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जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि
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सट्ठीए वासलक्खेसु, अइगएसुं गिरिम्मि सम्मेए। आसाढसत्तमीए, किण्हाए सिद्धिगय! जय तं ॥ ६॥
१४. अनन्तजिनस्तोत्रम् कप्पदुमकंदलीउव्व जस्स चलणंगुलीउ रायंति। हणियाणंतभवोहं, तमणंतजिणं सरामि सया॥ १॥ भवभाववियाणय! पाणयाउ नयरीए तं अओज्झाए। अवयरिओ सावणसत्तमीए किण्हाए गयतण्ह!॥ २॥ सोवनवन! वाणीजियवीणसमीण मीणरासीए। वइसाह तेरसीए, किण्हाए तुमं समुप्पन्नो ॥ ३ ॥ पुरिससहस्सेण समं', वइसाह चउद्दसीएँ कसिणाए। कयछट्टेण तए जिण! जइधम्मो सम्ममाइन्नो ॥ ४॥ तिण्ह वरिसाण अंते, वइसाहे कसिण चउद्दसीएँ तए। सहसंबवणे भव्वा, विबोहिया केवलधरेण ॥ ५॥ चित्तसियपंचमीए, सव्वाउयतीसवरिसलक्खं ते। सम्मेयम्मि सिवंगय! जिणवर मह हणसु भववाहिं॥ ६॥
१५. धर्मजिनस्तोत्रम् सयलजगजगडणुब्भडकंदप्पविसप्पदप्पनिद्दलणं। पयडियजइगिहिधम्म, धम्म सम्म पणिवयामि॥ १ ॥ रयणपुरे ओइन्नो वइसाहे सत्तमीए सुद्धाए। विजयविमाणाउ चुयं, धम्मं पणमामि तित्थयरं ॥ २॥ कणयपहं कुसमयदमणकक्खडं कक्कडम्मि रासिम्मि। माहे सियतइयाए, जायं धम्मं नमंसामि॥ ३ ॥ सह निवइसहस्सेणं, माहे सियतेरसीए छटेणं। कयसव्वसंगचागं, धम्मं सुमरामि गयरागं ॥ ४॥
१. तुमं इति का छा।
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