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२६. सर्वजिनपञ्चकल्याणकस्तोत्रम्
(मदनावतार-छन्दः)
पणयसुरविसरसिरमउडमसिणियकमे, नमिय भत्तीय सव्वेवि जिणसत्तमे। ताण कित्तेमि चुइजम्मदिक्खावही, नाणनिव्वाणकल्लाणए सुहतिही॥ १॥ जणणि सच्चवियचउदसमहासुविणयं, सयलहरिकहिय तित्थयरे अवयरणयं । अमइवइवयणगिहनिहियनिहिपहयरं, हवउ जिणचवणकल्लाणमिह सुहयरं॥ २ ॥ फुरियजससरिसउज्जॉयफुडतिहुयणं, मिलियछप्पन्नदिसिकुमरिकयनियखणं। तियसबहुविहि य सुरसिहरिसिरिमजणं, कुणउ जिणजम्मणं कम्मरयमज्जणं ॥ ३॥ नमिरसंथुणिरपरिभमिरनच्चिरसुरं, तेण देविंदपुरसरिसदरसियपुरं। वरवरियपुव्वदिजंतवरदाणयं, जयउ जिणचरणपडिवत्तकल्लाणयं ॥ ४॥ अमरवरविसरकयसमवसरणक्कमं, केवलुजोयसमजयपयासुग्गमं । भत्तिभरतरलसुरअसुरपूरियनहं, नमह भावेण जिणकेवलत्थवमहं ॥ ५॥ बहललोयंधयारोहसंथुडजयं, विहुरसंकदणक्कंदसद्दोदयं। उद्दसिरसिद्धिबहुगाढकंठग्गहं, मुक्खकल्लाणयं कुणउ दुहनिग्गहं॥ ६॥ पंच इय सयलतित्थयरकल्लाणए, थुणह जियलोयकयसयलकल्लाणए। एसिमेरवइभरहेसु मासा तिही, सासया नयविदेहेसु दावियतिही॥ ७॥ इय विदेहेरवइभरहतियपंचए, निखिलकल्लाणए इह भवपवंचए। संभरइ थुणइ भत्तीइ"जो अंचए, स जिणवल्लहइ लहु सिद्धिसुहसंचए ॥ ८॥
इति सर्वजिनपञ्चकल्याणस्तवनम्
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