपल्लिंतेण जगडियमणाहे। जो कुणइ कुवियत्तं सो वण्णं कुणई संघस्स ॥ ९७॥ तित्थयररायाणो आयरिया रक्खियव्व तेहिं कया। पासत्थपमुह चोरोवरुद्धघणभव्वसत्थाणं ॥ ९८ ॥ सिद्धपुरपत्थियाणं रक्खट्ठाऽऽयरियवयणउ सेसा। अहिसेयवायणायरिय-साहुणो रक्खगा तेसिं॥ ९९ ॥
ता तित्थयराणाए मए वि ते हुति रक्खणिज्जाओ। वीरवृत्तिः
इय मुणिय वीरवित्तिं पडिवज्जिय गुरुसन्नाह ।। १०० ।। करिय खमाफलयं धरिउमक्खयं कयदुरुत्तसररक्खं । तिहुयणसिद्धं तं जं सिद्धंतमसिं समुक्खिविय ॥ १०१ ॥ निव्वाणठाणमणहं सगुणं सद्धम्ममविसमं विहिणा। परलोयसाहगं मुक्खकारगं धरिय विप्फुरियं ॥ १०२ ।। जेण तओ पासत्थाइतेणसेणा वि हक्किया सम्मं । सत्थेहिं महत्थेहिं वियारिऊणं च परिचत्ता ॥ १०३ ॥ आसन्नसिद्धिया भवसत्थिया सिवपहम्मि संठविया। निव्वुइमुविंति तह जे पडंति ना भीमभवरण्णे ॥ १०४॥ मुद्धाऽणाययणगया चुक्का मग्गाउ जायसंदेहा। बहुजणपुट्ठिविलग्गा दुहिणो हूया समाहूया ॥ १०५ ।।
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