SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री शान्तिनाथाय नमः । श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः | श्री ऋषभदेवस्वामिने नमः । Jain Education International श्रीगौतमगणधराय नमः । श्रीसद्गुरुभ्यो नमः | किञ्चिद् वक्तव्यम् श्री सम्मेतशिखर जी में चतुर्मास करने के बाद विविध तीर्थों की यात्रा करते-करते विक्रम सं. २०५७ में जब हम राजस्थान में जयपुर आये तब प्राकृत भारती अकादमी में भी जाने का हुआ । उस समय वहाँ के निदेशक डॉ. विनयसागरजी ने हमको वल्लभभारती का प्रथम खण्ड दिया । नाकोड़ा तीर्थ में जाकर पढ़कर उसके दूसरे खण्ड को देखने की प्रबल जिज्ञासा हुई, दूसरे खण्ड को भेजने के लिये हमने विनयसागरजी को लिखा। उन्होंने उत्तर में लिखा कि 'दूसरा खण्ड अभी मुद्रित हुआ ही नहीं, पाण्डुलिपि तो तैयार है । ' मैंने लिखा कि 'जिनवल्लभगणि जैसे प्राचीन महाविद्वान् की कृतियाँ शीघ्र ही प्रकाशित होनी चाहिये । खर्च की चिन्ता बिल्कुल मत करना । प्रकाशन के लिये शीघ्र आगे बढ़ो । ' प्रभु-कृपा से यह ग्रन्थ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि के रूप में प्रकाशित हो रहा है, यह मेरे लिये अत्यन्त आनन्द की बात है । जिनवल्लभ गणि अति महान् विद्वान् थे । उनके ग्रन्थों को समझना सरल बात नहीं। इन पर जो विवरणात्मक साहित्य हमारे पूर्वतन विद्वान जैन मुनियों ने लिखा है, वह भी प्रकाशित होना ही चाहिये । मैं आशा रखता हूँ कि डॉ. विनयसागरजी इस विषय में भी आवश्यक प्रयत्न शीघ्र ही करें। श्रीनेमिनाथाय नमः | श्रीमहावीरस्वामिने नमः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy