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________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ७१ घडिउब्भडभउडीभंगभासुरो भमिरतंविरच्छिजुओ। वियडविडंबियवयणो, सिढिलकडिल्लो सुदुप्पिच्छो॥ ९॥ कयगहिरविरससद्दो, विसंठुलगई य सिज्जिरसरीरो। कोहमहग्गहगहिओ', होइ नरो लोगभयजणगो॥ १०॥ अइपंडिओ वि अइबहुगुणो वि अइसुद्धवंसजाओ वि। कुणमाणो माणं माणवो लहुं लहइ लहुयत्तं ॥ ११॥ परपरिभवमत्तुक्करिस-मसरिसकुलग्गया वि कुव्वंता। सयलजणुव्वियणिज्जा, न सकजं किंचि साहिति ॥ १२ ॥ नीयागुत्तं गाढं, समज्जिउं पर भवे पुणो सुइरं । सव्वजणगरहणीया, नीयासु भवंति जाईसु ॥ १३ ॥ दंभपरो लहइ नरो, कूडोत्ति सदुत्ति लोयवयणिज्जं। निच्चमवीससणिजो, य होइ सप्पु व्व सुद्धो वि॥ १४॥ मायापरस्स मणुयस्स झत्ति विहडंति बंधुमित्ता वि। अस्संखतिक्खदुक्खे, मयस्स उ ठिई तिरिक्खभवे ॥ १५॥ सयला चिय जइकिरिया, परमपयसाहिगा वि बहुसो वि। कवडेन कया न कुणइ, मुक्खाणुगुणं गुणं कमवि॥१६॥ सयलवसणिक्ककोसो, सुहरससोसो जओ अरइपोसो। नासियतोसो तो सो, बदुदोसो ही असंतोसो॥ १७ ॥ उग्गंतरंगरिउसच्छहम्मि लोहम्मि जेऽणुसजति । ते बहुदुहपडिहत्थं, हत्थं वंछंति नरयगई॥ १८॥ हयसोहं कयमोहं, दुहसंदोहं भवप्परोहसमं । विहुयसुबोहं लोहं, तो हंतुं होइ जइयव्वं ॥ १९ ॥ तह निययमणत्थनिबंधणं धणं बंधणं व बंधुजणो। कारागारा दारा, वि कामभोगा महारोगा ॥ २० ॥ १. 'कोहमहागहगहिओ' इति अ०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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