________________
समृद्धि प्राप्त होती हैं। स्वयं को बुद्धिहीन, दीन, व्यसनलीन, कृपण, संसारावर्त में पतित होने के कारण टूटा हुआ बताकर मैं केवल अन्त:करण से आपकी शरण चाहता हूँ (पद्य ७) इस प्रकार की भावना व्यक्त की है। साथ ही स्वयं को शयालु, तन्द्रालु, कुगतिगामी, श्रद्धाहीन, कहकर दयालु भगवान से आशा की गई है कि आपके दर्शन से मेरा हृदय सम्यक् दर्शनयुक्त हो जाए (पद्य १६) और मेरी वाणी आपके सद्गुणों की स्तवना करती रहे, मेरा सिर आपके पादयुगल में नमित रहे, मेरा हृदय आपका प्रतिक्षण स्मरण करता रहे और मेरे नेत्र आपके मुख चन्द्रमा का पान करते रहे (पद्य १७), मुझे चिन्तामणि रत्न की अपेक्षा नहीं है। मुझे अपेक्षा है केवल निरन्तर आपकी भक्ति की (पद्य १८), हृदय की श्रद्धा को अभिव्यक्त करते हुए कवि कहता है - प्रभु! तुम मेरी माता हो, भ्राता हो, पिता हो, प्रिय सुहृत् हो, स्वामी हो, वैद्य हो, गुरु हो, शुभगति हो, मेरे नेत्र हो, मेरे रक्षक हो और मेरे प्राण हो। प्रभो! तुम मेरे लिए क्या नहीं हो? हे स्वामी ! विषय-व्याधि-समूह से जीर्ण शरीर की रक्षा करो (पद्य २१)। ४१. स्तम्भन-पार्श्वनाथस्तोत्रम् - यह पार्श्वनाथ स्तोत्र १७ पद्यों में गुम्फित है। १ से १६ पद्य मालिनी छन्द में है और १७वां पद्य हरिणी छन्द में। यह स्तोत्र भी स्तम्भनपुराधीश पार्श्वनाथ को ही लक्ष्य में रख कर लिखा गया है। यह सारा स्तोत्र ही अनुप्रास अलंकार में सर्जित है। मालिनी के प्रत्येक चरण के आठवें और पन्द्रहवें अक्षर में उसी अक्षर की पुनरावृत्ति की गई है जो इसके लालित्य को वर्धित कर रही है और कवि के अलंकार शास्त्र के प्रौढ़ ज्ञान को प्रकट करती है। उदाहरण के लिए एक पद्य प्रस्तुत हैमधुमधुरविरावं क्लेशकान्तारदावं,
भवजलनिधिनावं सम्यगादिष्टभावम् । गुरुलसदनुभावं चण्डताकाण्डलावं,
मदकरिहरिशावं पार्श्वमीडेऽस्तहावम् ।। (पद्य ५)
प्रस्तावना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org