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________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ५. पञ्चमं कुलकम् इह भवकारागारे, गुरुमोहकवाडरुद्धसुहदारे । कालमणंताणंतं, वसंति जीवा तमंधारे ॥ १॥ अह कहवि कम्मपरिणामओ तहाकालपरिणईए य। संववहारियभावं, केइ वि पावंति तत्थ वि य॥ २॥ होउं भूजलतेउवाउसु पुढो अस्संखउसप्पिणी, ताऽणंता उ तरूसु सागरसए वीसं तसत्ते हिए। गाढारूढपरूढमोहमहिमायत्ता दुहत्ता इमे, जंतू जंति इहासमंजसमहो संसारचक्के चिरं॥ ३॥ सयलंकुसलहेउं माणुसत्तं लहेडं, जणणमरणलक्खे फासमाणा अलक्खे। पुण वि गुणियकम्मा होइउं पावकम्मा तुलभरमनिवारं लिंति तोऽणंतवारं ॥ ४॥ अह गिरिसरिओवलमाइनायओ अहपव्वत्तकरणेण । चउगइगया वि बहुतमकालेण विसुद्धतर भावा ॥ ५॥ एगूणवीसमेगूण-तीसमेगूणसत्तरि कमसो। वीसगतीसगमोहाणं सलिलनिहिकोडिकोडी उ॥ ६॥ खविय ठिइसंतमेगा, देसूणा धरइ जाव ता गंठिं । पाविय केइ वलंति वि अन्ने उ अपुव्वकरणेण ॥ ७॥ घणकम्मपरिणइमयं, भिंदिय चिररूढगूढदढगंठिं। मिच्छत्तंतरकरणं, काउं अनियट्टिकरणेण ॥ ८॥ तो भवसागर तरणे, तरीसमं असमसोक्खमोक्खकरं । . पावंतुवसमसम्मं, जीवा अंतोमुहुत्तद्धा ॥ ९॥ पुण केइ कम्मपरिणइवसेण अइसुंदरं पि सम्मत्तं । संपत्तं पि अजोग्गा, चिंतामणिमिव विमुंचंति ॥ १० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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