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उनकी शैली की दूसरी प्रमुख विशेषता है चमत्कार प्रेम। यों तो विविधता में भी चमत्कार है और वस्तुत: उनका वैविध्यप्रेम चमत्कार-प्रेम का पोषक होकर ही आया हुआ प्रतीत होता है, परन्तु उनके चमत्कार प्रेम का सबसे बड़ा प्रमाण हमें उनके चित्रकाव्यों में मिलता है। काव्यगत विशेष परिचय के लिए वल्लभ भारती प्रथम खण्ड देखें। यह ग्रंथ अज्ञात कर्तृक अवचूरि के साथ श्रीस्तोत्ररत्नाकरद्वितीयभागः सटीकः में प्रकाशित है। १४. अष्टसप्तति/चित्रकूटीय वीरचैत्यप्रशस्ति - इस कृति में कुल ७८ पद्य होने से यह अष्टसप्तति के नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य जिनपतिसूरि ने संघपट्टक पद्य ३३ की टीका में चित्रकूट में नवनिर्मापित महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा से सम्बद्ध प्रशस्ति होने से इसका नाम चित्रकूटवीरचैत्यप्रशस्ति माना है। चित्तौड़ के वीरचैत्य की शिलालेख प्रशस्ति होने से चित्रकूटीयवीरचैत्यप्रशस्ति नाम दिया गया है। जिनपालोपाध्याय ने भी चर्चरी पद्य ४ की टीका में 'प्रशस्तिप्रभृतिकम्' उल्लेख किया है।
. यह प्रशस्ति शिलापट्ट पर उत्कीर्ण कर वि०सं० ११६३ में चित्तौड़ में नवनिर्मापित महावीर विधिचैत्य में लगाई गई थी। दैव दुर्विपाक से चितौड़ में न तो आज महावीर चैत्य के ध्वंसावशेष ही प्राप्त हैं और न शिलापट्ट के अवशेष ही। शिलापट्ट नष्ट होने से पूर्व ही किसी अज्ञात नामा इतिहास और साहित्यप्रिय विद्वान् ने इसकी प्रतिलिपि की थी, वही एक मात्र प्रति के रूप में, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद में उपलब्ध है।
___ यह प्रशस्ति वस्तुतः जिनवल्लभ की संक्षिप्त आत्म-कथा है। जिसका सारांश कवि के परिचय में दिया जा चुका है। इस प्रशस्ति का वैशिष्ट्य यह है कि परमार वंशीय महाराजा भोज, मालव्यभूम्युद्धारक उदयादित्य और चित्रकूटाधिपति नरवर्म का यशोगान एवं मेदपाट देश की राजधानी चित्रकूट की शोभाश्री का सालंकारिक सुन्दरतम वर्णन प्राप्त है। मेदपाट पर परमार वंशीय नरवर्म का आधिपत्य का उल्लेख ऐतिहासिक उल्लेख है। स्वयं कूर्चपूरगच्छीय जिनेश्वसूरि के शिष्य थे और चन्द्रकुलीय नवांगी टीकाकार
प्रस्तावना
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