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जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि
जिण कय नाणा चित्तई चित्तु हरंति लहु,
तसुदंसणु विणु पुन्निहिं कउ लब्भइ दुलहु। सारई बहु थुइ-थुत्तई चित्तई जेण कय,
तसु पयकमलु जि पणमहि ते जण कयसुकय॥७॥ जो सिद्धंतु वियाणइ जिणवयणुब्भविउ,
तसु नामु वि सुणि तूसइ होइ जु इहु भविउ। पारतंतु जिणि पयडिउ विहिविसइहिं कलिउ,
सहि! जसु जसु पसरंतु न केणइ पडिखलिउ॥८॥
इय निप्पुनह दुल्लह सिरिजिणवल्लहिण,
तिविहु निवेइउ चेइउ सिवसिरिवल्लहिण। उस्सुत्तइ वारं तिण सुत्तु कहंतइण,
इह नवं व जिणसासणु दंसिउ सुम्मइण ॥ ४० ॥ इक्कवयणु जिणवल्लह पहु वयणइ घणइं,
किं व जंपिवि जणु सक्कइ सक्कु वि जइ मुणइ। तसु पयभत्तह सत्तह सत्तह भवभयह,
होय अंतु सुनिरुत्तउ तव्वयणुज्जयह ॥ ४१ ॥ इक्ककालु जसु विज्ज असेस वि वयणि ठिय,
मिच्छदिट्ठि वि वंदहिं किंकरभावट्ठिय। ठाणि ठाणि विहिपक्खु वि जिण अप्पडिखलिउ,
फुडु पयडिउ निक्कवडिण परु अप्पउ कलिउ॥४२॥ तसु पयपंकयउ पुन्निहि पाविउ जण-भमरु,
सुद्धनाण-महुपाणु करतंउ हुइ अमरु । सत्थु हुंतु सो जाणइ सत्थ पसत्थ सहि,
कहि अणुवमु उवमिज्जइ केण समाणु सहि ॥४३॥ वद्धमाणसूरिसीसु जिणेसरसूरिवरु,
तासु सीसु जिणचंदजईसरु जुगपवरु ।
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