SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि. विविहु-वसग्ग-समग्गल-घण-विहडण पवणसयलविरोहनिरोहपवणपयरेणुकण। पंच महव्वइ भव्वह तइं जिण जियपयडिय, तप्फुडु पंच अणंतजि तुह करयलि चडिय॥ २८॥ [वस्तुवदन] संवच्छरमच्छिन्नदिन्नजणवंछियदाणिण, सव्वसंगसावज्जकज्जकयपच्चक्खाणिण । माणिंवरिस सहस्सुवरिसु निरसणिण गमाविउ, तई जिणवरइ हरिवत्ति धम्मुबीउ विफुडुवाविउ॥ २९ ।। [वस्तुवदन] अन्नाणंधारय गुरुभववारय मज्झविसयपासिहिं जमिउ, हउं निहउं पमाइहिं नडिउं कसाइहिं मोहकवाडनिरुद्धठिउ। संपइ पइं दिट्ठई गयइ अणि?ई मज्झ सयलकल्लाणकर, पुण भवदुहतत्थउ विणमियमत्थउ इच्च हिएउ विनवउ पर ।। उब्भडभवभडपडिमल्लह, तुह जिणवल्लह, सिवसुंदरिविरसंगमह । संथवणिण पुन्नजु, पत्तउ तिअणु रत्तउ, तुह पवयणि मणु हुन्ज मह॥ ३० ॥ [हक्का षट्पदी] इति बहुविधजातिविरचितं श्रीप्रथमजिनस्तवनं समाप्तम् ___ कृतिरियं श्रीमज्जिनवल्लभसूरीणाम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy