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जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि .
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संविग्गा सोवएसा गमनयनिउणा खित्तकालाणुरूवा
णुट्ठाणा सुद्धचित्ता परसमयविऊ मच्छरुच्छेयदच्छा। सम्म सुत्तुत्तजुत्तीजुयवयणहयातुच्छमिच्छत्तवाया,
साहू मे एज गेहे जइ कहवि तओऽहं कयत्थो भविजा ॥ १ ॥ इय मणपरिणामुप्पन्नपुनोहमेयं,
वरचरणरमाए साणुरागाइ दिटुं। सुरसिरिवरमालालंकियं सिद्धिलच्छी,
करिहिइ नियकंठे गाढमुक्कंठियव्व॥ २॥ इय सुत्ताणुसारमवधारिय वारियकुमइकुग्गहं,
सामायारिनिवहमवलोइय जोइय सुविहियप्पहं। गणिजिणवल्लहेण पोसहविहिमिह लिहियं हियट्ठिया, सय-हियए कुणंतु निसुणंतु गुणंतु मुणंतु विहिरया॥ ३॥
द्विपदीछन्दः।
इति पौषधविधिप्रकरणम्
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