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पौषधविधिप्रकरणम्
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साहूण दाउं पच्छा पारेयव्वं । कहं? जाहे देसकालो ताहे अप्पणो सरीरस्स विभूसं काउं पडिस्सयं गंतुं साहू निमंतेइ-भिक्खं गिण्हह त्ति। तत्थ साहूणं का पडिवत्ती?, ताहे एगो पडलं अन्नो मुहणंतयं अन्नो भायणाणि पडिलेहेइ, मा अंतराइयठवणादोसा भविस्संति। सो जइ पढमाए पोरिसीए निमंतेई, अत्थि य णमुक्कारसहियइत्तगो तो घेप्पइ, अह नत्थि तो न घेप्पई, तं वहियव्वं होहि त्ति। जइ घणं लगिज्जा ताहे घेप्पइ, संचिक्खाविज्जइ य, जो वा उग्घाडपोरिसीए पारेइ पारणइत्तो अन्नो वा तस्स दिज्जइ, पच्छा तेण सावगेण समं संघाडगो वच्चइ, एगो न वट्टइ पेसिउं। जम्हा
एगाणियस्स दोसा, इत्थी साणे तहेव पडिणीए।
भिक्खऽविसोही महव्वय तम्हा सबिइजए गमणं॥१॥ साहू पुरओ सावगो पिट्ठओ। एवं घरं नेऊण आसणेण निमंतेइ, जइ निविट्ठा लट्ठयं, अह न निविसंति तहवि विणओ पउत्तो होइ त्ति। ताहे भत्तं पाणं सयं चेव देइ, अहवा भाणं धरेइ भज्जा से देइ, अहवा ठि ओ अच्छइ जाव दिन्न । साहू वि सावसे सं दव्वं गिण्हं ति पच्छाकम्मपरिहरणट्ठा, सो दाऊण वंदिउं विसज्जेइ, विसज्जित्ता अणुगच्छइ, पच्छा सयं भुंजइ, जं च किर साहूण न दिन्नं तं सावगेण न भोत्तव्वं । भणियं हि
साहूण कप्पणिजं, जं नवि दिन्नं कहिंवि किंचि तहिं।
धीरा जहुत्तकारी, सुसावगा तं न भुंजंति॥ १॥ जइ पुण सुविहिया तत्थ नत्थि तो देसकाले दिसालोओ कायव्वो, विसुद्धभावेण, चिंतेयव्वं-जइ साहुणो हुँतो तोऽहं नित्थारिओ हुँतो त्ति विभासा। एवं च
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