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________________ ७८ गुरुमवि गुणमगणंता, परस्स दोसं लहुं ति पयडिंता । अन्नोन्नममन्नंता, जणयंति बहूण मइमोहं ॥ ५॥ अवरे नियडिपहाणा, पयडिय वेसासियं खणं रूवं । सुहलुद्धमुद्धजणवंचणेण कप्पंति नियवित्तिं ॥ ६ ॥ अवगणियनिजकज्जा, लज्जामज्जायवज्जिया अन्ने । कलहिंति मिहो बहुविह - बाहिरवत्थूण वि कएण ॥ ७ ॥ अन्ने दक्खिन्त्रेण वि, सच्छंदमईए अहव जडयाए । आजीवियाभयेण व, बहुजणआयरणओ वावि ॥ ८ ॥ गारवतिगोवरुद्धा, लुद्धा मुद्धाण जुगपहाण त्ति । अप्पाणं पयडिंता, विवरीयं बिंति समयत्थं ॥ ९ ॥ न परं न कुणंति सयं, अवि य भयमएहिं निंति सुत्तत्थं । जं समइपहेण तयं, अहह !! महामोहमाहप्पं ॥ १० ॥ एवंविहाण वि दढं, दढं, दसमच्छेरयमहापभावेण । सद्धालु मुद्धबुद्धी, भत्तीए कुणंति पूयाई ॥ ११ ॥ अन्ने उदग्गकुग्गह-घत्था दुरहिगयसमयलेसेहिं । नहि नासिया आसिया फुडं सुन्नयावायं ॥ १२ ॥ इय बहुविह असमंजस - जणदंसणसवणओ वि धीराण । मणयं पि न चलइ मणो, सम्मं जिणमयविहिन्नूणं ॥ १३ ॥ ता भासरासिगहविहुरिए वि तह दक्खिणे वि इह खित्ते । अत्थि च्चिय जातित्थं, विरलतरा केइ मुणिपवरा ॥ १४ ॥ ते य बलकालदेसाणु-सारपालियविहारपरिहारा । ईसि सदोसत्ते वि हु, भत्तीबहुमाणमरिहंति ॥ १५ ॥ ते य असढं जयंता, सुबुद्धिओ मुणियसमयसब्भावा। ईसि सकसायभावे, पि हुंति पुज्जा बहुजणाणं ॥ १६ ॥ इति द्वादशकुलकम् Jain Education International * द्वादशकुलकानि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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