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जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि
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पडिसोएण पयट्टा चत्ता अणुसोअगामिणी वत्ता। जणजत्ताए मुक्का मय-मच्छर-मोहओ चुक्का ॥ ११८॥ सिद्धं सिद्धंतकहं कहंति बीहंति नो परेहिंतो। वयणं वयंति जत्तो निव्वुइवयणं धुवं होइ॥ ११९ ॥ तव्विवरीआ अन्ने जइवेसधरा वि हुंति न हु पुज्जा। तदसणमवि मिच्छत्तमणुखणं जणइ जीवाणं ॥ १२० ॥ धम्मत्थीणं जेण विवेयरयणं विसेसओ ठवियं। चित्तउडे चित्तउडे ठियाण जं जणइ निव्वाणं ॥ १२१ ॥ असाहएणावि विही य साहिओ जो न सेससूरीणं।
लोयणपहे वि वच्चइ वुच्चइ पुण जिणमयन्नूहिं ॥ १२२ ॥ धवलोपमा
घणजणपवाहसरियाणुसोअपरिवत्तसंकडे पडिओ।
पडिसोएणाणीओ धवलेण व सुद्धधम्मभरा ॥ १२३ ॥ मेघोपमा
कयबहुविज्जुज्जोओ विसुद्धलद्धोदओ सुमेहु व्व। सुगुरुच्छाइयदो सायर पहो पह यसंतावो ॥ १२४ ॥ सव्वत्थ वि वित्थरिअ बुट्ठो कयसस्ससंपओ सम्मं ।
नेव वायहओ न चलो न गज्जिओ जो जए पयडो॥१२५ ॥ जलध्युपमा
कहसुवमिज्जइ जलही तेण समं जो जडाण कयवुड्डी।
तियसेहिं पि परेहिं मुयइ सिरिं पि हु महिज्जंतो॥ १२६ ॥ सूर्योपमा
सूरेण व जेण समुग्गएण संहरिय मोहतिमिरेण । सद्दिट्ठीणं सम्मं पयडो निव्वुइपहो हूओ ।। १२७ ॥ वित्थरियममलपत्तं कमलं बहुकुमयकोसिया दुसिया। तेयस्सीण वि तेओ विगओ विलयं गया दोसा ।। १२८ ॥
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